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ब्रह्मविलास में मिच्छत्ताविरदिपमाद, जोगकोहादओ सविण्णेया ॥ पणपणपणदहतियचदु, कमसो भेदा दु पुत्र्वस्स ||३०|| मात्रिक कवित्त. पांच मिथ्यात पांच है अत्रत, अरु पंद्रह परमादहिं जान । मनवचकाय योग ये तीनो, चतु कपाय सोरहविधि मान ॥ इन्हें आदि परिणाम जाति बहु, भावास्रव सव कहे बखान । ततैं भावकर्मको करता, चिन्मूरत 'भैया' पहिचान ॥ ३० ॥ णाणावरणादीर्ण, जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि ॥ दव्वासवो स ओ, अणेय भेओ जिणक्खादो ॥ ३१ ॥ कवित्त.
ज्ञानावर्णी आदि अष्ट करमनको आयवो, पुग्गलप्रमाणु मिलि नानाभांति थिते हैं । जीवके प्रदेशनिको आयके आछादतु है, कोऊ न प्रकाश लहै, असंख्यात जिते हैं | ऐसो द्रव्य आस्रव अनेकभांति राजत है, ताहीके जु वसि जग बसें जीव किते हैं । कहे सर्वज्ञजूने भेद ये प्रत्यक्ष जाके, वेदै ज्ञानवंत जाके मिध्यामत विते' हैं ॥ ३१ ॥
वज्झदि कम्मं जेण दु, चेदणभावेण भावबंधो सो ॥ कम्मादपदेसाणं, अण्णोष्णपवेसणं इदरो ॥ ३२ ॥ चेतन परिणामसो कर्म जिते बांधियत, ताको नाव भावबंध ऐसो भेद कहिये । कर्मके प्रदेशनिको आतमप्रदेशनिसों परस्परमिलिबो एकत्व जहां लहिये ॥ ताको नाव द्रव्यबंध कह्यो जिनग्रंथनमें, ऐसो उभै भेद बंध पद्धतिको गहिये । अनादिहीको जीव यह बंधसेती बँध्यो है, इनहीके मिटत अनंत सुख हिये ॥ ३२ ॥ पैं
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(१) 'अणेय भेदो' ऐसा भी पाठ है । (२) बीता है । (३) ' वहिये 'पाठभी है।
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