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ब्रह्मविलास में
तबै ज्ञान निजनाथपै, भेज्यो सम्यक वेग ||
कहो बधाई जीतकी, अरु पुनि यह उद्वेग ॥ १४७ ॥ बहुरि मिले वे दुष्ट सव, आये पुरके माहिं ॥
रिवेकी मनसा करें, भागनकी बुधि नाहिं ॥ १४८ ॥ इहि विधि सम्यकभाव सव, कही जीव जाय ॥ सुनिकें प्रबलप्रचंड अति, चढ्यो सुचेतनराय ॥ १४९ ॥ महा सुभट बलवंत अति, चढ्यो कटक दल जोर ॥ गुण अनंत सब संग है, कर्म दहनकी ओर ॥ १५० ॥ आय मिले सब ज्ञानसे, कीन्हों एक विचार ॥
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अवकें युध ऐसो करहु, बहुरि न वचै गँवार ॥ १५१ ॥ चढे सुभट सब युद्धको, सूरवीर बलवंत ॥
आये अंतर भूमि महिं, चेतन दल सुअनंत ॥ १५२ ॥ सोरठा.
रोपि महारण थंभ, चेतन धर्म सुध्यानको ।
देखत लगहि अचंभ, मनहिं मोहकी फौजको ॥ १५३ ॥ दोहा.
दोऊ दल सन्मुख भये, मच्यो महा संग्राम ॥ .
इत चेतन योधा बली, उतै मोह नृप नाम ॥ १५४ ॥ करखा छंद.
मोहकी फौजसों नाल गोले चलें, आय चैतन्यके दलहि लागें ॥ आठ मल दोष सम्यक्त्व के जे कहे, तेहि अत्रत्तमें मोह दागें ॥ १५५॥ जीवकी फौजसों प्रवल गोले चलें, मोहके दलनिको आय मारें ॥ अंतर विरागके भाव बहु भावता, ताहि प्रतिभास ऐसो विचारें १५६
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1) शंकादि । ( २ ) आंतरिक वैराग्य ।
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