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परमात्मशतकं.
तैसे ज्ञान उदोतसों, होय तिमिरको नाश ॥ ३९ ॥ चार माहिं जोलों फिरे, धेरै चारसों प्रीति ॥ तौलों चार लखै नहीं, चार खूंद यह रीति ॥ ४० ॥ जे लागे दशबीससों, ते तेरह पंचास ॥ सोरह वासठ कीजिये, छांड चारको वांस ॥ ४१ ॥ विधि कीजे विधि भाव तज, सिद्ध प्रसिद्ध न होय ॥ यह ज्ञानको अंग है, जो घट बूझ कोय ॥ ४२ ॥ वारे व्यसन को नृपति जो, प्रभु जुआ तो ज्ञान ॥ तुम राजा शिवलोकके, वह दुरमतिकी खान ॥ ४३ ॥ आप अकेलो ब्रह्म मय, परयो भरमके फंद ॥ ज्ञानशक्ति जानें नहीं, शिवस्वरूपके लखतहीं, शिवसुख होय अनन्त ॥ शिव समाधिमें रम रहे, शिव मूरति भगवंत ॥ ४५ ॥ (४०) जीव जब तक चार माहिं अर्थात् चार गतीन ( देव, मनुष्य नरक, तिर्यच ) में फिरता है और चार ( क्रोध, मान, माया, लोभ ) में प्रीति रखता है, तब तक चार अनन्त चतुष्टय ( अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तवल; अनंतवीर्य ) को प्राप्त भी नहीं कर सक्ता अर्थात् कर्मोंसे रहित नहीं हो सक्ता है, यह चार खूंटकी रीति है.
कैसे होय स्वछंद ॥ ४४ ॥
(१) सात.
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(४१) जो दश + वीस-तीस कहिये तृष्णासे अथवा खीसे अनुरक्त हुए. वह तेरह+पंचास+कहिये तेसठ हैं अर्थात् मूर्ख हैं. इसलिये सोलह + बासट + अठहत्तर कहिये आठ कर्मोंको हतकर तर कहिये तिरो और चार गतिनका बास छोड दो (इसमें संख्या शब्दोंसे श्लेष रूप द्वितीय अर्थ ग्रहण कर कविने चतुराई दिखाई है. )
Hirab prap
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