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.... पुण्यपापजगमूलपचीसी. पुण्य पाप विन जीव, न कोई पाइये।
औरनकी कहा चली, जिनेश्वर गाइये। येही जगके मूल, कहे समुझायके। . ___ जो इनसेती भिन्न, वसे शिव जायके ॥ १९॥
कवित्त. है कर्मनके हाथ ये विकाये जग जीव सर्वे, कर्म जोई करै सोई। १ इनके प्रमान है । वैक्रिय शरीर पाय देव आप मान रहे, देवनकी ?
रीति करै सुनै गीत गान है । औदारिक देह पाय नर नारी रूप, भये, कीन्हीं वह रीति मानों पिये मद पान है । नरकमें गये। तहां नारकी कहाये आप, एसोचिदानंद भैया देख्यो ज्ञानवान है ॥२०॥
दोहा. राम श्याम कित होत है, सो गति लहै न गूढ ।। धोय चामकी देहको, शुचि मानत है मूढ़ ॥ २१॥ कहा चर्मकी देहमें, परम परे हो आन ॥ देखो धर्म संभारिके, छांड भरमकी बान ॥ २२ ॥ करम करत है भरमतें, धरम तुम्हारो नाहिं ॥ परम परीक्षा कीजिये, शरम कहा इहि माहि ।। २३ ।। करन भरना होयगो, परन नरकके माहि ॥ ज्ञान चरनके धरन विन, तरन तुम्हारो नाहिं ॥ २४ ॥ सरन सदा ढूंढत रहै, मरन बचावहि कोय ॥
डरन पान निकसे परें, तरन कहांसों होय ॥२५॥ . (१) इन्द्रिय. wovenapsowPROM/RE ROOPRASPARRORapearan
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