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श्रीसिद्धस्तुति छप्पय छन्दः अचल धाम विश्राम, नाम निहचै पद मंडित । यथाजात परकाश, बास जहँ सदा अखंडित ॥ भासहि लोकालोक, थोक सुखसहज विराजहिं।
प्रणमहि आपु सहाय, सर्वगुणमंदिर छाजहिं ॥ इहविधि अनंत जिय सिद्धमहि, ज्ञानप्रान विलसंत नित । तिनतिन त्रिकाल वंदत"भविक भावसहित नित एकचित॥३॥
श्रीआचार्यजीकी स्तुति छप्पय छन्द. पंच परम आचार, ताहि धारहि आचारज । ज्ञान चार संयुक्त, करत उत्तम सब कारज || देत धर्म उपदेश, हेत भविजीय विचारत । जिनवानी जो खिरत, सुतौ निज हिरदै धारत ॥ कहत अर्थ परकाशके, केवलपद महिमा लखत । जुगसाधुमध्यपरधानपद, आचारज अमृत चखत ॥ ४॥
___श्रीउपाध्यायस्तुति कवित्त. द्वादशांगवानी सुबखानी वीतराग देव, जानी भन्यजीवन है अनादिकी कहानी है । ताके पाठ करिवेको भेद हुदै धरिवेको,
अर्थके उचरिवैको पंडित प्रमानी है ॥ पर समुझायवेको ज्ञान उपजायवेको, रूपके रिझायवेको निपुण निदानी हैं । याहीते है हे प्रमाण मानी सत्य उवझायवानी, 'भैया' यो वखानी जाकी है मोक्षवधू रानी है ॥५॥
श्रीमुनिराजकी स्तुति. दहिकै करम अघ लहिक परममग, गहिकें धरमध्यान ज्ञानकी हूँ लगन है । शुद्ध निजरूप धरै परसों न प्रीति करै, बसत शरीरपैं। Ewapapapwroopcppropapermanappeopeopens
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