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అటు ब्रह्मविलासमे
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आस्रव परसों कीजे प्रीत । तातें बंध वढहि विपरीत ॥ पुद्गल तोहि अपनपो नाहिं | तू चेतन वे जड़ सव आहि ॥ ८ ॥ संवर परको रोकन भाव । सुख होवेको यही उपाय ।। आवे नहीं नये जहां कर्म । पिछले रुकि प्रगटै निजधर्म ॥९॥ थिति पूरी है खिर खिर जाहिं । निर्जरभाव अधिक अधिकाहिं ॥ निर्मल होय चिदानंद आप । मिटै सहज परसंग मिलाप || १० लोकमांहि तेरो कछु नाहिं । लोक आन तुम आन लखांहिं ॥ वह पट दर्शनको सब धाम । तू चिनमूरति आतम राम ॥ ११ दुर्लभ पर दर्बनिको भाव । सो तोहि दुर्लभ है सुनि राव ॥ जो तेरो है ज्ञान अनंत । सो नहिं दुर्लभ सुनो महंत ॥ १२ धर्म सुआप स्वभावहि जान । आप स्वभाव धर्म सोई मान ॥ जब वह धर्म प्रगट तोहि होय । तब परमातम पद लखि सोय १३ सार । तीर्थंकर भावहिं निरधार ॥ लेहिं । तव भवभ्रमन जलांजुलि देहिं १४ अनूप । भावत होहु चरित शिवभूप ॥ सुख अनंत विलसह निशदीस । इम भाख्यो स्वामी जगदीस १५
येही बारह भावन है वैराग महाव्रत 'भैया' भावहु भाव
इति बारह भावना.
अथ कर्मबंध दशभेद लिख्यते । दोहा.
श्री जिनचरणाम्बुजप्रतै, वंदहुं शीस नवाय ॥ कहूं कर्मके बंधको, भेद भाव समुझाय ॥ १ ॥ एक प्रकृति दश विधि बँधै भिन्नभिन्न तंस नाम ॥