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चारहभावना. सुख अनंत प्रगटै इहि ध्यान । तातै जिनप्रतिमा परधान ॥१३॥ जिनप्रतिमा जिनवरणे कही। जिन सादृशमें अंतर नहीं.॥ सव सुरवृंद नंदीश्वर जाय । पूजहि तहां विविध धर भाय १४ 'भया' नितपति शीस नवाय। वंदन करहि परम गुण गाय ॥ है इह ध्यावत निज पावत सही । तो जयमाल नंदीश्वर कही १५
इति नंदीश्वरजयमाला.
अथ वारहभावना लिख्यते ।
चौपाई. पंच परम पद वंदन करों । मन वच भाव सहित उर धरों ॥ वारह भावन पावन जान । भाऊं आतम गुण पहिचान ॥१॥ थिर नहिं दीखहि नैननि वस्त । देहादिक अरु रूप समस्त ॥ थिर विन नेह कौनसों करों । अथिर देख ममता परिहरों ॥२६ असरन तोहि सरन नहिं कोय । तीन लोकमहिं गधर जोय ॥3 कोऊन तेरो. राखन हार । कर्मनवस चेतन निरधार॥३॥ है अरु संसार भावना एह । परद्रव्यनसों कीजे नेह ॥ तू चेतन वे जड़ सरवंग । तातें तजहु परायो संग ॥ ४॥ एक जीव तूं आप त्रिकाल । ऊरध मध्य भवन पाताल ॥ दूजो कोऊ न तेरी साथ । सदा अकेलो फिरहि अनाथ ॥५ भिन्न सदा पुद्गलते रहै । भवुद्धि” जड़ता गहै। वे रूपी पुद्गलके खंध । तू चिनमूरत सदा अबंध ॥६॥ अशुचि देख देहादिक अंग। कौन कुवस्तु लगी तो संग॥
अस्थी मांस रुधिर गद गेह । मलमूतन लखितजहु सनेह ॥७॥ HoronpranpooranROSCOPEDIAnoopponempoopeat
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