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पंग-123
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बाईसपरीसहनके कवित्त.
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इम सहत कष्ट मुनि ज्ञानके, होहिं परीसह प्रबलजिय । तिहँ जीत प्रीति निजरूपसों, लहत शुद्ध अनुभूत हिय ॥ २४ ॥ २०. प्रज्ञापरीसह - छप्पय ।
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प्रज्ञा वल नहिं होय, तहाँ विद्या नहिं आवै । प्रज्ञा वल नहिं होय, तहां नहिं पढे पढावै ॥ प्रज्ञा प्रवल न होय, तहाँ चर्चा नहिं सूझै । प्रज्ञा प्रवल न होय, तहाँ कछु अर्थ न बूझे ॥ इम बुद्धि विशेष न होय जित, तित अनेक परिसह सहत । 'भैया' त्रिकाल मुनिराज तिहँ, जीत शुद्ध अनुभौ लहत ॥ २५ ॥ २१. अदर्शनपरीसह - छप्पय ।
समय प्रकृति मिथ्यात, जासु उरतें नहि टरई । सो जिय है गुनवंत, तथा वेदक पद धरई ॥ दर्शन निर्मल नाहिं, मोहकी प्रकृति लखावै ।
है अदर्शन कष्ट, कहत कैसे बन आवै ॥ परिणाम खेद बहुविधि करत, तौ हू निर्मल होय नहिं । 'भैया' त्रिकाल मुनिराज तिहँ, जीत रहै निज आप महिं ॥२६ २२. अलाभपरीसह - कवित्त.
अंतराय कर्मके उदैतैं जो अलाभ होय, ताके भेद दोय कहे निचै व्यवहार है । निश्चै तो स्वरूपमें न थिरता विशेष रहै, वह अंतराय जो रहै न एक सार है । व्यवहार अंतराय मिलै न अहार योग, और हू अनेक भेद अकथ अपार है । ऐसें तौ अलाभ की परीसहको जीत साधु, भये हैं अतीत 'भैया' वंदे निरधार है ।। २७ ।।