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इव्यसंग्रह.
अथ द्रव्यसंग्रह मूलसहित कवित्तबन्ध लिख्यते । मंगलाचरण. आर्याछंद.
जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिहिं | देविंदविददं वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥ १ ॥ छप्पयचंद.
सकल कर्मक्षय करन, तरन तारन शिव नायक । ज्ञान दिवाकर प्रगट, सर्व जीवहिं सुखदायक ॥ परम पूज्य गणधरहु, ताहि पूजित - जिनराजे । देवनिकं पति इन्द्र वृंद, चंद्रित छवि छाजे ॥ इह विधि अनेक गुणनिधिसहित, वृषभनाथ मिथ्यात हर । तमु चरण कमल वंदित भविक, भावसहित नित जोर कर || १ || दोहा.
तिहँ जिन जीव अजीवके, लखे सगुण परजाय ।
कहे प्रगट सब ग्रंथम, भेदभाव समुझाय ॥ १ ॥ जीवो उवओगमओ, अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भुत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो बिस्ससोडुगई ॥ २ ॥
कवित.
जीव हैं सुज्ञानमयी चेतना स्वभाव धरें, जानिवो औ देखियो अनादिनिधि पास है । अमूर्त्तिक सदा रहे और सोन रूप है, निचैन प्रवान जाक आतम विलास हैं | व्योहारनय कर्त्ता है देहके प्रमान मान, भुक्ता सुख दुःखनिको जगमें निवास है । शुद्ध नैं विलोके सिद्ध करम कलंक विना, ऊर्द्धको स्वभाव जाको लोक अग्रवास हैं ॥ २ ॥
(१) 'ओसा' ऐसा भी पाठ है।
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