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ब्रह्मविलास .
मात्रिक कवित्त.
जे परिणाम होंहि आतमके, पुग्गल करम खिरनके हेत । अपनों काल पाय परमाणू, तप निमित्त तजत सुर्खेत || तिहँ खिरिचैके भाव हाँहि बहु, ते सव निर्जरभाव सुचेत । पुग्गल खिरै सुद्रव्य निर्जरा, उभयभेद जिनवर कहिदेत ॥३६॥ सव्वस्स कम्मणो जो, खय हेदू अप्पणो क्खु परिणामो ॥ वो सभावमोक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मेपुध भावो ३७ छप्पय छंद. सकल कर्म छय करन, भाव अंतरगत राजे । तिन भावनियों कहत, भाव यह मोक्ष सु छाजै ॥ दर्वमोक्ष तहाँ लहत, कर्म जहां सर्व विनासें । आतमके परदेश, भिन्न पुद्गलत भासें ॥ इहविधि सुभेद द्वै मोक्षके, कहे सु जिनपथ धारिकं । यह द्रव्य भावविधि सरदहत, सम्यकवंत विचारिकं ॥ ३७ ॥ सुहअसुहभावजुत्ता, पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा ॥ सादं सुहाउ णामं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥ ३८ ॥ कवित्त.
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शुभभाव तहां जहां शुभ परिणाम होहिं जीवनिकी रक्षा
अरु व्रतनिकों करियो । तातें होय पुण्य ताको फल सातावेदनीय, शुभ आयु शुभगोत बहु सुख वरिवो ॥ अशुभ प्रणामनितें जीव हिंसा आदि बहु, पापके समूह होंय संकृतको हरिवो । वेदनी असाता होय छिनकी न साता होय, आयु नाम गोत सब अशुभको भरिवो ॥ ३८ ॥
इतिश्रीसप्ततत्वनवपदार्थ प्रतिपादकनामा द्वितीयोऽधिकारः ॥ २ ॥
(१) 'पुह' ऐसा भी पाठ है. ।
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29 पत्रक G
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