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अनादिवत्तीसिंका. वनस्पती फूलै फलै, ऋतु वसंतके होत ॥ को सिखवत है वृक्षको, इहि दिन करो उदोत ॥ १५ ॥ वर्पत है जल धरनिपर, उपजत सब बनराय॥ अपने अपने रस वटैं, यह अनादि स्वभाय ॥ १६ ॥ जो पहिले कहो वृक्ष है, तौ न बनै यह वात ॥ विना बीज उपज नहीं, यह तो प्रगट विख्यात ॥ १७ ॥ है
कहो वीज है, बीज भयो किह और ॥ यह वात नहिं संभवै, है अनादि की दौर ॥१८॥ को सिखवत है नीरको, नीचेको ढर जाय ॥ अग्निशिखा ऊंची चलै, यह अनादि स्वभाय ॥ १९ ॥ कहो मीनके वालकों, को शिखवत है वीर! ॥ जन्मत ही तिरवो तहां, महा उदधिके नीर ॥ २० ॥ कौन सिखावत बालको, लागत मा तन धाय ॥ क्षुद्धित पेट भरै सदा, यह अनादि स्वभाय ॥२१॥ पंछी चलै अकाशमें, कौन सिखावन हार॥ यहै अनादि स्वभाव है, वन्यों जगत विस्तार ॥ २२ ॥ कौन सांपके वदनमें, विष उपजावत वीर! ॥ यह अनादि स्वभाव है, देखो गुण गंभीर ॥२३॥ कहो सिंहके वालको, सूरपनो कब होत ॥ कोटि गजनके पुंजको, मार भगावै पोत ॥ २४ ॥ पृथिवी पानी पौन पुन, अग्नि अन्न आकास ॥ है अनादि इहि जगतमें, सर्व द्रव्यको वास ॥ २५ ॥ अपने अपने सहज सब, उपजत विनशत वस्त ॥
है अनादिको जगत यह, इहि परकार समस्त ॥ २६ ॥ WOROPOWROORDERROADCORROppoPower
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