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depornpan/RAS/PARE ब्रह्मविलासमें
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मोह नींदको त्याग, जे जिय भये सचेत ।। ते. जागे संसारमें, अविनाशी सुख लेत ॥ १४॥ अविनाशी पद ब्रह्मको, सुख अनंतको मूल । जाग लह्यो जिहँ जगतमें, तिहँ पायो भवकूल।। १५ ॥ अविनाशी घट घट प्रगट, लखतन कोऊताहि ॥ सोय रहे भ्रम नींदमें, कहि समुझावें काहि ॥ १६ ॥ आप कहै हम दक्ष हैं, और न कहै अज्ञान ॥ अहो सुपनकी भूलमें, कहा गहै अभिमान ॥ १७ ॥ मान आपको भूपती, औरनसों कह रंक ॥ देख सुपनकी संपदा, मोहित मूढ निशंक ॥१८॥ देख सुपनकी साहिवी, मूरख रह्यो लुभाय ॥ छिन इकमें छय जायगी, धूम महलके न्याय ॥ १९ ॥ कहा सुपनकी साहिवी, मूरख हिये विचार ॥ जम जोधा छिन एकमें, लेहैं तोहि पछार ॥२०॥ सोवतमें इह जीवको; सुरति रहै नहिं रंच ॥ आप कछू मानै कछू, सवहि भरम परपंच ॥ २१॥ मूरख है यह आतमा, क्यों ही समझत नाहि ॥ देख सुपनवत आंखसों, बहुर मगन तिह माहि ॥ २२॥ जानत है जमराजकी, आवत फौज प्रचंड ॥ मार कर इह देहको, छिनक माहिं शत खंड ॥ २३ ॥ ऐसे जमको भय नहीं, पोषत तन मन लाय॥ तिनसम मूरख जगतमें, दूजो कौन कहाय ॥ २४ ॥ मूरख. सोवत जगतमें,. मोह गहलतामाहि ॥:.
जन्म मरन बहु दुख सहै, तो हू जागत नाहिं ॥ २५॥ HWowNepmenopauwenpoweOORDARPAPVT
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