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जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया मुनिकुमुदचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं
हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहितम् .
अन्तकृतदशांकसूत्रम्। ( ANTAKRITA DASHANGA SUTRA )
नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः ।
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.: प्रकाशकः । अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समिति-प्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः
मु० राजकोट (सौराष्ट्र)
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द्वितीया आवृत्तिः प्रति १००० वीर संवत् २४८४
विक्रमसंवत् २०१४ ईस्वीसन् १९५८
मूल्यम् रू. ८-५०
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: પ્રા સિ સ્થા ન :
શ્રી અ. ભા. છે. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્વાર સમિતિ ગ્રીન લેાજ પાસે, રાજકાય.
*
ખીજી આવૃત્તિ : પ્રત ૧૦૦૦
વીર સંવત :
૨૪૮૪
વિક્રમ સંવત : ઇસ્વી
૨૦૧૪
સઃ
૧૯૫૮
*
મુદ્રક અને મુદ્રણુસ્થાન : જય તિલાલ દેવચંદ મહેતા જ ય લા ૨ ત પ્રે સ, ગ ૨ ડી આ કુ વા રાડ, શાક મારકીટ પાસે, રાજકોટ,
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विषय
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. ॥श्रीः ॥ ॥ अथ अन्तकृतदशाङ्गसूत्र की विषयानुक्रमणिका ।। अनुक्रमाङ्क विषय
___पृष्ठसंख्या मङ्गलाचरण ।
१-२ पूर्वाङ्ग के साथ इस अङ्ग के सम्बन्धका निरूपण । २ - ३ चंपानगरी का वर्णन । सुधर्मास्वामी का चम्पानगरी म समवसरण । जम्बूस्वामी का प्रश्न ।
११-१२ सुधर्मास्वामी का उत्तर ।
१२--१४ जम्बूस्वामी का प्रश्न । द्वारावती का वर्णन ।
१५-१७ रैवतक-पर्वत-आदि का और कृष्णवासुदेव का वर्णन । १७-२२ गौतम का जन्मादिसे लेकर विवाहपर्यन्तका वर्णन। २२-२४ गौतम की मत्रज्या।।
२४-२७ ___गौतम की सिद्धि-प्राप्ति।
२७-२९ समुद्रादि-विष्णुपर्यन्त को सिद्धिगति की प्राप्ति । ३०-३२ अक्षोभादिक का वर्णन
३२-३४ १५ अणीयससेन का वर्णन ।
३५-४३ अनन्तसेनादि का और सारण का वर्णन
४४-४६ १७ छह अनगारों का वर्णन ।
४६-५८ देवकी का मानसिक विचार, और अर्हद् अरिष्टनेमि के समीप गमन।
५९-६२ देवकी के संशयनिवृत्ति के लिये उनके प्रति भगवान का वचन ।
६२-६७ देवकी देवी का वात्सल्य ।
६८-७० देवकी का मानसिक संकल्प ।
७१-७३ देवकी और श्रीकृष्ण का संवाद ।
७३-७५ कृष्ण का हरिणैगमेषी देव की आराधना । ৩৪-৩৩
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॥ अन्तकृतदशाङ्गसूत्र की विषयानुक्रमणिका ॥ अनुक्रमाङ्क विषय -
पृष्ठसंख्या कृष्ण को वरप्राप्ति और कृष्ण का देवकी देवी के समीप वरमाप्ति का सन्देश कहना ।
७८-८० गजसुकुमाल का जन्मादिवर्णन ।
८१-८२ सोमिलबाह्मण पुत्री सोमा का वर्णन ।
८३ अरिष्टनेमि के दर्शन के लिये कृष्ण का जाना । ८४-८५ अरिष्टनेमि के दर्शन के लिये जाते हुए कृष्ण का मार्ग में सोमिल--ब्राह्मण-पुत्री सोमाको देखना, और गजसुकुमाल की पत्नी-रूपसे सोमाका वरण करना। ८६-८८ गजसुकुमाल का दीक्षाग्रहण करने का विचार। ८८-९१ गजसुकुमाल का राज्याभिषेक और दीक्षा ग्रहण करना। ९१-९४ गजसुकुमाल की श्मशानमें ऐकरात्रिकी महाप्रतिमा। ९४-९६ सोमिलब्राह्मण का दुर्विचार। ..
९७-९९ सोमिलब्राह्मण का गजसुकुमाल के मस्तक उपर : अङ्गार रखना।
९९-१०१ गजसुकुमाल की सिद्धिपद की प्राप्ति । १०१-१०४ कृष्णका अर्हत् अरिष्टनेमि के पास वन्दना करने के
१०४-१०७ कृष्णद्वारा की गई वृद्ध पुरुप की सहायता । १०७-१०९ गजसुकुमाल के विषय में कृष्ण और अरिष्टनेमि का संवाद ।
१०९-११५ कृष्ण का द्वारका में प्रवेश और सोमिल का उनके .. समीप आना।
११५-११७ सोमिल का मरण ।
११७-११९ सुमुख कुमार का वर्णन। . . १२०-१२२ दुर्मुखादि कुमारोंका वर्णन।' . . . . .
१२३-१२४ पद्मावती का वर्णन। .. .. १२५-१२७
लिये जाना।
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४२।
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॥ अन्तकृतदशाङ्गसूत्र की विषयानुक्रमणिका ॥ अनुक्रमाङ्क विषय
- पृष्ठसंख्या ४३ जालिकुमारादि का वर्णन। ..... . १२७-१३१ । ४४. . . पञ्चम वर्ग में रहे हुए अध्ययनों का नामनिर्देश । १३२-१३३ ४५ अरिष्टनेमि का आगमन, कृष्ण और पद्मा
वती का उनके दर्शन के लिये जाना, और द्वारका के विनाश के विषय में कृष्ण और अरिष्टनेमि का संवाद।
१३४-१३७ कृष्ण का आध्यात्मिक विचार। . . १३७-२४० वासुदेव की प्रव्रज्या के अभाव का कारण । १४१-१४३ कृष्ण का अपने विषय में प्रश्न ।
१४२-१४३ अरिष्टनेमि-द्वारा भावी तीर्थंकर के रूप में कृष्ण की । उत्पत्ति का निर्देश।
१४३-१४५ कृष्ण-द्वारा द्वारका में लोगों को प्रव्रज्या लेने की
घोषणा करने के लिये कौटुम्विक पुरुषों को आदेश । १४५-१४९ . .. .. . कौटुम्बिकों द्वारा कृष्ण की आज्ञा की घोषणा। . १४९ पद्मावती का दीक्षासमारोह ।
१५०-१५२ पद्मावती का दीक्षाग्रहण करना। .
१५२-१५७ पद्मावती की सिद्धिगतिप्राप्ति ।
१५८-१५९ गौरी-आदि का दीक्षाग्रहण और सिद्धिपद की प्राप्ति । १६०-१६२ मूलश्री-मूलदत्ता का चरित्र ।
१६२-१६४ षष्ठवर्ग का प्रारंभ।
१६५-१६६ मङ्काई और किङ्कम का चरित्र । . . १६६-१७० मुदगरपाणि-यक्षायतन का वर्णन। .
१७०-१७२ अर्जुन के दिनकृत्य का वर्णन ।
१७३-१७४ अर्जुन का पत्नी के साथ पुष्प बीनने के लिये जाना। १७४-१७६ . गौष्ठिक पुरुषों का बन्धुमती के प्रति दुर्भाव । १७६-१७८
गौष्ठिक पुरुषों द्वारा वन्धुमती का शीलध्वंस और अर्जुन का .. - यक्ष के अस्तित्व में अविश्वास ।
समाप्त।
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॥ अन्तकृतदशाङ्गसूत्र की विषयानुक्रमणिका ॥ अनुक्रमाङ्क विपय
पृष्ठसंख्या अर्जुन में प्रविष्ट यक्षद्वारा वन्धुमती-सहित छ गौष्टिक पुरुपों का विनाश ।
१८०-१८२ श्रेणिक राजा-द्वारा प्रजा को नगर से बाहर नहीं जानेकी घोपणा कराना ।।
१८२-१८४ भगवान महावीर का समवसरण ।
१८४-१८७ भगवान के दर्शनके लिये जानेकी इच्छाबाले सुदर्शन सेठ का अपने मातापिता के साथ संबाद। १८७-१८९ भगवान के दर्शन के लिये जाते हुए सुदर्शन के समीप यक्ष का आना।
____१९०-१९१ सुदर्शन सेठ का साकारप्रतिमा-ग्रहण । १९१-१९४ यक्ष-द्वारा अर्जुन-माली के शरीर का त्याग । १९५-१९६ सुदर्शन और अर्जुनमाली का परिचय । १९७-१९८ सुदर्शन और अर्जुनमाली का भगवान् के दर्शन के . . . लिये जाना।
१९८-२०० अर्जुनमाली का दीक्षा और अभिग्रह का ग्रहण करना । २००-२०२ लोगों द्वारा अर्जुन अनगार की निन्दा करना। २०२-२०४ अर्जुन अनगार का दूसरों द्वारा की गई निन्दा आदि सहन करना।
२०४-२०६ अर्जुन अनगार की सिद्धिपदप्राप्ति ।
२०७-२०८ मङ्काई-प्रभृति का चरित्र ।
२०८-२१३ अतिमुक्त अनगार का चारित्र ।
२१३-२२७ अलक्ष्य राजा का चरित्र ।
२२७–२३० नन्दा का चरित्र ।
२३१-२३४ अष्टम वर्ग का उपक्रम ।
२३५-२३७ कालीदेवी का चरित्र । सुकालीदेवी का चरित्र ।
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.. .. . .. २५२
.. २५२-२५४
२
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७९.
. २३७-२५१
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अनुक्रमाङ्क
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॥ अन्तकृतदशाङ्गसूत्र की विषयानुक्रमणिका ॥
विषय
महाकाली का चरित्र |
कृष्णा देवी का चरित्र । सुकृष्णादेवी का चरित्र |
महाकृष्णादेवी का चरित्र ।
वीरकृष्णादेवी का चरित्र ।
रामकृष्णादेवी का चरित्र ।
पृष्ठसंख्या
२५५-२५९
२६०-२६१
२६२-२६८
२६८-२७२
२७३-२८०
२८०-२८४
पितुसेनकृष्णा का चरित्र |
महासेनकृष्णा का चरित्र ।
शास्त्रोपसंहार ।
शास्त्रप्रशस्ति ।
॥ इति अन्तकृतदशाङ्गसूत्र की विषयानुक्रमणिका सम्पूर्ण ॥
२८४-२८९
२८९-२९५
२९५-२९७
२९७
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એક અપીલ
આપ ગચ્છાધિપતિ હૈ....કે સંઘપતિ હો. સાધુ મહાત્મા છે....કે શ્રાવક છે.
પરંતુ, આ શુભકાર્યમાં મદદ કરવાની આપની દરેકની ચેસ ફરજ છે. કારણ કે આપણું સમાજના ઉત્થાનના આવા ભગીરથ કાર્યમાં આપને જેટલું વધુ સહકાર મળશે તેટલું
કાર્ય વહેલું પૂર્ણ થશે.
ઘડી ઘડી આવાસંતને ભેટે થ દુર્લભ છે.
૩ર સૂવે જલ્દીથી તૈયાર કરાવી લેવાય તેની કાળજી રાખવાની છે, અને તેથી જ આપશ્રીને
અપીલ કરવામાં આવી છે.
સમગ્ર સમાજનું કાર્ય થતું હોય ત્યાં સાંપ્રદાયકવાદ કે પ્રાંતવાદ નજ હોવો જોઈએ.
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॥ श्रीः ॥ अंतगडसूत्र (अन्तकृतसूत्र) की
... प्रस्तावना
इस वर्तमान चतुर्विंशति शासन में ऐसे ऐसे महापुरुष अनेकानेक हुए कि, जिन्होंने जीवनको आदर्श बनाकर अपने आपको विश्व में धन्य वना गए । उन महापुरुषोंने जीवनको धन्य बनाने के लिए उचित से उचित "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" को ही पसंद किया। कहा है
हयं नाणं कियाहीणं हया अण्णाओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो धावमाणो य अंधओ ॥१॥ छाया-हतं ज्ञानं क्रियाही हता अज्ञानतः क्रिया ।
पश्यन् पङ्गुर्दग्धः धावमानश्च अन्धकः ॥ १॥ - उन्होंने शास्त्रोक्त प्रकारसे ज्ञानक्रियाराधन द्वारा मोक्ष प्राप्त करने में चतुर्गतिक दुःखका अन्त देखा, इस प्रकार मुक्तदशा को प्राप्त करने के लिये 'ज्ञानक्रिया' उभय को जीवन सफलताका आधार समझकर स्वलक्ष्य सिद्धि के लिये तप संयममय जीवन जीने को इस क्षणभंगुर अनित्य संसार का त्याग करके वे विशुद्ध संयमी बने । संयमी होने के बाद अपनी आत्मा को कर्म शत्रु के घेराव में से मुक्त करने के हेतु उन महारथियोंने क्षमा तप आदि साज से सज्जित हो कर्मों पर विजय प्राप्त करने के लिये साहसिक वनकर आगे से आगे इतने बढे कि बेचारे कम हैरान होकर भाग खडे हुए । कौं पर विजय प्राप्त करने में उन वीर पुरुषों की दौड .
इतनी आगे रही कि जिससे सारा संसार पीछे रह गया और वे अपने .. इष्ट स्थान मोक्ष क्षेत्र में पहुंचकर अनादिकाल की जन्म जरा मरण की व्याधि - का अन्त कर दिया। ......... . . . .
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उन मोक्ष प्राप्त आप्त पुरुषों का जन्म इस संसार में स्वपर कल्याण को प्रकट करने के लिये हुआ था, उन धीरवीर पुरुषों के विचार दृढ और साहसपूर्ण थे, उनका हृदय और आचरण अति उज्ज्वल था, उनकी भावनायें महान और विशुद्धतर थी, उनका त्याग अचल और अटल था, उनका वैराग्य उत्तुंग हेमगिरिवत् अकंप और निश्चल था, उनका संयमाराधन निर्दोष शुद्ध स्फटिक के समान अति निर्मल व सर्वशुद्ध था, मल विहीन तप्त सुवर्ण के समान उनका तप अतिदीप्त व कर्मशत्रुओं के नाश करने में अचूक वाणावलि के सदृश था, उनका निर्मल ज्ञान अगाध व अमाप था ।
जैन शासन के उन तपस्वी मुनियोंने संसार त्याग के पश्चात् ज्ञान द्वारा यह निश्चय किया कि-आत्मा को कर्म मल से रहित करने के लिये तप और संयम जैसा एक भी उपाय नहीं है तो वे अपने शरीर की जरा भी परवाह (यत्न) रखे विना तपस्या में संलग्न हुए । उन्हें अपनी आत्मा का हित जितना प्रिय था उतना शरीर हित प्रिय नहीं था। वे आत्मशुद्धि के लिये तप संयम के आराधन में सदा उत्साहित रहते थे । उन्हें जैसे भी हो जल्दी मोक्ष पहुंचने की अभिलाषा थी, जिससे उन्होंने अप्रमत्त बनकर संयम तप द्वारा आत्मकल्याण किया । .
____उन तपोमय जीवन जीनेवालों की जीवनिकाओं का वृत्तान्त ग्यारह अंग के छ अंगों में भिन्न २ रूप से वर्णित है, परन्तु इस अंतगड सूत्र में तो उन्ही भावितात्माओं का वर्णन है कि, जिन्होंने अपने उसी भव में संयम तप द्वारा अन्तिम अवस्था में सब कमों का अंत करके केवली बनकर मोक्ष को प्राप्त हुए। इस अंतगड सूत्र में आठ वर्ग और नव्वे अध्ययन हैं।
आठ वर्ग के प्रथम वर्ग में (१) गौतम (२) समुद्र (३) सागर (४) गम्भीर () स्तिमित (६) अचल (७) काम्पिल्य (८) अक्षोभ (९) प्रसेनकुमार और (१०) विष्णुकुमार का वर्णन है ।
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द्वितीय वर्ग में (१) अक्षोभ (२) सागर (३) समुद्र (४) हिमवान् (५) अचल (६) पूरय (७) अभिचन्द आदि कुमारों का संक्षिप्त वर्णन है । - तृतीय वर्ग में (१) अणियसेन (२) अनन्तसेन (३) अजितसेन (४) अनिहतरिपु (५) देवसेन (६) शत्रुसेन (७) सारण (८) गजसुकुमाल (९) सुमुख (१०) दुर्मुख (११) कूपक (१२) दारुक (१३) अनादृष्टि का वर्णन है। - चतुर्थवर्ग में (१) जालि (२) मयालि (३) उवयालि (४) पुरुषसेन (५) वारिसेन (६) प्रद्युम्न (७) शाम्ब (८) अनिरुद्ध (९) सत्यनेमि (१०) दृढनेमि का वर्णन है।
पांचवें वर्गमें (१) पद्मावती (२) गौरी (३) गान्धारी (४) लक्ष्मणा (५) सुसीमा (६) जाम्बवती (७) सत्यभामा (८) रुक्मिणी - (९) मूलश्री (१०) मूलदत्ता का वर्णन है । .
छठे वर्ग में (१) मङ्काई (२) किङ्कम (३) मुद्रपाणि (४) ___ काश्यप (५) क्षेमक (६) धृतिधर (७) कैलास (८) हरिचन्दन (९)
वारत्त (१०) सुदर्शन (११) पूर्णभद्र (१२) सुमनभद्र (१३) सुप्रतिष्ठ (१४) मेघ (१५) अतिमुक्त [एवंता] (१६) अलक्ष का वर्णन है । . सातवें वर्गमें (१) नन्दा (२) नन्दमती (३) नन्दोत्तरा (४) नन्दसेना (५) महया (६) सुमरुता, महामरुता (८) मरुदेवी (९) भद्रा (१०) सुभद्रा (११) सुजाता (१२) सुमति (१३) भूतदिन्ना का वर्णन है। . आठवें वर्ग में (१) काली (२) सुकाली (३) महाकाली (४) . कृष्णा (५) सुकृष्णा (६) महाकृष्णा (७) वीरकृष्णा (८) रामकृष्णा (९) पितृसेनकृष्णा (१०) महासेनकृष्णा आदि का वर्णन है इस प्रकार इस सूत्र में नव्वे भुक्तात्माओं का वर्णन है।
इन आठ वर्ग के नव्वे अध्ययनों में प्रथम वर्ग का गौतम नामका '. प्रथम अध्ययन, तीसरे वर्ग का गजासुकुमाल कुंवर का आठवां अध्ययन,
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पांचवें वर्ग का पद्मावती रानी का प्रथम अध्ययन, छट्ठ वर्ग का मुद्रपाणि [अर्जुनमाली] नाम का तीसरा अध्ययन व अतिमुक्त [ एवंता] कुंवर का पन्द्रहवां अध्ययन और आठवें वर्ग के काली सुकाली आदि दसों रानियों के अध्ययन में विस्तृत वर्णन है, शेष पचहत्तर अध्ययनों का वर्णन साधारण और संक्षिप्त है। ..
अंतगड सूत्र की वाचना श्री सुधर्मास्वामीने अपने प्रिय ज्येष्ठ शिष्य श्री जम्बूस्वामी को चम्पापुरी में दी थी। उस समय वहां मगधाधीश श्री कूणिक राजा का राज्य था। भूपति कूणिक भगवान महावीर स्वामी का परम भक्त था, "भगवान कहां विराजते हैं। यह समाचार नित्य प्राप्त करही वह दातून करता था । राजा कूणिकने जैनधर्म के विकास के लिये अपने राज्यमें सर्वत्र सुव्यवस्था अपनी देखरेख में की थी। उसके राज्यकाल में सभी गांव व नगर में जैन गुरुकुल प्रचुर संख्यामें राज्य व्यवस्था से । चलते थे। जैनधर्म पालने वाले साधर्मिकों को कला कौशल सिखाने के लिये उद्योगशालाओं की भी राज्य की तरफ से सर्वत्र व्यवस्था थी। गरीब अनाथ साधर्मियों के भरण पोषण की व्यवस्था स्वयं कूणिक राजा अपने हाथों से करता था। अनेक गांव व नगरों में धर्मध्यान पौषध सामायिक करने के हित राजाने स्थान २ पर पौषधशालाओंका निर्माण कराया था। वह स्वयं अपने हाथों से श्रमण निर्ग्रन्थों को निर्दोष आहार पानी आदि खाद्य पदार्थों का व वस्त्र पात्र आदि उपभोग्य वस्तुओं का भावपूर्वक दान करता था वह अपनी राज्य व्यवस्था के साथ धार्मिक व्यवस्था का भार निभाने में पूर्ण दक्ष था। उन्हों ने अपने राज्य में अमारी घोषणा कराई थी। उसका जीवन धर्म से पूरा ओतप्रोत था। राजा कूणिक की राजधानी चंपानगरी उस समय कला कौशल के कारण चारों ओर प्रसिद्ध थी। उसमें बडे २ धनाढय श्रीमन्त धर्ममय जीवन बनाकर आनन्द से अपना व्यवसाय चलाते हुए रहते थे। ऐसे श्री सुधर्मास्वामीने श्री जम्बू स्वामी को अंतगड सूत्र सुनाया।
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प्रथम वर्ग--.
पहले वर्ग के पहले अध्ययन में द्वारकानगरी का वर्णन है । इस नगरी को श्री कृष्ण महाराजने तेले की तपश्चर्या करके कुबेर देवता द्वारा बसवाई थी । द्वारका का नगरकोट सोनेका बना हुवा था तथा उस पर पांच प्रकार के रत्नों से जडे हुए कंगूरे थे । द्वारका नगर की लम्बाई बारह योजन की, और चौडाई नौ योजन की थी । शहरके अन्दर उत्तुंग भवनों व कतारबंध बाजारों व बाहर बाग बगीचा सरोवर आदि से उसकी अपूर्व शोभा थी । उस शहर में बडे २ राजा; महाराजा योद्धा, साहसिक व माण्डलिक आदि रहते थे । इसके अतिरिक्त बडे २ धनपति सेठ साहुकार भी वहां रहते थे। उस समय वहां विशाल राज्य वैभव युक्त अन्धक वृष्णि राजा और उनकी धारणी नामकी रानी थी । उनके गौतम नामक कुमार थे, जिनका तरुणवय के प्रवेशमें आठ कन्याओं के साथ विवाह हुआ था । वे तरुणवय के मध्य में भोगयुक्त जीवन बिता रहे थे। उसी समय श्री अरिष्टनेमि भगवान पधारे और उनका वैराग्यमय उपदेश सुनकर गौतम कुमार मातापिताकी आज्ञा लेकर दीक्षित हुए । दीक्षा लेने पर गौतम अनगारने सामायिक से ले कर ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया, और वे उपवास, बेला, तेला आदि विविध तपश्चर्या द्वारा कर्म निर्जरा करते हुए विचरने लगे । उन गौतम अनगारने 'मासिक भिक्षु प्रतिमा नामक तप' अंगीकार किया, अनन्तर बारह पडिमा तथा गुणरत्न तप मरके आत्म विशुद्धि के साथ संयमारावन करते हुए अन्तिम समय में एक मासका संथारा करके सर्व कर्म से रहित हो केवलज्ञान केवलदर्शनयुक्त मोक्षस्थान को प्राप्त हुए ।
इसी प्रकार समुद्रकुमार आदि नव कुमारो ने भी गौतमकुमारके समान ही राज्यवैभव युक्त संसार अवस्थाका त्याग कर के दीक्षित बने और उन्हीं के समान संयम तप आराधन करके अन्तिम समय एक मासके संथारेमें केवलज्ञान केवलदर्शनको प्राप्त कर मोक्ष के अधिकारी बने ।
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द्वतीय वर्ग
दूसरे वर्ग में द्वारका के अन्धक विष्णु राजा व धारिणी रानी के अक्षोभ सागर आदि आठ कुमारों का वर्णन है । ये आठों कुमार श्री अरिष्टनेमि भगवान के समीप दीक्षा लेकर गौतम कुमार के समान ही संयम तप द्वारा कर्म क्षय करके केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त हो मोक्ष गए । तृतीय वर्ग
भदिलपुर नगरमें नाग नाम के गाथापति रहेते थे, उनकी पत्नी का नाम सुलसा था । उनके कुमार का नाम अणियसेन था, जो बुद्धिमान व कलाविशारद था । तृतिय वर्ग के प्रथम अध्ययन में इसी कुमारका वर्णन है । तरुणवयके प्रारंभ में कुमारका बत्तीस इभ्य सेठों की कन्याओं के साथ विवाह हुआ और प्रत्येक इभ्य सेठने दहेज में एक एक करोड सोनामोहरें दीं। जब कुमार यौवन वय के मध्य में पूर्ण भोगोपभोगमय जीवन बिता रहे थे तब उन्हें त्यागमय जीवन बनानेका उपदेश देने के लिये वहां श्री अरिष्टनेमि प्रभु प्रधारे । प्रभु के पधारने के समाचार सुनकर अणियसेन कुमार दर्शन व वन्दन के लिये गये और वहां जाने पर भगवान की संसार निस्तारिणी वाणी सुनकर वे दीक्षित हुए । दीक्षा लेने के बाद सामायिक से प्रारंभ करके चौदह पूर्वका अध्ययन किया । बीस वर्ष तक कठोर संयम पालकर अन्तिम समय एक मासका. संथारा करके केवलज्ञान केवलदर्शन पाकर मोक्षको प्राप्त हुए । अनन्तसेन, अजितसेन, अनिहतरिपु, देवसेन और शत्रुसेन आदि पांच कुमार भी अणियसेन कुमार के ही भाई थे । इन सभी भ्राताओंका विवाह भी बत्तीस २ कन्याओं से हुआ और युवावस्था के मध्यमें श्री अरिष्टनेमि भगवान से उपदेश सुनकर दीक्षा धारण की और चौदह २ वर्ष तक चारित्र पालन करके अन्तमें पांचों अनगार एक मास के संथारे के साथ केवलज्ञानको पाकर मोक्ष गए।
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छठे अध्ययनमें-वासुदेव राजा व धारिणी रानी के पुत्र सारणकुमारका वर्णन है । उसका विवाह पञ्चास कन्याओं के साथ हुवा । उसने युवावय में श्री अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर दीक्षा ली। चौदह वर्षकी संयमपर्याय में चौदहपूर्वका अध्ययन किया। बीस वर्षका चारित्रपालन कर अन्तमें एक मासके संथारे के साथ केवलज्ञान पाकर मोक्षको प्राप्त हुए। ... .सातवे अध्ययन में-क्षमाशील गजसुकुमाल मुनिका वर्णन है । श्री अरिष्टनेमि भगवान के अंतेवासी छ अनगार जो एकसा रूप लावण्यवाले थे, वे जबसे दीक्षित हुए तबसे वेले २ की तपश्चर्या का पारंणा करने की प्रतिज्ञा ले के भगवान के साथ विचरने लगे। एक समय ये छओं मुनि प्रभुकी आज्ञा लेकर पारणेके लिये द्वारका में दो दो मुनिका तीन संघाडा बनाके भीक्षाचरी के लिये निकले। उनमें से दो मुनि देवकी महारानी के महलमें गोचरी के लिये प्रथम पधारे, वहां देवकी महारानी दोनों मुनियोंको सिंहकेसरी मोदक जो श्री कृष्ण के कलेवेके लिये बनाये हुए थे, वह बहराए । इसी प्रकार क्रमसे दूसरे समय अन्य दोनों मुनियोंको व तीसरे समय अपर दोनों मुनियोंको पूर्णभावसे मोदक बहराए और अन्त में पीछेसे आए हुए दोनों मुनियोंको देवकी महारानीने सविनय पूछा-'हे भदन्त ! इस समृद्धशाली द्वारकानगरीमें इतने घर होने पर भी क्या कोई भिक्षा देनेका भाव रखनेवाले नहीं है जिससे आपको एकही कुलमें अनेकवार भिक्षाके लिये प्रवेश करना पड़ा, इस प्रश्नके पीछे महारानीके हृदय में यह अंतरवेदना थी कि क्या मेरी प्रजामें मुनियों के प्रति प्रेमभाव व श्रद्धा नहीं रही, जिससे द्वारकामें मुनियोंके एकही कुलमें वारवार प्रवेश करना पडता है।
यह सुनकर पीछे से आए हुए मुनियोंने उसी समय इस प्रकार उत्तर दिया कि-महारानी ! इस महानगरीमें मुनियों को आहार नहीं मिलता, ऐसी बात नहीं है, और हमही तुम्हारे यहां तीनवार आए हैं, यह भी बात नहीं हैं। परन्तु हे देवानुप्रिये! हम छ अनगार सहोदर भाई हैं, हम छओंका देखाव एकसा होने से देखनेवालो को हम जुदे २
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मालूम नहीं देते । हमने जबसे दीक्षा ली तभीसे वेले २ पारणे की तपश्चर्या करनेका अभिग्रह अरिष्टनेमि भगवानके पास लिया । आज हमारे छओ जनों के वेलेका पारणा होने से हम छओ मुनि भगवान की आज्ञा लेकर दो दो मुनि पृथक् २ भिक्षा लेने के लिये निकले तुम्हारे यहां पहले दो मुनि आए वे, तथा पीछे से दो मुनि आए वे, और हम दो सब जुदे २ हैं, हम ही वार २ आए, ऐसा आप न समझें । ऐसा कहकर वे दोनों मुनि चले गए। बादमें देवकी महारानी के हृदय में सन्देह हुआ कि-मुझे बालपनमें अतिमुक्तक मुनिने फरमाया था कि तुम ऐसे आठ पुत्रोंको जन्म दोगी, जिनके समान पुत्रोंको अन्य कोई भी माता जन्म नहीं दे शकेगी, फिरभी मैं प्रत्यक्ष देख रही हैं कि, वैसे पुत्रोंको जन्म देनेवाली अन्य माता भी है। जाऊं मैं श्री अरिष्टनेमि भगवान से अपने हृदयका संशय निवारण करूं। अपने हृद्यमें उत्पन्न संशयका निवारण करना वुद्धिमानका कर्तव्य है, संशय के निवारण किये विना सत्यासत्यका निर्णय नहीं होता। इन्हीं विचारों को लेकर देवकी महारानी भंग- . वानके समीप गई। महारानी वन्दन करके पूछना चाहती है इससे पहेले ही श्री अरिष्टनेमि भगवानने अपने ज्ञान द्वारा महारानी के आनेका कारण जानकर उसी समय फरमाया कि-हे महारानी ! तुम्हें यह विचार हुआ था कि मेरे समान अन्य माता मेरे जैसे पुत्रों को जन्म नहीं देगी। फिर भी मैं प्रत्यक्ष देख रही हूं कि वैसे पुत्रोंको अन्य माताने जन्म दिया हैं, सो अतिमुक्तक कुमारका वचन असत्य हुआ, यह सुनकर देवकी रानी बोली, हां प्रभु ! आप सर्वज्ञ हैं आपसे कोई छुपा हुआ नहीं है। इस प्रकार देवकी महारानी के स्वीकार करने पर अणियसेन आदि छओं अनगारोंका पूर्व वृत्तान्त सुनाकर देवकी महारानी के हृदयको संतुष्ट किया। देवकी महारानीने छओं अनगारों को ये मेरे पुत्र हैं ऐसा भगवान के द्वारा जानकर, उन छओ अनगारों के समीप जाकर वन्दना किया, उस समयका मातृप्रेम का वर्णन अद्वितीय है। पश्चात् देवकी माता अपने घर जाकर विचारने लगी कि,-'मैंने आजतक अपने .
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एक भी पुत्र का लालन पालन का आनन्द व लाडकोड नहीं देखा, इस कारण मैं हतभागिनी हूं। मोह मनुष्यका भान भुला देता है।
मोहवशरानी आर्तध्यान में बैठी हुई थी उसी समय श्री कृष्ण माताको । चन्दन करने के लिये आये और माताको चिन्तातुर देखकर जो ... मातृभक्ति दिखाई वह सर्व आवाल जनताको अनुकरणीय है। .. माताकी इच्छा पूर्ति के लिये श्रीकृष्णने पौषधशालामें तेला करके
हरिणैगमेषि देवकी आराधना करके अपने लघुभ्राताकी याचना की, प्रत्युत्तर में देवने कहा कि तुम्हारे लघुभ्राता होगा परन्तु वह दीक्षित बनेगा यह सुनकर श्री कृष्णने अपनी माताको देववाणी जो सुनाई और तदनुसार गजसुकुमाल कुमारका जन्म हुवा । - एक समय श्री अरिष्टनेमि प्रभुके पधारने पर श्री कृष्ण अपने लघु भ्राताको साथ लेकर वन्दनको जाते हुए रास्तेमें सोमिल ब्राह्मणकी सोमा नामकी कुमारीको देखा, उसकी सुरूपताको कर श्रीकृष्णने अपने लघु भाईके लिये उस कन्याकी याचना कराके भ्रातृप्रेमका आदर्श दिखाया ।
....उधर आगे जाकर अरिष्टनेमि भगवानका उपदेश सुनकर गजसुकुमाल कुमार अपने मातापिता व ज्येष्ठ बांधव श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर दीक्षित हुए। दीक्षित होते ही उसी रोज भगवानकी आज्ञा ले महाकाल स्मशानमे जाके ध्यानमें खडे हो गए। वहां, सूर्यास्त होनेके समय यज्ञार्थ शमी आदि लानेके लिये गये हुए सोमिल ब्राह्मण गजसुकुमाल मुनिको ध्यानस्थ देखकर उस बैरको स्मरण करके तलावकी गीली मिट्टीकी पाल सिर पर बांधकर उसमें चिताके प्रज्वलित अंगारे डालकर वहांसे भाग गया। पश्चात् उन प्रज्वलित अंगारोंकी असह्य वेदना होने पर भी वे क्षमाशील मुनि विशुद्ध भावसे उस महान कष्टको सहन करते हुए सर्वकर्मका क्षय किया और अन्तमें केवलज्ञान पाकर मोक्षको प्राप्त हुए। इस प्रकरणमें हमें धर्मशील पुरुषकी अपने कार्यमें तत्परता व सहनशीलता का बोधपाठ मिलता है। .
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- गजसुकुमाल मुनिका मोक्ष हो जाने पर दूसरे रोज श्रीकृष्ण श्री अरिष्टनेमि भगवानको वन्दन करनेके लिये गये रास्तेमें एक वृद्ध पुरुषको ईटोंके विशाल ढेरमे से एक ईंट उठाकर धृजते, लथडाते लेजाते हुए देखा, उस पर दयादृष्टि लाकर श्रीकृष्णने हाथी पर बैठे हुए ही उन ईंटोंके ढेरमें से एक ईट उठाकर उसके मकानमे रखदी जिससे उनके साथमें रहे हुए हजारों मनुष्योंने भी वैसाही अनुकरण कर सारा का सारा ईटों का ढेर मकानमें पहुंचा दिया। इस प्रकार इस वृत्तान्तमें अपंगो, गरीबों दुखियों के प्रति करुणा भाव प्रगट करनेके लिये हमको बोधपाठ दिया गया है।
___ इस अध्ययनकी समाप्तिमें श्री कृष्णने जब मोक्ष प्राप्त गजसुकुमाल मुनिको नहीं देखकर श्री अरिष्टनेमि प्रभुसे उनके नहीं दिखाई देने का कारण पूछा तो प्रभुने सारा वृत्तान्त इस प्रकार कह सुनाया कि जिससे श्रीकृष्णको अपने मुंहसे सोमिल का नाम जाननेमें भी नहीं आवे और समय पर श्रीकृष्ण उन्हें जान भी लें। इस प्रकार हर एकको प्रमाणिक सत्य बोलनेका उपदेश इस अध्ययनसे प्राप्त होता है।
इस अध्ययनमें मुनियों की शुद्ध भिक्षाचरी, माताका पुत्रके प्रति और पुत्रका माताके प्रति प्रेम, भ्रातृप्रेम, विशुद्ध क्षान्तिभाव, दुःखियोंके प्रति सहृदयता व भाषासमिति की पालना आदिका वर्णन उचित रूपसे पालन करनेको मिलता है।
इसके आगे नवव अध्ययनमें सुमुखकुमार दसवें अध्ययनमें दुर्मुखकुमार ग्यारहवें में कूपदारककुमार बारवें में दारुककुमार और तेरहवें अध्ययनमें अनादृष्टिकुमारका संक्षिप्तमें वर्णन है । चौथा वर्ग
चोथे वर्ग में जालि मयालि आदि दस कुमारों का संक्षिप्त चरित्र वर्णित है, ये आठों कुमार श्री अरिष्टनेमि भगवान प्रभु के समीपे दीक्षा ले विशुद्ध संयम तपद्वारा कर्मक्षय करके मोक्षको प्राप्त हुए।
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पांचवां वर्ग:- - . .. .
. - पांचवें वर्ग के प्रथम अध्ययनमें पद्मावती महारानी का वर्णन है। पद्मावती महारानी श्री कृष्णकी रानियों में मुख्य थी। किसी एक समय श्री अरिष्टनेमि भगवानके पधारने पर श्री कृष्ण व पद्मावती महारानी वंदनको गए, उपदेश सुने । उपदेश सुनकर
श्री कृष्णने द्वारकाका नाश व स्वयंका भविष्य पूछा, जिसके · जवाबमें द्वारकाका विनाश क्षुब्ध द्वैपायन ऋषिके द्वारा होनेका बताया, व श्री कृष्णको भविष्यके उत्सर्पिणी समयमें इसी भरतमें पुण्डू देशके अन्दर शतद्वार नगरमें अमम नामके वारहवें तीर्थंकर रूपमें जन्म लेनेका भविष्य सुनाया। यह सुनकर श्री कृष्ण महाराजको बडी खुशी हुई। इसके बाद श्री कृष्ण अपने महल जाकर अनुचरोंसे सारे शहरमें द्वारकाका भविष्य कहलाकर संसारसे विरक्त होने वालोंको अपनी तरफसे आज्ञा होनेका व उनके पीछे रहे हुए कुटुम्बी जनों का पालन पोषण अपने जिम्में होनेका कथन जाहिर प्रजामें कह आनेका हुक्म दिया और तदनुसार अनुचर जन सारे शहर में स्थान २ पर जाहिर कर आए।
इधर पद्मावती महारानीने भगवानका उपदेश सुनकर दीक्षा लेनेका निश्चय भगवानके सामने प्रकट किया और अपने महल आकर अपने पतिदेव श्री कृष्णसे दीक्षा लेनेकी आज्ञा मांगी। श्रीकृष्ण अपनी की हुई जाहिरातके अनुसार उसी समय आज्ञा - देकर दीक्षा महोत्सवके लिये भव्य तैयारियां कराई। स्वयं अपने हाथ महारानीको स्नान आदि क्रियासे निवृत्त करके एक हजार मनुष्य उठावे वैसी शिविकामें बैठाकर जाहिर मार्गों पर घूमते हुए सहस्राम्रवनमें जाकर मुदित मनसे भगवानके समक्ष महारानीको दीक्षा लेनेके लिये उपस्थित किया। उन महारानीने दीक्षा लेनेके बाद एकसे लेकर एक महीने तक की बारबार अनेक तपश्चर्याएं करके शरीर व कर्म को क्षीण कर दिया और अन्तमें मोक्षको प्राप्त हुई ।
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पद्मावती महारानीके समानही श्री कृष्ण महाराजकी अन्य गौरी गान्धारी आदि प्रमुख महारानियाँ भी दीक्षा ले संयम तपद्धारा कर्म क्षय करके मोक्ष जा विराजी । इस पांचवें वर्गसे, धनिक वर्गके मनुष्यों को समझना चाहिये कि-हमे हमारे स्वजन परिजन, महल अटारियां बाग बगीचे आदि कोई भी उपयोगी व हितस्प नहीं है । हमारा हित है त्यागमें । त्याग विना जीवन कोरा
और थोथा है, जिसका जीवन त्याग (संयम-तप) पूर्ण है वह आत्मिक लब्धिसे हराभरा है। छट्ठा वर्ग
छठे वर्गके पहले और दूसरे अध्ययनमें राजगृहके मंकाई, व किंकम गाथापतिका वर्णन है। तीसरे अध्ययनमें राजगृह निवासी अर्जुनमालीका वृत्तान्त है। अर्जुनमाली के घरकी फूलवाडी थी और उस फूलवाडीके पास ही मुद्गरपाणि यक्षका स्थान था, जो प्रत्यक्ष एक हजार पलका भारी मुद्गर उठाके खडा रहता था। उस अजुनमाली की जीविका का पोषण इसी फूलवाडीके आधार पर होनेसे वह नित्य सवेरे वाडीमें जाकर उत्तमोत्तम फूल चुनकर यक्षको चढा देता । एक समय कोई विशेष राजकीय उत्सव होने से वह अपनी बन्धुमती पत्नीको अपने कार्यकी ममें साथ ही बाडी ले गया और दोनों फूल चुनकर यक्षस्थान पर गए उस समय वहाँ छ पुरुष-जिनको कोई भी कार्यकरने में किसीकी तरफसे रुकावट नहीं हो सकती थी वे-बन्धुमती सहित अर्जुनमालीको आते देख मन्दिरमें छिप गये और जब वे दोनों फूलोंका ढेर, कर नमस्कार करके घुटने नवांए, तो उसी समय उन छओं मित्रोंने अर्जुनमालीको रस्सीसे बांधकर वहीं गुडका दिया और वे वहीं बन्धुमतीके साथ बलात्कार में प्रवृत्त हुए। इस प्रकार अपनी आंखोंके समक्ष विपः, रीत दृश्य उपस्थित होनेसे अर्जुनमालीको यक्षके प्रति अश्रद्धा हुई। मुद्गरपाणि यक्षने अपने प्रति अर्जुनमाली को अश्रद्धावान होते देख वह उसी समय अर्जुनमालीके शरीरमें प्रवेश कर उसे बन्धनमुक्त किया और साथ ही उन छओ पुरुषोंको व बन्धुमतीको मुद्गरसे
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मृत्युमुखमें धकेल दिया। बाद में यक्षाधीन उस अर्जुनमालीने पांच मास और तेरह दिन तक नित्य छ पुरुष एक स्त्री की हत्या करते हुए १९४१ स्त्री पुरुषोंका निकन्दन किया । इन्हीं दिनों एक समय श्री महावीरप्रभुं राजगृह के बाहर गुणशिलक बागमें पधारे, ये समाचार जब जेष्ठिपुत्र श्रमणोपासक सुदर्शन श्राववको मालूम हुआ तो वे अपने मातापिताकी आज्ञा लेकर बाहर उपसर्ग होते हुए भी निडर हो कर वन्दनको निकले । जब यक्षाधीन अर्जुनमाली उन्हें आते देखा तो वह उनके समक्ष दौड आया और उधर श्रावक उसे आते देख कर चारों आहारका त्याग करके ध्यान में बैठ गये । ध्यानधारी श्रावक पर जब यक्षका जोर नहीं चला तो वह अर्जुनमाली को त्याग कर चला गया । यक्षके चले जाने पर अर्जुनमाली भूर्छित हो गिर गया, उस समय श्रावक सुदर्शन अपनेको निद्रपद्रवित देख कर सागारिक संथारा पालकर उठे और अर्जुनमाली भी अन्तुर्मुहूर्त मूर्छा रहित होकर सचेष्ट हुआ फिर सुदर्शन सेठ अर्जुनमालीको अपने साथ लेकर भगवानके पास गये, वहां भगवानके उपदेशसे अर्जुनमाली दीक्षित हो गए। और उसी समय से वेले २ पारणा करनेकी प्रतिज्ञा लेकर उसी राजगृह में पारणेके दिन भिक्षाके लिये जब जा रहे थे, तब राजगृहके लोग उन्हें अपने इष्टजनों का घातक समझकर पत्थर लकडी आदिसे मारते थे और अवहेलना करते थे परन्तु वे अपूर्व सहनशील महात्यागी पुरुष मध्यस्थ भावसे उन उपसर्गोको सह लेते थे भिक्षा में जो भी मिलता उसी पर निर्वाह करते थे । जितने भयंकर कर्म बांधे थे वे सब क्रमसे उत्कृष्ट संयम तपद्वारा क्षय करके छ महीनेमें मोक्ष जा बिराजे | इस अध्ययन से (१) सरागी देवको छोडकर वीतरागकी आराधनाही मोक्ष प्राप्तिका कारण है ऐसा समझना चाहिये ।
(२) कितना भी भयंकर उपसर्ग क्यों न आवे परन्तु धैर्य धारण कर धर्मकार्य में उन्नति प्राप्त करनेसे आपत्तियां नष्ट होती हैं । (३) दुष्टके प्रति सज्जनता दिखाकर उसे उचित मार्गारूढ करनेमें हमें अपनी सज्जनता माननी चाहिये ।
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(४) तथा हमें दुष्ट व शत्रु समझकर जो भी कष्ट पहुंचायें तों कष्ट पहुंचाने वालोंके प्रति सहृदयता प्रगट कर मध्यस्थभावसे आपत्तियों को सहन करनेमें मोक्ष प्राप्ति है । इस प्रकार चार बातोंकी शिक्षा इस तीसरे अध्ययन में है ।
आखे - काश्यप गाथापति के चौथे अध्ययनसे मेघगाथापति का चौदहवां अध्ययन तक संक्षिप्त वर्णन है । पन्द्रहवें अध्ययन में पोलासपुर नगरके विजयराजा के पुत्र एवन्ता ( अतिमुक्त) कुमारका वर्णन है । ये कुमार एक समय वालक्रीडा स्थानमें खेल रहेथे, उस समय उधर से गौतमस्वामीको भिक्षाके लिये जाते देखकर कुमार दौडकर गौतमस्वामीको पूछा, आप कहां पधारते हैं ! जब गौतमस्वामीने - भिक्षा के लिये जाते हैं, ऐसा कहा तो कुमार गौतमस्वामी के हाथ की अंगुली पकड कर अपने महल ले गये । अपने हाथ से गौतम स्वामीको पकड कर लाते हुए एवंता कुमार को देख कर श्रीदेवी महारानी बहुत खुश हुई, और उन्होंने गौतमस्वामी को भावयुक्त चंदन कर आहार पानी बहराया । एवंता कुमार गौतमस्वामीके साथ श्री महावीरप्रभुके पास जाकर वाणी श्रवण की । वाणी श्रवणसे वैराग्ययुक्त हो मातापितासे दीक्षाके लिये आज्ञा मांगी । तव मातापिताने कहा कि तूं अभी बालक है, चारित्र में तूं क्या समझ सकेगा ! इसके प्रत्युत्तरमें कुमारने जो उचित उत्तर देकर अपनी योग्यता दिखाई वह बालदीक्षा विरोधियोंके लक्षमें लेने योग्य है । एवंता कुमार भी संयम तप अनुष्ठानके वलसे कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त हुए ।
सोलहवें अध्ययनमें वाराणसी के अलक्ष राजाका वृत्तान्त है, 'इन्होंने भगवान महावीरका उपदेश सुनकर संसार त्याग किया, और ये संयम तप आदिके वलसे कर्मक्षय करके मोक्षमें गए । सातवां वर्ग
सातवें वर्ग में श्रेणिक महाराजकी नन्दा नन्दवती आदि तेरह महारानियों का संक्षिप्त कथन है । ये तेरह महारानियाँ संयम तपद्वारा कर्म क्षय करके मोक्ष पहुंचीं ।
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आठवां वर्ग
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अन्तिम आठवें वर्ग में श्री श्रेणिक महाराजकी दस रानियोंका वर्णन है । ये दसो रानियां भगवान महावीरका उपदेश सुन दीक्षित हुई और दीक्षा लेने के बाद काली आर्याजीने रत्नावलि तप, सुकाली अर्याजीने कनकावली तप, महाकाली आर्याजीने लघुसिंह निष्क्रीडित तप, कृष्णा आर्याजीने महासिंह निष्क्रीडित तप, सुकृष्णा आर्याजीने सातवीं आठवीं नवमीं दशवीं भिक्षु पडिमा तप, महाकृष्णा आर्याजीने लघु सर्वतोभद्र तप, वीरकृष्णा आर्याजीने महासर्वतोभद्र तप, रामकृष्णा आर्याजीने भद्रोत्तर तप, पितृसेन कृष्णा आर्याजीने मुक्तावली तप, और महासेनकृष्णा आर्याजीने आयम्बिल वर्धमान तप किया । सुकुमार शरीर होते हुए भी इतनी महान तपश्चर्या विना आत्मकल्याण नहीं, ऐसा समझकर उन महारानियोंने प्रत्येक भव्य जीवोंको तपद्वारा कर्म क्षय करनेका अपनी जीवनचर्यासे बोध कराया है ।
इस अन्तगड सूत्रमें मोक्ष प्राप्त प्रत्येक नहान् आत्माका तपसंयम युक्त जीवनका वर्णन है । मोक्ष प्राप्त कराने में तप संयम प्रत्येक भव्य प्राणिके लिये महान साधन है - ऐसा हमें अन्तगड़ सूत्रके पठन व श्रवणसे भलाभांति मालूम होगा। इन महापुरुषों का जीवन वर्णनरूप यह अन्तगडसूत्र पर्युषणके आठ दिनों में पढनेका विधान है, तदनुसार पर्युषणोंमें भव्य जीव पूर्ण भक्तियुक्त मनसे इसका श्रवण करते हैं । इस कारण जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ने सर्वको सुबोध हो व सरलतासे सभी अबाल वृद्ध पठन पाठन कर सकें, इस ध्येयसे इस अन्तगड सूत्रकी सरल संस्कृत टीका बनाई । वह हिन्दी गुजराती भाषा टीकासे युक्त है । "वह प्रत्येकके लिये उपयोगी है । आशा है- भव्यवृन्द इस सूत्र को पढकर उत्तरोत्तर ज्ञानदर्शन चारित्रकी वृद्धिको प्राप्त होगें ।
निवेदकसमीर मुनि
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બીજી આવૃત્તિની પ્રસ્તાવના
આ ઉપગી શાસ્ત્રની પ્રથમ આવૃત્તિની ૫૦૦) કેડી ખલાસ થવાથી આ બીજી આવૃત્તિ ૧૦૦૦ કેપી પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવેલ છે.
અમને આશા છે કે જૈન સમાજ તેને પૂરતે લાભ લઈ આત્મકલ્યાણ કાર્યમાં આગળ વધશે.
આ સમિતિ પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા તૈયાર કરેલાં શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ કરી બનતી સેવા કરે છે તેમાં આપના પૂરા સહકારની આશા રાખવી તે અસ્થાને તે નથી ને?
રા જ કે ટ, તા. ૧–૯–૧૯૫૮.
સેવકો, . માનદ મંત્રીઓ
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રૂા. ૧૦,૦૦૦ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી. સમિતિના પ્રમુખ; દાનવીર શેઠશ્રી
શે શાંતિલાલ મં ગ ળ દા સ ભા ઈ
અ ય ઢા વા
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=
શ્રી વર્ધમાન-શ્રમણ-સંઘના આચાર્યશ્રી પૂજ્ય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ
આ પે લ
સ મ તિ ૫ ત્રા
આ ઉપરાંત
- શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ-રચિત
બીજા સૂત્રની ટીકા માટે તેઓશ્રીના મત
અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીએ, અદ્યતન-પદ્ધતિવાળા કોલેજના પ્રેફેસરે
તે મ જ
શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકેના અભિપ્રા.
છે. ગ્રીન લેજ પાસે )
ગરેડીયા કુવાડ, } . રાજકોટ: સૌરાષ્ટ્ર
અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન
શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ,
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(श्री दशवैकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र . ) ॥ श्रीवीर गौतमाय नमः ॥
सम्मति - पत्रम् .
मए पंडियमुणि हेमचंद्रेण य पंडिय मूलचन्दद्वासवारापत्ता पंडिय - रयण - मुणि- घासीलालेण विरइया सकय-हिंदी-भाषाहिं जुत्ता सिरि- दसवेयालिय- नाम सुत्तस्स आधारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्थ सहाणं अइसयजुतो अत्थो वणिओ विजजणाणं पाययजणाण य परमोवयारिया इमा वित्ती दीसइ ! आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुत्र्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सरूवं जे जहा- तहा न जाणंति तेसिं इमाए वित्तीए परमलाही भविस्सर, कत्तुणा पत्तेयविसयाणं फुडस्वेण वण्णणं कडे, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयगाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ ! सक्कयछाया सुत्तययाणं पयच्छेओ य सुबोहदायगो अस्थि, पत्तयजिण्णासुणो इमा वित्ती दट्ठव्वा । अम्हाणं समाजे एरिसविज्ज - मुणिरयणाणं सम्भावो समाजस्स अहोभग्गं अत्थि, किं ? उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओ जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ, अम्हकेरं साहिचं च लुत्तप्पायं अत्थि तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सइ जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निव्वाणं पाविहि अओहं आयारमणि-मंजूसाए कन्तुणो पुणो पुणो धन्नवार्य देमि- ॥
वि. सं. १९९० फाल्गुनशुक्लत्रयोदशी मङ्गले ( अलवर स्टेट )
इइ
उवज्झाय- जइण- मुणी, आयारामो ( पचनईओ)
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जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ आत्मारामजी _ महाराज तथा न्याय व्याकरण के ज्ञाता परम पण्डित मुनिश्री १००७ - श्री हेमचंद्रश्री महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाण पत्र निम्न प्रकार है
सम्मइवत्तं सिरि-वीरनिव्वाण-संवच्छर २४५८ आसोई
(पुण्णमासी) १५ सुक्वारो लुहियाणाओ। ... मए मुणिहेमचंदेण य पंडियरयणमुणिसिरि-घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगमुनस्स अगारधम्मसंजीवणीनामिया वित्ती पंडियमूलचन्दवासाओ अजोवतं सुया, समीईणं, इयं वित्ती जहाणामं तहा गुणेवि धारेइ, सच्चं, अगाराणं तु इमा जीवण (संजमजीवण) दाई एव अस्थि । वित्तीकत्तुणा मूलमुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीकओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ, कम्मपुरिसट्टवाओ, प्तमणोवासयस्स धम्मदढत्ता य, इच्चाइविसया अस्सि फुडरीइओ वणिया, जेव कत्तुणो पडिहाए सुटुप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिटिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स समए वट्टमाण-भरहवासस्स य कत्तुणा विसयप्पयारेण चित्तं चित्तितं, पुणो सक्कयपाढीणं, वट्टमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासीणं य परमोवयारो कडो, इमेण कत्तुणी अरहित्ता दीसइ, कत्तुणो एयं कज्जं परमप्पसंसणिज्जमत्थि । पत्तेयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पयं, अविउ सावयस्स तु (उ) इमं सत्थं सव्वस्समेव अत्थि, अओ कत्तुणो अणेगकोडीसो धनवाओ अत्थि, जेहिं, अञ्चंतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमोवयारो कडो, अहय सावयस्स वारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढणिज्जा अत्थि, जेसिं पहावओ वा गहणाओ आया निवाणाहिगारी भवइ, तहा भवियच्चयावाओ पुरिसकारपरक्कमवाओ य अवस्समेव दंसणिज्जो, किंवहुणा इमीसे वित्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसदेहिं वण्णणं कयं, जइ अन्नोवि एवं अम्हाणं पमुत्तप्पाए समाजे विज भवेज्जा तया नाणस्स चरित्तस्स तहा संघस्स य खिप्पं उदयो भविस्सइ, एवं हं मन्ने।
भवईओउवज्झाय-जइणमुणि-आयाराम,-पंचनईओ,
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सम्मतिपत्र (भापान्तर)
श्री वीर निर्वाण सं० २४५८ आसोज
- शुक्ला (पूर्णिमा) १५ शुक्रवार लुधियाना मैंने और पंडितमुनि हेमजन्दजीने पंडितरत्नमुनिश्री घासीलालजीकी रची हुई उपासकदशांग सूत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनी नामक टीका पंडित मूलचंद्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है। यह वृत्ति यथानाम तथागुणवाली-अच्छी बनी है। सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्रीसंयमरूप जीवनको देनेवाली-ही है। टीकाकारने मूलसूत्र के भावको सरल रीतिसे वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है ? और विशेष धर्म क्या हैं ? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढंगसे बतलाया है। स्थाबादका स्वरूप कर्म-पुरुषार्थ-बाद और श्रावकको धर्मके अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमें भलीभाँति किया है। इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूब झलकती है । ऐतिहासिक दृष्टिसे श्रमण भगवान महावीरके समय जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था ? और वर्तमान समय जैन धर्म किस स्थितिमें पहुंचा है ? इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रत कर दिया है ! फिर संस्कृन जाननेवालोंको तथा हिन्दीभाषाके जाननेवालीको भी पुरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है उसकी सरल हिन्दी करदी गई है। इसके पढनेसे कर्ताकी योग्यताका पता लगता है कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकारका यह कार्य परम प्रशंसनीय है। इस सूत्रको मध्यस्थ भावसे पढने वालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी। क्या कहें श्रावकों (गृहस्थों)का तो यह सूत्र सर्वस्व ही है, अतः टीकाकारको कोटिशः धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रमसे जैन जनताके ऊपर असीम उपकार किया है। इसमें श्रावकके बारह नियम प्रत्येक पुरुषके पढने योग्य हैं, जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है ! तथा भवितव्यतावाद और पुरुषकार
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पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये । कहांतक कहें इस टीकामें प्रत्येक विषय सम्यक प्रकारसे बताये गये हैं। हमारी सुप्तप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान् फिर भी कोई होगे तो ज्ञान चारित्र तथाश्रीसंघकाशीघ्र उद्य होगा, ऐसा मैं मानता हूँ
आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी.
इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पंण्डितवर्य विद्वान् मुनिश्री १००८ .. श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी
महाराजके दिये हुए, श्री उपाशकदशाङ्ग सूत्रके
प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निन्न प्रकार है
- श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने बड़े परिश्रम व पुरुषार्थसे तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र हैं। आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता है। आपकी इस लेखनीले समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये बड़े गौरवकी बात है। .
वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर.
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श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र की 'अनगार धर्माऽमृतवर्षिणी' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मरामजी महाराजका सम्मतिपत्र
लुधियाना, ता. ४-८-५१. मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्माऽमृत-वर्षिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया।।
यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्य श्री घासीलालजी म. ने बड़े परिश्रम से लिखी है । इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं। मूल स्थलोंको सरल बनाने में काफी प्रयत्न किया गया हैं, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों को लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है। ___मैं स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूँगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बनाकर शास्त्रमें दी गई अनमोल शिक्षायों से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे। श्रीमान्जी जयवीर ___आपकी लेवामें पोष्ट द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इसपर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं पहुचने पर समाचार देवें ।
श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ५ सुख शान्तिसे विराजते हैं। पूज्य घासीलालजी म. सा. ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जकर सुखशाता पूछे।
पूज्य श्री घासीलालजी म. जी का लिखा हुआ (विपाकसूत्र) महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं इसलिये १ काँपी आप भेजने की कृपा करें; फिर आपको वापिस भेज देवेंगे। आपके पास नहीं हो तो जहां से मिले वहांसे १ काँपी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें। योग्य सेवा लिखते रहें। लुधियाना ता. ४-८-५१
निवेदक
प्यारेलाल जैन
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जैनागमवारिधि - जैनधर्मदिवाकर - उपाध्याय - पण्डित - मुनि श्री आत्मारामजी महाराज ( पंजाब ) का आचाराङ्गसूत्र की आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति - पत्र |
मैंने पूज्य आचार्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज) की बनाई हुई श्रीमद् आचाराङ्गसूत्र के प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी।
यह टीका - न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमें प्रसंग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है ।
टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयों का विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद
पात्र हैं ।
मैं आशा करता हूँ कि जिज्ञासु महोदय इसका भलीभाँति पठन द्वारा जैनागम-सिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्षित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पावेंगे । तथा अचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर - स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे ।
वि.सं. २००२ मृगसर सुदि १
जैन मुनि - उपाध्याय आत्माराम लुधियाना (पंजाब) शुभमस्तु ॥ antarवाला समाजभूषण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठिआनो अभिप्राय
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आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह बडा, उपकारका कार्य है । इससे जैनजनता को काफी लाभ पहुँचेगा.
( ता. २८-३-५६ ना पत्रमाथी )
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॥ श्रीः॥ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-जैनाचार्य-पूज्य-श्री आत्मारामजीमहाराजनां पञ्चनद-(पंजाव )स्थानामनुत्तरोपपातिकसूत्राणा
मर्थबोधिनीनामकटीकायामिदम्
सम्मतिपत्रम्. आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकमूत्राणामर्थवोधिनीनाम्नी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्यं प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकसो धन्यवादानहन्ति ते । यथा चेयं वृत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदममीप्सुभिनिर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान--दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिः थावकैश्च ज्ञानदर्शन-चारित्राणि सम्यक् सम्पाप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । ___आशासे श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुपां विदुपां मनस्तोपाय जैनागमसूत्राणां साराववोधाय च अन्येपामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति ।
अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरलां सुबोधिनी चेमां सूत्रवृत्तिं स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः।" इत्याशास्तेविक्रमाव्द २००२ । श्रावणकृप्णा प्रतिपदा
उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः। लुधियाना. एसेही :___ मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान् रतनलालजी डेसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं किः
श्रीमान की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है य ग्रन्थ सर्वांगसुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है।
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निरयावलकासूत्रका सम्मतिपत्र आगमवारिधि-सर्वतन्त्र स्वतन्त्र - जैनाचार्य - पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र
लुधियाना. ता. १९ नवम्बर ४८
श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचंदजी सादर जयजिनेन्द्र ॥
पत्र आपका मिला ! निरयावलिका विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मति पत्र लिख दिया है आपको भेज रहे हैं। कृपया एक कोपी निश्यावलिका की और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें !! भवदीय. गुजरमल- बलवंतराय जैन
॥ सम्मतिः ॥
लेखक जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज )
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सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकासूत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम्, संस्कृतटीकेयं सरला सुवोधा सुललिता चात एवं अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्योधपद - व्याख्यायुतत्वाच्च टीकैपा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी - गुर्जर भाषानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक् संभावयामि ।
. जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री द्यासीलालजी महाराजानां परि श्रमोऽयं प्रशंसनीयो धन्यवादाहश्च ते मुनिसत्तमाः । एवमेत्र श्री समीरमलजी श्री कन्हैयालालजी सुनिवरेण्ययोर्नियोजनकार्यमपि श्लाध्यं तावपि च मुनिवरौ धन्यवादार्थौ स्तः ।
सुन्दरप्रस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलङ्कते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकतां सवऽप्पवेषकविद्वांसोऽनुभवन्ति ।
पाठका :.. सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखक नियोजक महोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति ।
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श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूपण महान विद्वान संतोए तेमज विद्वान श्रावकोए सम्मतिओ समपी छे
तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे. (१) लुधियाना-सम्बत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के
भंडार आगमरत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य
श्री सुनि हेमचन्दजी महारज. (२) लाहौर-वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित रत्न श्री
१००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डित रत्न श्री
१००७ श्री त्रिलोकचंदजी महाराज. (३) खिचन से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८
श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) वालाचोर-ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री
१००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज. (५) बम्बई-ता. १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री
कवि नानचन्द्रजी महाराज. (६) आगरा-ता. १८-११-३६, जगत् वल्लभ श्री १००८ श्री जैन दिवाकर
श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी
श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद (दक्षिण) ता. २५-११-३६ का पत्र, स्थिवरपदभूषित
भाग्यवान पुरुष श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७
श्री सोभामलजी महाराज. (८) जयपुर-ता. २६-११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरवर्धक शांतस्वभावी
श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूवचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला-ता. २९-११-३६ का पत्र, परम प्रतापी पंजाब केशरी श्री
१००८ श्री पूज्य श्री रामजी महाराज.
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(१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् __.. रतनलालजी डोसी. ... ... . . (११) खीचन-ता ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक १. श्रीयुत् माधवलालजी.
ता. २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र
आपका भेजा हुवा उपासक दशांग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ शुख शांती में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी चन्दना अर्ज कर सुख शांति पूछे आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मती मंगाई उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों हैं संस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है. आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें शेष शुभ ।
भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती
आगरा से:
श्री जैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता जगदवल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पंडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्दजी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द को है। ....
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श्रीमान् न्यायतीर्थ पण्डित
माधवलालजी खीचन से लिखते हैं किः
उन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाध.. तत्वगवेषणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं।
परन्तु :
मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा हैं बहुत सराहना की है वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की वहत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसा ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं-थे दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम है ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हूई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी।
ता. २९-११-३६
अम्बाला (पंजाब) पत्र आपका मिला श्री श्री १००८ पंजाब केशरी पूज्य श्री काशी रामजी महाराज की सेवा में पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरु की एक प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं, ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रकाशित करवाये की बडी.आवश्यकता है। इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है। आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है।
आपका
शशिभूषण शास्त्री ध्यापक जैन हाई स्कूल
अम्बाला शहर.
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शान्त स्वभावी वैराग्य मूर्ति तत्व वारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेवने सूत्र श्री उपासक दशाङ्गजी को देखा। आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घासीलालजी महाराज ने उपासक दशाङ्ग सूत्रकी टीका लिखने में वडा ही परिश्रम किया है । इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रोंकी संशोधक पूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान निग्रन्थों के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाभ मिल शकता है. -
बालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पंडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते हैं कि :
उत्तरोत्तर जोतां मूल सुननी संस्कृतटीकाओं रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यो छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरुरी लेवा जेवुं छे, वलीकरांचीना श्री संघे सारा कागलमां अने सारा टाइपमां पुस्तक छपावी प्रगट कयूँ छे जे एक प्रकारनी साहित्य सेवा बजावी छे.
शहर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है ।
खीचन से स्थविर क्रिया पात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरत्न मुनि सम्रथमलजी महाराज श्री फरमाते हैं किविद्वान महात्मा पुरुषों का प्रयत्न सराहनीय है क्या जैनागम श्रीमद् उपासक दशाङ्ग सूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुबोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा बडी ही सुन्दरता से लिखी है ।
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श्री वीतरागाय नमः ॥ श्री श्री श्री १००८ जैनधर्म दिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो ।
अपरञ्च समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर सोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया। .
आपने स्थानकवासीजैनसमाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा।
हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ता कि आप जैन समाज के ऊपर और भी उपकार करते रहें और आप चिरञ्जीव हों।
हम आपके मुनि तीन उदेपुर.
मुनि सत्येन्द्रदेव-मुनि लखपतराय-मुनि पद्मसेन
इतवारी बाजार
नागपुर ता. ११-१२-१६ प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है। हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रों का सेट देखा
और कइ मार्मिक स्थलोंको पढा, पढ़ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पडी।
वास्तव में मुनिराज श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समाज पर भी महा उपकार कर रहे हैं। ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घर में होना आवश्यक है।
साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन. .
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શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિ પત્ર.
શ્રમણ સંઘના મહાન આચાર્ય આગમ વારિધિ સર્વતન્ત સ્વતંત્ર સ્વતંત્ર જૈનાચાર્ય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિ પત્રને ગુજરાતી અનુવાદ.
| મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજીએ પંડિત મૂલચંદ વ્યાસ (નાર મારવા વાહી) દ્વારા મળેલી પંડિત રત્ન શ્રી. ઘાસીલાલજી મુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચાર મણિમંજૂષા ટીકાનું અવલોકન કર્યું. આ ટીકા સુંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દને અર્થ સારી રીતે વિશેષ ભાવ લઈને સમજાવવામાં આવેલ છે.
1. તેથી વિદ્વાન અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાઓ માટે પરમ ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયને સારે ઉલ્લેખ કરેલ છે. જે આધુનિક મતાવલંબી અહિંસાના સ્વરૂપને નથી જાણતા, દયામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે અહિંસા શું વસ્તુ છે તેનું સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકારે સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવલેકનથી વૃત્તિકારની અતિશય યોગ્યતા સિદ્ધ થાય છે.
- આ વૃત્તિમાં એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલ સૂત્રની સંસ્કૃત છાયા હેવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પદચ્છેદ સુબોધ દાયક બનેલ છે.
પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું. અવલોકન અવશ્ય કરવું જોઈએ. વધારે શું કહેવું. અમારી સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિ રત્નનું હોવું એ સમાજનું અહોભાગ્ય છે. આવા વિદ્વાન મુનિ રત્નોના કારણે સુપ્તપ્રાય સુતેલે સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલું સાહિત્ય એ બંનેને ફરીથી ઉદય થશે. જેનાથી ભાવિતાત્મા મેક્ષ ચગ્ય બનશે અને નિર્વાણ પદને પામશે આ માટે અમે વૃત્તિકારને વારંવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ.
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- વિક્રમ સંવત ૧૯૦ ફાગુન શુકલ.
તેરસ મંગળવાર ( અલવર સ્ટેટ)
ઈવજઝાય જઈણ સુણ આયારામે પંચનઈ
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શ્રમણ સંઘના પ્રચાર મંત્રી પંજાબ કેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકેટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેના તરફથી શાસ્ત્રોને માટે મળેલ અભિપ્રાય.
શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્ર વારિધિ પંડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જન સમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મલિક સંસ્કૃતિની જડને મજબુત કરવાવાળું છે.
એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશકિત ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલ્દી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે.
દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઇશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના
સૂત્રે સંબંધે વિચારે
નમામિ વીર ગિરી સાર ધીરે પૂજ્ય પાદ જ્ઞાન પ્રવરશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા પંડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણા છની સેવામાં
અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત. - આપ સર્વે થાણુઓ સુખ સમાધિમાં હશે નિરંતર ધર્મધ્યાન ધર્મારાધનમાં લીન હશે.
સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય વરીત થાય એવી ભાવના છે દશવકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પંડિતજનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સાથે સાથે ટીકા વીનાના મૂળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરુદેવને આંખે મેતીયા ઉતરાવ્યા છે અને સારું છે એજ. આસો સુદ ૧૦, મંગળવાર તા. ૨૫-૧૦-૫૫
પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયા મુનિનાં પ્રણિપાત.
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રૂા. ૬,૦૦૦ આપનાર આધુ સુખીશ્રી.
(સ્વ.) શેઠ હરચંદ કાલીદાસ વારીયા
ભા ણ વ ડ.
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દરીયાપુરી સપ્રદાયના પડિત રત્ન ભાઈચંદજી મહારાજના અભિપ્રાય
શ્રી
રાણપુર તા. ૧૯-૧૨–૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનપ્રવર પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિમુનિવરાની સેવામાં આપ સર્વ સુખ સમાધીમાં હશેા.
સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ સુંદર થઇ રહ્યું છે તે જાણી અત્યંત આનંદ. આપના પ્રકાશીત થયેલાં કેટલાક સૂત્રેા ોયાં, સુંદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પડિતરત્નાને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભાવિ આત્માને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના.
લી. પંડિતરત્ન ખાળબ્રહ્મચારી
શ્રી ભાઇચંદ મહારાજની
આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનિના પાયવંદન સ્વીકારશે.
પૂ.
તા. ૧૧-૫-૫૬ વીરમગામ
ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માથી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજના અભિપ્રાય.
ખીચનથી આવેલ તા. ૧૧-૨-૫૬ના પત્રથી પ્રિત.
પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂત્રનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે. તે સાહિત્ય; પડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ, સમય આછે મળવાને કારણે સપૂર્ણ જોઇ શક્યા નથી. છતાં જેટલું સાહિત્ય જોયું છે, તે બહુ જ સારૂં અને મનન સાથે લખાયેલું છે. તે લખાણુ શાસ્ત્ર આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળુ જીવાને વાંચવા ચેાગ્ય છે. આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રરુપણા અને ફ્સાની દૃઢતા શાસ્ત્રાનુકુળ છે. આચાર્ય શ્રી અપૂર્વ પરિશ્રમ લઇ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે.
લી. કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ
મુ.ખીચન.
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લીંબડી સંપ્રદાયના સદાનંદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી
મહારાજનો અભિપ્રાય,
શ્રી વીતરાગદેવે-જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થકર નામ ગોત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાન પ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર અને તેને અનુમોદન આપનાર જ્ઞાનાવણિય કર્મને ક્ષય કરી-કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદનાં અધિકારી બને છે. શાસ્ત્ર–પરમ શાન્ત, અને અપ્રમાદિ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશઃ ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનિય છેતેમની જ્ઞાન પ્રભાવનાની ધગશ ઘણા પ્રમાદિઓને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદને પૂર્ણ અધિકારી છે.
એ સમિતિના કાર્યકરને મારી એક સૂચન છે કે –
શાસ્ત્રોદ્ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાદિ સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે–પંડિત વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે. તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સૂચના છે કે:- શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે,–જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણ જણ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરે બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે.
જો કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જે સંભાવિત ગૃહસ્થ પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે.
આથિંક અનુકુળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમના જ્ઞાન શક્તિને જેટલે લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે. કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઇચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ વિનંતી કરી અમદાવાદ પધરાવવા. અને ત્યાં-અનુકુળતા મુજબ બે-ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ.
થડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર કમીટી મળવાની છે. તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક.
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ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરિરાદીને સશક્ત અને દીર્ધાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે. અસ્તુ.
ચાતુર્માસ સ્થળ. લીંબડી ! સાં. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩. ગુરૂ. 5 સદાનંદી જેનમુનિ છોટાલાલજી
શ્રી વર્ધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્ય શ્રી પુનમચંદ્રજી
મહારાજને અભિપ્રાય શાસ્ત્ર વિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગમો ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે. તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે. તેમણે આગ ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે. આગમ ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટીકા ભાષા અને ભાવની દૃષ્ટિએ ઘણુંજ સુંદર છે. સંસ્કૃત રચના માધુર્ય તેમજ અલંકાર વગેરે ગુણોથી યુકત છે. વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરેએ શાસ્ત્રી ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃત રચનાની કદર કરવી જોઈએ અને દરેક પ્રકારને સહકાર આપે જોઈએ,
આવા મહાન કાર્યમાં પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એજ શુભેચ્છા સાથે. અમદાવાદ તા. ૨૨-૪-૫૬ રવિવાર
મુનિ પૂર્ણચંદ્રજી મહાવીર જયંતિ
ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઇ સ્વામીને અભિપ્રાય.
લખતર તા. ૨૫-૪-૫૬. શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલભાઈ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. અમદાવાદ.
અમે અત્રે દેવગુરુની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ. વિ.માં આપની સમિતિ દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સૂત્રોનું કાર્ય કરે છે તે પિકીનાં સૂત્રોમાંથી ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર. આચારાંગ સૂત્ર, અનુત્તરપાતિક સૂત્ર,
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દશવૈકાલિક સૂત્ર વિગેરે સૂત્રો જોયાં તે સૂત્રે સંસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષા
માં હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનને ઘણું જ લાભદાયિક છે. તે વાંચન ઘણું જ સુંદર અને મનોરંજન છે. આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અઘાત પુરુષાર્થ કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રોથી સમાજને ઘણું લાભનું કારણ છે.
હંસ સમાન બુદ્ધીવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાઓ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ચપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે. માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સુચન કરું છું કે આ સૂત્રે પોતપોતાના ઘરમાં વસાવાની સુંદર તકને ચૂકશો નહિ. કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરંપરા ને પુષ્ટીરૂપ સૂત્રે મળવાં બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી ત્થા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિર્જરાનું કારણ જોવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એજ
લી. શારદાબાઈ સ્વામી
ખંભાત સંપ્રદાય.
બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી સેંઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય.
ધંધુકા તા. ર૭-૧-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ અ. ભાટ જે. સ્થાજૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. રાજકેટ.
અત્રે બિરાજતા ગુરુ ગુના ભંડાર મહાસતીજી વિદુષી મેંઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાભાઈ સ્વામી આદિ ઠાણે બને સુખશાતામાં બિરાજે છે. આપને સૂચન છે કે અસમત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશેજી એજ આશા છે.
વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલાં સૂ ભાઈ પિપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલાં તે સૂત્ર તમામ આઘઉપાન વાંચ્યાં મનન કર્યા. અને વિચાર્યા છે તે સૂ સ્થાનકવાસી સમાજને અને વિતરાગ માની ખૂબજ ઉન્નત બનાવનાર છે. તેમાં આપણે શ્રદ્ધા એટલી ન્યાય રૂપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે. હંસ સમાન
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આત્મા જ્ઞાન ઝરણાએાથી આત્મરૂપ વાડીને વિકસીત કરશે. ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્ય કરીને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કાઇની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઇ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સ પૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે તેવી આશા છે.
એજ લિ. મરવાળા સ'પ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેાંઘીબાઇ સ્વામી ના ક્માનથી લી. ખાડીદાસ ગણેશભાઇ ધંધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ.
*
અદ્યતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડોદરા કોલેજના એક વિદ્વાન પ્રોફેસરના અભિપ્રાય.
પ્રતાપગજ, વડાદરા તા. ૨૭–૨–૧૯૫૬
સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જૈનશાસ્ત્રોના સ ંસ્કૃત ટીકાદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતરા કરવાના ઘણા વિકટ કાર્ય માં વ્યાપ્ત થયેલા છે. શાસ્ત્રો પૈકી જે શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઇ શકયા છું, મુનિશ્રી પોતે સ ંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિન્દી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમના ટુંકો પરિચય કરતાં સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સ'પાદન કરવામાં તેમને પેાતાના, શિષ્યવના અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતાને સહકાર મળ્યું છે, તે જોઇ મને આનંદ થયેા. સ્થાનકવાસી સ*પ્રદાયના અગ્રેસરાએ પડિતાના સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે. સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વતા ઘણી ઓછી છે. તે કિંગખર મૂર્તિપૂજક શ્વેતાંખર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતાં હું વિરાધના ભય વગર, કહી શકું. પૂ. મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણા સારાં આપવામાં આવ્યાં છે ભાષા શુદ્ધ છે એમ હું ચેાક્કસ કહી શકું છું. ગુજરાતી ભાષાંતરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે. મને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જૈનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરને વાચનાલયમાં અને કુટુ એમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે.
કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ,
એમ. એ.
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સુબઇની એ કાલેજોના પ્રોફેસરોના અભિપ્રાય,
મુંબઇ તા. ૩૧-૩-૫૬
શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલ મંગળદાસ
પ્રમુખ : શ્રી અખિલ ભારત સ્પે. સ્થા. જૈન શાઓદ્ધાર સમિતિ, રાજકેટ.
પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાંગ, દશવૈકાલિક આવશ્યક, ઉપાસકદશાંગ વગેરે સૂત્રેા અમે જોયા. આ સૂત્રા ઉપર સસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે. અને સાથે સાથે હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાંતરા પણુ આપવામાં આવ્યાં છે, સસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હિન્દી ભાષાંતરે શ્વેતાં આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુની સચેટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ચૈામાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વતા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હિન્દીમાં થયેલા ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નોંધપાત્ર છે. એથી વિદ્વદજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સંતેષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રેામાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રા પ્રગટ થયાં છે. બીજા ૭ સૂત્રા લખાઇને તૈયાર થઇ ગયાં છે. આ મધાં જ સૂત્રા જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈન સૂત્ર-સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સૌંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સશય નથી. આચાર્ય શ્રી આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજને-વિશેષતઃ સ્થાનકવાસી સમાજના સંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ.
પ્રે. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેંટ ઝેવિયર્સ કોલેજ, મુંબઈ.
પ્રે. તારા રમણલાલ શાહ, સાન્ડ્રીયા કોલેજ, સુબઈ.
રાજકોટની ધર્મેન્દ્રસિંહજી કૉલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય,
જયમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકાટ, તા. ૧૮-૪-૫૬
પૂજ્યાચાર્ય ૫. મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈન સમાજ માટે એક એવા કાર્ટીમાં વ્યાસ થએલા છે કે જે સમાજ માટે ખહુ ઉપયેગી થઈ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રી વિપાકશ્રુત વિ. મેં જોયાં.
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આ સૂત્રે જતાં પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપરને અસાધારણ કાબુ જણાઈ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણ નથી. આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્ર ઉચ્ચ અને : પ્રથમ કેટિના છે. તેની વસ્તુ ગંભીર વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પર્શી છે. આટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્ય સૂત્રોનું ભાષાંતર પૂ. ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કેટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણું અહેભાગ્ય છે. યંત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના ઓસરતી જાય છે. એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રોનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રે લખવામાં આવ્યા છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સંકળાયેલા જોઈએ છીએ. એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય છે. તેમનું જીવન સૂત્રમાં વણાઈ ગયું છે.
. મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પિતાના શિષ્યને તથા પંડિતેને સહકાર મળે છે. મને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પિતાના ઘરમાં વસાવશે અને પિતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તે મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલ શ્રમ સંપૂર્ણ પણે સફળ થશે.
- છે. રસિકલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી
એમ. એ. એલ. એલ. બી.
ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજ રાજકોટ (સૌરાષ્ટ્ર)
- મુંબઈ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાસર કેન્ફરન્સ તથા
સાધુ સંમેલનમાં મેલાવેલ ઠરાવ.
હાલ જે વખતે શ્રી વેતાંબર સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ માટે આગમ-સંશોધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવોએ આ વાત દીર્ઘ દ્રષ્ટિથી પહેલી પિતાના મગજમાં લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્ય મંત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ. ભા.વે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક ભેટી વગવાળી કમિટી છે. તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે જેને પ્રાધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મંત્રીશ્રી
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તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવાએ પેાતાની પસંદગીની મહેાર છાપ આપી છે અને છેલ્લામાં છેલ્લા વડેદરા યુનિવસીટીના પ્રેફેસર કેશવલાલ કામદાર એમ. એ. એ પેાતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામને આ સંમેલન તથા કેન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે, અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે-પંડિતની અને નાણાંની–પેાતાની પાસેના કુંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઇચ્છા ધરાવે છે.
આ શાસ્ત્રો અને ટીકાઓને જયારે આટલી ધી પ્રશંસાપૂર્વક પસંદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કેન્ફરન્સ પેાતાની ફરજ માને છે અને જે કાંઇ ત્રુટી હાય તે પ'. ૨. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાનિધ્યમાં જઇ. પતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરવા. આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કાઇપણ કામ સત્તા ઉપરના અધિકારીઓના વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેખને ભલામણ કરે છે.
( સ્થા. જૈન પત્ર તા. ૪-૫-૫૬ )
*
સ્વતંત્ર વિચારક અને નિડર લેખક જૈન સિદ્ધાંત'ના તંત્રીશ્રી રીઝ નગીનદાસ ગીરધરલાલના અભિપ્રાય,
શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં ખેલાવી તેમની પાસે બત્રીસે સૂત્રેા તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઇ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલેલા ત્યારે શેઠશ્રી દામેાદરદાસભાઈએ તેમનાં એક પત્રમાં મને લખેલુ કે—
આપણા સૂત્રાના મૂળ પાઠે તપાસી શુદ્ધ કરી સંસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. સિવાય મને કોઇ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જોવામાં આવતા નથી. લાંબી તપાસને અંતે મેં મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજીને પસંદ કરેલા છે.”
પણ હતા. શ્રાવકો તેમજ મુનિએ પણ તેમની જ્ઞાન ચર્ચા પણ કરતા. એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની
શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઈ પેતે વિદ્વાન હતા. શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પાસેથી શીક્ષા વાંચન લેતા, તેમ પસ ંદગી યથાર્થ જ હાય એમાં
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રૂ. ૫,૨૫૧ આપનાર આ
મુરબ્બીશ્રી,
ક
છે.
જો
કે
જો
કે
'
નિકા કાજ
..
કે ઠારી હર ગોવીંદ ભા ઇ જે ચંદ
ર જ કે ટ.
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નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજીના બનાવેલાં સૂત્રે જોતાં સૌ કોઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામોદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે બરાબર ફળીભૂત થયેલ છે.
શ્રી વર્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રે માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ.ના સૂત્રેની ઉપગિતાની ખાત્રી થશે.
આ સૂત્ર વિદ્યાથીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાંચકને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયોગી થઈ પડે છે. વિદ્યાથીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયોગી થાય તેમ છે ત્યારે સામાન્ય હિન્દી વાંચકને હિન્દી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સરળતાથી સમજાય જાય છે.
કેટલાકને એ ભ્રમ છે કે સૂત્રે વાંચવાનું આપણું કામ નહિ, સૂત્રે આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદ્દન ખેટે છે. બીજા કોઈ પણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં સૂત્ર સામાન્ય વાંચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાય જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ. મહાવીરે તે વખતથી લેક ભાષામાં (અર્ધ માગધી ભાષામાં) સૂત્રો બનાવેલાં છે. એટલે સૂત્રો વાંચવાં તેમજ સમજવામાં ઘણાં સરળ છે.
માટે કઈ પણ વાંચકને એને ભ્રમ હોય તે તે કાઢી નાંખવે. અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રે વાંચવાને ચૂકવું નહિ એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં સૂત્રે જ વાંચવા.
સ્થાનકવાસીઓમા આ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કર્યું. છે અને કરી રહી છે તેવું કઈ પણ સંસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના છેલ્લા રિપોર્ટ પ્રમાણે બીજાં છ સુત્રો લખાયેલ પડયાં છે, બે સૂત્રો-અનુયાગદ્વારા અને ઠાણાંગ સૂત્રો-લખાય છે તે પણ થડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી બાકીના સૂત્રો હાથ ધરવામાં આવશે.
તૈયાર સૂત્રે જલ્દી છપાઈ જાય એમ ઈચ્છીએ છીએ અને સ્થા. બંધુઓ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સૂત્રે ઘરમાં વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ.
જેન સિદ્ધાન્ત’ પત્ર–મે ૧૯૫૫
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શ્રુત ભતિ
(પૂ. આચાર્ય શ્રી ઇશ્વરલાલજી મ. સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) દ. સ. ના જૈન મુનિ શ્રી દચાનંદજી મહારાજ
તા. ૨૩-૯-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ,
આજે લગભગ ૨૦ વર્ષોંથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, જ્ઞાન દિવાકર પ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિરાધ, સ્વપર કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના દ્યોતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે. તેઓશ્રી પ્રાચીન, પાર્વાંત્ય સંસ્કૃતા િઅનેક ભાષાના પ્રખર પડિંત છે અને જિન વાણીના પ્રકાશ સસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિન્દીમાં મૂળ શબ્દા, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનદના વિષય છે.
ભ॰ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પરંતુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજોએ શ્રુત પર પરાએ સાચવી રાખ્યા. શ્રુત પરંપરથી સચવાતુ જ્ઞાન જ્યારે વિસ્તૃત થવાના સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યા ત્યારે શ્રી દેવદ્ધિગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલ્ભીપુર-વળામાં તે આગમાને પુસ્તકો રૂપે આરૂઢ કર્યાં. આજે આ સિદ્ધાંતા આપણી પાસે છે. તે અ માગધી પાલી ભાષામાં છે. અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગણુની ધર્મ ભાષા છે. તેને આપણા શ્રમણે અને શ્રમણીએ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાએ મુખપાઠ કરે છે; પરન્તુ તેને અ અને ભાવ ઘણા ઘેાડાએ સમજે છે.
જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્માંસૂત્ર છે. એ આપણી આંખેા છે. તેના અભ્યાસ કરવા એ આપણી સૌની–જૈન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણાં સદ્ભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે સત્સ કલ્પ કર્યાં છે. અને તે લિખિત સૂત્રાને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જૈનેાના સહકાર અવશ્ય હાવા ઘટે અને તેને વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્ના કરવા ઘટે.
ભ. મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હું ભગવાન; સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે ? ભગવાન તેના પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવેાના અજ્ઞાનના નાશ થાય છે. અને તેએ સંસારના કલેશેાથી નિવૃત્તિ મેળવે છે. અને સંસાર કલેશેાથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મેક્ષ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે.
આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈના, દિગંબરી અને અન્ય ધર્મીએ હજારો અને લાખા રૂપીયા ખર્ચે છે. હિન્દુ ધર્માંમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડા નહિ પણ હજારા ટીકા ગ્રંથા દુનિયાની લગભગ સ` ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઈ ધર્માંના પ્રચારકા તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ ખાઈખલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સર્વ ભાષામાં ભાષાંતર કરી, તેને પડરતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધ
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સૂત્રને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લીમ લેકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પૈસા પરને મેહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ. અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્નો કરવા જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદે સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રૂા. ૨૫૧ ભરી સમિતિના સભ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાંઓ મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું-જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવું જોઈએ.
આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમ-ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાન્તિ અને જીવન સિદ્ધિ મેળવી શકાય.
(સ્થા. જૈન. તા. ૫-૭-૫૬)
શ્રી અ. ભા.વે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે.
રાણપુર, પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત-શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં પુનિત પગલાં થયા છે ત્યારથી ઘણા લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણિય કર્મનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યાં છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામને જનતા લાભ યે છે મને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમેં અપ્રમત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ. જે
સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમાજા કાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે. પણ બે દિન
ન શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને મ્હારી એક નમ્ર સૂચના છે કે પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણી શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તો કઈ ગ્ય સ્થળ કે જ્યાંના શ્રાવકે ભક્તિવાળા હોય. વાડાના રાગના વિષથી અલીપ્ત હોય એવા કેઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કર જોઈએ. બીજા કોઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં એગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારું. મહારી આ સૂચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છું ફરીવાર પૂજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશોજી.
લિ. સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી.
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જન સિદ્ધાંતના” તંત્રીશ્રીને અભિપ્રાય.
સ્થાનકવાસીઓમાં પ્રમાણભૂત સૂત્ર બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે. અને એના આ છેલા રિપોર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણું સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનંદ થાય છે.
મૂળ પાઠ, ટીકા, હિન્દી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સૂત્ર બહાર પાડવાં એ કાંઈ સહેલું કામ નથી. એ એક મહાભારત કામ છે. અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણું સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણું ગૌરવને વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે.
સમિતિ તરફથી નવ સૂત્રે બહાર પડી ચૂક્યાં છે, હાલમાં ત્રણ સૂત્ર છપાય છે. નવ સૂત્ર લખાઈ ગયાં છે અને જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યાં છે.
હાલમાં મંત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ સમિતિના કામમાં જ તેમને આ વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે. તેમની અંત માટે ધન્યવાદ.
અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વયેવૃદ્ધ પંડિત મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ, મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે. મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા. જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે. એ ઉપકારને બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી.
પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેને બહાર પડેલાં સૂત્રે ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનું ડું ત્રાણ અદા કર્યું ગણાય.
- ભગવાને કહ્યું છે કે પટમ viા તો ત્યાં પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યર્થાથ સમજ હોય તો ભગવાનની વાણીરૂપ આપણા સૂત્રે વાંચવા જ જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ યથાર્થ સમજવું જોઈએ.
એટલા માટે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના સર્વ સૂત્રે દરેક સ્થા. જેને પિતાના ઘરમાં વસાવવા જ જોઈએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણું સૂત્રોમાં જ સમાયેલું છે અને સૂત્રો સહેલાઈથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્ર વાંચે એ ખાસ જરૂરનું છે.
જેન સિદ્ધાંત” ડિસેમ્બર- ૧૬
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શ્રી ઉપાશક દશાંગ સૂત્રને માટે અભિપ્રાય મૂળ સૂત્ર તથા પૂ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત :
પ્રકાશક-અ. ભા. છે. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રોડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકેટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (મોટું) કદ. પાકું પઠું. જેકેટ સાથે સને ૧લ્પ૬ કિંમત ૮-૮-૦
આપણું મૂળ બાર અંગ સૂત્રમાંનું ઉપાશક દશાંગ એ સાતમું અંગ સૂત્ર છે; એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે શ્રાવકનાં જીવનચરિત્રે આપેલાં છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. - આનંદ શ્રાવકે જૈન ધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે. તેની અંતર્ગત અનેક વિષયો જેવા કે, અભિગમ, કાલકસ્વરૂપ, નવતત્વ, નરક દેવલોક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે.
આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે
ના આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં રિહંત જેરું શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચિત્ય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદન છેટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ ખેટ અર્થ બંધ બેસતો જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને ગતિ જોયા ને અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે.
" આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધમની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકેની ત્રાદ્ધિ, રહેઠાણ, નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજે રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે. - એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ એટલું જ નહિ પણ
વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ. આ પુસ્તકની શરૂઆતમાં વિદ્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહાજનું સંમતિ પત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકના સંમતિ પત્રે આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે.
* * “જૈન સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી, ૫૭
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સેકડો સર્ટીફીકેટ ઉપરાંત હાલમાં મળેલા કેટલાક તાજા અભિપ્રાયા.
શા સ્રો દ્વાર ના કાર્યને વેગ આપે. તત્રીસ્થાનેથી (જૈનયાતિ) તા. ૧૫-૯-૫૭
પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ ઠાણા ૪ હાલમાં અમદાવાદ મુકામે સરસપુરના સ્થા. જૈન ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન છે. તેઓશ્રી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કા ખૂબ જ ખંત અને ઉત્સાહથી વૃદ્ધવચે પણ કરી રહ્યા છે. તેએાશ્રી વૃદ્ધ છે છતાં પણ આખેા દિવસ શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી રહ્યા છે. આજ સુધીમાં તેમણે લગભગ ૨૦ જેટલાં શાસ્ત્રોની ટીકાઓ લખી નાખી છે અને ખાકીનાં સૂત્રાની ટીકા જેમ અને તેમ જલદી પૂર્ણ કરવી તેવા મનારથ સેવી રહેલ છે. સ્થા. જૈન સમાજમાં શાસ્ત્રો ઉપર સ*સ્કૃત ટીકા લખવાના આ પ્રથમ જ પ્રયાસ છે અને તે પ્રયાસ સંપૂર્ણ અને એવી અમે શાસનદેવ પ્રત્યે પ્રાના કરીએ છીએ. આજ સુધી ઘણા મુનિવરેએ શાઓનું કામ શરૂ કરેલ છે પણ કાઇએ પૂર્ણ કરેલ નથી. પૂજ્યશ્રી અમુલખઋષીજી મહારાજે ખત્રીસે શાસ્ત્રો ઉપર હિન્દી અનુવાદ કરેલ અને સંપૂર્ણ અનેલ. ત્યારખાદ આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ હિન્દી ટીકા કેટલાક શાસ્ત્રો ઉપર લખેલ પણ ઘણાં શાસ્ત્રો ખાકી રહી ગયાં પૂજ્ય હસ્તિમલજી મહારાજે એક બે થાઓ ઉપરની ટીકાએના અનુવાદે કરેલ. પૂજ્ય શ્રી જવાહિરલાલ મહારાજશ્રીએ સૂયગડાંગ સૂત્ર ટીકા સહિત હિન્દી અનુવાદ સાથે કરેલ. શ્રી સૌભાગ્યમલજી મહારાજે આચારાંગની હિન્દી ટીકા લખેલ. પણ સંપૂર્ણ શાસ્ત્રો ઉપર સ`સ્કૃત ટીકા હજી સુધી સ્થા. જૈન સાધુએ તરફથી થયેલ નથી. જ્યારે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ ૨૦ શાસ્રો ઉપર સ*સ્કૃત ટીકા તેના હિન્દી ગુજરાતી અનુવાદ કરાવેલ છે આથી હવે આશા ખંધાય છે કે તેઓશ્રી ખત્રીસે ખત્રીસ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવામાં સફળ થશે અને શાસ્રોદ્ધાર સમિતિએ આજ સુધી ૧૦ થી ૧૨ શાસ્ત્રો છપાવી પણ દીધાં છે અને હજી પણ તે શાસ્ત્રો વિશેષ જલદી છપાય તે માટે શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સંપૂર્ણ પ્રયત્ન કરી રહેલ છે તે ધન્યવાદને પાત્ર છે.
જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના રૂા. ૨૫૧] ભરીને લાઇફ મેમ્બર થનારને શાસ્ત્રો તમામ, શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી ભેટ મળે છે. આ રીતે એક પંથ અને ઢો કાજ, અન્ને રીતે લાભ થાય તેમ છે. રૂા. ૨૫૧ માં ૫૦૦ રૂપિયાની કિંમતના શાસ્ત્રો મળે એ પણ માટે લાભ અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરવાના ધર્મલાભ પણ મળે છે
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આ સાથે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય ૫. મુનિશ્રી કન્હેયાલાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચાતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રોના મેમ્બરી કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા બજાવી રહ્યા છે. અને અત્યાર સુધીમાં સુખ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગૃહસ્થા લાઇક્ મેમ્બર ખની ગયા છે અને મુખમાં લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બરા થાય તે ઇચ્છવા ચેષ્ય છે. શ્રીમંત ગૃહસ્થા હજાર રૂપિયા પોતાના ઘર ખર્ચમાં તેમજ મેાજશેખના કામેામાં તેમજ વ્યવહારિક કામામાં વાપરી રહ્યા છે તે આવા શાસ્રોદ્ધાર જેવા પવિત્ર કાર્યમાં રૂપિયા વાપરશે તે ધર્મની સેવા કરી ગણાશે. અને ખલામાં ઉત્તમ આગમસાહિત્યની એક લાયબ્રેરી બની જશે. જેનું વાંચન કરવાથી માત્માને શાંતિ મળશે અને શાસ્ત્રજ્ઞા પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફ્ળ થશે.
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શતાવધાની મુનિશ્રી જય'તિલાલજી મહારાજશ્રીને અમદાવાદને પત્ર “સ્થાનકવાસી જૈન” તા. ૫-૯-૫૭ના અર્કમાં છપાએલ છે જે નીચે મુજખ છે.
સૂત્રાના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર હાઇ શકે ખરી ?
તા. ૭-૮-૫૭ના રાજ અત્રે બિરાજતા શાસ્ત્રોદ્ધારક આચાય મહારાજશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાસે, મારા ઉપર આવેલ એક પત્ર લઈને હું ગયેા હતેા, તે સમયે મારે પૂ. મ. સા. સાથે જે વાતચીત થઈ તે સમાજને જણુ કરવા સારૂ લખું છું.
‘શાઓનું કામ એક ગહન વસ્તુ છે. અપ્રમાદી થઈ તેમાં અવિરત પ્રયત્ના કરવા જોઇએ. સંપૂર્ણ શાસ્ત્રોનું જ્ઞાન તેમજ દરેક પ્રકારની ખાસ ભાષાનું જ્ઞાન હાય તાજ આગમેદ્ધારકનું કાર્ય સફળતાથી થાય છે. આ પ્રકારના પ્રયત્ન હાલ અમદાવાદ ખાતે સરસપુર જૈન સ્થાનકમાં બિરાજતા પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કરી રહ્યા છે. શાસ્ત્ર લેખનનું આ કાં થઇ રહ્યું છે, તેમાં અનેક વ્યક્તિઓને અનેક પ્રકારની શંકાએ થાય છે તેમાં શાઓના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થાય છે? કરવામાં આવે છે? એવે પ્રશ્ન પણ કેટલાકને થાય છે અને તેવા પ્રશ્ન થાય તે સ્વભાવિક છે; કેમકે અમુક મુનિરાજે તરફથી પ્રગટ થયેલ સૂત્રાના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થયેલા છે. જેથી આ કાર્ય માં પણ સમાજને શંકા થાય.
પણ ખરી રીતે જોતાં, અત્યારે જે શાઓદ્ધારનું કામ ચાલી રહ્યું છે તે વિષે સમાજને ખાત્રી આપવામાં આવે છે કે, શાઓદ્ધાર સમિતિ તરફથી અત્યાર સુધીમાં પ્રગટ થયેલાં આગમાના મૂળ પાઠમાં જરાપણ ફેરફાર કરવામાં આવેલ નથી અને ભવિષ્યમાં જે સૂત્રે પ્રગટ થશે તેમાં ફેરફાર થશે નહિ તેની સમાજ નોંધ લ્યે.
લી. શતાવધાની શ્રી જયંત મુનિ-અમદાવાદ
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રૂ. ૫,૨૫૧ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી,
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“શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનક્વાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને ટૂંક પરિચય
સ્થાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સંસ્થા છે કે જેણે અત્યાર સુધીમાં તેર સૂત્ર છપાવી બહાર પાડી દીધાં છે. સાત સૂરો છપાય છે અને બીજા કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઈ ચૂકયા છે.
( આ પ્રમાણે આ સંસ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેને ટૂંક પરિચય આ પત્રિકામાં આપેલ છે તે વાંચી જઈ સર્વ સ્થા. જૈન ભાઈબહેનેએ આ સંસ્થાને યથાશકિત મદદ કરી તેના કાર્યને હજુ વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે. * *
- ખાલી ઘડો વાગે ઘણો એમ સ્થા. કેન્ફરન્સ જેમ ખેટાં બણગાં ફેંકનારી સંસ્થાની કઈ કિંમત નથી, ત્યારે નક્કર કામ કરનારી આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાનકવાસી જૈનની અનિવાર્ય ફરજ છે.
અને આ સર્વ સૂત્ર તૈયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણે મહાન ઉપકાર છે. વયેવૃદ્ધ હોવા છતાં તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્રો તૈયાર કરાવે છે. તેવું કામ હજુ સુધી બીજા કેઈએ કર્યું નથી અને બીજું કઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શંકાભર્યું છે. પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન્ ઉપકારને કિંચિત બદલે સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને બની શકતી સહાય કરીને વાળવાને છે. સ્થાકવાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામાં પાછા હઠે તેમ નથી એવી અમે આશા રાખીએ છીએ.
જેનસિદ્ધાંત” પત્ર એકટેમ્બર ૧૯૫૭
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શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉપાસક દશાંગ સૂવો.
ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલાં પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ વિરચિત શ્રી ઉપરોક્ત બે સૂત્રે જૈન ધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં હોવા જ જોઈએ. તે વાંચવાથી શ્રાવક ધર્મ અને શ્રમણ ધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકે પિતાની નિરવ અને એષણિય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે બજાવી શકે છે. વર્તમાનકાળે શ્રાવકેમાં તે જ્ઞાન નહિ હેવાને લીધે અંધશ્રદ્ધાઓ શ્રમણ વર્ગની વૈયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે. પરંતુ “કલ્પ શું અને અકલ્પ શું એનું જ્ઞાન નહિ હેવાને લીધે પિતે સાવદ્ય સેવા અપી પિતાના સ્વાર્થ ખાતર શ્રમણ વર્ગને પિતાને સહાયક થવામાં ઘસડી રહ્યા છે અને શ્રમણ વર્ગની પ્રાયઃ કુસેવા કરી રહ્યા છે. તેમાંથી બચી લાભનું કારણ થાય અને શ્રમણને યથાતથ્ય સેવા આપી તેમને પણ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહાયક થઈ પિતાના જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે. શ્રમણની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવશ્ય ગૃહસ્થની ફરજ છે.
પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. શાસ્ત્રોદ્ધારનું અનુવાદન ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપીયા ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થનારને રૂ. ૪૦૦-૫૦૦ લગભગની કીંમતના બત્રીસે આગમ કી મળી શકે છે તે તે રૂા. ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થઈ બત્રીસે આગમે દરેક શ્રાવકઘરે મેળવવા જોઈએ. બત્રીસે શાસ્ત્રોના લગભગ ૪૮ પુસ્તકે મળશે. તે તે લાભ પિતાની નિર્જરા માટે પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય માટે જરૂર મેળવે. ઉપરોકત બંને સૂત્રની કીંમત સમિતિ કંઈક ઓછી રાખે તે હરકે ગામમાં શ્રીમંત હોય તે સૂત્રે લાવી અરધી કીંમતે, મફત અથવા પૂરી કીંમતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમાં વસાવી શકે. .
–એક ગૃહસ્થ
ધ-ઉપરની સૂચનાને અમે આવકારીએ છીએ. આવાં સૂત્રે દરેક ઘરમાં વસાવવા ગ્ય તેમજ દરેક શ્રાવકે વાંચવા યોગ્ય છે. તંત્રી- *
“રત્નત” પત્ર તા. ૧-૧૦-૧૭
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રૂપ
શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની કાર્યવાહક કમીટીના અહેવાલ.
*
મે મહીનાની શરૂઆતમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની મીટીંગ અમદાવાદમાં મળી હતી તેના હેવાલ અમને મળેલા છે તેમાં સમિતિએ સરસ કામ કર્યુ છે.
આ ઉપરથી સમજી શકાય છે કે સ્થાનકવાસી સમાજમાં આજ સુધી કેાઈ પણ નથી કરી શકયું એવું મહાભારત કામ પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી કરી રહી છે. અને તેએ ઘેાડા વખતમાં માથે લીધેલું સ` કામ સંપૂર્ણ રીતે પાર ઉતારશે એવી અમને ખાત્રી છે.
આવા ઉત્તમ કાર્ય માટે સમસ્ત સ્થાનકવાસી જૈનાએ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને પાતાથી ખની શકે તે રીતે સંપૂર્ણ ટેકા આપવા જોઇએ, તે તેમની પહેલી ફરજ ખની રહે છે. જેના માટે સૂત્રા એ પહેલી જરૂરીઆતની વસ્તુ છે. સૂત્રના આધારે જ ધર્મજ્ઞાન મળે છે. આજ સુધી જે આપણને અપ્રાપ્ય હતા તે આપણા જૈન સૂત્ર પૂ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તથા શાઓદ્ધાર સમિતિએ સુલભ કરી આપ્યા છે.
તો હવે સ્થાનકવાસી જેનાએ શાઓદ્ધાર સમિતિના સભાસદ ખની સમિતિનું કામ અનતી ઉતાવળે પૂરૂં થાય તેમ કરવાની ખાસ જરૂર છે. વાંચકામાંથી જેઓથી બની શકે તેમણે પહેલા વર્ગના શાસ્રોદ્ધાર સમિતિના સભ્ય બની જવું જોઈએ. તેથી સમિતિના કામને ઉત્તેજન મળવા ઉપરાંત સભ્યને સૂત્રને આખા સેટ મફત મેળવવાના લાભ મળશે અને સૂત્રા વાંચીને ધર્મારાધન કરવાના જે લાભ મળશે તે તેા અમૂલ્ય જ છે. માટે સમિતિના સભ્ય થઈ જવાની અમારી દરેક સ્થા. જૈનને ખાસ ભલામણ છે.
“ જૈન સિદ્ધાંત ” જુલાઈ-૧૯૫૮. 5 A5 A5 HR HR
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શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના આગમા અંગે અભિપ્રાય.
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દક્ષિણ, ઉત્તર પ્રદેશ, રાજસ્થાન, દિલ્હી, પંજાબ અને હાલમાં ગુજરાત સૌરાષ્ટ્રમાં વિચરી રહેલા ઉગ્ર વિહારી પૂ. મહાસતીજી શ્રી ર્'ભાકુંવરજી તથા પ્રસિદ્ધ વ્યાખ્યાની વિવિધ ભાષા વિશારદા પૂ. મહાસતીજી શ્રી સુમતિકુંવરજીને, પૂજ્ય શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી ઘાસીલાલજી મ. સા. નિમિત જૈનાગમેાની સંસ્કૃત ટીકા તથા હિન્દી-ગુજરાતી ભાષાંતર પર અભિપ્રાય :
ૐ નમા સિદ્ધાણુ
શાસ્ત્ર વિશારદ શ્રદ્ધેય પંડિત રત્ન પૂજ્ય આચાર્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જૈનાગમાના એક વિદ્વાન, વૃદ્ધવિચારક અને ઉત્તમ લેખક છે.
સાહિત્ય સર્જન એ તેમનાં જીવનને એક ઉત્તમ સંકલ્પ છે. સામાજિક પ્રપંચેાથી દૂર રહી, અથાગ પરિશ્રમ દ્વારા વિરચિત, સંપાદિત અને અનુવાદિત અનેક ગ્રંથા તેમના દ્વારા પ્રકાશિત થયા છે, જે તમામ જેનાને માટે ચિંતન, મનન અને અધ્યયનઅધ્યાપન માટે એક અપૂર્વ સાધન રૂપ છે. આવું ઉત્તમ સાહિત્ય તૈયાર કરીને તેઓશ્રીએ સાહિત્ય સેવીના મહાન પદને દીપાવ્યું છે.
જો
આગમના રહસ્યોથી અનભિજ્ઞ (અજાણુ ) આજની પ્રજામાં શ્રદ્ધેય શ્રી મહારાજ સાહેમનું સાહિત્ય અત્યંત ઉપયેગી છે, તેમ હું માનું છું.
અમદાવાદ તા. ૧-૫-૫૮
આર્યાં–સુમતિ વર.
(
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રૂ. ૫,૦૦૧ આપનાર આઘ મુરબ્બીશ્રી,
:
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છે.
ફરી
જી વ ણુ ભાઈ
(સ્વ.) શેઠ ધા ર સી ભા ઇ
સે લા ૫ ૨.
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૩૭
.
( શ્રી શ્રમણ સંઘના ઉપાધ્યાય કવિ મુનિશ્રી અમરચંદજી મહારાજનો છે કલ્પસૂત્ર માટે અલવરને આવેલ પત્ર
શ્રીયુત ભેગીલાલજી – અમદાવાદ
જયવીર
આપને ત્યાં બીરાજમાન પરમ શ્રદ્ધેય શ્રી શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી પૂજ્યપાદશ્રી તો ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિ બધા સંતની સેવામાં વંદન સુખશાન્તિ
દિ નિવેદન છે.
આપે શ્રદ્ધેય કવિઓને મોકલેલ કલ્પસૂત્ર” મેળવીને પ્રસન્નતા પ્રગટ કરી છે હે છે. અને સાદર યથાયોગ્ય અભિનંદન પૂર્વક લખાવ્યું છે કે “કલ્પસૂત્ર'નું પ્રકાશન )
કે બહુજ ઉત્કૃષ્ટ કેટિનું છે. તેની ટીકા સુંદર-વિસ્તારપૂર્વક સારી રીતે લખેલ રે - હિ છે. ટાઈમ મળતાં અધ્યયન કરવા માટે પ્રયત્ન કરવામાં આવશે. છાપવામાં આવી
છેઆવેલ આવૃત્તિ માટે કેટ કેટિ ધન્યવાદ આપવામાં આવે છે.
જો
" કવિશ્રીજીનું સ્વાથ્ય સારી રીતે ચાલે છે. પહેલાની અપેક્ષાએ કંઈક સારૂં છે. આ પત્ર વિલાથી લખવામાં આવેલ છે તો ક્ષમા કરજે.
-
અલવર (રાજસ્થાન) તા. ૯-૮-૧૫૮.
| )
ભવદીયઃ રતનલાલ સચેતી (હિન્દી ગુજરાતીમાં અનુવાદ)
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પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં
બનાવેલાં સૂત્રે. - કાશમીરથી કન્યાકુમારી
તેમજ કરાંચીથી કલકત્તા
સુધી દરેક સ્થળે હોંશથી વંચાય છે.
કારણ કે આવી રીતે શાસ્ત્રો તૈયાર કરવાનું અનેખું કાર્ય .
હજુ સુધી કોઈ કરી શક્યું નથી.
શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સમાજ
ઉપરાંત શ્રી દેરાવાસી સંપ્રદાયના મહાન આચાર્યશ્રી રામવિજયસૂરીજી -
તથા અન્ય મુનિવરેએ
તેમજ - તેરાપંથી મહાસભા કલકત્તાવાળાએ આ સૂત્ર અપનાવ્યાં છે.
દેશ-પરદેશના મેમ્બરે સને વાંચી જેન ધર્મના શ્રુતજ્ઞાનને અણમેલે
. • લાભ લઈ રહ્યા છે. હમણાંજ લંડનની ઈન્ડીઆ ઓફિસ લાઈબ્રેરીએ આ સૂત્ર મંગાવ્યા છે. '
*
આપ રૂપીઆ ૨૫૧-૦-૦ મોકલી મેમ્બર તરીકે નામ નેંધાવી હસ્તે હપ્ત લગભગ રૂપીઆ પાંચ સુધીની કિંમતનાં શાસ્ત્રો વિના મૂલ્ય મેળવી શકે છો.
- વધુ વિગત માટે લ: ' . . ઠે. ગ્રીન લેજ પાસે, 1- * ગરેડીઆકુવા રેડ !
શ્રી અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન રાજકેટ. .
શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ..
મંત્રિ
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श्रीवीतरागाय नमः
जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजीमहाराजविरचितनिकुमुदचन्द्रिका टीकासमलंकृतम् अन्तकृतदशाङ्गसूत्रम् .
(अष्टममङ्गम् )
...मङ्गलाचरणम् -
शुद्धं विशुद्धं शिवदं जिनेन्द्र,
देवेन्द्रवृन्दस्तुतपादपद्मम् ।
अनन्तज्ञानादिधरं मुनीशं,
श्री मोक्षमार्गममाणस्य ॥ १ ॥
अन्तकृतदशाङ्ग सूत्रकी मुनिकुमुदचन्द्रिका - नामक टीकाका हिन्दीभाषानुवाद
मैं घासीलाल मुनि, कल्याण को देने वाले, देवेन्द्रवृन्द से वंदित, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य धारक, शुद्धस्वरूप, शिवपदके दाता, विशुद्धात्मा मुनियों के स्वामी जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके ॥ १ ॥ तथा वायुकायादि
.
અન્તકૃતદશાંગ સૂત્રની મુનિકુમુદચન્દ્રિકા નામક ટીકાને ગુજરાતીભાષાનુવાદ
हुँ घासीदास भुनि, उद्याने आापवावाजा, देवेन्द्रवृन्हथी पंडित, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तसुखाने मनन्तवीर्यना धारड, शुद्धस्व३य, शिवयहना भापनार, विशुद्धात्मा भुनियोना स्वाभी मिनेन्द्रलगवानने नमस्कार पुरीने, (१)
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
वायुकायादिरक्षार्थ, सदोरा मुखवस्त्रिका | वद्धा निजमुखे येन, तं गुरुं मणिपत्य च ॥ २॥ साम्प्रतमन्तकृतेऽस्मिन् सूत्रे वालोपकारिणी टीका । मुनिकुमुदचन्द्रियं वितन्यते घासिलालेन ॥ ३ ॥
अथ अन्तकृत दशाख्यमष्टमममारभ्यते, तत्र पूर्वेण सहाऽयमभिसम्बन्धःपूर्वमुपासकदशाख्ये सप्तमे ये सकलविरतिसमाराधनाऽक्षमा भवाटवी भ्रमण वेलाकलितसन्तापकलापव्याकुलितात्मानो भव्यास्तेषामुपकाराय भगवता ऽनेकश्रमजीवों की रक्षा के लिए मुख पर दोरासहित मुखवस्त्रिका धारण करने वाले त्यागी गुरु को वन्दना करके ॥ २ ॥ अल्पबुद्धिवाले भव्यों का उपकार करने वाली अन्तकृतसूत्र की 'मुनिकुमुदचन्द्रिका' नामक टीका की यथावुद्धि रचना करता हूँ ॥ ३ ॥
अब अन्तकृतदशा नामक आठवें अङ्ग का प्राररम्भ करते हुए इसका पूर्व अंग के साथ किस तरह का सम्बन्ध है, वह बताते हैं
पहिले उपासकदशा नामक सातवें अंग में, संसाररूपी अटवी (अरण्य) में भटकती हुई, जिनकी आत्मा अत्यन्त क्षुध ( सन्तप्त) हो गयी है, ऐसे सर्वविरतिधर्म-समाराधन में असमर्थ भव्यों के उपकार के लिए भगवान ने अनेक श्रमणोपासक के चरित्र चित्रण ( वर्णन ) करके अगार धर्मको प्रतिबोधित किया ।
તથા વાયુકાયાદિ જીવાની રક્ષા માટે સુખપર દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાવાળા ત્યાગી ગુરુને વન્દના કરીને, (૨)
मध्य युद्धिवाणा लव्याने उपहार ४२वावाणी अन्तकृत सूत्रानी मुनिकुमुद - નૈત્રિ નામવાળી ટીકાની યથાર્બુદ્ધિ રચના કરૂં છું (૩)
અહીં અન્તનતા નામના આઠમા અગને પ્રારંભ કરતાં તેના પૂર્વ અંગની સાથે કેવી તરેહના સમધ છે તે પતાવીએ છીએ.
..
પહેલાં ઉપાસકદશા નામના સાતમા અંગમાં, સંસાર રૂપી અટવી [અરણ્ય]માં ભટકતા જેઓને આત્મા અત્યન્ત ક્ષુબ્ધ (સતસ ) થઇ ગયા છે, એવા સ વિરતિધ – સમારાધનમાં અસમર્થ ભચૈાના ઉપકાર માટે ભગવાને અનેક શ્રમણેાપાસકોનાં ચરિત્ર વર્ષોંન કરીને અગારધર્મના પ્રતિખાધ કર્યાં.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पूर्वाङ्गेन सह संबन्धस्य निरूपणम्. . णोपासकचरित्रचित्रणपुरस्सरमगारधर्मः प्रतिबोधितः, इह चानगारधर्ममुररीकृत्य ये तद्भवमोक्षगामिन आयुषोऽवसानसमये केवलं पाप्य धर्मदेशनामदत्त्वैव मोक्षं गतवन्तस्तेषां चरित्रप्ररूपणपूर्वकमन्तकृतदशाख्यमष्टममङ्गं मरूप्यते ।
अत्रान्तकृतकेवलिना नगराणि, उद्यानानि, यक्षायतनानि वनपण्डानि, समवसरणानि, राजानः, अम्बाः, पितरः, धर्माचार्याः, धर्मकथाः, ऐहलौकिक-- पारलौकिका ऋद्धिविशेषाः, भोगपरित्यागाः, प्रव्रज्याः, पर्यायाः, श्रुतपरिग्रहाः, तपउपधानानि, संलेखनाः, भक्तमत्याख्यानानि पादपोपगमनानि, अन्तक्रियाश्चइत्यादीनि वर्ण्यन्ते, तत्रेदमादिसूत्रम्-. इस सूत्र में अनगार धर्म को स्वीकार कर जो तद्भव-(उसी भवमें) मोक्षगामी हैं और जिन्होंने आयुष्य के अन्त समय में केवलज्ञान प्राप्तकर धर्मदेशना दिये बिना ही मुक्ति प्राप्त कर ली है। ऐसे महापुरुषों का चरित्र वर्णन करने वाला अन्तकृतदशा नामक आठवें अंग का प्ररूपण करते हैं। ..... ..........
यहाँ अन्तकृत केवलियों के जीवनवृत्तान्त से सम्बन्ध रखने वाले नगर, उद्यान, यक्षायतन, वनषण्ड, समवसरण, राजा, माता, पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिकपारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, पर्याय, श्रुतपरिग्रह, तप उपधान, संलेखना; भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अन्तक्रिया आदि का वर्णन किया जाता है। उसका यह प्रथम सूत्र है :
આ સત્રમાં અનગાર ધર્મને સ્વીકાર કરીને જે તદ્દભવ-(તે જ ભવમાં) એક્ષગામી , તથા જેઓએ આયુષ્યના અન્તસમયે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી ધર્મદેશના દીધા વિના જ મુકિત પ્રાપ્ત કરી લીધી છે, એવા મહાપુરુષોનાં ચરિત્ર વર્ણન કરવાવાળા अन्तकृतदशा नामनाममा म गर्नु ५३४ शम्मे छीस.. છે અને અહીં અન્નકૃતકેવલિઓનાં જીવનવૃત્તાન્તથી સંબંધ રાખવાવાળા નગર, ઉદ્યાન, यक्षायतन, वन, सभवस२३, २०, माता, पिता, पाया, धर्मथा, घडली પારલૌકિક ત્રાદ્ધિવિશેષ, ભેગપરિત્યાગ, પ્રવજ્યા, પર્યાય, શ્રતપરિગ્રહ, તપઉપધાન, સંખના, ભકતપ્રત્યાખ્યાન, પાદપેપગમન, અંતક્રિયા આદિનું વર્ણન કરવામાં આવે छ. तेनु मा प्रथम सूत्र छ:
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अन्तकृतदशासूत्रे
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'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था, वण्णओ। लत्थ णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए एत्थ णं पुण्णमहे णामं चेइए होत्था।वणसंडे:वण्णओ। तीसे णं चंपाए णयरीए कोणिए नामं राया होत्था सहयाहिमवंत० वण्णओ०॥सू०१॥
॥ टीका ॥ 'तेणं' इति । तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये-काले अवसर्पिण्याचतुर्थारकलक्षणे, समये कोणिकराजशासनावसरे चम्पा नाम नगरी 'होत्था' आसीत् ।
प्राकारपरिवेष्टितं प्रतिद्वारं विविधशिल्पकलाकलितं विशालगोपुरसुशोभित सकलजातीयजननिवासस्थानं नगरीत्युच्यते । गोपुरं हि नगरस्य सौन्दर्याय
"तेणं कालेणं तेणं समएणं"............इत्यादि ।
अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्दर और राजा कूणिक के शासन समय में चम्पा नामक नगरी थी।
__ नगरी-जो चारों तरफ कोटों. (प्राकारों) से घिरी हुई हो, जिसका प्रत्येक बार नाना भाँति की शिल्पकलाओं से युक्त, सुन्दर गोपुर से सुशोभित हो और जहाँ सभी वर्गों के मनुष्य निवास करते हों उसे नगरी कहते हैं।
___ अथवा-जहाँ किसी भी तरह का कर (टेक्स)न लिया . जाता हो उसे भी नगरी (नकरी) कहते हैं । ... . तेणं कालेणं तेणं समएणं त्या
અવસર્પિણીના ચોથા આરાની અંદર રાજા કેણિકના શાસનસમયમાં ચપ્પા નામે નગરી હતી. જે ચતુર્દિક કેટ (પ્રાકાર) થી ઘેરાયેલી છે, જેનું પ્રત્યેક દ્વાર (દરવાજેજુદી જુદી પ્રકારની શિલ્પકળાઓથી યુકત અને સુંદર ગોપુરથી સુમિત હોય તથા જેમાં તમામ વર્ગોનાં મનુષ્ય નિવાસ કરતાં હોય તેને नगरी छे.
અથવા જ્યાં કઈ પણ જાતને કર (ટેકસ) ને લેવાતું હોય તેને પણ નગરી : (न ) छे.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, चम्पानगरीवर्णनम्
प्रतिद्वारा निर्मितं विचित्र शोभासम्पन्नं प्रवेशद्वार मिति ।
अथवा 'नकरी' - तिच्छाया, तत्र न करो = राजदेयभागो यस्यां सा नकरी = अष्टादश करवर्जिता पुरी, अकरदायिजनावासस्थानमित्यर्थः ।
(2
अष्टादश करा यथा - (१) गोकरः - गवां करः गोकरः - इयत्परिमित - गोविक्रयणे एका गौर्दातव्येतिरूपः, गोविक्रयलब्धरूप्यकेभ्यो नियतरूप्यकग्रहणं वा, (२) एवं महिपकरः, (३) उष्ट्रकर:, (४) पशुकर:- रासभादिकरः, पक्षिकरो वा, (५) अजाकरः - अजामेषादिक्रयविक्रये रूप्यकयाचनम्, (६) तृणकर:, (७)
गोपुर - नगर की सुन्दरता बढाने के लिये प्रत्येक द्वार पर बनाया हुआ विचित्र शोभायुक्त प्रवेश द्वार को गोपुर कहते हैं ।
कर ( जकात ) - अठारह प्रकार का होता है । वह इस प्रकार है:(१) गोकर- कुछ निश्चित संख्या तक गौ के बिकने पर एक गौ का कररूप में लेना, अथवा गौ के मूल्य से कुछ निश्चित रूपये लेना, इसको गोकर कहते हैं ।
(२) महिषकर - भैंस पर लगने वाला कर ।
(३) उष्ट्रकर - उँट पर लगने वाला कर ।
(४) पशुकर - गधे पर लगनेवाला कर, अथवा पक्षिकर - पक्षियों पर लगने वाला कर ।
(५) अजाकर - बकरी - भेडों पर लगने वाला कर ।
ગોપુરી નગરીની સુંદરતા વધારવા માટે પ્રત્યેક દરવાજા ઉપર બનાવેલાં વિચિત્ર Àાભાયુક્ત પ્રવેશદ્વારને ગેપુર કહે છે.
3
कर ( जकात ) ४२ भदार अारना थाय छे ते नीचे प्रमाणे छे.
(१) गोकर अभुः निश्चित संभ्यासुधी गायने वेथवा उपर मे गायने કરરૂપે લેવી તે, અથવા ગાયની કિંમતમાંથી અમુક નિશ્ચિત રૂપી લેવા તે.
(२) महिषकर लेंस उपर सेवामां आवते। ४२,
( 3 )
उष्ट्रकर ७८ ५२ सेवाती १२.
(४) पशुकर गधेडा पर सेवाती ४२, अथवा पक्षिकर पक्षी ५२ લેવાતા કર
(५) अजाकर रां, बेटी पर सेवाती १२.
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अन्तकतदशामूत्रे
पलालकर:-पलालः-खलमर्दितत्रीह्यादिनिस्मृतणविशेषस्तस्य करः, (८) बुसकर:धान्यतुपकरः, (९) काष्टकरः, (१०) अङ्गारकरः- अङ्गारः 'कोयला' इति भाषाप्रसिद्धस्तस्य करः, (११) लागलकरः- हलकरः, (१२) देहलीकर:- गृहकर इत्यर्थः, (१३) जङ्घाकर:- मनुष्यकर इत्यर्थः, (१४) वलीचर्दकरः, (१५) घटकरः, (१६) कर्मकर:-कर्माश्रित्य करः- सुवर्णकारादिशिल्पिभ्यो रूप्यकया
(६) तृणकर-घास का कर । (७) पलालकर-चावल आदि निकाले हुए घासका कर। (८) वुसकर-भूसे का कर। (९) काष्ठकर-लकडी का कर । (१०) अंगारकर-कोयले का कर। (११) लांगलकर-हल पर लगने वाला कर। (१२) देहलीकर-घरों पर लगने वाला कर। (१३) जङ्घाकर-मनुष्यों पर लगने वाला कर । (१४) बलीवर्दकर-वैलों का कर ।
(१५) घटकर-घडों का कर । ... (१६) कर्मकर-सुतार आदि शिल्पी जातियों पर लगने बाला कर।
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(६) तृणकर घास ना ४२. (७) पलालकर भांथी यामाही दवीधे डाय तवा घास ५२ने। ४२. (८) बुसकर भूसाना ४२. (८). काष्ठकर ना ४२. (१०) अंगारकर यानी ४२. . (११) लांगलकर 3 परने! ४२. (१२) देहलीकर घर पर। ४२. (१३) जंघाकर मनुष्य। ५२ वात। ४२, (१४) वलीबदेकर .महने। ४२. (१५) घटकर घडी ५२ने। ४२. (१६) कमकर सोनी माहि शिल्पीतिमा पासेथा सवात ४२.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, चम्पानगरीवर्णनम् - चनमित्यर्थः, (१७) बुल्लगकरः- बुल्लगो-जातिभोजनं, तस्य करः, (१८)
औत्तिककरः- औत्तिकः = औत्पात्तिकीवुद्धिपरिकल्पितविज्ञानकलाव्यापारस्तस्य करः । 'वण्णओ' वर्णकः, वर्ण्यते प्रकाश्यतेऽर्थों येन स वर्णः, वर्ण एव वर्णकः चम्पानगरीवर्णनमित्यर्थः, सर्वोऽत्र वाच्यः, स चौपपातिकमत्रादवसेयः, तत्र खलु तस्यां चम्पायां नगर्याम् 'उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए' उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे-उत्तरपूर्वयोरन्तरालदिग्विभागे-ईशानकोणे इत्यर्थः, 'एत्थ णं' अत्र खलु 'पुण्णभदे णामं चेइए' पूर्णभद्रं नाम चैत्यं यक्षायतनम् आसीत् । तत्र 'वणसंडे' वनपण्डः अनेकजातीयप्रधानवृक्षसमूहरूपः, एकजातीयप्रधान
(१७) वुल्लगकर-जाति-भाइयों को भोजन देना उसको 'वुल्लग' कहते हैं, उसका कर।
___ (१८) औत्तिककर-औत्पातिकी बुद्धि से परिकल्पित विज्ञान- कला के व्यापार पर लगनेवाला कर । . ये अठारह प्रकार के कर चम्पानगरी में नहीं लगते थे।
। जिसके द्वारा अर्थ प्रकट होता है उसे 'वर्णक' कहते हैं। - वर्णक का यही अभिप्राय है-चम्पानगरी का वर्णन ।
वह सविस्तर औपपातिकसूत्र से जानना चाहिये। उस चम्पानगरी के ईशान कोण में पूर्णभद्र नामका यक्षायतन था। वहाँ अनेक जाति के वृक्षों का अथवा एक जाति के वृक्षों का सुन्दर
(१७) बुल्लगकर ति-मिश्श्यिाने मान हे तर 'बुल्लग' - छे, तेन ४२,
(१८) औत्तिककर मीत्पाति:-पात मुद्धिथा प२ि४ति विज्ञान माना વ્યાપાર ઉપર લેવાતો કર.
આ અઢાર પ્રકારના કર ચમ્પા નગરીમાં લાગતા નહતા.
नाथी म ४८ थाय छ त 'वर्णक' छ. वर्णकना मी मनिप्राय छચમ્પા નગરીનું વર્ણન ...: तसविस्तर औपपातिकमूत्रथा नये. २मा या नगीना शान કેણુમાં પૂર્ણભદ્ર નામનું યક્ષાયતન હતું. ત્યાં અનેક જાતિનાં વૃક્ષનું અથવા એક જાતિના વૃક્ષોનું સુંદર વનણંડ હતું, તેનું પણ વિશેષ વર્ણન ગૌપાતિસૂત્રથી જાણવું. -
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे वृक्षसमुदायो वा, वणओ' वर्णका बनपण्डवर्णनमत्र औपपातिकसूत्राद् विलोकनीयम् । तस्यां चम्पायां नगयां कूणिको नाम राजा आसीत् । स कीदृशः इत्याद-' महयाहिमवन्त०' इत्यनेन । महया-हिमवंत-महंतमलयमंदर-महिंद-सारे' इत्यादि संग्रहः, महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसार:महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्राणां पर्वतानां सार इव सारो यस्य स तथोक्तः- लोकमर्यादाकारित्वेन महाहिमवत्सदृशः, प्रसृतयश कीर्तित्वेन महामलयतुल्यः, दृढमतिज्ञत्वेन कर्तव्यदिग्दर्शकत्वेन च मेरुमहेन्द्रसदृश इत्याशयः, इत्यादिरूपो ‘वण्णओ' वर्णका कोणिकराजवर्णनम् , स चौपपातिकसूत्रेऽवलोकनीयः ॥ सू० १॥
॥ मूलम् ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मे थेरे जाव पंचहि अणगारसएहि सद्धिं संपरिखुडे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइये तेणेव समोसरिए। परिसा निग्गया जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अंतेवासी अजजंबू जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइणं वनषण्ड था, उसका भी विशेष वर्णन औपपातिकसूत्र से जानना।
__उस चम्पानगरी में कूणिक नामके राजा राज्य करते थे। वह लोकमर्यादा करने के कारण महाहिमवान के सदृश थे, फैले हुए यश और कीर्ति के कारण महामलय-तुल्य थे, दृढप्रतिज्ञता और कर्तव्यज्ञान कराने के कारण मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान प्रभावशाली थे। कोणिक राजा का वर्णन विस्तृत रूप से औपपातिक सूत्र में देखना चाहिए ॥ सू० १॥ - તે ચમ્પાનગરીમાં કણિક નામના રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તે લેકમયદા કરવાના કારણથી મહાહિમવાન–સટશ હતા. યશ અને કીર્તિ ફેલાઈ રહેવાના કારણથી તે મહામલય તુલ્ય હતા. દઢપ્રતિજ્ઞતા અને કર્તવ્ય જ્ઞાન વડે મેરુ અને મહેન્દ્ર પર્વતના જેવા પ્રભાવશાલી હતા. કૃણિક રાજાનું વર્ણન વિસ્તારથી औपपातिकसूत्र भi as aj (सू० -१)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुधर्मस्वामिनश्वम्पायां समवसरणम्
भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगेरणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्त अंगस्स उवासगदसाणं अयमट्टे पण्णत्ते, अट्टमस्स णं भंते! अंगस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव सम्पत्तेर्ण के अट्ठे पण्णत्ते ? ॥ सू० २ ॥
॥ टीका ॥
'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' अन्जसुहम्मे थेरे' आर्यसुधर्मा स्थविरःसु - शोभनो धर्मः = ज्ञानचारित्रलक्षणः स्याद्वादलक्षणः स्वभावलक्षणो वा यस्यासौ सुधर्मा, आर्यश्वासौ सुधर्मा च, आर्यसुधर्माअर्यते=भविभिर्गम्यते : कल्याणप्राप्तये यः स आर्यः १, अथवा हेयधर्माद्
उस काल उस समय में स्थविर आर्य सुधर्मा स्वामी पाँच सौ अनगारों के साथ तीर्थकरपरम्परा से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, उस चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारे।
यहाँ मूल में 'आर्य सुधर्मा स्थविर' ये तीन पद आये हैं । इनमें - 'सुधर्मा' शब्द का ऐसा अर्थ है-सु-शोभन अर्थात् अच्छा धर्म - श्रुतचारित्रलक्षण, स्याद्वादलक्षण और स्वभावलक्षण धर्मवाले सुधर्मा कहलाते हैं ।
आर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- भव्यलोक अपने कल्याणप्राप्ति के लिए जिनकी सेवा करते हैं उनको आर्य कहते हैं । १ ।
अथवा – हेय - त्याज्यं धर्म से जो अलग रहते हैं, वे आये कहलाते हैं । २ ।
તે કાલ તે સમયમાં સ્થવિર મા રુષોઁવામી પાંચસે અનગારાની સાથે તીર્થંકરપર પરાથી વિચરતા ગામે-ગામ સચમયાત્રાનિર્વાહપૂર્વક વિહાર કરતા કરતા તે ચમ્પાનગરીના પૂર્ણભદ્ર નામના ઉદ્યાનમાં પધાર્યાં.
अडी भूभां 'आर्य सुधर्मा स्थविर' मा त्र यह। आवेसां छे. तेभां આયે શબ્દની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રકારે છે. ભવ્યલાક પોતાનાં કલ્યાણુપ્રાપ્તિને માટે
बेनी सेवा ४२ छेतेने आर्य छे अथवा डेय ( त्याग ४२वा योग्य ) धर्मथा ने
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अन्तकृतदशाङ्गमूत्रे आराद् यायते-दुरेण स्थीयते येन स आर्यः २, कर्मरूपकाष्ठच्छेदकत्वादनत्रयरूपमारम्, तद् याति प्राप्नोति यः स इति वा आर्यः ३, इत्यार्यशब्दनिर्वचनम् । उक्तं च-"अज्जइ भविहिं आरा, आइज्जइ हेयधम्मओ जो वा । रयणत्तयख्वं वा, आरं जाइत्ति अज्ज इय वुत्तो" ॥ इति ॥ कीदृशः स आर्यसुधर्मा ? इत्याह- स्थविर इति । संयमयोगेषु सीदतः साधून ऐहलौकिकपारलौकिकाऽपायदर्शनतः संयमादिपु स्थिरीकरोतीति स्थविरः, यावत् पञ्चभिरनगार
___ अथवा-रत्नत्रय रूप आरा जिसने प्राप्त कर लिया हो उसे भी आर्य कहते हैं। कर्मरूप काष्ठका छेदन करने के कारण रत्नत्रय आराशस्त्रविशेष-कहलाता है । इस अर्थको प्रकाशित करने वाली गाथा इस प्रकार है:
"अज्जइ भविहिं आरा, जाइज्जइ हेयधम्मओ जो वा स्यणत्त्यरूवं वा, आरं जाइत्ति अज्ज इय वुत्तो ॥१॥” इति ।। - 'स्थविर' शब्द का अर्थ कहते हैं-तप-संयम में लगे हुए मुनियों को, अगर. संयमयोग में परीषह-उपसर्ग--आदि--जनित क्लेशके अनुभव के कारण शिथिलता आजाय तो जो उन्हें ऐहिक-पारलौकिक हानि बतलाकर तपसंयम में स्थिर करते हैं, उन्हें स्थविर कहते हैं। અલગ રહે તે આર્ય કહેવાય છે. અથવા-રત્નત્રયરૂપ આર જેણે પ્રાપ્ત કર્યા છે તેને પણ આઈ કહે છે. કર્મરૂપ કાઇનું છેદન કરવાના કારણે રત્નત્રય આરા કહેવાય છે. આ અર્થને પ્રકાશ કરવાવાળી ગાથા આ પ્રમાણે છે :
'अज्जइ भविहिं आरा, जाइज्जइ हेयधम्मओ जो वा' .. रयणत्तयरूवं वा, आरं जाइत्ति अज्ज इय वुत्तो ।। १॥ इति ।
सु-शोले मे अर्थात् साई, धर्म = श्रुतयारित्रसक्ष, स्याक्ष तथा स्वभावरक्षा-व सुधर्मा उपाय छे. .
'स्थविर' ने मर्थः ४ छ. तपसयभभ सासा भुनिसान हाथित સંયમયેગમાં પરિવહ ઉપસર્ગ આદિથી પેદા થતા કલેશાનુભવના કારણે શિથિલતા આવે તે તેઓને ઐહિક પારલૌકિક હાનિ બતાવી તપસંયમમાં જે સ્થિર કરે છે તેને
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कुमुदचन्द्रिका टीका, सुधर्मस्वामिनश्वम्पायां समवसरणं, जम्बूस्वामिप्रश्न ११
:
शतैः सार्द्ध सम्परिवृतः पुचाणुपुवि' पूर्वानुपूर्व्या=तीर्थकर परम्परया, ‘चरमाणे' चरन=विहरन्, पुनः 'गामानुगामं दुइज्जमाणे ' ग्रामानुग्रामं द्रवन् = एकस्माद् ग्रामादनन्तरग्राममनुल्लङ्घ्य विचरन्, 'सुहसुहेणं विहरमाणे ' सुखसुखेन विहरन् संयमयात्रा निर्वाहपूर्वकं विहरन्, यत्रैव चम्पानगरी पुण्यभद्रं चैत्यं तत्रैव समवसृतः चम्पा = अङ्गदेशराजधानी, पुण्यभद्रम्एतन्नामकम्, चैत्यं=यक्षायतनम्, यद्वा पत्रपुष्पफलादीनां समृद्धिश्चितिः, तत्र साधु चित्यम्, तदेव चैत्यम्, उद्यानमित्यर्थः समवसृतः समागतः। 'परिसा निग्गया जाव परिसा पडिगया ? परिपन्निर्गता यावत्परिषत् प्रतिगता - परिपत्= जनसमुदायरूपा सभा, निर्गता = स्वस्वगृहाद् धमकथां श्रोतुं निःसृता यावत् परिषत् प्रतिगता=धर्मकथां श्रुत्वा परिषत् स्वस्वस्थानं प्रति निवत्तेत्यर्थः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मणोऽन्तेवासी - अन्ते समीपे वस्तुं शीलमस्येति अन्तेवासी - शिष्य आर्यजम्यू: जम्बूस्वामी काश्यपगोत्रः सप्तहस्तो च्छ्रितगात्र इत्यादिविशेषणविशिष्टः यावत् पर्युपासीनः सेवमानः एवमवादीत् = वक्ष्यमाणप्रकारेणाऽपृच्छत्
a
यदि खलु, ' भन्ते' भदन्त भयान्त भवान्त इति वाच्छाया, तत्रः परिषत् - जनसमुदायरूप सभा धर्मकथा सुनने के लिये अपने-अपने घर से निकली और धर्मकथा सुन कर अपनेअपने स्थान को गयी ।
उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मास्वामी की सेवामें सदा समीप रहने वाले, रत्नत्रयप्राप्ति के इच्छुक, काश्यप-गोत्रीय, सप्तहस्तपरिमितदेहधारी आर्य जम्बूने सुधर्मा स्वामीसे इस
प्रकार पूछा
हे भदन्त ! अर्थात् हे कल्याण करने वाले !, हे भयनिवारक સ્થવિર કહે છે. પરિષã-જનસમુદાયરૂપ સભા ધર્માંકથા સાંભળવા માટે ખેતપેાતાના -ઘેરથી નીકળી ધર્મકથા સાંભળી પાતાતાને સ્થાને ગઈ.
તે કાલ તે સમય આય સુધર્માં સ્વામીની સેવામાં સદા સમીપ રહેવાવાળા રત્નત્રય પ્રાપ્તિના ઇચ્છુક, કાશ્યપગોત્રીય, સપ્તહસ્તપરિમિતદેહધારી જમ્મૂએ આ अारे पूछयु :
હું ભ ત ! અર્થાત-હ.કલ્યાણ કરવાવાળા ! હું ભયનિવારક ! સ સારસ કવિનાશક
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हे कल्याणकारिन्, भयहारिन्, भवहारिन् भगवन् !
'ससणेणं भागच्या सहावीरेणं' श्रमणेन भगवता महावीरेण, 'आइगरेणं जाव सम्पत्तेणं' आदिकरेण यावत् सम्मान - आदिकरेण धर्मस्यादिकरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेन गतेन सप्तमस्य अङ्गस्य उपासकदशानाम् अयं = पूर्वोक्तरूपः अर्थः = श्रावकाचाररूपो विषयः, प्रज्ञप्तः = प्रतिपादितः । अष्टमस्य खलु भदन्त ! अङ्गस्य अन्तकृतदशानां श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ॥ सू० IF
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
॥ मूलम् ॥
एवं खलु जंबू ? समणेणं जाव संपत्तेणं अट्टमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठ वग्गा पण्णत्ता । जइ णं भंते ? समणेणं जाव संपत्तेणं अट्टमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठ वग्गा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपaणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्टमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा - गोयम समुह सागर, गंभीरे चेव होइ थिमिए य । अयले कंपिल्ले खलु अक्खोभ पसेणजी विहू ॥ सू० ३ ॥
संसारसंकटविनाशक, अथवा - हे मुक्तिदाता ! अपने शासन की अपेक्षा से धर्म की आदि करने वाले, सिद्धिगतिनामक स्थान प्राप्त, श्रमण भगवान महावीर प्रभुने उपासकदशा नामक सातवें अङ्ग में श्रावकों के आचार का निरूपण किया है, परन्तु अन्तकृत दशा लामक आठवें अङ्ग में भगवान ने किस विषय का प्रतिपादन किया है ? ॥ सू० २ ॥
અથવા હું મુકિતદાતા ! પેાતાનાં શાસનની અપેક્ષાથી ધર્મને આદિ કરવાવાળા, સિદ્ધિગતિ नाभना स्थानने प्राप्त, श्रभणु भगवान महावीर अलुमे उपासकदशा नाभना सातभा અંગમાં શ્રાવકના આચારનું નિરૂપણ કર્યું છે, પરંતુ અન્તકૃતજ્ઞા નામના આઠમાં संगमां लगवाने झ्या विषयनुं प्रतिपादन यु छे ? (सू० 3 )
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुधर्मस्वामिन उनरम् .
॥ टीका ॥ . ...: "एवं खलु इत्यादि । .. एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन मोक्षं गतेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानाम् अष्ट वर्गाः प्रज्ञप्ताः । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानाम् अष्ट वर्गाः प्रज्ञप्ता, प्रथमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य अन्तकृतदशानां श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कति-कियत्संख्यकानि अध्ययनानि प्रज्ञसानि ? सुधर्मा स्वामी माह-एवं खल्लु जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संपाप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां प्रथमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । अधीयते-पठ्यते विनयादिक्रमेण गुरुसमीपे इत्यध्ययनं,
- सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! जिन्होंने भवका अन्तं कर दिया है, उन महापुरुषों के चरित्र को प्रतिपादन करने वाली ग्रंथपद्धति को अन्तकृतदशा कहते हैं, उस आठवें अङ्ग में सिद्ध-. पदप्राप्त श्रमण भगवान महावीर प्रभुने आठ वर्गों का प्रतिपादन किया है। ......हे भगवन् ! : अन्तकृतदशानामक आठवें अङ्गमें श्रमण - भगवान महावीर प्रभुने आठ वर्गों का प्रतिपादन किया है, उनमें
प्रथमवर्ग के कितने अध्ययन कहे हैं ? - हे जम्बू! मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर प्रभुने अन्तकृतदशानामक आठवें अङ्ग के प्रथम वर्ग के दस अध्ययन
जो विनयादिक्रमसे गुरुके समीप पढा. जाय, अथवा जिससे आत्मकल्याण की प्राप्ति हो, अथवा जिसके द्वारा अनेक
सुधास्वामी ४ छ-७४ रेमो मन मशीघीछे सवा महापुरुषाना यस्त्रिनु प्रतिपाइन ४२वापाणी अन्यपद्धतिने अन्तकृतदशा छे. तना भां અંગમાં સિદ્ધપદ પ્રાણ-શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ આઠ વર્ગોનું પ્રતિપાદન કર્યું છે.
भगवान ! अन्तकृतदशा नामना मामा ममा श्रंभ मसवान महावीर પ્રભુએ આઠ વર્ગોનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેમાં પ્રથમ વર્ગનાં કેટલાં અધ્યયન કહાં છે?
! भाक्षने प्रास श्रम : भगवान महावीर प्रभुमे अन्तकृतदशा નામના આઠમાં અગના પ્રથમ વર્ગનાં દશ અધ્યયન કહ્યાં છે.
જે વિનય આદિ કમથી ગુરુની સમીય ભણાય, અથવા જેનાથી આત્મકલ્યાણની
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१४
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अन्तकृतदशास्त्रे विशिष्टात्मकल्याणार्थनिरूपकसन्दर्भरूपश्रुतमित्यर्थः, यद्वा पूर्वभवोपार्जितकर्मणां निर्जरा जायते नूतनकर्मवन्धाभावो वा यत्र भवतीत्यध्ययनम् । उक्तंच
अज्झप्पस्साणयण कम्माणं अवचओ उवचियाणं.. - अणुवचओ य नवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥१॥
. छाया-अध्यात्ममानयनं कर्मणां अपचयः उपचितानाम् ।
.: अनुपचयश्च नवानां, तस्मात् अध्ययनमिच्छन्ति ॥१॥ ... अध्यात्म चेतः तस्य आनयनं मापणं शुभध्याने, तथा उपचितानां कर्मणाम् अपंचयः, नवानां कर्मणामनुपचयश्चानेन भवतीतीदमध्ययनमुच्यतेइति । तानि . दशाध्ययनान्याह-तं-जहा' : तद्यथा-गौतमः समुद्रः सागरो गम्भीरश्चैव भवति स्तिमितश्च । अचला. काम्पिल्यः खल अक्षोभः प्रसेनजिदू. विष्णुरिति । तेषां प्रत्येकनाम्ना प्रत्येकमध्ययनं ज्ञातव्यम् ।। म्० ३॥ भवोपार्जित कर्मों की नर्जरा हो, अथवा- जिससे नवीन कर्मों का पंध नहीं हो, उसका नाम अध्ययन है। ... इस अर्थ का निरूपण करने वाली गाथा इस प्रकार है:
"अज्झप्पस्साणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं। अणुवचओ य लवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥” इत्यादि। वे क्रमशः इस प्रकार है:
____(१) गौतम (२) समुद्र (३) सागर (४) गम्भीर (५) स्तिमित (६) अचल (७) काम्पित्य (८) अक्षोभ (९) प्रसेनजित् और (१०) विष्णुकुमार ॥ सू०.३॥ .
.. પ્રાપ્તિ થાય, અથવા જેના વડે અનેકભપાર્જિત કર્મોની નિર્જરા થાય, અથવા જેનાથી નવીન કર્મોનું બંધ ન થાય તેને અધ્યયન કહે છે. - • २मा अर्थ नु नि३५०४ ४२वावाणी: 40: २मा ४ारे छ :
"अज्झम्पस्लाणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं ।:::: - अणुवचओ यनवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥ त्याहि. ते मध्ययनाना नाम मा २ छ :(१) गौतम (२) संभु (3) सांग२ (४) जमी२ . (५) तिभित (6) मयत (७) पिट्य (८) शाम () प्रसेनस्तूि (१०) विभा२ (९० 3)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, जम्बूस्वामिप्रश्नः
॥ मूलम् ॥ . - जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अहमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्य वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-गोयम जाव विण्ह । पढमस्सणं जाव भंते ! अज्झयणस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खल जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवई णामं नयरी होत्था, दुवालसजोयणायामा णवजोयणवित्थिपणा धणवइमइनिम्मिया चामीकरपागारा नाणामणिपंचवण्णकविसीसगपरिमंडिया सुरम्मा अलकापुरिसंकासा पमुइयपकीलिया पञ्चक्खं देवलोगभूया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ सू० ४॥ ..
॥ टीका ॥ ...... 'जइ णं भंते' इत्यादि । ....
यदि खल भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां प्रथमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि गज्ञप्तानि, तद्यथा-गौतमो यावद् विष्णुः, गौतमादीनि विष्णुकुमारान्तानि दश अध्ययनानि प्ररूपितानीति भावः । प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य अन्तकृतदंशानां श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'चारचई णामं णयरी'
हे भदन्त ! -हे भगवन् ! अन्तकृतदशानामक आठवें अङ्ग के प्रथम वर्ग में भगवान ने दस अध्ययनों का प्रतिपादन किया है, किन्तु उनमें से प्रथम अध्ययन में किस भावका निरूपण किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में, जबकि बाईसवें तीर्थकर भगवान अरिष्टनेमि विचरते थे तब उसी हीयमान रूप समय में, सौराष्ट्र देश की राजधानी द्वारका नामकी
3 भगवान ! अन्तकृतदशा नामना मामां मना प्रथम वर्गभां मनवाने દશ અધ્યયનનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, પરંતુ તેમાંથી પ્રથમ અધ્યયનમાં કયા ભાવનું नि३५] यु छ ?...
સુધર્મા કહે છે-હે જબ્બ ! અવસર્પિણી કાલના ચોથા આરામાં જ્યારે બાવીસમાં તીર્થકર ભગવાન અરિષ્ટનેમિ વિચરતા હતા ત્યારે તે હીયમાનરૂપ સમયમાં સૌરાષ્ટ્ર દેશની
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अन्तकृतदशाङ्गमूत्रे द्वारावती नाम नगरी आसीत् , 'दुवालसजोयणायामा' द्वादशयोजनायामा-द्वादश योजनानि आयामो–दैध्य यस्याः सा, 'णवजोयणवित्थिण्णा' नवयोजनविस्तीर्णा= नवयोजनानि विस्तीर्णा-विस्तृता 'धणवइमइनिम्मिया'धनपतिमतिनिर्मिताधनपतिः कुबेरः, तस्य मतिस्तया निर्मिता इति धनपतिमतिनिर्मिता-कुवेरबुद्धिरचिता इत्यर्थः, 'चामीकरपागारा'चामीकर-माकारा-चामीकरस्य प्राकारोऽर्थात् चामीकरनिर्मितः प्राकारो यस्यां सा, सुवर्णमयप्राकारवतीत्यर्थः । 'नाणामणिपंचचण्णकविसीसगपरिमंडिया' नानामणिपञ्चवर्णकपिशीर्पकपरिमण्डिता, नानागणिभिः इन्द्रनीलबैर्यपद्मरागादिकैर्मणिभिः पञ्चवर्णाः कपिशीर्षकाः= कंगूरा' इति भाषापसिद्धाः तैः परिमण्डिता-शोभिता, 'सुरम्मा' सुरम्या अतिशयरमणीयेत्यर्थः, 'अलकापुरिसंकासा' अलकापुरीसंकाशा, कुवेरनगरीतुल्या 'पाइयपक्कीलिया' प्रमुदितप्रक्रीडिता-प्रमुदितयोगात् प्रमुदिता, प्रक्रीडितयोगात् प्रक्रीडिता, प्रमुदिता चासौ प्रक्रीडीता प्रमुदितप्रक्रीडिता-सुखयुक्तत्त्वात् हर्षिता क्रीडाकारकजनापन्नेत्यर्थः ‘पच्चक्खं देवलोगभूया' प्रत्यक्ष देवलोकभूता =साक्षादेवलोकसमाना, 'पासाईया' प्रासादीया-प्रसादो= मनःममोदः प्रसिद्ध नगरी थी। वह बारह योजन लम्बी और नौ योजन की चौडी थी। जिसका निर्माण स्वयं कुवेर ने अत्यन्त वुद्धिकौशल द्वारा किया था। जो स्वर्ण के परकोटे से तथा इन्द्रनील, वैदूर्य,पद्मराम-आदिमणि-जटित कंगूरों से सुसज्जित, शोभनीय एवं दर्शनीय थी। जिसकी उपमा कुबेर की नगरी से दी जाती थी। जो क्रीडा-प्रमोद आदि समस्त सामग्रियों से परिपूर्ण होनेसे साक्षात् देवलोकस्वरूपा थी। उस द्वारावती नगरी का निर्माण इस ढंग से રાજધાની દ્વારકા નામે પ્રસિદ્ધ નગરી હતી. તે બાર એજન લાંબી અને નવ
જન પહોળી હતી. જેનું નિર્માણ કુબેરે તે અત્યંત બુદ્ધિકૌશલ્યથી કર્યું હતું. જે સુવર્ણના પરકેટાથી તથા ઈન્દ્રનીલ-વૈદુર્ય—પારાગાદિ-મણિજડિત કંગુરથી સુસજિજત, શોભનીય, દર્શનીય હતી. જેની સરખામણી કુબેરની નગરી સાથે થતી હતી. જે ક્રીડા-પ્રમોદ આદિ સમસ્ત સામગ્રીઓથી પરિપૂર્ણ હોવાથી સાક્ષાત દેવલોકસ્વરૂપે હતી. તે દ્વારાવતી નગરીનું નિર્માણ એવી રીતે કરવામાં આવ્યું હતું કે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, द्वारावती वर्णनम् .
. १७ प्रयोजनं यस्याः सा इति व्युत्पत्तिः, द्रष्टणां मनःप्रमोदजनिका, 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया प्रेक्षणीया, 'अभिरूवा'-अभिरूपा अभि-आभिमुख्येन सर्वदाऽवस्थितानि रूपाणि राजहंसचक्रवाकसारसादीनि करिमहिषमृगकुलादीनि जलान्तर्गतानि करिमकरादीनि वा यत्र सा, अथवा अभिप्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा, सर्वकालरमणीया, 'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं. रमणीयतायाः' इति रमणीयतास्वरूपोक्तेः । 'पडिरूवा'-प्रतिरूपा, प्रति-विशिष्टमसाधारणं रूपं यस्याः सा, सर्वोत्तमेत्यर्थः ॥ मू० ४ ॥
तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं रेवयए नाम पवए होत्था, वण्णओ ! तत्थ णं रेवयए पवए नंदणवणे नामं उजाणे होत्था, वण्णओ, सुरप्पिए णामं जक्खाययणे होत्था, पोराणे, से णं एगेणं वणकिया गया था कि देखने वालों का मन सहज ही आनन्दित एवं आकर्षित हो जाता था ।
जिसकी दीवारों पर राजहंस, चक्रवाक, सारस, हाथी, घोडे, मयूर, मृग आदि के तथा जल में स्थित (विहार करते हुए) हाथी, मगरमच्छ आदि जल के प्राणियों के सुन्दर चित्र बने हुए थे। श्वेत और उज्ज्वल स्फटिक निर्मित दीवारो पर प्रतिविम्ब सर्वदा प्रतिफलित होता रहता था। ऐसी वह सर्वांगसौन्दर्यपूर्ण देदीप्यमान द्वारका नगरी थी ॥ सू० ४ ॥ જેનેરનાં મન સહેજેજ આનંદિત અને આકર્ષિત થઈ જાય.
मीनीत ७५२ रास, या, सारस, हाथी, घोड, भा२, भृग माहिना તથા જલમાં સ્થિત (વિહાર કરતાં) હાથી, મગરમચ્છ અદિ જલચર પ્રાણિઓનાં - સુંદર ચિત્ર બનાવેલાં હતાં. વેત અને ઉજવલ સ્ફટિકની ભીંત ઉપર પ્રતિબિંબ સર્વદ પ્રતિફલિત થતું રહેતું એવી તે સર્વાગસૌંદર્ય પૂર્ણ દેદીપ્યમાન દ્વારકા नगरी ती. (सू०.४)..
.... .
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अन्तकृतदशासूत्रे
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सडेणं परिक्खिते, असोगवरपायवे । तत्थ णं वारवईए णयरीए हे णामं वासुदेवे राया परिवसइ । महया रायवण्णओ ।
से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसहं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचन्हं सहावीराणं, पज्जुण्णपामोक्खाणं अट्ठाणं कुमारकोडीणं, संवपाभोक्खाणं सहीए दुदंतसाह - स्सीणं, महसेणपामोक्खाणं छप्पण्णाए बलवग्ग साहस्सीणं, वीरसेणंपासोक्खाणं एगवीसाए वीरसाहस्सीणं उग्गसेणं पासोक्खाणं सोलसहं रायसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं सोलसहं देविसाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणिया साहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं ईसर जाव सत्थवाहाणं बारवईए नगरीए अद्धभरहस् य समत्तस्स य आहेवच्चं जाव विहरइ ॥ सू० ५ ॥
॥ टीका ॥
'ती से णं' इत्यादि । तस्याः खलु द्वारावत्या नगर्या वहिः, उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे, अत्र खल्लु, रैवतको नाम पर्वत आसीत्, 'वण्णओ' वर्णकः= रैवतकवर्णनमन्यतोऽवसेयम् । तत्र खलु रैवतके पर्वते, नन्दनवनं नाम उद्यानम् = नन्दनवननामधेय आराम इत्यर्थः आसीत् । ' वण्णओ' वर्णकः= उसी द्वारका नगरी के बाहर ईशान कोण में, रैवतक नामक पर्वत था । उस पर्वत पर 'नन्दनवन' नामक उद्यान था ।
"
:
તે દ્વારકાનગરીની બહાર ઇશાનકેણુમાં રૈવત' નામે પર્યંત હતા તે પત ઉપર ‘નન્દનવન' નામે ઉદ્યાન હતું. તેનું પૂરું વષઁન જમ્મુદ્દીપપ્રજ્ઞપ્તિ અાદિ
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3
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"
मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, रैवतकादीनां कृष्णवासुदेवस्यच वर्णनम् . -१९ विशेषतो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादिषु द्रष्टव्यः, सुरप्रियं नाम यक्षायतनम् आसीत् । तत् यक्षायतनं 'पौराणे'=पुराणं = पुरातनमित्यर्थः । एकेन वनपण्डेन परिक्षिप्तं = सर्वतो, वेष्टितम्, अशोकवरपादपः । तत्र खलु 'चारवईणयरीए ' = द्वारावतीनगर्याम् कृष्णो नाम वासुदेवो राजा प्रतिवसति, 'महया' = महान्, 'रायवण्णओ '= राजवर्णकः कोणिकराजवर्णनवद् विज्ञेयः । स कृष्णः खलु ' तत्थ' तत्र द्वारात्याम्, 'समुदविजयपामोक्खाणं समुद्रविजयप्रमुखानां - समुद्रविजयः प्रमुखो= मुख्यः प्रथमो यत्र तेषाम् दशानां दशाहौणाम् । वलदेवप्रमुखानाम्, पञ्चानाम् महावीराणां विशेषेण ईरयन्ति = अकम्पन्ति शत्रून् ये ते वीराः, महान्तव ते वीराश्च तेषाम् अतिशूराणामित्यर्थः, प्रद्युम्नप्रसुखानाम् 'अद्वाणं' अर्धचतुष्काणाम् = सार्धत्रिसंख्यकानामित्यर्थः, 'कुमारकोडीणं' कुमारकोटीनाम् - कुमाराणां कोटयस्तासाम्, सार्वत्रिकोटिक्कुमाराणामित्यर्थः; साम्बप्रमुखानां साम्बो =जाम्बवतीपुत्रः प्रमुख आदिर्येषां तेषां साम्वप्रधानानामित्यर्थः, 'सहीए' षष्ट्याः = षष्टिसंख्यानाम्, 'दुदंतसाहस्सीणं' दुर्दान्तउसका पूरा वर्णन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि सूत्र में हैं । उस उद्यान में 'सुरप्रिय' नामका जीर्ण यक्षायतन था । वह एक वनखण्ड से घिरा हुआ था । उसी नन्दनवन के बीच में श्रेष्ठ एक अशोक वृक्ष था । और उसके निचे आसन के आकारवाला सुन्दर शिलापट था इस द्वारका नगरी का महान मर्यादावान कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे। इनका वर्णन कूणिक के समान समझना चाहिए ।
3
द्वारका नगरी में समुद्र विजय आदि दस दशार और बलदेव आदि पांच महावीर थे। प्रद्युम्न आदि साढेतीन करोड कुमार थे ।
સૂત્રમાં જોઈ લેવું તે ઉદ્યાનમાં ‘સુરપ્રિય’ નામે જીણુ યક્ષાયતન હતુ. તે એક વનખંડથી ઘેરાયેલુ હતું. તે જ નંદનવનની વચમાં શ્રેષ્ઠ એક શેક વૃક્ષ હતુ ં અને તેની નીચે આસનના આકારવાળુ સુંદર શિલાપટ્ટ હતું. આ દ્વારકાનગરીનું રાજ્ય મહાન મર્યાદાવાન કૃષ્ણ વાસુદેવ કરતા હતા. તેમનું વર્ણન કેણિકના જેવું સમજી લેવું જોઇએ.
द्वारानगरीभां समुद्रविन्य माहि दृश हशार तथा जसंदेव साहि પાંચ મહાવીર હતા. પ્રદ્યુમ્ન આદિ સાડાત્રણ કરોડ કુમાર હતા. શત્રુએથી કદી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे साहस्रीणां-दुर्दान्तानां परैर्दैमितुमशक्यानां साहरुयस्तासाम् शत्रुभिरदम्यानां साम्वादीनां पष्टिसहस्रसंख्यानामित्यर्थः; महासेनप्रमुखानां महासेनः-प्रमुखो यासां तासाम्, पट्पञ्चाशतः बलवर्गसाहस्रीणां-बलवर्गाणां सैन्यसमूहानां साहरूयस्तासां-महासेनाधिकृतपट्पञ्चाशत्सैन्यसमूहसहस्राणामित्यर्थः, वीरसेनप्रमुखानाम् एकविशत्याः एकविंशतिसंख्यानामित्यर्थः । वीरसाहस्सीणं' बीरसाहस्त्रीणां शूरसहस्त्राणाम् ; उग्रसेनप्रमुखानाम् पोडशानाम् राजसाहस्रीणाम् ; रुक्मिणीप्रमुखानां पोडशानां देवीसाहस्रीणाम् , अनङ्गसेनाप्रमुखानाम् , अनेकासां, गणिकासाहस्त्रीणाम् 'अण्णेसिं च वहूर्ण' अन्येषां च बहूनां पूर्वोक्तेभ्योऽधिकानामितरेषां चेत्यर्थः 'ईसर जाव सत्थवाहाणं' ईश्वर यावत्सार्थवाहनाम्'यावत्' - शब्देन-ईश्वर- तलवर-माडस्विक-कौटुम्बिके-भ्य-श्रेष्ठि-सेनापतिसार्थवाहानामिति पाठो विवक्षितः । तत्र-ईश्वरः ऐश्वर्यशाली विभवयुक्त इत्यर्थः । तलवर नगररक्षकः-कोपाला-कोतवाल' इति भाषाप्रसिद्धः, 'माडम्बिकः-- मडम्बः छिन्नजनाश्रयदेशविशेषस्तस्याधिपतिः-सीमान्तराजेत्यर्थः । सीमान्तदेशो शत्रुओं से कभी पराजित न होने वाले साम्ब आदि साठ हजार शूर थे। महासेन आदि सेनापतियों के अधीन में रहने वाला छप्पन हजार का बलवर्ग सैनिकदल था। संकेत पाते ही कार्यारुढ होने वाले दक्ष वीरसेन आदि इकीस हजार वीर थे। उग्रसेन आदि सोलह हजार अधीन में रहने वाले नृपगण थे। रुक्मिणी आदि सोलह हजार रानिया थी। चौंसठ कलाओ में निपुण अनंगसेनाआदि अनेक गणिकाएँ थी। तथा सर्वदा आज्ञा में रहने वाले और भी बहुत से ऐश्वर्यशाली नागरिक, नगररक्षक, सीमान्तराजा, गाव का પરાજિત ન થાય એવા સામ્બ આદિ સાઠ હજાર શૂર હતા. મહાસેન આદિ સેનાપતિઓના તાબામાં રહેવાવાળાં છપ્પન હજાર બલવ—સનિકદલ હતું સંકેત મળતાંજ કાર્યારૂઢ થઈ જાય એવા દક્ષ વીરસેન આદિ એકવીશ હજાર વીર હતા. ઉગ્રસેન આદિ આધીનમાં રહેવાવાળા સોળહજાર નૃગણ હતા. રુક્મણી આદિ સેળહજાર રાણુઓ હતી, ચેસઠ કળાઓમાં નિપુણ અનંગસેના આદિ ગણિકાઓ હતી. તથા સર્વદા આજ્ઞામાં રહેનારાં બીજા ઘણા ઐશ્વર્યશાલી નાગરિક, નગરરક્ષક, સીમાન્તરાજા, ગામના મુખિયા, અને ઇભ્ય હતાં .
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, रैवतकादीनां कृष्णवासुदेवस्य च वर्णनम् . २१ हि शत्रुभिरभियातः प्रायश्छिन्नजनाश्रयो भवति । कौटुम्बिका परिवारश्रेष्ठो ग्राममुख्यो वा, इभ्यः-इभो-हस्ती. तत्पमाणं द्रव्यमहतीति इभ्यः, सच जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्त्रिविधः, तत्र जघन्यः हस्तिपरिमितमणिमुक्ताप्रवाल सुवर्णरजतादिद्रव्यराशिस्वामी, मध्यमः-हस्तिपरिमितवज्रमणिमाणिक्यराशीश्वरः । उत्कृष्टः-हस्तिपरिमितकेवलवज्रराशिस्वामी । श्रेष्ठी-नगरप्रधान-व्यवहर्ता । सेनापतिः चतुरङ्गसेनानायकः। सार्थवाह: गणिम-धरिम-मेय-परिच्छेद्यरूपक्रेयविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तरं व्रजतां सार्थ-समूहं वाहयतियोगक्षेमाभ्यां परिपालयतीति, दीन जनानामुपकाराय मूलधनं दत्त्वा तान् समर्द्धयतीति वा यः स तथा; तत्र गणिमम्-एक-द्वि-त्रि-चतुरादि-संख्याक्रमेण गणयित्वा यद् दीयते, यथा-नारिकेल--पूगीफल-कदलीफलादिकम् । धरिमम्-तुलासूत्रेणोत्तोल्य यद् दीयते, यथा व्रीहि-लवणादिकम् । मेयम्-शरावादिनोत्तोल्य यद् दीयते, यथा दुग्धादिकम् । परिच्छेद्यम्-प्रत्यक्षतो निकपादिपरीक्षया. यद् दीयते, यथा मण्यादिकम् इति द्वारावत्या नगर्याः, अर्ध मुखिया और इभ्य थे। इभ का अर्थ है हाथी, और हाथी के बराबर द्रव्य जिसके पास हो उसे इभ्य कहते हैं। जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेदसे इभ्य तीन प्रकारके है। जो हाथी के बराबर मणि, मुक्ता, प्रवाल (मूगा), सोना, चांदी आदि द्रव्यराशिके स्वामी हों वे जघन्य इभ्य हैं। जो हाथी के बराबर हीरा और माणिक की राशि के स्वामी हों वे मध्यम इभ्य हैं। जो हाथीके बराबर केवल हीरों की राशि स्वामी हों वे उत्कृष्ट इभ्य हैं । तथा सेठ सेनापति और सार्थवाह आदि भी उनकी आज्ञा में रहते थे। .
ऐसे परम प्रतापी कृष्ण वासुदेव द्वारका से लेकर क्षेत्रकी ઈભ એટલે હાથી. હાથીના વજન બરાબર દ્રવ્ય જેની પાસે હોય તે ઈભ્ય उवाय छे.. धन्य मध्यम भने अष्ट महथा ल्यत्र . प्रारना छे. रे હાથી બરાબર મણી, મુક્તાફળ, પ્રવાલ, સોનું, ચાંદી, આદિ દ્રવ્યરાશિને સ્વામી - હાય તે જઘન્ય ઈભ્ય છે. જે હાથી બરાબર હીરા અને માણેકની રાશિને સ્વામી હોય તે મધ્યમ ઈભ્ય છે. અને જે હાથી બરાબર કેવળ હીરાની રાશિનો સ્વામી હોય તે ઉત્કૃષ્ટ ઈય છે. તથા શેઠ, સેનાપતિ અને સાર્થવાહ આદિ તેમની આજ્ઞામાં २उता उता. :: ::::::.:....... ' એવા પરમ પ્રતાપી કુકણ વાસુદેવ દ્વારકાથી માંડીને જેની સીમા વૈતાઢ્યું
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे तथा भरतस्य च समस्तस्य-संपूर्णस्य-वैताब्यगिरिपर्यन्तस्य दक्षिणार्धभरतस्य, 'आहेवचं' आधिपत्यं यावत्-आधिपत्यं पौरपत्यम्-इत्यादिकं कुर्वन् विहरति ।। मू० ५ ॥
॥ मूलम् ॥ तत्थ णं बारवईए नयरीए अंधगवण्ही णामं राया परिवसइ, महयाहिमवंतवण्णओ। तस्स णं अंधगवहिस्स रणो धारिणी नाम देवी होत्था, वण्णओ०। तए णं सा धारिणी देवी अण्णया कयाई तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि एवं जहा महाबले।
'सुमिणसण कहणा, जम्मं बालत्तणं कलाओ य । जोवण पाणिग्गहणं कंता पासायभोगा य ॥१॥
णवरं-गोयमो नामेणं, अण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेंति, अट्रओ दाओ ॥ सू० ६॥
॥ टीका ॥ 'तत्थ णं' इत्यादि । तत्र खल द्वारावत्यां नगर्याम् अन्धककृष्णिर्नाम राजा परिवसति, महाहिमवद् वर्णका महाहिम इत्यर्थः वर्णकः वन्महामलयेत्यादिवर्णनं कूणिकराज-वर्णनवद् बोध्यम् । तस्य खलु अन्धकवृष्णे राज्ञः धारिणी नाम देवी आसीत् । वर्णको वाच्यः । ततःखलु सा धारिणी देवी अन्यदा सीमा को करने वाले वैताढ्य पर्वत पर्यन्त अर्धभरत, अर्थात् तीन खण्ड का संपूर्ण राज्य करते थे । सू० ५॥
उस द्वारिका नगरी में सहाहिमवान मन्दर आदि पर्वतों के समान स्थिर, बलशाली एवं मर्यादापालक अन्धकवृष्णि नाम के પર્વત પર્યન્ત છે તે અર્ધભરત સુધીનું અર્થત ત્રણ ખંડનું સંપૂર્ણ રાજ્ય ४२ता ता (सू० ५)
તે દ્વારકા નગરીમાં મહા હિમાન મંદર આદિ પર્વતેના જેવા સ્થિર, બળશાળી એવું મર્યાદાપાલક અન્ધકવૃષ્ણિ નામે રાજા હતા. સ્ત્રીઓનાં સર્વલક્ષણોથી યુક્ત
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गौतमस्य जन्मादिविवाहपर्यन्तं वर्णनम् .
कदाचित् " तंसि तारिसगंसि' तस्मिन् तादृशके - तस्मिन् = बहुगुणसमन्विते, तादृशके = कृतपुण्योपसेव्ये शयनीये = शय्यायामित्यर्थः । ' एवं जहा महव्बले'एवं यथा महावल:- यथा महावलस्य जन्मप्रसङ्गे तन्माता स्वप्नमपश्यत्, यथा च तस्य चरितं तथैवात्राऽपि ज्ञातव्यम् । तदेवाह गाथया -
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सुमिणदंसण कहणा, जम्मं बालत्तणं कलाओ य । जोवण पाणिग्गहणं कंता पासायभोगा य” ॥ १ ॥
समिणदंसणं स्वप्नदर्शनम् - रात्रौ शयाना शुभ स्वममपश्यत् । 'कहणा'कथनम्, तत्स्वनदर्शनस्य स्वपतयेकथनम् 'जम्मं' जन्म 'बालत्तणं' बालत्वम्= कुमारावस्था, 'कलाओय' कलाच, कला लेखादयो द्वासप्ततिः । इह तासां ग्रहणमित्यर्थः । ' जोवण' यौवनं तरुणावस्था 'पाणिग्रहणं' पाणिग्रहणं = विवाहः 'कंता पासायभोगा य' कान्ताः प्रासादभोगाच, कान्ता = मनोज्ञाः प्रासादा:=
राजा थे । स्त्रियों के सभी लक्षणों से युक्त धारिणी नामकी उनकी रानी थी । वह धारिणी रानी किसी समय में पुण्यात्माओं के शयन करने योग्य, कोमलता आदि गुणों से युक्त शय्या पर सोई हुई थी। उस समय उसने एक शुभ स्वप्न देखा और नींद खुलने के पश्चात् उस स्वप्न का वृत्तान्त राजा को सुनाया । उसके बाद बालक का जन्म हुआ । उसका बाल्यकाल बहुत सुखपूर्वक बीता । उसने लेख आदि बहत्तर कलाओं को सीखा। उसके बाद युवा होने पर उसका विवाह हुआ । उसका महल बहुत सुन्दर था और उसकी उपभोगसामग्रिया चित्ताकर्षक थीं। इसका सभी
‘ધારિણી’ નામે તેની રાણી હતી. તે ધારિણી રાણી એક સમયમાં જયારે પુણ્યાત્માઓજ શયન કરી શકે એવી કામળતા આદિ ગુણાથી યુકત (સુંવાળી) શય્યા ઉપર સુતી હતી त्यारे तेथे मे शुभ स्वप्न लेयु, भने निद्रा उडी वा पछी ते स्वप्नना वृत्तान्त રાજાને કહી સંભળાવ્યેા. ત્યાર પછી બાળકના જન્મ થયે. તેને ખાલ્યકાળ મહુ સુખપૂર્વક વીત્યા. તે કુમાર લેખન આદિ ખેતેર કળાઓ શીખ્યા. પછી યુવાન થતાં तेनां सश्न थयां, तेन। महेस महुं सुंदर इतो, अने तेनी उपलोग सामग्रीओ। ચિત્તાકર્ષક હતી. એનું બધું વૃત્તાન્ત મહાખલના જેવું છે. વિશેષ માત્ર એટલું છે કે
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे सौधाः-राजभवनानीत्यर्थः, भोगाः सुखानि च 'गोयमो नामेणं' गौतमो नाम्ना, मातापितरौ अष्टानां राजवरकन्यानाम् , एकदिवसेन पाणि ग्राहयतः । अष्टाष्टको दायः ॥ सू० ६॥
॥ मूलम् ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्रनेमी आइगरे जाव विहरइ, चउबिहा देवा आगया। कण्णेवि णिग्गये तएणं से गोयमे कुमारे जहा मेहे तहा णिग्गए, धम्म सोच्चा णिसम्म जं नवरं देवाणुप्पिया! अम्मा पियरो आपुच्छामि देवाणुप्पियाणं अंतिए पचयामि, एवं जहा मेहे जाव अणगारे जाए इरिया समिए जाव इणमेव निग्गन्थं पावयणं पुरओ काउं विहरइ। तएणं से गोयमे अणागरे अण्णया कयाई अरहओ अस्टिनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइय माइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ, अहिजित्ता, बहहिं चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तएणं अरिहा अरिट्रनेमी अण्णया कयाइं वारवईओ नयरीओ नंदणवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता, बहिया जणवय विहारं विहरइ ॥सू०७॥ वृत्तान्त महावल के सदृश हैं । विशेष केवल इतना है- इनका नाम गौतम था। मातापिताने एक दिन में ही सुन्दर आठ राजकन्याओं के साथ इनका विवाह करवाया। विवाह में आठ हिरण्यकोदि, आठ सुवर्णकोटि आदि आठ आठ वस्तुएं उन्हें दहेज में मिलीं ॥ सू० ६॥
તેનું નામ ગૌતમ હતું. માતાપિતાએ એક દિવસમાં જ રાજાઓની આઠ સુંદર કન્યાઓની સાથે તેનાં લગ્ન કરાવ્યાં. વિવાહમાં આઠ આઠ પ્રકારના દહેજ મળ્યા. (સૂ) ૬)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गौतमस्य प्रवज्या
॥ टीका ॥
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' तेणं काळेणं इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये, अर्हन् अरिष्टनेमिः 'आइगरे' आदिकरः = स्वशासनापेक्षया धर्मस्यादिकरः, 'जाव' यावत्- यावच्छब्द संग्राह्याणि भगवतोऽन्यान्यपि विशेषणानि विज्ञेयानि; विहरति । ' चउत्रिहा देवा आगया' चतुविधा देवा आगताः - चतुर्विधाः = भवनपति - व्यन्तर- ज्योतिष्क-वैमानिका देवा भगवतः समीपे धर्मकथां श्रोतुं समागता इत्यर्थः । कृष्णवासुदेवोऽपि निर्गतः = स्वस्थानादमै श्रोतुं प्रचलितः भगवत्समीपे समागत इत्यर्थः ।
ततः खलु स गौतमकुमारः यथा मेघस्तथा निर्गतः, 'धम्मं सोच्चा णिसम्म धर्मे श्रुत्वा निशम्य - भगवतः समीपे धर्मे = श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुत्वा = कर्णाभ्यामाकर्ण्य, निशम्य = हृदयेऽवधार्य 'जं नवरं ' यो विशेषः स तु एवम्उस काल उस समय में अपने शासनकी अपेक्षा से धर्म के आदि करने वाले भगवान अर्हत अरिष्टनेमि तीर्थकर परम्परा से विचरते हुए द्वारका नगरी के नन्दनवन नामक उद्यान में पधारे। वहाँ भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक, ये चारों भी प्रकार के देवगण, धर्मकथा सुनने के लिए आये । वासुदेव कृष्ण अपने महल से निकलकर भगवान के पास धर्मश्रवण करने के लिए पहुंचे। उनके बाद गौतमकुमार भी मेघकुमार की तरह धर्मकथा सुनने के लिए घर से निकले । श्रुतचारित्र - लक्षण धर्म सुनकर और उसे हृदय में धारण कर गौतमकुमारने भगवान के पास प्रार्थना की।
તે કાલ તે સમય પેાતાના શાસનની અપેક્ષાથી ધર્મની આદિ કરનાર ભગવાન અર્હત અરિષ્ટનેમિ, તીથંકરપર પરાથી વિચરતા દ્વારકા નગરીના નંદનવન નામના उद्यानभां यधार्या. त्यां भवनयति, व्यन्तर, ज्योतिष्णु, वैमानिङ, आा थारे प्रारना દેવગણુ, ધર્મકથા - સાંભળવા આવ્યા. વાસુદેવકૃષ્ણ પણ પોતાના મહેલમાંથી નીકળી ભગવાનની પાસે ધર્માંશ્રવણુ કરવા આવ્યા. ત્યારપછી ગૌતમકુમાર પણુ મેઘકુમારની પેઠે ધર્મ કથા સાંભળવા માટે ઘેરથી નીકળ્યા. ભગવાને ધર્મ સંભળાવ્યેા. શ્રુતચારિત્રલક્ષણ ધર્મ સાંભળીને તથા તેને હૃદયથી અવધારણ કરી ભગવાનની પાસે
तेभाणे आर्थना उरी :
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
आपृच्छामि,
हे देवानुप्रियाः । मातापितरौ आपृच्छामि, देवानुमियाणामन्तिके = समीपे प्रजामि - मातापित्रोरनुमतो भवतः समीपे प्रवज्यां ग्रहीष्यामि इति भावः । एवं यथा मेघो यावदनगारो जातः । ' यथा मेघकुमारो वैराग्यं प्राप्य मातापितृभ्यां बहुशः प्रतिषेधितोऽपि सर्वे भोग्यविलासवस्तुजातं परित्यज्य अनगारो जातस्तथैवायमप्यनगारो जातः । ' इरियासमिए' इर्यासमितः - ईर्यायां गमने समितो = यत्नवान् यावत् एतदेव नैर्ग्रन्ध्यं प्रवचनं 'पुरओ काउं' पुरतः कृत्वा विहरति । 'यात्रत्' पदेन भाषासमितादयोऽपि विशेषणत्वेन ग्राह्याः । एतदेत्र=पूर्वोक्तमेव नैर्ग्रन्ध्यं प्रवचनं 'जिनमवचनं पुरतः कृला = ईर्ष्यासमित्यादिरूपं प्रचचनमादर्शत्वेन पुरस्कृत्य विहरति = विचरति । ततः खलु स गौतमोsनगारः, अन्यदा कदाचित् अर्हतोऽरिष्टनेमेः तथारूपाणं स्थविराणामन्तिके= समीपे - तथारूपाणाम् = तथा तत्मकारकं रूपं नेपथ्यादिः स्वभावो वा येषां
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हे भगवन् ! मैं मातापिता से पूछकर आपके समीप प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ । इसके बाद गौतम के अनगार होने तक का वृत्तान्त मेघकुमार के वृत्तान्त के समान समझना चाहिये । जैसे- मेघकुमार वैराग्य प्राप्त कर मातापिता के बहुत समझाने पर भी भोगविलास की सामग्रियों की छोडकर अनगार होगये उसी तरह गौतम भी अनगार हुवे, और अनगार होने के बाद ईर्यासमिति, भाषा समिति आदि से लेकर इसी निर्ग्रन्थप्रवचन ( जिनप्रवचन ) को अपने आगे रखकर अर्थात् भगवान के कहे हुए वचनों का पालन करते हुए विहार करने लगे । उसके बाद गौतम अनगार किसी एक समय में अर्हत अरिष्टनेमि के गीतार्थ स्थविरों के समीप सावद्ययोगपरिवर्जन निरवद्ययोगसेवन - रूप सामायिक आदि
હે ભગવન્ ! હું માતાપિતાને પૂછીને આપની પાસે દીક્ષા લેવા ચાહું છું. ત્યારપછી ગૌતમ અનગાર થવા સુધીના વૃત્તાન્ત મેઘકુમારના વૃત્તાન્તના જેવા સમજી લેવા. જેમ-મેઘકુમાર વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરી માતાપિતાના બહુજ સમજાવવા છતાં પણુ સઘળી ભાગવિલાસની સામગ્રીએ છેડી અનગાર થયા, તેવીજ રીતે ગૌતમકુમાર અનગાર થઇ ગયા. અને અનગાર થયા પછી ઇર્માંસમિતિ, ભાષાસંમતિ આદિથી માંડીને આ નિગ્રન્થપ્રવચન (જિનપ્રવચન) ને પેાતાની સામે રાખીને અર્થાત ભગવાનનાં કહેલાં વચન પાલન કરતાં કરતાં વિહાર કરવા લાગ્યા. ત્યારપછી ગૌતમ અનગારે અંત અરિષ્ટનેમિના ગીતા સ્થવિરાની પાસે સાવદ્યયેાગપરિવર્જન,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गौतमस्य प्रव्रज्या
भावतः
ते तथारूपाः- द्रव्यतः सदोरक मुख वस्त्रिका रजोहरणादिमन्तः, सम्यग्ज्ञानादिमन्तः तेषाम्, सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते - पठतीत्यर्थः, अधीत्य बहुभिः 'चउत्थ जाव' चतुर्थपठाष्टमदशमद्वादशमासार्धमा सक्षपणैस्तपःकर्मभिः आत्मानम् " भावेमाणे' भावयन् = वासयन् विहरति । ततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः अन्यदा कदाचित् ' द्वारावत्या नगर्या नन्दनवनादुद्यानात् प्रतिनिष्क्रा मति, प्रतिनिष्क्रम्य, वहिः जनपदविहारं विहरति ॥ सू० ७ ॥
२७
॥ मूलम् ॥
तए णं से गोयमे अणगारे अण्णया कयाई जेणेव अरहा अरिनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, अरहं अरिनेमि तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी- इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुपाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसम्पजित्ताणं विहरितए । एवं जहा खंदओ; तहा बारस भिक्खुपडिमाओ फासेइ, फासित्ता गुणरयणं वि तवोकम्मं तहेव फासेइ निरवसेसं, जहा खंदओ तहा चिंतइ, तहा आपुच्छर, तहा थेरेहिं सद्धिं सेज दुरूहइ, मासियाए संलेहणाए बारस वरिसाई परियाए जाव सिद्धे ॥ सू० ८ ॥
र अङ्गों का अध्ययन किया और बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश, अर्धमास और मासक्षपण आदि तप कर आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । उसके बाद एक दिन भगवान अर्हत अरिष्टनेमिने द्वारका नगरी के नन्दनवन उद्यान से विहार किया, और धर्मोपदेश करते हुए देशदेशान्तर में विचरने लगे ॥ स
७॥
નિરવદ્યયેાગસેવનરૂપ સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેાનું અધ્યયન કર્યું, અને અધ્યયન अर्था पछी घणां चतुर्थ, षष्ठ, अष्टभ, दृशभ, दाहश, अर्धभास भने भासक्षपण माहि તપ કરીને આત્માને ભાવિત કરતા વિચરવા લાગ્યા. ત્યાર પછી એક વિસ ભગવાન અર્હત અરિષ્ટનેમિ દ્વારકાનગરીના નન્દનવન નામના ઉદ્યાનથી વિહાર કરીને ધર્માંપદેશ १२तां १२तां विश्वा साग्या. ( सू० ७ )
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे
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% 3D
॥ टीका ॥
'तए णं' इत्यादि । ततः खलु स गौतमोऽनगारः अन्यदा कदाचित् यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिः तत्रैव उपागच्छति । उपागत्य अन्तिमरिष्टनेमिम् त्रिकृतः ‘आयाहिणपयाहिणं' आदक्षिणपदक्षिणम्-आदक्षिणतः प्रदक्षिणमिति विग्रहः, वद्धाञ्जलिपुटं निजदक्षिणकर्णादारभ्य ललाटपदेशेन निजवामकर्णपर्यन्तं नीला हनुप्रदेशेन पुनर्दक्षिणकर्णान्तिकं समानीय तस्य ललाटपदेशे स्थापनमित्यर्थः, करोति, कला, 'वंदइ' बन्दतेस्तौति 'नमंसइ' नमस्यति-पञ्चभिरङ्गैनमस्करोति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवदत्-इच्छामि खलु भदन्त ! युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् आज्ञप्तः सन् मासिकी भिक्षुपतिमाम्-भिक्षोः साधोः प्रतिमा अभिग्रहविशेषस्ताम् ‘उवसंपज्जित्ता णं वितरित्तए' उपसंपद्य-स्वीकृत्य खलु विहर्तुम् , एवं
उसके बाद एक दिन गौतम, अनगार जहा अहंत अरिष्टनेमि थे, वहाँ आये। वहा अहंत अरिष्टनेमि को तीन वार अदक्षिणप्रदक्षिण किया। अंजलिपुट को दाहिने कानसे लेकर शिर पर घुमाते हुए अपने बायें कान तक ले जाकर फिर उसे घुमाते हुए दाहिने कान पर लेजावे और बाद में उसे अपने ललाट पर स्थापन करे, उसे 'आदक्षिण-प्रदक्षिण' कहते हैं। आदक्षिणप्रदक्षिण करने के बाद गौतम अनगारने वन्दना की और नमस्कार किया, और बोले
हे भदन्त ! आपकी आज्ञा हो तो मैं मासिक भिक्षुप्रतिमा स्वीकार करूँ ? भगवान्ने कहा जैसा सुख हो वैसा करो। भगवान
ત્યારપછી એક દિવસ અગાર ગૌતમ, જ્યાં અત્ અરિષ્ટનેમિ હતા ત્યાં આવ્યા અને અહંત અરિષ્ટનેમિને ત્રણવાર “આદક્ષિણપ્રદક્ષિણ” ક્ય. હાથાને અંજલી પુત્રરૂપ બાંધી જમણું કાનથી લઈ લલાટ ઉપર ફેરવી પિતાના ડાબા કાન સુધી લઈ જઈ પાછો તેને ફેરવી જમણા કાન પર લઈ આવો અને પછી તેને પિતાના કપાળ પર સ્થાપન કરવું તેને આદક્ષિણપ્રદક્ષિણ કહે છે. આદક્ષિણપ્રદક્ષિણ કર્યા પછી તેમની વન્દના કરી તથા પંચાંગ નમસ્કાર કર્યો. તેમણે ભગવાન અહંતુ અરિષ્ટનેમિને આવી રીતે પ્રાર્થના કરી. હે ભદન્ત ! આપની આજ્ઞા મેળવી માસિક ભિક્ષુપ્રતિમાને સ્વીકાર કરી હું વિચરણ કરવા ઈચ્છા રાખું છું. ભગવાને આજ્ઞા
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गौतमस्य सिद्धिपाप्तिः
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यथा स्कन्दकः तथा द्वादश भिक्षुप्रतिमाः स्पृशति - स्कन्दक इव द्वादश भिक्षुप्रतिमाः समाराधयतीत्यभिप्रायः । स्पृष्ट्वा = समाराध्य 'गुणरयणंपि तवोकम्मं ' गुणरत्नमपि तपःकर्म = गुणरत्ननामकं तपःकर्म, 'तहेव फासेइ निरवसेसं' तथैव स्पृशति निरवशेषम्, गुणरत्ननामापि तपः स्कन्दक इव निरवशेषं = संपूर्णमाचरतीत्यर्थः । यथा स्कन्दकस्तथा चिन्तयति, तथा = तथैव भगवन्तम् आपृच्छति, तथा स्थविरैः सार्द्धं शत्रुज्जयं = शत्रुजयपर्वतम् दूरोहति = आरोहति मासिक्या संलेखनया, द्वादशवर्षाणि परियाए ' पर्यायो दीक्षाकाल : यावत् सिद्ध:द्वादशवर्षपर्यन्तं चारित्रपर्यायं पालयित्वा मुक्तिं गत इत्यर्थः ॥ सू० ८ ॥
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6
॥ मूलम् ॥
एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपलेणं अट्टमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । एवं जहा गोयमो, तहा सेसा, वण्ही पिया, धारिणी की आज्ञा पाकर स्कन्दक की तरह उन्होंने बारह भिक्षुप्रतिमा का समाराधन किया ।
उसने स्कन्दक के समान ही गुणरत्न - नामक तपका भी पूर्णरूप से आराधन किया । जिस तरह स्कन्दक ने विचार किया और जैसे भगवान से पूछा उसी तरह गौतम ने भी विचार किया और पूछा। उसी तरह स्थविरों के साथ शत्रुज्जय पर्वत पर गये और बारह बरसकी दीक्षापर्याय पालनकर मासिकसंलेखना के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुए | सू० ८ ॥
આપી ભગવાનની આજ્ઞા મેળવી સ્કન્દકની પેઠે તેમણે ખાર ભિક્ષુપ્રતિમાનું સમારાધન કર્યું. ત્યાર પછી સ્કન્દકની પેઠેજ ગુણરત્ન નામની તપસ્યાનું પણ પૂર્ણરૂપે આરાધન કર્યું જેવી રીતે સ્કન્દકે વિચાર કર્યાં અને જેમ તેમણે ભગવાનને પૂછ્યું' તે રીતે ગૌતમે પણ વિચાર કર્યાં અને પૂછ્યું. એવી રીતે સ્થવિરાની સાથે શત્રુંજય પર્વતપર ગયા અને ખાર વરસ દીક્ષાપર્યાંય પાલન કરી માસિક સલેખના દ્વારા માક્ષ પ્રાપ્ત ये. ( सू० ८ )
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे माया, २ समुद्दे, ३ सागरे, ४ गंभीरे, ५ थिमिए, ६ अयले, ७ कंपिल्ले, ८ अक्खोभे ९ पसेणई, १० विण्हुए, एए एगगमा, पढमो वग्गो, दस अज्झयणा पण्णत्ता ॥ सू० ९॥
॥ टीका ॥ 'एवं खलु जंबू' इत्यादि । एवं=पूर्वोक्त प्रकारेण हे जम्बूः! श्रमणेन यावत्सम्पाप्तेन मोक्षं गतेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृद्दशानाम् प्रथमवर्गस्य प्रथमस्य अध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः । एवं यथा गौतमः तथा शेषाः यथा गौतमस्याध्ययनं तथैव शेपाणि समुद्रप्रभृतीन्यध्ययनानि ज्ञातव्यानि । समुद्रादीनां सर्वेषां कुमाराणां वृष्णिः पिता धारिणी माता । तेषां नामानि पाह-समुद्रः, सागरः, गम्भीरः, स्तिमितः, अचलः, काम्पिल्यः, अक्षोभः, प्रसेनजित् विष्णुरिति । एते एकगमाः= समुद्रादयो नव समाना इत्यर्थः । प्रथमो वर्गो दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि-प्रथमो
‘एवं खलु' इत्यादि । हे जम्बू ! सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त श्रमणभगवान महावीर ने पूर्वोक्त प्रकार से अन्तकृतदशा नामक आठवें अङ्ग के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययनमें गौतमकुमार के मोक्ष प्राप्ति का वर्णन किया है। जिस तरह गौतम अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है, उसी तरह शेष समुद्रादि अध्ययनों का भी वर्णन जानना चाहिये। समुद्रादि सर्व कुमारोंका पिताका नाम अन्धकवृष्णि और माताका नाम धारिणी है, और कुमारों का नाम समुद्र, सागर, गंभीर, स्तिमित, अनल, काम्पिल्य, अक्षोभ, प्रसेनजित् एवं विष्णुकुमार है। इसके अतिरिक्त समुद्र आदि नवों अध्ययनों
‘एवं खलु जंबू' त्याहि. यू ! सिद्धगति नामना स्थानने प्रास श्रभY ભગવાન મહાવીરે પૂર્વોકત પ્રકારે ગત તારા નામના આઠમાં અંગના પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનમાં ગેંતમકુમારના મેક્ષ પ્રાપ્તિનું વર્ણન કર્યું છે. જેવી રીતે ગૌતમ અધ્યચનનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેવી રીતે શેષ સમુદ્રાદિ અધ્યયનનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ. અહીં પિતાનું નામ અન્ધકવૃષ્ણુિ, માતાનું નામ ધારિણી, અને કુમારોના નામ सभु, १२.२, गली२, स्तिभित, मन्यस, पिट्य, मान, प्रसेनमित्व विभा२ छे.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, समुद्रादिविष्णुपर्यन्तानां सिद्धिगतिप्राप्तिः ३१ वर्गः प्रतिपादितः, प्रथमवर्गस्य दशाध्ययनरूपतया प्रथमवर्गप्रतिपादनेन दशाध्ययनान्यपि प्रतिपादितानि ॥ सू० ९ ॥
इति श्रीविश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललित.. कलापाऽऽलापक-मविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहू
छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य'-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-तिविरचितायाम् अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य मुनिकुमुदन्द्रिकाटीकायां प्रथमवर्गः समाप्तः ॥ १॥
में कोई भेद नहीं है। इस प्रकार प्रथम वर्ग के दस अध्ययनों का प्रतिपादन किया गया है ॥ सू० ९ ॥
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प्रथम वर्ग का हिन्दीभाषानुवाद समाप्त ॥१॥
આ સિવાય સમુદ્ર આદિ ન અધ્યયનમાં કોઈ ભેદ નથી. આ પ્રકારે પ્રથમ વર્ગના दृश अध्ययनानु प्रतिपादन यु छे. (सू०८)
પ્રથમ વર્ગનો ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સંપૂર્ણ
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३२
अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
अथ द्वितीयवर्गः ॥ मूलम् ॥
जड़ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स अयमट्टे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स अंतगदडसाणं सममेणं जाव संपत्तेर्ण कइ अज्झयणा पण्णत्ता ? एवं खलु जंबू ! समणणं जाव संपत्तेणं अटू अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहाअक्खोभ सागरे खलु, समुद्द हिमवंत अयलणामे य । धरणे य पूरणे विय, अभिचंदे चेव अहमए ॥ सू० १ ॥
॥ टीका ॥
'जइ णं भंते ' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन = श्रमणेन भगवता महावीरेण स्वशासनस्यापेक्षया धर्मस्यादिकरेण यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य ' अयमद्वे ' अयमर्थः = गौतमादीनां मोक्षप्राप्तिरूपो भावः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त । वर्गस्य अन्तकृद्दशानाम् श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कति अध्ययनानि मज्ञप्तानि ? एवं खलु जम्बू : ! अथ द्वितीय वर्ग.
हे भदन्त ! मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग में गौतम आदि कुमारों के मोक्षपर्यन्त चरित्र का वर्णन किया है। उसके बाद द्वितीय वर्ग में उन्होंने कितने अध्ययनों का प्रतिपादन किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं ।
हे जम्बू ! भगवान् महावीर ने द्वितीय वर्ग में आठ अध्ययनों का वर्णन किया है। वे इस प्रकार हैं
ખીજો વર્ગ
હે ભદન્ત ! મેાક્ષને પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીરે પ્રથમ વર્ગમાં ગૌતમ આદિ કુમારોનાં મેક્ષપન્ત ચરિત્રનું વર્ણન કર્યું છે. ત્યાર પછી ખીજા વર્ગમાં તેમણે કેટલાં અધ્યયનેામાં કયા ભાવનું પ્રતિપાદન કર્યું છે.
સુધર્મા સ્વામી કહે છે :
હે જમ્મૂ! ભગવાન મહાવીરે દ્વિતીય વર્ગમાં આઠે અધ્યયનનુ વર્ણન કર્યું છે.
ते या प्रारे छे :
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अक्षोभादिवर्णनम् । एवम् = अनेन प्रकारेण-वक्ष्यमाणरीत्येत्यर्थः, खलु निश्चये, श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन अष्ट अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि-मोक्ष प्राप्तेन श्रमणेन भगवता महावीरेण द्वितीयस्मिन्वर्गेऽष्टाध्ययनानि प्ररूपितानि । तानि कानि ? इत्याह-तं जहा' इत्यादिना । तद्यथा-अक्षोभः १ सागरः २ खलु समुद्रो ३ हिमवान् ४. अचलनामा ५ च । धरणः ६ च पूरणो 5 ७ पि च अभिचन्द्र ८ श्चैव अष्टमका इति । अक्षोभादीन्यष्टौ अध्ययनानि सन्तीत्यर्थः ॥ मू० १ ॥ ..... .: ॥ मूलम् ॥ .
.. तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवईए णयरीए वण्ही पिया धारिणी माया जहा पढमो वग्गो तहा सव्वे, अह अज्झयणा, गुणरयणतवोकम्मं, सोलस वासाइं परियाओ, सेत्तुंजे मासियाए संलेहणाए जाव सिद्धा। एवं खल्लु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स दोच्चस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते ॥ सू.२ ॥... . .
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'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावत्यां नगर्याम् वृष्णिः पिता धारिणी माता. यथा प्रथमो वर्गस्तथा सर्वाण्यष्टाध्ययनानि । यथा प्रथमवर्गे गौतमादीन्यध्ययनानि तथैवात्रापि अक्षोभादीन्यष्टाऽ - जिस समय अहंत अरिष्टनेमि विचरते थे उस काल उस
समय द्वारका नगरी में अन्धकवृष्णि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी धारिणी नामकी रानी थी। उनके अक्षोभ, सागर, समुद्र, हिमवान, अचल, धरण, पूरण और अभिचन्द्र नामके आठ राजकुमार थे ॥ सू० १ ॥.. ...
जैसे प्रथम प्रथम वर्ग में गौतमादि अध्ययन है, उसी तरह - જે સમયે અહંત અરિષ્ટનેમિ વિચરતા હતા તે કાલ તે સમય દ્વારકાનગરીમાં અન્ધકવૃષ્ણુિ નામક રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તેને ધારિણી નામક રાણી હતી. તેમને અભ, સાગર, સમુદ્ર, હિમાવાન, અચલ, ધરણ, પૂરણ અને અભિચન્દ્ર નામે આઠ शसभा२ ता. (सू०. १) . .
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.. अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे ध्ययनानि विज्ञेयानि । गुणरत्नतपःकर्म, पोडश वर्षाणि पर्यायः-तेषां गुणरत्नतपाकरणं, पोडशवर्षपर्यन्तं दीक्षापर्यायश्च, शत्रुञ्जये मासिक्या संलेखनया यावत्सिद्धाः मुक्तिं गता इत्यर्थः । एवं खलु जम्बूः-एवम् अनेन पूर्वोक्तमकारेण हे जम्बूः! श्रमणेन यावत् सम्पाप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य द्वितीयस्य वर्गस्य अष्टमाङ्गसम्बन्धिनो द्वितीयवर्गस्येत्यर्थः, अयमर्थः प्रज्ञप्तः=अक्षोभाधष्टाऽध्ययनरूपोऽर्थोऽभिहितः ॥ मू० २ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहू' छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त 'जैनशास्त्राचार्य'-पदभूषित-कोल्हापुर
. राजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री- घासीलाल-व्रतिविरचितायाम् अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य . . ...
. .. मुनिकुमुदचन्द्रिकायां टीकायां द्वितीयो वर्गः संपूर्णः॥२॥ अक्षोभादि आठ अध्ययनों को भी जानना चाहिये। गौतम आदि दस कुमारों की तरह इन्होंने भी गुणरत्न-नामक तपस्या की; सोलहवर्ष की दीक्षापर्याय पाली, शत्रुञ्जय पर्वत का आरोहण किया और अन्त में ये मासिक संलेखना करके मोक्ष पधारे। हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृतनामक आठवें अङ्ग के द्वितीय वर्ग में अक्षोभादि आठ अध्ययनों का प्रतिपादन किया है । सू० २॥
॥ द्वितीय वर्ग का हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ॥ તેમના પિતાનું નામ વૃષ્ણિ હતું તથા માતાનું નામ ધારિણી. જે પ્રકારનું પ્રથમ વર્ગમાં ગીતમાદિ અધ્યયન છે તે જ પ્રકારે અભાદિ આઠ અધ્યયનાને પણ જાણવાં જોઈએ. ગૌતમાદિ દશ કુમારની પેઠે તેઓએ પણ ગુણરત્ન નામે તપસ્યા કરી, સેળ વર્ષ સુધી દીક્ષા પર્યાય પાળે, શત્રુંજય પર્વત પર આરોહણ કર્યું. તથા અંતમાં તેમણે માસિક સંલેખના કરી અને મેક્ષમાં પધાર્યા.
હે જખ્ખ ! આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે અતકૃતનામક આઠમાં અંગના બીજા વર્ગમાં અક્ષેભાદિ આઠ અધ્યયનું પ્રતિપાદન કર્યું છે (સૂ૦ ૨)
બીજા વર્ગને ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સમાપ્ત. . .
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अणीयससेनवर्णनम्
अथ तृतीयो वर्गः अथ द्वितीयवर्गसमाप्त्यनन्तरं क्रमप्राप्तं तृतीयवर्गमाह-'नइ णं' इत्यादि ।
॥ मूलम् ॥ जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तणं अट्ठमस्स अंगस्स दोच्चस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते । तच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स समणेणं जाव संपत्तणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खल्लु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्रमस्स अंगस्स तच्चस्स वग्गस्स अंतगडदसाणं तेरस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-अणीयससेणे १, अणंतसेणे २, अजियसेणे ३, अणिहयरिऊ ४, देवसेणे ५, सत्तुसेणे ६, सारणे ७, गए ८, सुमुहे .९, दुम्मुहे १०, कूवए ११, दारुए १२, अणादिट्टी १३ । जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्रमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स तेरसं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा अणीयसेणे जाव अणादिट्टी। पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते ? ॥१॥
॥ टीका ॥ .. . 'जइणं भंते' इत्यादि । यदि खलु हे भदन्त ! श्रमणेन यावत्सम्पाप्तेन मोक्षं गतेन भगवता महावीरेण अष्टमस्य अङ्गस्य द्वितीयस्य वर्गस्य
अथ तृतीय वर्ग द्वितीय वर्ग के भाव जानने के बाद, तृतीय वर्ग के भाव समझने के लिए जम्बूस्वामी आय सुधर्मास्वामी से पूछते हैं
.. 'जइ णं भंते' इत्यादि । हे भदन्त ! मोक्षको प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने आठवें अङ्ग के दूसरे वर्ग में अक्षोभादि आठ
. बीते वर्ग બીજા વર્ગના ભાવ જાણી લીધા પછી, ત્રીજા વર્ગના ભાવ જાણવાની ઇચ્છાથી જબૂસ્વામી આર્ય સુધર્માસ્વામીને પૂછે છે –
'जइ णं भंते त्याहि महन्त ! मोक्ष प्राप्त श्रम लगवान महावीरे આઠમાં અંગના બીજા વર્ગમાં અભાદિ આઠ અધ્યયનેનું વર્ણન કર્યું છે. ત્યારપછી
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे अयमर्थः अक्षोभायध्ययनरूपोऽर्थः प्राप्त प्रतिपादितः, तृतीयस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्त:! एवं पृच्छन्तं जम्बूस्वामिनं सुधर्मा स्वामी कथयति-एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत्सम्माप्तेन अष्टमस्याङ्गस्य तृतीयस्य वर्गस्य अन्तकृतदशानां त्रयोदश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, अन्तकृतदशारूपाऽष्टमाङ्गसम्बन्धितृतीयवर्गऽभिधेयतया त्रयोदशाऽध्ययनानि प्रतिपादितानीत्यभिप्रायः! तद्यथा-अणीयससेनः१, अनन्तसेनः२, अजितसेनः३, अनिहतरिपुः४, देवसेनः५, शत्रुसेनः६, सारण:७, गजा८, मुमुखः९, दुर्मुखः१०, कूपकः११, दारुकः१२, अनादृष्टि:१३, इति अणीयससेनादित्रयोदशाध्ययनानि तृतीयवर्गप्रतिपाद्यानि । तत्र प्रथमाध्ययनस्यार्थः कीदृशः ? इत्याह 'जइ णं' इत्यादि । यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अध्ययनों का वर्णन किया है । इसके बाद उन्होंने तृतीय वर्ग में किस भावका निरूपण किया है ? इस प्रकार जम्बूस्वामी के पूछने पर सुधर्मास्वामी बोले
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने तीसरे वर्ग में तेरह अध्ययनों का वर्णन किया है। वे इस प्रकार है:
(१) अणीयससेन, (२) अनन्तसेन, (३) अजितसेन, (४) अनिहतरिपु, (५) देवसेन, (६) शत्रुसेन, (७) सारण, (८) गज, (९) सुमुख, (१०) दुर्भुख, (११) कूपक, (१२) दारुक और (१३) अनादृष्टि।
हे भदन्त ! इस तीसरे वर्ग में भगवान महावीर ने अणीતેમણે ત્રીજા વર્ગમાં કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે? આ પ્રકારે જખ્ખ સ્વામીના પૂછવાથી સુધર્માસ્વામી બેલ્યા. | હે જન્! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ત્રીજા વર્ગમાં તેર અધ્યયનનું વર્ણન ४यु छ, ते गा रे छ.
. (१) अणीयससेन, (२) अनन्तसेन, (3) अजितसेन, (४) अनिहत'रिपु, (५) देवसेन, (६) शत्रुसेन, (७) सारण, (८) गज, (६) सुमुख, (१०)
दुर्मुख, (११) कूपक, (१२) दारुक, तथा (१3) अनादृष्टि. .. . महन्त ! मा श्री भगवान महावी३.अणीयससेन थी भांडन
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अणीयससेनवर्णनम् अन्तकृतदशानां तृतीयस्य वर्गस्य त्रयोदश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाअणीयससेनो यावदनादृष्टिरिति। प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? ॥ सू० १ ॥ ......
॥ मूलम् ॥ - एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं भदिलपुरे णाम णयरे होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धे वण्णओ। तस्स णं भदिलपुरस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए सिरीवणे णामं उजाणे होत्था, वण्णओ० जियसत्तू राया। तत्थ णं भदिलपुरे णयरे नागे णामं गाहावई होत्था, अड़े जाव अपरिभूए । तस्स णं नागस्स गाहावइस्स सुलसा णामं भारिया होत्था, सुकुमाला जाव सुरूवा। तस्स णं नागस्स गाहावइस्स पुत्ते सुलसाए भारियाए अत्तए अणीयससेणे णामं कुमारे होत्था। सुकुमाल जाव सुरूवे पंचधाईपरिक्खित्ते, तं जहा-खीरधाई, मजणधाई, मंडणधाई, कीलावणधाई, अंकधाई। जहा दढपइन्ने जाव गिरिकंदरमल्लीणेव चपगवरपायवे सुहं सुहेणं परिवड्इ ॥ सू०२॥
॥ टीका ॥ - ‘एवं खलु' इत्यादि ! एवं खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये भदिलपुरं नाम नगरम् आसीत् , 'रिद्धस्थिमियसमिद्धे' ऋद्धस्तिमितसमृद्धम्ऋद्धम् नभःस्पर्शिवहुलप्रासादयुकं वहुलजनसंकुलं च, स्तिमितम्-स्वपरचक्रयससेन से लेकर अनादृष्टि तक तेरह अध्ययनों का प्रतिपादन किया है, तो प्रथम अध्ययन में किस भाव का निरूपण किया है ॥ सू० १ ॥
हे जम्बू ! उस काल उस समय में भदिलपुर नामका नगर था । वह नगर उत्तम नगरों के सभी गुणों से युक्त था । उस अनादृष्टि सुधा ते२ अध्ययनानु प्रतिपाइन यु छ तो प्रथम अध्ययनमा ४या ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે? | હે જબૂ! તે કાલે તે સમયે ભદ્દિલપુર નામે નગર હતું. તે નગર ઉત્તમ નગરના સર્વ ગુણેથી યુક્ત હતું. તે નગરમાં ગગનચુખી ઉંચાં ઊંચાં વિશાળ ભવન
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे भयरहितम् , समृद्धम् धनधान्यादिपरिपूर्णम्, 'वण्णओ' वर्णका नगरवर्णनमन्यतोऽवसेयम् । तस्य खलु भदिलपुरस्य नगरस्य वदिः 'उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए' उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे श्रीवनं नाम उद्यानमासीत् 'वण्णओ' वर्णकः-अन्यत्रोक्तो विज्ञेयः, जितशत्रू राजा-जितशत्रुनामा राजा भदिलपुराऽधिपतिरासीत् । तत्र खलु भदिलपुरे नगरे नागनामा गाथापतिरासीत् आन्यो-धनधान्यादिपरिपूर्णः यावद् अपरिभूतः बहुजनैरपि अपरिभवनीय इति । तस्य खलु नागस्य गाथापतेः सुलसा नाम भार्या आसीत्-सुकुमार यावत् मुरूपा-सुकुमारपाणिपादा यावत् मुरूपा = शोभनं रूपं यस्याः सा, सुन्दरीत्यर्थः । तस्य खलु नागस्य गाथापतेः पुत्रः सुलसाया भार्याया आत्मजः अणीयससेननामा कुमार आसीत् । सुकुमार यावत्नुरूपः, मुकुमार यावत्-सुकुमारपाणिपादः-सुकुमारं पाणिपादं यस्यासौ तथोक्तः-कोमलकरनगर में गगनचुम्बी ऊँचे ऊँचे विशाल भवन थे । वहा स्वचक्र परचक्र अर्थात् भीतरी और बाहरी शत्रुओं का भय बिल्कुल नहीं था, तथा वह धनधान्यादि से सर्वदा परिपूर्ण था।
उस भदिलपुर नगर के बाहर ईशानकोण में उद्यान के सभी गुणों से परिपूर्ण श्रीवन नामका उद्यान था। उस भदिलपुर में जितशत्रु नामका राजा राज्य करता था। उसी भद्दिलपुर में नाग नामका एक धनिक गाथापति रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुलसा था जो अत्यन्त सुरूपा थी । उस नागगाथापति को सुलसा से एक अणीयससेन नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । उसके हाथ-पैर आदि अंग अत्यन्त कोमल थे। वह अत्यन्त सुन्दर था। હતાં. ત્યાં સ્વચક્ર પરચક્ર અર્થાત અંદર તથા બહાર શત્રુઓને ભય બિલકુલ નહેાત અને તે ધનધાન્યાદિથી સર્વદા પરિપૂર્ણ હતું.
તે ભક્િલપુર નગરની બહાર ઇશાનકેશુમાં ઉદ્યાનના સર્વ ગુણેથી પરિપૂર્ણ શ્રીવન નામે ઉદ્યાન હતું. તે ભક્િલપુર-નગરમાં જિતશત્રુ નામે રાજા રાજ્ય કરતા હો તે. ભદ્દિલપુરમાં નાગ નામે એક ધનિક ગાથાપતિ રહેતો હતો. તેની પત્નીનું નામ સુલસી હતું. જે બહુજ સુરૂપ હતી. તે નાગ ગાથાપતિને સુલસાથી એક વરસેન નામે પુત્ર ઉત્પન્ન થયે. જેનાં હાથપગ આદિ અંગ અત્યંત કમળ હતાં. જે અત્યંત સુંદર
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अणीयससेनवर्णनम् चरणसमन्वित इत्यर्थः । 'पंचधाईपरिक्खित्ते' पञ्चधात्रीपरिक्षिप्तः-पञ्चधात्रीभिः= पञ्चप्रकाराभिर्धात्रीभिः परिक्षिप्त परिवेष्टितः-परिपालित इति यावत् । तद्यथा, 'खीरधाई १ मंजणधाई २, मंडणधाई. ३, कीलावणधाई ४, अंकधाई ५' क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मण्डनधात्री, क्रीडनधात्री, अङ्कधात्री। यथा दृढप्रतिज्ञा दृढपतिज्ञकुमारवत्सर्ववृत्तान्तो विज्ञेयः, 'जाव' यावत् , 'गिरिकदरमल्लीणेच चंपगवरपायवे' गिरिकन्दरालीन इव चम्पकवरपादपः-गिरिकन्दरे पर्वतगुहायाम् 'अल्लीणः' आलीना=स्थितः-गिरिकन्दरालीनः-पर्वतगुहायां परिरक्षित इत्यर्थः, 'गिरिकन्दरमल्लीण' इत्यत्र मकार आपत्वात् , चम्पकवरपादप . इव-मनोहरचम्पकतरुरिव 'सुहं सुहेणं परिवडइ' सुखं सुखेन परिवर्धते-सुखं यथा स्यात्तथा सुखेनाऽनायासेन वृद्धि प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ सू०२॥
. ॥ मूलम् ॥ .. तए णं तं . अणीयसकुमारं सातिरेगअट्टवासजायं
अम्मापियरो कलायरिय जाव भोगसमत्थे जाए यावि होत्था। 'तए णं तं अणीयसं कुमारं उम्मुक्कबालभावं जाणेत्ता अम्मापियरो सरिसयाणं सरिसबयाणं सरिसतयाणं सरिसलावण्णरूवजोवणगुणोववेयाणं सरिसेहितो कुलेहितो आणिल्लियाणं वत्तीसाए इब्भवरकण्णगाणं एगदिवसे पाणिं गेण्हावेंति ॥सू० ३॥
॥ टीका ॥ - 'तए णं' इत्यादि । ततः खलु 'तं अणीयसकुमारं सातिरेगअट्टवातथा वह क्षीरधात्री, मजनधात्री, मण्डनधात्री, क्रीडनधात्री और ... अङ्कधात्री, इन पाँच प्रकार की धाइमाताओं से दृढप्रतिज्ञ कुमार के
समान सर्वदा प्रतिपालित होकर पर्वतगुहा में लीन मनोहर चम्पक लता के समान सुख से बढ़ने लगा ॥ सू० २ ॥ ..... उसके बाद आठ वर्ष से कुछ अधिक उमर हुई तव उस ન હતું, તથા તે ક્ષીરધાત્રી, મજજનધાત્રી. મન્ડનધાત્રી. કીડનધાત્રી, અને અંકધાત્રી એ પાંચ
પ્રકારની ધાઈમાતાઓથી દઢપ્રતિજ્ઞકુમારની પેઠે સર્વદા પ્રતિપાલિત થઈ પર્વતગુહામાં લીન મહર ચંપકલતાની જેમ સુખથી વધવા લાગે (સૂ) ૨ ) '; ત્યારબાદ આઠ વર્ષથી અધિક ઉમર થયા પછી તે અણુયસેન કુમારને માતા
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अन्तकृतदशामत्रे सजायं' तमणीयसकुमारं सातिरेकाष्टवर्पजातम्, अतिरेको वृद्धिस्तेन सहितानि सातिरेकाणि, तानि च अष्टवर्षाणि च सातिरेकाष्टवर्षाणि तानि जातः प्राप्तस्तम् , किंचिदधिकाप्टवर्पमित्यर्थः । । - अम्बापितरौ-मातापितरौ, 'कलायरिय जाव भोगसमत्थे जाण यावि होत्था' कलाचार्य यावद् भोगसमर्थों जातश्चापि आसीत् , यावत्पदादयमभिमायो गृह्यते--मातापितरौ किंचिदधिकाप्टव तमणीयसकुमारं कलाचार्यसमीपे द्वासप्ततिकलाः शिक्षयितुं प्रेपितवन्तौ । अनन्तरं समधिगतसकलकलवायं कुमारः सांसारिकभोगसमर्थश्चाभूत् , ततः खलु, 'तं अणीयसं कुमारं उम्मुक्कवालभावं' तमणीयसं कुमारम् उन्मुक्तबालभावम् , उन्मुक्तः परित्यक्तो वालभात्रो बाल्यं येनाऽसौ तम्-परित्यक्तवालत्वम् , यौवने परिधृतपदमित्यर्थः, ज्ञात्वा अम्बापितरौ, 'सरिसियाणं सरिसब्बयाणं सरिसतयाणं' सदृशीनां सदृशवयस्कानाम् अवस्थादिभिः सदृशीनामित्यर्थः सहशत्वचाम्=समानत्वचावतीनाम् 'सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाणं' सदृशलावण्यरूपयौवनगुणोपपेतानाम्-सदृशा ये लावण्यरूपयौवनगुणास्तैरुपपेतास्तासाम् , लावण्यं कान्तिः; रूपमाकृतिः, यौवनं युवावस्था, गुणाः सौशील्यादयः; एतैः समानानामित्यर्थः, सदृशेभ्यः कुलेभ्य आनीतानाम्, 'चत्तीसाए इभवरकण्णगाणं द्वात्रिंशत इभ्यवरकन्यकानाम् - इभ्यानाम् इभ्यश्रेष्ठिनां वराः श्रेष्ठा याः कन्यकाः अणीयससेनकुमार को मातापिता ने कलाचार्य के समीप कलाओं का अध्ययन करने के लिये भेजा। इसके बाद वह यालक सभी कलाओं में पारंगत होगया। और युवावस्था को पाया। - उस अणीयससेन कुमार को यौवनावस्था से युक्त देखकर मातापिताने समान वय, समान त्वचा, और समान लावण्य रूप यौवन एवं सुशीलता आदि गुणों से युक्त सदृश कुलों से लायी પિતાએ કલાચાર્યની પાસે કલાઓનું અધ્યયન કરવા માટે કર્યો. પછી તે બાળક યુવાવસ્થા પ્રાપ્ત કરી બધી કળાઓમાં પારંગત થયે.
તે અણીયસેનકુમારને યુવાવસ્થાથી યુક્ત જઈને માતાપિતાએ સમાનવાય, સમાનત્વચા, સમાન લાવણ્ય, રૂપ, યૌવન એવં સુશીલતા આદિ ગુણેથી યુક્ત
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अणीयससेनवर्णनम् पुज्यस्तासाम् 'एगदिवसे' एकदिवसे एकस्मिन् दिवसे पाणिं ग्राहयतो= विवाहं कारयत इत्यर्थः ॥ मू० ३॥
विवाहानन्तरमणीयसकुमारस्य मोक्षावधिचरितं वर्ण्यते । ...
तए णं से नागे गाहावई अणीयसस्स कुमारस्स इमं एयारूवं पीइदाणं दलयइ, तंजहा-बत्तीसं हिरणकोडीओ. जहा महब्बलस्स जाव उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहि मुइंगमथएहिं भोगभोगाइं मुंजमाणे विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं. अरहा अरिटनेमी जाव समोसढे, सिरिवणे उज्जाणे अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरइ । परिसा णिग्गया। तए णं तस्स अणीयसस्स कुमारस्स महया जणसहं, जह गोयमे तहा, नवरं सामाइयमाइयाइं चोदस पुबाई अहिजइ, वीसं वासाइं परियाओ, सेसं तहेव जाव सेतुंजे पवए मासियाए संलेहणाए जाव सिद्धे । एवं खल जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्य अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते ॥ सू० ४ ॥
: ॥ टीका ॥ 'तए णं इत्यादि । ततः खल् स नागनामा गाथापतिः अणीयसाय कुमाराय, 'इमं एयारूवं पीइदाणं दलयइ' इदमेतद्रूपं प्रीतिदानं ददातिइद-पुरो वक्ष्यमाणम् , एतद्रूपम् एतत्स्वरूपम् वक्ष्यमाणसंख्यकं भीतिदानं .हुई इभ्य अष्ठियों (सेठों) की विवाह योग्य बत्तीस कन्याओं के
साथ एक दिन में उसका विवाह कर दिया ॥ सू० ३ ॥ .. विवाह के बाद नागगाथापतिने सोना चादी आदि का बत्तीस करोड अणीयससेन कुमार के लिये प्रीतिदान दिया, जैसे એવાંજે કુળમાંથી લાવેલી ઇભ્ય શ્રેષ્ઠિઓ (શેઠે)ની વિવાહ બત્રીસ કન્યાઓની साथे मे४.४ हिवसमा तनां न शीघi. (सू० 3) .. . ... વિવાહ પછી નાગ ગાથાપતિએ સેનું મણિમુકુટ આદિથી યુક્ત બત્રીસ બત્રીસ કરોડનું અણીયસેનકુમારને માટે પ્રીતિદાન આપ્યું, જેમ મહાબલને માટે તેના
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे विवाहोपलक्षितहर्षदानं ददाति । तदेव वर्णयति-तद्यथा 'वत्तीसं हिरण्यकोडीओ' द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी: द्वात्रिंशत्कोटिपरिमिताः राजतमुद्रा इत्यर्थः । 'जहा महव्वलस्य जाव उम्पिं पासायवरगए' यथा महावलाय यावदुपरि प्रासादवरगतः, यथा महावलाय तत्पिता हिरण्यसुवर्णप्रभृतीनामष्टाष्टकोटीददौ तथैव नागगाथापतिरपि अणीयसकुमाराय हिरण्यादीनां द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशत् कोटीददौ । यथा महावलस्य उपरिप्रासादवरगतसंवन्धिवृत्तान्तस्तथैवाणीयसकुमारस्यापि । इदं सर्व यावत्पदसंग्राह्यम् । पुनः 'फुटमाणेहि घुइंगमस्थएहि' स्फुटद्भिर्मृदङ्गमस्तकैः तादयमानै दङ्गाग्रभागैः-अनवरतगीतवाद्यसमारोहवशेन ध्वनद्भिर्मृदङ्गैरुपलक्षितान् 'भोगभोगाई'=भोगभोगान्प्रचुरभोगानित्यर्थः, भुञ्जानः विहरति आस्ते इत्यर्थः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये, अर्हन् अरिष्टनेमिर्यावत् समवमृतः समागतः। श्रीवने उद्याने 'अहापडिरूवं' यथाप्रतिरूपम्-यथा कल्पम् । 'उग्गह' अवग्रहम् बसतेराज्ञामवगृहय यावत् विहरति । 'परिसा जिग्गया' परिपनिर्गता-धर्मकथां श्रोतुं स्वस्वगृहानिःसृता । ततः खलु तस्य अणीयसस्य कुमारस्य 'महया जणसई' महाजनशब्दम्-जनसमुदायकोलाहलम् इत्यादि, 'जहा गोयमे तहा' महाबल के लिये उनके पिताने दिया । और महावल की तरह अणीयससेनकुमार भी ऊपरी महल में निरन्तर बजते हुए मृदङ्गों के द्वारा पूर्वपुण्य-उपार्जित मनुष्यसम्बन्धि भोग भोगते हुए विचरता था। उस काल उस समय में अर्हत अरिष्टनेमि भद्दिलपुर के श्रीवन नामक उद्यान में पधारे । वहाँ शास्त्रोक्तविधि से अवग्रह लेकर विचरने लगे। जनसमुदायरूप परिषद् धर्म कथा सुनने के लिए
अपने घर से निकली । अणीयससेन कुमार भी, मनुष्यों के महान પિતાએ આપ્યું હતું. અણીયસસેનકુમાર પણ મહાબલની પેઠે મહેલના ઉપલા ભાગમાં હમેશાં બજતાં રહેતાં મૃદંગ દ્વારા પૂર્વ પુણ્ય-ઉપાર્જિત મનુષ્ય સંબંધી ભોગ ભગવતે રહેતું હતું. તે કાલ તે સમયે અહંત અરિષ્ટનેમિ ભક્િલપુરના શ્રીવન નામના ઉદ્યાનમાં પધાર્યા. ત્યાં શાસ્ત્રોક્તવિધિથી અવગ્રહ લઈને વિચરવા લાગ્યા. જનસમુદાયરૂપ પરિષદુ ધર્મકથા સાંભળવા પિતાના ઘેરથી નીકળી. અણીયસસેનકુમાર પણ મનુષ્યને માટે કેલાહલ સાંભળીને ગૌતમકુમારની પેઠે ઘેરથી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अणीयससेनवर्णनम् यथा गौतमस्तथा यथा गौतमो :महाजनशब्दं श्रुत्वा भगवत्समीपमेत्य धर्म श्रुत्वाऽनगारो. जातस्तथाऽणीयसकुमारोऽपि । 'नवरं' विशेषस्तु, गौतममुनिना सामायिकादीन्येकादशाङ्गानि समधीतानि, तस्य दीक्षापयो द्वादशवर्षाणि अणीयससेनकुमारस्तु सामायिकादीनि चतुर्दश पूर्वाणि अधीते, विंशतिवर्षाणि पर्यायः विंशतिवर्षपर्यन्तदीक्षापर्यायः, शेषम् तथैव यावच्छत्रुञ्जये पर्वते मासिक्या संलेखनया यावत्सिद्धः-मासिक्या मासावधिकया, संलेखनया अनशनरूपया यावत् सिद्धः मुक्तिं गतः । एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत् मोक्षं सम्माप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां तृतीयस्य वर्गस्य प्रथमस्य अध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः अणीयसकुमारस्य मोक्षरूपोऽर्थः प्रतिपादितः ॥ मू० ४॥ कलरव सुनकर गौतम कुमार के समान घर से निकल भगवान् के पास जाकर धर्म सुनने के बाद अनगार होगये । विशेष केवल इतना है--
इन्होंने सामायिक आदि चौदह पूर्वोका अध्ययन किया और बीस वर्ष दीक्षापर्याय पाली । उसके बाद शत्रुञ्जय पर्वत का आरोहण कर, मासिक संलेखना के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुए। बाकी चरित्र गौतम के ही समान है। भेद इतना ही है कि गौतम अनगार सामायिक आदि ग्यारह अङ्ग पढे और बारह वर्षे संयम पाले।
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृतदशा-नामक आठवें अङ्ग के तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन में अणीयससेन कुमार के मोक्षरूप अर्थ का उक्त प्रकार से वर्णन किया है ॥ सू० ४॥ નીકળી ભગવાનની પાસે જઈ ધર્મ સાંભળ્યા અને પછી અનગાર થઈ ગયા. વિશેષ માત્ર એટલું છે—કે ગૌતમ અનગાર સામાયિક આદિ અગીઆર અંગ ભણ્યા તથા બાર વર્ષ સંયમ પાળે, તેમણે સામાયિક આદિ ચૌદ પૂર્વેનું અધ્યયન કર્યું અને વીસ વર્ષ સુધી દીક્ષા પર્યાય પાળે. ત્યાર પછી શત્રુંજય પર્વતનું આરોહણ કર્યું. માસિક લેખન દ્વારા મોક્ષને પ્રાપ્ત થયા. આ બધું ચરિત્ર ગૌતમનાજ જેવું છે.
ક હે જમ્મુ ! શ્રવણે ભગવાન મહાવીરે અતકતદશા નામના આઠમાં અંગના તૃતીયવર્ગ સંબંધી પ્રથમ અધ્યયનમાં અણીયસ સેનકુમારના મેક્ષરૂપ અર્થનું ઉક્ત ५३ वर्णन यु छे. (सू० ४) .....
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अन्तकृतदशाम्रो
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॥ मूलम् ॥ जहा अणीयसे, एवं सेसा वि अणंतसेणे अजियसेणे अणिहयरिऊ देवसेणे सलुसेणे छ अज्झयणा एकगमा, वत्तीसाओ दाओ, वीसं वासाइं परियाओ, चोइस पुवाई अहिजंति, सेतुजे जाव सिद्धा । छट्रमज्झयणं समत्तं ॥ सू० ५ ॥
॥ टीका ॥ '' 'जहा अणीयसे' इत्यादि ।
एवं यथा अणीयसः यथा पूर्वोक्तरूपमणीयसकुमाराध्यनम् एवं शेपाण्यपि अनन्तसेना - ऽजितसेना- ऽनिहतरिपु-देवसेन- शत्रुसेन-नामकानि अध्ययनानि सन्ति, एतानी पडध्ययनानि एकगमानि-एका समानो गमः= पाठो येषां तानि-समानपाठानीत्यर्थः। एतेपां सर्वेपामपि मातापितृचारित्रादिवर्णनं समानम् ।
'बत्तीसाओ दाओ' द्वात्रिंशद् दायः द्वात्रिंशत्संख्यकयौतुकमित्यर्थः। विंशतिवर्षाणि पर्यायः, चतुर्दश पूर्वाणि अधीयते, 'सेत्तुंजे जाव सिद्धा' शत्रुञ्जये यावत् सिद्धाः 'छठं अज्झयणं समत्तं' पष्ठमध्ययनं समाप्तम् अणीयसकुमारमारभ्य शत्रुसेनपर्यन्तं पडध्ययनानि जातानि ॥ मू० ५ ॥
जैसा अणीयससेन कुमार का अध्ययन है, उसी प्रकार अनन्तसेन, अजितसेन अनिहतरिपु, देवसेन, शत्रुसेन नामक अध्ययनों को जानने चाहिये । ये छहों अध्ययन समानपाठवाले हैं। इनके मातापिता एक ही थे । बत्तीस २ रजतकोटि, सुवर्णकोटि तथा बत्तीस २ मणिमुकुट आदि विवाह के उपलक्ष में इन लोगों को मिला । बीस बरस दीक्षापर्याय पाली । चौदह पूर्वोका अध्ययन किया । शत्रुञ्जय पर्वत पर आरोहण कर मासिक
જેવું અણુસસેનકુમારનું અધ્યયન છે તેવાજ પ્રકારનાં અનન્તસેન, અજિતસેન, અનિહરિપુ, દેવસેન, શત્રુસેન-નામનાં અધ્યયનેનું વર્ણન જાણું લેવું જોઈએ. - આ એ અધ્યયન એક સરખા પાઠવાળાં છે. તેમનાં માતાપિતા એકજ હતા. બત્રીસ બત્રીસ કરોડ સોની તથા બત્તીસ ૨ મણિમુકુટ આદિ વિવાહના ઉપલક્ષમાં આ લેકેને મળ્યા. વીસ વરસ દીક્ષા પર્યાય પા.. ચૌદ પૂર્વેનું અધ્યયન કર્યું.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अनन्तसेनादीनां सारणस्य च वर्णनम्
॥ मूलम् ॥ जइ णं भंते ! उक्खेओ सत्तमस्त । तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवईए जहा पढमे, नवरं वसुदेवे राया, धारिणी देवी, सीहो सुमिणे, सारणे कुमारे, पण्णासओ दाओ, चोदस पुवाइं, वीसं वासाइं परियाओ, सेसं जहा गोयमस्स जाव सेत्तंजए सिद्धे । सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥ सू० ६ ॥
॥ टीका ॥ . 'जइ णं भंते' इत्यादि । यदि खलु भदन्त' इत्यादिः 'उक्खेओ सत्तमस्स' =उत्क्षेपका प्रारम्भवाक्यं सप्तमस्य सप्तमस्याध्ययनस्य विज्ञेयः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावत्या नगर्याम् , 'जहा पढमे' यथा प्रथमे यथा प्रथमे वर्ग द्वारावतीवर्णनं तथैवात्रापि ज्ञातव्यम् । 'नवरं' विशेषस्तु, वसुदेवो राजा धारिणी देवी-धारिणी नाम वसुदेवस्य राज्ञी आसीत्, तया सिंहः स्वप्ने दृष्टः । 'सारणे कुमारे' सारणः कुमारः-धारिण्या देव्याः सारणो संलेखना के द्वारा सिद्ध हुए छ अध्ययन पूरे हुए ।। सू० ५ ॥
- 'जइणं भंते' इत्यादि सातवें अध्ययन का प्रारम्भ वाक्य है । अर्थात् जैसे पूर्व अध्ययनों में जम्बूने जिस क्रम से प्रश्न किया था और आये सुधर्मा ने जिस प्रकार जम्बू से कहा था, उसी प्रकार इस अध्ययन के आदिमें समझना चाहिये ।
हे जम्बू ! उस काल उस समय द्वारका नगरी में वसुदेव नाम के राजा थे, धारिणी नामकी रानी थी। उसने एक समय स्वप्न में सिंह को देखा। उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम 'सारणकुमार' रखा गया । सारपाकुमार ने बहत्तर कलाओंका શત્રુંજય પર્વત પર આરોહણ કરી માસિક લેખનાદ્વારા સિદ્ધ થયા. છ અધ્યયન पूरा थयां. (सू० ५)
'जइ णं भंते' त्या सातभा अध्ययन प्रारमवाध्य छे. अर्थात् प्रेम પૂર્વ અધ્યયનમાં જબૂએ જે ક્રમથી પ્રશ્ન કર્યા હતા તથા આર્યસુધર્માસ્વામીએ જે પ્રકારે જમ્બુને કહ્યું હતું તે પ્રકારેજ આ અધ્યયનના આદિમાં સમજવું જોઈએ.
તે કાલે તે સમયે દ્વારકા નગરીમાં વસુદેવ નામે રાજા રહેતા હતા. ધારિણું નામે તેમની એક રાણી હતી. તેણે એક વખત સ્વપ્નમાં સિંહને છે. તેને એક पुत्र उत्पन्न थयो, रेनु नाम 'सारण कुमार' २१ युसा२७ मारे मांतर ४-मार्नु
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अन्तकृत दशाङ्गमुत्रे
नाम कुमारो जातः, तस्य पाणिग्रहणे, 'पण्णासओ दाओ' पञ्चशत्को दायः । ' चोदस पुन्त्राई' = चतुर्दश पूर्वाणि चतुर्दशपूर्वाणामध्ययनमित्यर्थः, त्रिंशतिवर्षाणि पर्यायः, शेषं यथा गौतमस्य यावत् वर्णनं तथैव सारणकुमारस्यापि, शत्रुञ्जये सिद्धः । इति सप्तममध्ययनम् ॥ ० ६॥
॥ मूलम् ॥
जड़ णं भंते! उक्खेवओ अट्टमस्स । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवईए नयरीए जहा पढमे जाव अरहा अरिनेमी सामी समोसढे । तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतेवासी छ अणगारा भायरो सहोयरा होत्था । सरिसया सरिसत्तया सरिसवया नीलुप्पल - गवल-गुलिय-अयसिकुसुम-प्पगासा सिरिवच्छंकियवच्छा कुसुमकुंडलभद्दालया नलकूवरसमाणा । तए णं ते छ अणगारा जं चेव दिवस मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइया तं चैव दिवस अरहं अरिनेमिं वदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी
।
अध्ययन किया । और तरुणावस्था आने पर मातापिता ने उनका विवाह किया । पचास २ तरह का दहेज मिला । भगवान अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर सारणकुमार अनगार होगये । उन्होंने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया और बीस बरस दीक्षापर्याय पाली । अन्तमें गौतम के सदृश शत्रुञ्जय पर्वत पर आरोहण कर मासिक संलेखना के द्वारा सारणकुमार भी सिद्ध हुए । यह सातमा अध्ययन पूरा हुवा ॥ ६ ॥
અધ્યયન કર્યું અને તરુણાવસ્થા પ્રાપ્ત થતાં તેના માતાપિતાએ તેનું લગ્ન કરી દીધું. પચાસ પચાસ પ્રકારના દહેજ તેને વિવાહમાં મળ્યા. ભગવાન અરિષ્ટનેમિના ઉપદેશ સાંભળી તે અનગાર થઇ ગયા. તેમણે ચૌદ પૂર્વાંનું .અધ્યયન કર્યું. તથા વીસ વરસ દીક્ષાપર્યાય પાળ્યા. અંતમાં ગૌતમની પેઠે શત્રુંજય પર્યંત ઉપર આરહણ કરી માસિક સલેખનાદ્વારા સારણકુમાર પણું સિદ્ધ થયા. સાતમું અધ્યયન પુરૂ થયું. (સૂ॰ ૬)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पडनगारवर्णनम्
इच्छामो णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुष्णाया समाणा जावज्जीवाए छछट्टेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणा विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । तए णं ते छ अणगारा अरिट्ठनेमिणा अब्भणुण्णाया समाणा जावजीवाए छट्टछद्वेणं जाव विहरेंति ॥ सू० ७ ॥
॥ टीका ॥
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' जइ णं भंते ' इति । 'यदि खलु भदन्त !' उत्क्षेपकोऽष्टमस्य = अष्टमस्य अध्ययनस्य प्रारम्भवाक्यमस्ति । एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावत्यां नगयी यथा प्रथमे यावत् अर्हन् अरिष्टनेमिः भगवान् यथा प्रथमे वर्गे द्वारावत्यां समवसृतः, वर्णनम्, तथैवात्रापि 1 'समोसढे ' समवसृतः = धर्मदेशनार्थं समागतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हतोऽरिष्टनेमेः अन्तेवासिनः षडनगारा भ्रातरः सहोदराः = एकमातृजाताः आसन् । 'सरिसया सरितया सरिसव्वया' सदृशकाः सदृक्त्वचः सदृशवयस्काःसदृशकाः=समानाकाराः, सहक्त्वचः - सदृशी त्वग् येषां ते, समानकान्तय इत्यर्थः । सदृशत्रयस्काः-सदृशं=समानं वयो येषां ते समानवयस्काः, आकारेण सौन्दर्येण वयसा च ते षडपि भ्रातरः समाना इत्यर्थ: । ' नीलुप्पलगवलगुलियआठवें अध्ययन का भी प्रारम्भ वाक्य 'जइ णं भंते' इत्यादि । इसका अभिप्राय पूर्वोक्त जानना चाहिये ।
हे जम्बू ! उस काल उस समय में द्वारावती नामकी नगरी थी । वहाँ अर्हत अरिष्टनेमि भगवान् पधारे । वर्णन प्रथम वर्ग के समान जानना चाहिये । उस काल उस समय में एक माता से जन्मे हुए छ सगे भाई अर्हत अरिष्टनेमि के अन्तेवासी (शिष्य) हुए । ये सभी समान आकारवाले और समानरूप तथा समानवयवाले थे ।
आईमा अध्ययननु या आरं वाध्य 'जइ णं भन्ते इत्यादि छे. ते અભિપ્રાય પૂર્વાંકત પ્રકારે જાણવા જોઇએ.
હું જમ્મૂ ! તે કાલ તે સમયે દ્વારાવતી નામે એક નગરી હતી. ત્યાં અત અરિષ્ટનેમિ સ્વામી ધર્મોપદેશ કરવા માટે આવ્યા. તેનું વર્ણન પ્રથમ વના જેવું સમજવું જોઈએ. તે કાલ તે સમયે છ સગાભાઇ અંત અરિષ્ટનેમિના અન્તવાસી (शिष्य) थथा, તે ज्ञान, सौर्य तथा वयमां समान हुता, तेमनी शरीरान्ति,
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अन्तकृतदशागसूत्रे अयसिकुसुमप्पगासा' नीलोत्पलगवलगुलिकातसीकुसुमप्रकाशा:-नीलोत्पलं= नीलकमलम् , गवलं-महिपशृङ्गान्तर्वत्ति नीलद्रव्यम्, गुलिका रङ्गविशेषः, अतसीकुसुमम् अतसीपुष्पम्-'अलसी' इति भाषापसिद्धम् , एतेषां प्रकाश इव प्रकाश कान्तिर्येषां ते तथा, नीलवर्णा इत्यर्थः । 'सिरिवच्छंकियवच्छा' श्रीवत्साङ्कितवक्षसः-श्रीवत्सो-महापुरुषाणां वक्षःस्थचिह्नविशेषः, तेन अङ्कितं वक्षा-उरो येषां ते-श्रीवत्सयुक्तवक्षस्थलकाः, 'कुसुमकुंडलभद्दालया' कुसुमकुण्डलभद्रालका:-कुसुमवत्कोमलाः कुण्डलवद्वर्तुला आकुञ्चितत्वाद् भद्राः शोभना अलकाः केशा येषां ते तथा, 'नलकूबरसमाणा' नलकूवरसमाना सौन्दर्यलावण्यादिभिर्गुणैर्नलकूबरसदृशा इत्यर्थः । ततः खलु ते पडनगारा यस्मिन्नेव दिवसे द्रव्यता केशलुञ्चनात्, भावतः कषायापनयनयात् , मुण्डाः भूत्वा अगारा-गृहाद् अनगारिताम् अनगारभावं प्रत्रजिता:प्राप्ताः, तस्मिन्नेव दिवसे अर्हन्तमरिष्टनेमि, वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवंदन-इच्छामः खलु भदन्त ! युष्माभिः अभ्यनुज्ञाता=आज्ञापिताः सन्तः यावजीवम्-जीवनपर्यन्तमित्यर्थः, 'टछटेणं इनकी शरीरकान्ति नीलकमल तथा भैंस के सोंग के आन्तरिक भाग अथवा गुली के रंग के समान एवं अलसी के फूल के समान नीले रंगवाली थी, और इनका वक्षस्थल श्रीवत्सनामक चिह्नविशेष से अनित था । फूलों के समान कोमल और कुण्डल के समान घूमे हुए धुंघराले इनके चाल बहुत सुन्दर लगते थे । सौन्दर्यादि गुणों से ये नलकूबर के समान थे । वे छहों अनगार जिस दिन दीक्षित हुए उसी दिन वे भगवान को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोले
हे भदन्त ! हम लोग आपसे आज्ञा प्राप्त कर जावजीव નીલકમલ તથા ભેંસના શીંગડાના આન્તરિક ભાગ અથવા ગળીના રંગના જેવી, એવું અળસીનાં ફૂલના જેવી હતી, તથા તેમનું વક્ષસ્થલ શ્રીવત્સનામના ચિહ્નવિશેષથી અંકિત હતું. ફૂલેના જેવા કે મળ અને કુંડળના જેમ ગોળ ઘુંચળ વળેલા તેમના વાળ બહુ સુંદર દેખાતા હતા. સૌંદર્યાદિ ગુણોથી તે નળબરના જેવા હતા. તે છએ અનગાર જે દિવસે દીક્ષા લીધી તેજ દિવસે તેમણે ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરીને मा प्रशारे पु.
હે ભદન્ત! અમે લેકે આપની આજ્ઞા મળતાં જાવજીવ (જીવનપર્યન્ત) નિર
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पडनगारवर्णनम् अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं' षष्ठपष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपाकर्मणा-अनिक्षिप्तेन= अपरित्यत्तोन-निरन्तरेण तपःकर्मणा तपस्ययेत्यर्थः आत्मानं भावयन्तः= वासयन्तो विहर्तुम् । भगवानाह-यथासुखं हेदेवानुप्रियाः!- यथा युष्माकमात्मवलं शरीरवलं च तथा कुरुतेत्यर्थः । ‘मा पडिबंधं करेह'
मा प्रतिवन्धं कुरुत-तपःप्रतिघातरूपं प्रमादं मा कुरुतेत्यर्थः । 'तए णं ते . छ अणगारा' ततः खलु ते षडनगाराः 'अरिट्टनेमिणा अब्भणुण्णाया समाणा
जावज्जीवाए छट्टछटेणं जाव विहरंति' अरिष्टनेमिना अभ्यनुज्ञाताः सन्तः यावज्जीवं पष्ठषष्ठेन यावद् विहरन्ति-पष्टषष्ठरूपनिरन्तरतपसाऽत्मानं भावयन्तो विचरन्तीत्यर्थः ।। मू० ७ ॥ ।
॥ मूलम् ॥ तए णं ते छ अणगारा अण्णया कयाइं छटुक्खमण.. पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति, जहा गोय
मसामी, जाव इच्छामो णं भंते ! छट्टक्खमणस्स पारणाए तुब्भेहिं अब्भणुनाया समाणा तिहि संघाडएहिं बारवईए नयरीए जाव अडित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! तए णं ते छ अणगारा अरहया अरिटनेमिणा अब्भणुण्णाया समाणा (जीवनपर्यन्त) निरन्तर षष्ठ-पष्टरूप तपस्या के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने की इच्छा करते हैं। ऐसा सुनकर भगवान् ने उन अनगारों से कहा-हे देवानुप्रियों ! अपने बल पराक्रम के अनुसार जैसा सुख हो वैसा करो, और प्रमाद छोडो । इसके बाद वे छहों अनगार अहंत अरिष्टनेमि से आज्ञा पाकर जावजीव षष्ठ-षष्ठ तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ॥ सू० ७ ॥ ન્તર ષષ્ઠ–ષષ્ઠરૂપ(છઠ છઠ) તપસ્યા દ્વારા અમારા પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા કરતા વિચરવાની ઈચ્છા કરીએ છીએ. એવું સાંભળીને ભગવાને તે અનાગારોને કહ્યુંદેવાનુપ્રિયે ! તમારાં બલ પરાક્રમ અનુસાર જેમ સુખ થાય તેમ કરે, અને પ્રમાદ છેડે. ત્યાર પછી તે છએ અનગાર અહંત અરિષ્ટનેમિની આજ્ઞા લઈ જાવव १४-५४ तपद्वारा पाताना मामाने भावित ४२ता वियरवा साया. (सू०७)
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
अरहं अरिनेमिं वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता अरहओ अरिनेमिस्स अंतियाओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडि - णिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता तिहिं संघाडएहिं अतुरियं जाव अडंति ॥ सू० ८ ॥
॥ टीका ॥
'तए णं' इत्यादि । 'तए णं ते छ अणगारा' ततः खलु ते पडनगारा : 'अण्णया कयाई' अन्यदा कदाचित् 'छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए' पष्ठक्षपणपारणायां प्रथमायां पौरुष्याम् = प्रथमे महरे ' सज्झायं ' स्वाध्यायं ' करेंति' कुर्वन्ति, 'जहा गोयमसामी जाव' यथा गौतमस्वामी यावत् = गौतमस्वामिवद् भगवत्समीपमागत्य पृच्छन्ति - 'इच्छामो णं भंते ! छट्ठक्खमणस्स पारणाए' इच्छामः खलु भदन्त ! पष्ठक्षपणस्य पारणायाम् ' तुन्भेहिं अन्भणुष्णाया समाणा' युष्माभिरभ्यनुज्ञाताः सन्तः 'तिहिं संघाड एहिं ' त्रिभिः संघाटकैः = भागत्रयेण संविभज्येत्यर्थः, 'वारवईए नयरीए जाव अडित्तए ' द्वारावत्यां नगर्यां यावत् मुनिकल्पानुसारेण सामुदानिकभिक्षार्थम् अटितुम् = गन्तुमित्यर्थः । भवदनुज्ञाता वयं द्वौ द्वौ मिलित्वा संघाटकत्रयेण द्वारावत्यां पारणार्थमशनादिग्रहणाय गन्तुमिच्छाम इति भावः । भगवानाह - ' अहामुहं देवाणुपिया !" यथासुखं हे देवानुप्रियाः ! | 'तए णं ते छ अणगारा अरहया
.
तदनन्तर एक समय छठ (वेले) के पारणेमें उन छहों अनगारों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और उसके बाद गौतम स्वामी के समान भगवान् के पास आकर सविनय बोले - हे भदन्त ! आपकी आज्ञा पाकर तीन संघाटकों ( संघाडों) में विभक्त हो मुनियों के कल्पानुसार सामुदानिक भिक्षा के लिये हमलोग द्वारका में जानेकी इच्छा करते हैं । उन छहों अनगारों की ऐसी प्रार्थना सुनकर भगवानने कहा- हे देवानुप्रियों !
ત્યાર પછી એક સમય છઠના પારણામાં તે છએ અનગારીએ પ્રથમ પ્રહરમાં સ્વાધ્યાય કરી ગૌતમસ્વામીની પેઠે ભગવાનની પાસે આવ્યા અને સવિનય કહ્યું કે-હે ભદ્દન્ત ! આપની આજ્ઞા લઈ ત્રણ સોંઘાટકામાં ત્રિભકત થઇ મુનિએના કલ્પાનુસાર સામુદાનિક ભિક્ષા માટે અમે દ્વારકામાં જવાની ઇચ્છા કરીએ છીએ. તે છએ અનગારાની એવી પ્રાર્થીના સાંભળી - ભગવાને કહ્યું – હે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पडनगारवर्णनम्
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अरिट्टनेमिणा अन्भणुष्णाया समाणा' ततः खलु ते पडनगाराः अर्हता अरिष्टनेमिना अभ्यनुज्ञाताः सन्तः 'अरहं अरिद्वनेमिं वदति णमंसंति' अर्हन्तम् अरिष्टनेमिं वन्दन्ते नमस्यन्ति, ' वंदित्ता णमंसित्ता अरहओ अरिनेमिस्स ' वन्दित्वा नमस्त्विा अर्हतोऽरिष्टनेमेः 'अंतियाओ' अन्तिकान् = समीपात् 'सहस्संववणाओ उज्जाणाओ' सहस्राम्रवनात् = सहस्राम्रवननामकात् उद्यानात् 'पडिणिक्खमंति' प्रतिनिष्क्राम्यन्ति = निस्सरन्ति, 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य ' तिर्हि संघाडएहिं ' त्रिभिः संघाटकैः, 'अतुरियं जाव' अत्वरितं यावत्-अत्वरितं = त्वरारहितम्, यावत् अचपलमसंभ्रान्तम् ; अत्वरितं - झटिति पारणं कर्त्तव्यमिति त्वरारहितम्, अचपलं चरणव्यापारे, असम्भ्रान्तं लाभालाभचिन्तायाम् एवंविधं यथास्यात्तथा ' अडंति ' अटन्ति = हिण्डन्ति ॥ सु ० ८ ॥ ॥ मूलम् ॥
तत्थ णं एगे संघाडए बारवईए णयरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे अडमाणे वसुदेवस्स रण्णो देवइए देवीए गिहे अणुष्पविडे | तए णं सा देवई देवी ते अणगारे एजमाणे पासित्ता
.
तु जब हिया आसणाओ अब्भुट्टे, अब्भुट्टित्ता सत्तटुपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता तिक्खुतो आयाहिणपया हिणं जैसा सुख हो, वैसा करो । भगवान् अरिष्टनेमि से इस प्रकार आज्ञा पाने के बाद उन अनगारों ने वन्दन - नमस्कार किया । बाद में वे मुनि सहस्राम्रवन के बाहर निकले और तीन संघाडे बनाकर अत्वरित गति, चपलतारहित एवं लाभालाभ चिन्ता में असम्भ्रान्तिपूर्वक- उद्वेगरहित भिक्षा के लिये गये || सू० ८ ॥
દેવાનુપ્રિયે ! જેમ સુખ થાય તેમ કરે. ભગવાન અરિષ્ટનેમિ પાસેથી એ પ્રકારે આજ્ઞા મેળવીને તે અનગારીએ વન્દન નમસ્કાર કરી સહસ્રામ્રવનથી બહાર નીકળ્યા, અને ત્રણ સંઘાડા મનાવીને અરિત ગિત ( પારણુ જલ્દી થાય એવી ત્વરારહિત ) ચપલતારહિત અયતનાથી ચાલવું તે ચપલા કહેવાય ), લાભાલાભની ચિંતામાં અસંભ્રાન્તિપૂર્વક (ભિક્ષા મલશે કે નહિ, અગર મલશે તે કયારે મલશે એવા વિચાર रंडित) भिक्षाने भाटे विश्रवा लाग्या ( सू० ८ )
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
करेइ, करिता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहकेसराणां मोयगाणां थाल भरेs, भरिता ते अणगारे पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू० ९ ॥
॥ टीका ॥
"
' तत्थ णं' इत्यादि । ' तत्थ णं ' तत्र खलु ' एगे संघाडए ' एकः संघाटको = मुनिद्वयरूपः, 'बारवईए णयरीए' द्वारावत्यां नगर्याम् ' उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई ' उच्चनीचमध्यमानि कुलानि 'घरसमुदाणस्स ' गृहसमुदानस्य = अनेकगृहाणां ' भिक्खायरियाए ' भिक्षाचथ्ययै भिक्षाग्रहणाय 'अडमाणे ' अटन् 'वसुदेवस्स रण्णो देवईए देवीए गिहे अणुष्पविट्टे' वसुदेवस्य राज्ञो देवक्या देव्या गृहे अनुप्रविष्टः । ' तर णं सा देवई देवी' ततः खलु सा देवकी देवी 'ते' तौ द्वौ ' अणगारे एज्जमाणे पासिता ' अनगारौ एजमानौ = आगच्छन्तौ 'पासित्ता' दृष्ट्वा ' हट्टतुट्ठ जाव हियया' हृष्टतुष्ट यावद्धृदया, यावत्पदेन 'तुहचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया' इत्यादि संग्राह्यम् । 'हतुचित्तमाणंदिया' हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता - हृष्टं दर्पितम् अनगारयोराकस्मिकागमनेन अतीव प्रमुदितमित्यर्थः, तुष्टं = संतुष्टम् - धन्याऽहं मद्गृहेऽ
"
उनमें दो मुनियों का संघाडा द्वारका नगरी के उच्चनीचमध्यम कुलों में गृहसामुदानिक भिक्षाके लिये घूमता हुआ राजा वसुदेव और रानी देवकी के घर पहुँचा । उस संघाडे ( उन दोनों मुनियों) को अपने यहाँ आते हुए देखकर देवकी महारानी आसन से उठी और सात आठ पग उनके सामने गई । उन दोनों अनगारों के आकस्मिक आगमन से हर्षित हुई
તેમાંના કે મુનિના એક સંધાડા દ્વારકા નગરીના ઉચ્ચનીચમધ્યમ કુળામાં ગૃહસામુદાનિક ભિક્ષા માટે ફરતા ફરતા રાજા વસુદેવ તથા રાણી દેવકીને ઘેર પહોંચ્યા. તે સંઘાડા ( તે એ મુનિઓ ) ને પેાતાને ત્યાં આવતા જોઇ દેવકી મહારાણી આસનથી ઉચા અને સાત આઠે ડગલાં તેમની સામે ગયા. તે બેઉ અનગારાના અકસ્માત્ આગમનથી હર્ષિત થઈ મનમાં મેલ્યા હું ધન્ય છું કે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पडनगारवर्णनम् नगारावागताविति कृतकृत्यम्; हृष्टं च तुष्टं च यच्चित्तं तेनानन्दिता, 'पीइमणा' प्रीतिमना:-प्रीतिस्तृप्तिः उत्तमवस्तुमाप्तिरूपा, सा मनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः-तृप्तचित्तेत्यर्थः, 'परमसोमणस्सिया' परमसौमनस्यिता-सातिशयप्रमोदभावसंपन्नेत्यर्थः, 'हरिसवसविसप्पमाणहियया' हर्षवशविसर्पदयाहर्षवशाद् विसर्पत्-पसरद् हृदयं यस्याः सा-हर्षातिशयप्रवर्द्धमानमनाः, महापु-. रुषाणामाकस्मिकागमनेन पूर्णचन्द्रोदयेन सागरवत् प्रमोदातिशयेन देवकीहृदयपध्र प्रफुल्लितं जातमिति भावः; 'आसणाओ अब्भुटेइ ' आसनादभ्युत्तिष्ठति आसनं परित्यज्याभ्युत्थानं करोतीत्यर्थः, 'अन्भुठित्ता सत्तटुपयाई अणुगच्छइ' अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति-मुनिसंमुखं याति, 'अणुगच्छित्ता तिक्खुत्तो' अनुगम्य विकृत्वः 'आयाहिणपयाहिणं करेइ' आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, 'करित्ता वंदइ णमंसइ' कृत्वा वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा 'जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव भक्तगृहं तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य, 'सीहकेसराणं मोयगाणं' सिंहकेसराणां मोदकानाम् , चतुरशीतिविशिष्टवस्तुविनिर्मिता मोदकाः सिंहकेसरमोदका उच्यन्ते
थालं भरेइ ' स्थालं भरति, “भरिता ते अणगारे पडिलाभेइ' भृत्वा तौ अनगारौ प्रतिलम्भयति ददाति, 'पडिलाभित्ता' प्रतिलभ्य 'वंदइ णमंसइ" वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा 'पडिविसज्जेइ' प्रतिविसर्जयति ॥ सू० ९ ॥. . और बोली-मैं धन्य हूं जो मेरे घर अनगार पधारे। इस हेतु से
सन्तुष्टचित्त होने के कारण वह अत्यन्त आनन्दित हुई । मुनियों के पधारने से उसके अन्तःकरण में अपूर्व प्रेम उत्पन्न हुआ और मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ। तथा उसका हृदय हर्ष के अतिरेक (आधिक्य) से उछलने लगा, अर्थात् अपूर्व आनन्दित हुआ। विधिपूर्वक वन्दना करके वह मुनियों को रसोईघर में ले गयी। મારે ઘેર અનગાર આવ્યા–આ હેતુથી સંતુષ્ટચિત્ત થવાથી તે બહુ આનંદિત થયા, મુનિઓના પધારવાથી તેને અંતઃકરણમાં અપૂર્વ પ્રેમ પ્રગટયો તથા મન અત્યન્ત પ્રસન્ન થયું, અને તેનું હૃદય હર્ષના અતિરેક (આધિકય)થી ઉછળવા લાગ્યું, અર્થાત્ દેવકી મહરાણું બહુજ આનંદિત થયા અને વિધિપૂર્વક વન્દના કરી પછી બંને મુનિએને વિનંતી કરી રસોડામાં લઈ ગયા. અને સિંહકેસર મેદકને થાળ ભરીને લાવ્યા
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अन्तकृतदशाङ्गमुत्रे
॥ मूलम् ॥
तयाणंतरं चणं दोच्चे संघाडए बारवईए नयरीए उच्च जाव पडिविसज्जेइ | तयानंतरं च णं तच्चे संघाडए वारवईए नयरीए उच्चनीय जाव पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं व्यासी - किण्णं देवाणुपिया ! कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे वारवईए नयरीए दुबालसजोयण - आयामाए नवजोयणवित्थिष्णाए पच्चक्खं देवलोगभूयाए समणा निग्गंथा उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुद्राणस्स भिक्खायरिआए अडमाणा भत्तपाणं णो लभंति ! जन्नं ताई चेव कुलाई भक्तपाणा भुजो भुजो अणुप्पविसंति ॥ सू० १० ॥ ॥ टीका ॥
' तयानंतरं ' इत्यादि । ' तयाणंतरं च णं' तदनन्तरं = प्रथमसंघाटकगमनानन्तरं च खलु 'दोचे संघाइए' द्वितीयः संघाटकः 'चारवईए नगरीए ' द्वारावत्यां नगर्याम् 'उच्चनीय जात्र पडिविसज्जेइ' उच्चनीचयावत्मतिविसर्जयति'उच्चनीचमध्यमानि कुलानि ' इत्यारभ्य ' प्रतिविसर्जयति' इत्यतः प्राग्वर्त्ती पाठः पूर्ववदेव यावत्पदेन संग्राह्यः ' तयानंतरं च णं तच्चे संघाडए चारवईए नयरीए उच्चनीय जाव पडिला भेड़' तदनन्तरं च खलु तृतीयः संघाटकः द्वारावत्यां नगर्या उच्चनीच यावत् प्रतिलम्भयति = द्वितीयसंघाटकगमनानन्तरमागताय तृतीयसंघाटका देवकी पूर्ववदेव उदारभावेन विपुलमशनादिकं प्रतिलम्भ्य एवतथा सिंहकेसरमोदकों का थाल भर कर लाई, और उन अनगारों को प्रतिलाभत कर विनय के साथ विसर्जित किया || सू० ९ ॥ उसके बाद दूसरा संघाडा भी उच्च नीच मध्यम कुलों में घूमता हुआ देवकी के घर आया, देवकी रानी ने उसी तरह प्रतिलाभित करके विसर्जित किया । अनन्तर तीसरा संघाडा भी वैसे ही आया । देवकी रानी उसे भी वैसे ही उदारभाव से भिक्षा देकर विनयपूर्वक पूछने लगी
અને તે અનગારાને પ્રતિલાભિત કરી તેમને વિનયથી વિસર્જિત કર્યાં. (સૂ॰ ૯) ત્યાર પછી બીજો સંધાડા પણુ ઉચ્ચ નીચ મધ્યમ કળામાં ફરતા ફરતા દેવકીને ઘેર આવ્યા. દેવકી રાણીએ એજ પ્રમાણે તેમને પ્રતિલાભિત કરી ( વહેારાવી ) વિજિત કર્યાં. પછી ત્રીજો સંઘાડા પશુ એવી રીતે આયૈ. દેવકી રાણીએ તેને પણુ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, षड्भ्रातृकानगारवर्णनम् - मवदत्-वक्ष्यमाणप्रकारेणाकथयत्- 'किण्णं देवाणुप्पिया ! कण्हस्स वासुदेवस्स 'इमीसे वारवईए नयरीए' किं खलु हे देवानुपिय ! कृष्णस्य वासुदेवस्य अस्यां द्वारावत्यां नगर्याम् 'दुवालसजोयण-आयामाए.' द्वादशयोजनायामायां= द्वादशयोजनदीर्घायामित्यर्थः, 'नवजोयणवित्थिण्णाए पच्चक्खं देवलोगभूयाए' नवयोजनविस्तीर्णायाम् प्रत्यक्ष देवलोकभूतायाम् 'समणा निग्गंथा उच्चनीय मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए' श्रमणा निर्ग्रन्थाः उच्चनीचमध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यायै 'अडमाणा' अटन्तः भिक्षार्थ भ्रमन्तः, 'भत्तपाणं णो लभंति' भक्तपानम् नो लभन्ते-न प्राप्नुवन्ति । 'जन्नं' यत्खल्लु 'ताई चेव कुलाई तानि एव कुलानि-पूर्वप्रविष्टान्येव कुलानि 'भत्तपाणाए भुज्जो मुजो अणुप्पविसंति' भक्तपानाय भूयो भूयोऽनुप्रविशन्ति ॥ मू० १०॥
॥ मूलम् ॥ । तए णं ते अणगारा देवइं देवि एवं वयासी-णो खलु
देवाणुप्पिये ! कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे बारवईए णयरीए जाव देवलोगभूयाए समणा निग्गंथा उच्चणीय जाव अडमाणा भत्त
पाणं णो लभंति, णो चेव णं ताइं ताई कुलाइं दोच्चपि तच्चंपि . भत्तपाणाए अणुप्पविसंति । एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हे
भदिलपुरे नयरे नागस्स गाहावइस्स पुत्ता सुलसाए भारियाए अत्तया छ भायरो सहोयरा सरिसया जाव नलकुब्बरसमाणा अरहओ अरिट्रनेमिस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म संसारभउद्विग्गा भीया जम्ममरणाओ मुंडा जाव पवइया ॥ सू० ११ ॥
हे देवानुप्रिय ! कृष्ण वासुदेव जैसे महाप्रतापी राजा की नौ योजन चौडी और बारह योजन लम्बी स्वर्गलोक सदृश इस द्वारका नगरी के उच्च नीच मध्यम कुलों में सामुदानिकभिक्षा के लिये घूमते हुए श्रमण निग्रंथों को क्या आहार पानी नहीं मिलता है जिससे एक ही कुल में बार-बार आना पडता है ? ॥ सू० १०॥ એવાજ ઉદર ભાવથી ભિક્ષા આપી વિનયપૂર્વક પૂછ્યું.
દેવાનુપ્રિય ! કૃષ્ણવાસુદેવ જેવા મહાપ્રતાપી રાજાની નવ જન પહોળી અને બાર જ લાંબી સ્વર્ગલેક જેવી આ દ્વારકા નગરીના ઉચ્ચ નીચ ને મધ્યમ કુળમાં સામુદાનિક ભિક્ષા માટે ફરતા શ્રમણ નિર્ગથેને શું આહાર-પાણ મલતું नथी थी ये ४०१ सभा वारंवार भाव५ छ ? (सू० १०) ... ... ..
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अन्तकृतदशाङ्गमूत्रे
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं ते अणगारा देवइं देवि एवं वयासी' ततः खलु तौ अनगारौ देवकी देवीम् एवमवदताम्- ‘णो खलु देवाणुप्पिये' नो खल देवानुपिये ! 'कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे वारवईए नयरीए जाव' कृष्णस्य वासुदेवस्य अस्यां द्वारावत्यां नगयों यावद् ‘देवलोगभूयाए समणा निग्गंथा उच्चणीय जाव अडमाणा भत्तपाणं णो लभंति' देवलोकभूतायां श्रमणा निग्रन्था उच्चनीच यावदटन्तः भक्तपानं नो लभन्ते= हे देवकि ! अत्र द्वारावत्यां नगय्या श्रमणा निग्रेन्था भिक्षा न लभन्ते इति न, किन्तु लभन्त एव । तथा 'णो चेव णं ताई ताई कुलाई दोचंपि तचंपि भत्तपाणाए अणुप्पविसंति' नो चैव खलु तानि तानि कुलानि द्वितीयमपि तृतीयमपि वारं भक्तपानाय अनुपविशन्ति । तत्संदेहनिवारणार्थमाह-'एवं खलु इति । एवं खलु देवानुप्रिये हे देवानुप्रिये ! एवं खलु तव शङ्काऽस्माकं समानरूपदर्शनाज्जाता । समानरूपता चास्माकं सहोदरादित्वादिति तौ स्वपरिचयमाहतु:- 'अम्हे' इति । 'अम्हे भदिलपुरे नयरे नागस्स गाहावइस्स पुत्रा सुलसाए भारियाए अत्तया छ भायरो सहोयरा' वयं भदिलपुरे नगरे नागस्य गाथापतेः पुत्राः सुलसाया भार्याया आत्मजाः पड्भ्रातरः सहोदराः, 'सरिसया जाव नलकुव्वरसमाणा' सशका यावत् नलकूवरसमानाः, 'सदृशकाः' इत्यारभ्य 'नलकूवरसमानाः' इत्यन्तः पाठः पूर्ववदवसेयः। 'अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतिए' अहंतोऽरिष्टनेमेरन्तिके
देवकी का ऐसा प्रश्न सुनकर वे अनगार इस तरह कहने लगे-हे देवानुप्रिये ! कृष्ण वासुदेव की स्वर्गसदृश इस द्वारका नगरी में श्रमण निग्रन्थों को आहार. पानी नहीं मिलता है
और वे एक घर में बार बार भिक्षा के लिये आते हैं, ऐसी बात नहीं है। किन्तु हे देवानुप्रिये ! हमारे समान रूप आदि के कारण, तुम्हारे मन में शङ्का हुई है। शङ्का का कारण यह है कि हम लोग अद्दिलपुरनिवासी नाग गाथापति के पुत्र एवं सुलसा के अङ्गजात, रूप लावण्य आदि से समान तथा नलकूबर के सदृश सुन्दर छ सहोदर भाई हैं । हम लोगों ने भगवान् अरिष्टनेमि के
દેવૂકીને આ પ્રશ્ન સાંભળીને તે અનગર આમ કહેવા લાગ્યા હે દેવાનુપ્રિયે ! કૃષ્ણવાસુદેવની સ્વર્ગ જેવી આ દ્વારકા નગરીમાં શ્રમણ નિથાને આહાર પાણી મલતું નથી તથા તેઓ એક ઘરમાં વારંવાર ભિક્ષા માટે આવે છે, એવી વાત નથી. પરંતુ હે દેવાનુપ્રિયે ! અમારા એક સરખા રૂપ આદિના કારણે, તમારા મનમાં શંકા થઈ છે. શંકાનું કારણ એ છે કે અમે લેકે ભલિપુરનવાસી નાગ ગાથાપતિના પુત્ર અને સુલતાના અંગજાત, રૂ૫ લાવણ્ય આદિથી સરખા તથા નલકૃબરના જેવા સુંદર છ સહોદર ભાઈઓ છીએ. અમેએ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पडनगारवर्णनम् । 'धम्म' धर्म ‘सोचा' श्रुत्वाकर्णगोचरीकृत्य ‘णिसम्म' निशम्य हृदयेनावधार्य 'संसारभउचिग्गा' संसारभयोद्विग्नाः-संसाराद् यद् भयं तेन उद्विग्ना:संसारभयोद्धान्ता इत्यर्थः । 'भीया जम्ममरणाओ' भीता जन्ममरणात् 'मुंडाजाव पव्वइया' मुण्डा यावत्पत्रजिताः, 'मुण्डा' इत्यारभ्य प्रव्रजिता इत्यन्तः - पाठः पूर्ववदवसेयः ॥ मू० ११ ॥
तए णं अम्हे जं चेव दिवसं पवइया तं चेव दिवसं अरहं अरिटनेमि वंदामो नमसामो इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हामो। इच्छामो णं भंते! तुब्भेहि अब्भणुण्णाया समाणा जाव अहासुहं देवाणुप्पिया। तए णं अम्हे अरहया अरिट्रनेमिणा अब्भणुण्णाया समाणा जावज्जीवाए छटुं छटेणं जाव विहरामो। तं अम्हे अज छट्टक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए जाव अडमाणा तव गेहं अणुप्पविटा, तं नो खल्लु देवाणुप्पिये ! ते चेव णं अम्हे, अम्हे णं अन्ने, देवइं देवि
एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं . पडिगए ॥ सू० १२ ॥ :
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं अम्हे जं चेव दिवसं पव्वइया' ततः खलु वयं यस्मिन्नेव दिवसे प्रव्रजिताः, 'तं चेव दिवसं अरहं अरिट्टनेमिं वंदामो नमसामो इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हामो' तस्मिन्नेव दिवसे समीप धर्म सुनकर संसार के भय से उद्विग्न हो जन्ममरण से छुटकारा पाने के लिये प्रव्रज्या ग्रहण की ॥ सू० ११ ॥
। उसके बाद हम लोगों ने जिस दिन दीक्षा ली उसी दिन से भगवान की आज्ञा प्राप्तकर वेले बेले पारणा करने की प्रतिज्ञा ભગવાન અરિષ્ટનેમિની પાસે ધર્મ સાંભળી સંસારના ભયથી ઉદ્વિગ્ન થઈ જન્મમરણથી છુટવા માટે પ્રવ્રયા ગ્રહણ કરી ( સૂ૦ ૧૧ ) : - ત્યાર પછી અમે જે દિવસે દીક્ષા લીધી તેજ દિવસથી ભગવાનની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરી છટું છ પારણું કરવાની પ્રતિજ્ઞા લીધી. અને તે જ પ્રમાણે છઠ્ઠ છઠ્ઠ પારણું
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
अर्हन्तमरिष्टनेमिं बन्दामदे नमस्यामः इममेतद्रूपम् अभिग्रहम् = प्रतिज्ञाविशेषम् अभिगृह्णीमः = स्वीकुर्मः । प्रतिज्ञास्वरूपमाह - 'इच्छामो णं भंते ! तुभेहि अन्भणुण्णाया समाणा जाव अहासुहं देवाणुप्पिया !" इच्छामः खलु हे भदन्त ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाताः सन्तो यावद्यथासुखं देवानुमियाः । यावत्पदेन पूर्वोक्तः पाठः संग्राह्यः । अयं भावः - हे भगवन् ! भवदाज्ञया पष्ठपप्ठ- तपःकर्मणा यावज्जीवं विहर्तुमिच्छामः । तदा भगवानाज्ञपयामास - हे देवानुमियाः ! यथासुखं कुरुतेति । ' तर णं अम्हे अरहया अरिष्टनेमिणा अणुष्णाया समाणा जानज्जीवाए छटुं छद्वेणं जाव विहरामो' ततः खलु वयम् अर्हताऽरिष्टनेमिना अभ्यनुज्ञाताः सन्तः यावज्जीवं पष्ठपण्ठेन यावद् विहरामः । ' तं अम्हे अज्ज छट्ठक्खमणवारणयंसि पढमाए पोरिसीए जात्र अडमाणा तत्र गेहं अणुष्पविद्या ' तद्वयम् अद्य पष्ठक्षपणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां यावदन्तः प्रथमे प्रहरे स्वाध्यायं द्वितीये ध्यानं कृत्वा तृतीयप्रहरे भगवताऽऽदिष्टा उच्चनीचमध्यमानि कुलानि अन्तः तव गृहमनुप्रविष्टाः । ' तं नो खलु देवाणुप्पिये !' तन्नो खलु हे देवानुप्रये ! 'ते चेत्र णं अम्हे' त एव खलु वयम्, किन्तु 'अम्हे णं अन्ने' वयं खलु अन्ये' 'देवई देविं एवं वयइ' देवकीं देवीम् एवं वदति - एवं पूर्वोक्तप्रकारेण देवकीं देवीं वदति = कथयति, 'वत्ता जामेत्र दिसं पाउब्यूए ' उदिला यस्या दिशः प्रादुर्भूतः = मुनिद्वयस्य तृतीयसंघाटकः समागतः 'तामेव दिसं पडिगए' तस्यामेव दिशि प्रतिगतः = प्रतिनिवृतः ॥ सृ० १२ ॥
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ली, उसी अनुसार बेले वेले पारणा करते हैं, सो हम लोगों को आज वेले का पारणा है । इसलिये पहले पहर में स्वाध्याय करके दूसरे पहर में ध्यान घर के और तीसरे पहर में भगवान की आज्ञा प्राप्त करके हम तीन संघाडा से निकले और उच्च नीच मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिये घूमते हुए तुम्हारे घर आये । अतः हे देवानुप्रिये ! जो अनगार पहिले आये वे दूसरे, बीच में आये કરીએ છીએ, આજે અમારે બધાએને છઠ્ઠનું પારણું છે. તેથી અમે પહેલા પ્રહરમાં સ્વાધ્યાય કરીને, ત્રીજા પ્રહરમાં ધ્યાન ધરીને અને ત્રીજા પ્રહરમાં ભગવાનની આજ્ઞા લઇ ત્રણ સંઘાડાથી નીકળી ઉચ્ચ, નીચ, મધ્યમ કુળામાં સામુદાનિક ભિક્ષા માટે ફરતા ફરતા તમારે ઘેર આવ્યા. આથી હૈ દેવાનુપ્રિયે ! જે અનગાર પહેલા આવ્યા તે જુદા,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, देवक्या मानसो विचार :
॥ मूलम् ॥
तए णं तीसे देवईए देवीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पन्ने । एवं खलु अहं पोलासपुरे नयरे अइमुत्तेणं कुमारसमणेणं बालत्तणे वागरिया, तुमं णं देवाणुप्पिए ! अट्ठ पुत्ते पयाइससि सरिसए जाव नलकुब्बरसमाणे, नो चेव णं भरहे वासे अण्णाओ अम्मयाओ तारिसए पुते पयाइस्संति, तं णं मिच्छा । इमं पच्चक्खमेव दिस्सs भरहे वासे अण्णाओ वि अम्मयाओ खलु एरिसए जाव पुते पयायाओ, तं गच्छामि णं अरहं अरिट्टनेमिं वंदामि नम॑सामि, वंदित्ता नर्मसित्ता इमं चणं एयारूवं वागरणं पुच्छिस्सामिति कट्टु एवं संपेहेइ, संपे हित्ता को बियपुरिसे सदावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीलहुकरणजुत्तजोइयं जाणप्पवरं जाव उवटुवेंति, जहा देवाणंदा जाव पज्जुवासइ ॥ सू० १३ ॥
॥ टीका ॥
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'तए णं' इत्यादि । ' तए णं' ततः = तृतीयसंघाटकगमनानन्तरं खलु 'ती से देवईए देवीए ' तस्या देवक्याः देव्याः, ' अयमेयारूवे ' अयमेतद्रूपः = चक्ष्यमाणपकारः ‘अज्जत्थिए जाव' आध्यात्मिको = मानसिको यावद् विकल्पः ' समुप्पण्णे' समुत्पन्नः । एवं खलु अहं पोलासपुरे नगरे अइमुत्तेणं कुमारसमणेणं' एवं खलु अहं पोलासपुरे नगरे अतिमुक्तेन कुमारश्रमणेन 'वालत्तणे ' वे दूसरे और हम दूसरे हैं । इस प्रकार देवकी देवी के मन की शंका दूर कर वह संघाडा अपने स्थान पर गया || सू० १२ ॥
उन अनगारों के चले जाने पर उस देवकी देवी के आत्मा में इस प्रकारका मानसिक विकल्प उत्पन्न हुआ कि जब मैं छोटी थी, उस समय पोलासपुर नगर में अतिमुक्तक ( एवन्ता ) अनगार ने વચમાં આવ્યા તે જુદા અને અમે જુદા છીએ. આ પ્રકારે દેવકી દેવીના મનની શંકા દૂર કરીને તે સઘાડા પેાતાને સ્થાને ગયા. ( સૂ૦ ૧૨ )
તે અનગારા ચાલ્યા ગયા પછી તે દેવકી દેવીના આત્મામાં એવા માનસિક વિકલ્પ ઉત્પન્ન થયા કે જ્યારે હું નાની હતી તે સમયે પેલાસપુર નગરમાં અતિમુકતક
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे वालत्वे चाल्ये 'वागरिया' व्याकृता-उक्ता, किमुक्ता? इत्याह- 'तुमं णं देवाणुप्पिये ! अढ पुत्ते पयाइस्ससि' त्वं खलु हे देवानुप्रिये ! अष्ट पुत्रान् प्रजनयिष्यसि । कीदृशानित्याह- 'सरिसए' इत्यादि । 'सरिसए जाव' सदृशकान् यावत् , यावत्पदेन-आकारेण वयसा कान्त्या च तुल्यानिति संग्राह्यम् ; तथा 'नलकुब्बरसमाणे' नलकूवरसमानान्, 'नो चेव णं भरहे वासे अण्णाओ
अम्मयाओ' नो चैव खल भारते वर्षे अन्या अम्बाः मातरः, 'तारिसए पुत्ते • पयाइस्संति' तादृशकान् पुत्रान् प्रजनयिष्यन्ति; 'तं गं मिच्छा' तत्खलु मिथ्या तस्यानगारस्य वचनं मिथ्या; ' इमं पच्चक्खमेव दिस्सइ ' इदं प्रत्यक्षमेव दृश्यते यद् ‘भरहे वासे' भारते वर्षे भरतक्षेत्रे 'अण्णाओ वि अम्मयाओ खलु' अन्या अपि अम्बाः खलु-मत्तोऽन्या अपि मातरः 'एरिसए जाव पुत्ते पयायाओ' ईदृशान् यावत् पुत्रान् प्रजाता:=प्रजनितवत्यः, अतिमुक्तकमुनिकथितसदृशान् पुत्रान् प्रजनितवत्य इति भावः, 'तं गच्छामि णं अरहं अरिहनेमि वंदामि नमसामि' तद्गच्छामि खलु अर्हन्तमरिष्टनेमि वन्दे नमस्यामि, वंदित्तानमंसित्ता इमं च णं एयारूवं वागरणं पुच्छिस्सामि' वन्दित्वा नमस्यित्वा इदं च खलु एतद्रूपं व्याकरणं-प्रश्नम्-अतिमुक्तोक्तं कथमन्यथा जातमिति प्रश्न
मुझे कहा था-हे देवकी ! तू आठ पुत्रों को जन्म देगी। तेरे वे सभी पुत्र आकार, क्य और कान्ति आदि में समान होंगे और वे नलकूबर के सदृश सुन्दर होंगे । इस भारत वर्ष में दूसरी कोई माता ऐसे सुन्दर पुत्रों को जन्म नहीं दे सकेगी। परन्तु अतिमुक्तक अनगार (एवन्ता अनगार) के ये सभी कथन असत्य हुए; क्यों कि यह प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है जो इस भरत क्षेत्र में अन्य जननियों ने भी इस प्रकार के पुत्रों को जन्म दिया है । (એવન્તા) અનગારે મને કહ્યું હતું કે હે દેવકી! તું આઠ પુત્રને જન્મ આપશે. તારા એ બધા પુત્રે આકાર, વય તથા કાન્તિ આદિમાં સમાન થશે તથા તે નલકુબરના જેવા સુંદર થશે. આ ભારતવર્ષમાં બીજી કઈ માતા એવા સુંદર પુત્રને જન્મ આપી શકશે નહિ. પરંતુ અતિમુક્તક અનગાર (એવન્તા અનગાર)નાં આ બધાં કથન અસત્ય થયાં; કેમકે આ પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે કે જે આ ભરત ક્ષેત્રમાં બીજી માતાઓએ પણ આવા પ્રકારના પુત્રને જન્મ આપે છે. અતિમુક્ત અનગારનાં વચન
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, देवक्या अईदरिष्टनेमिसमीपे गमनम्
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प्रक्ष्यामि । अनगारवचनमन्यथा भवितुं न शक्नोति, दृश्यते चान्यथाभूतम्, अतो दोलायितं मे मनः, तस्माद् भगवदरिष्टनेमिसंनिधौ गत्वा तं वन्दित्वा प्रणम्य च तस्यानगारस्यान्यथावचनत्वे कारणं पृष्ट्वा स्वसंशयमुन्मूलयामीति भावः । 'त्ति कहू' इति कृत्वा = उपर्युक्तमभिप्रायं मनसि कृत्वा ' एवं संपेहेइ ' एवं संप्रेक्षते - उक्तप्रकारेण विचारयति 'संपेहित्ता' सम्प्रेक्ष्य = विचार्य ' कोडुंवियपुरिसे' कौटुम्बिकपुरुषान् = सेवकजनान् 'सदावेइ ' शब्दयति = आह्वयति, 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा ' एवं वयासी' एवमवदत् 'लहुकरणजुत्तजोइयं ' लघुकरयुक्त योजितम् - लघुकरणं - क्षिप्रकारित्वं तेन युक्तो लघुकरणयुक्तः = दक्षपुरुषः, तेन योजितम् - दक्षपुरुषयोजितम्, ' जाणप्पवरं ' यानप्रवरं = धार्मिकरथम् उपस्थापयत, तद्वचनं श्रुत्वा तेऽपि कौटुम्बिकपुरुषाः यानप्रवरम् उपस्थापयन्ति = आनयन्ति सा देवकी, 'जहा देवाणंदा जाव पज्जुवासह ' यथा देवानन्दा यावत् अतिमुक्तक अनगार के वचन असत्य नहीं हो सकते, परन्तु फिर भी असत्य दीख रहे हैं । इसलिये मुझे उचित है कि भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि के पास जाऊँ, उन्हें वन्दन नमस्कार कर तथा उनसे पूछ कर अपने इस सन्देह को निवृत्त करूँ । वह देवकी इन बातों को अपने मन में विचारती है और बाद में अपने भृत्यों (सेवकों) को बुलाती है, तथा उनसे कहती है- हे देवानुप्रियो ! धार्मिक रथ को तैयार करो और रथ चलाने में चतुर सारथी के साथ रथ को मेरे पास ले आओ । देवकी की ऐसी आज्ञा सुन कर वे भृत्य ( सेवक ) - गण चतुर सारथी से युक्त धार्मिक रथ को देवकी के सामने उपस्थित करते हैं । उसके बाद वह देवकी जिस प्रकार महावीर स्वामी की माता देवानन्दा भगवान के समीप रथ पर चढ
અસત્ય હાઈ શકે નહિ. છતાં અસત્ય જેવું દેખાઈ રહ્યું છે. માટે મને ઉચિત છે કે ભગવાન અ`ંત અરિષ્ટનેમિની પાસે જાઉં અને તેમને વન્દન નમસ્કાર કરી તથા તેમને પૂછી મારા આ સંદેહની નિવૃત્તિ કરૂં. તે દેવકી એવા વિચારો મનમાં કરે છે અને પછી પેાતાના મૃત્યુ (સેવક) તે ખેલાવે છે તથા તેમને કહે છે— હૈ દેવાનુપ્રિયા ! ધાર્મિક રથ તૈયાર કરા તથા રથ ચલાવવામાં ચતુર સારથીની સાથે રથને મારી પાસે લઇ આવે. દેવકીની એવી આજ્ઞા સાંભળીને તે મૃત્ય ( सेव ) - गए : यतुर સારથીથી યુકત ધાર્મિક રથને લઇ આવી દેવકીની સામે ઉપસ્થિત કરે છે. ત્યાર પછી તે દેવકી જે પ્રકારે મહાવીર સ્વામીની માતા દેવાનન્દા ભગવાન સમીપે રથ પર ચડીને દર્શન કરવા માટે ગઇ હતી તથા
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे पर्युपास्ते-यथा देवानन्दा महावीरजननी भगवतो महावीरस्योपासनामकरोत् तथैवेयमपि अहंदरिष्टनेमिस्वामिनः उपासनां करोति स्मेति ।। सू० १३ ॥
॥ मूलम् ॥ तए णं अरहा अरिट्रनेमी देवइं देवि एवं वयासी-से नूणं तव देवइ ! इसे छ अणगारे पासेत्ता अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजेत्था, एवं खलु पोलासपुरे नयरे अइमुत्तेणं तं चेव जाव णिग्गच्छसि, णिग्गच्छित्ता जेणेव ममं अंतियं हवमागया, से नूणं देवई देवि! अटे समढे ? हंता अस्थि । एवं खलु देवाणुप्पिये ! तेणं कालेणं तेणं समएणं भदिलपुरे णयरे णागे णाम गाहावई परिवसइ अड़ेः । तस्स णं णागस्स गाहावइस्स सुलसा णासं भारिया होत्था। सासुलसा गाहावइणी बाललणे चेव निमित्तिएणं वागरिया-एस णं दारिया जिंदू भविस्सइ । तए णं सा सुलसा बालप्पभिति हरिणेगमेसीदेवभत्ता यावि होत्था । हरिणेगमेसिस्स पडिमं करेइ, करित्ता कल्लाकलिं व्हाया जाव पायच्छित्ता उल्लपडसाडिया महरिहं पुप्फचणं करेइ, करिता जाणुपायवडिया पणामं करेइ, तओ पच्छा आहारेइ वा नीहारेइ वा ॥ सू० १४ ॥
॥टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं अरहा अरिट्ठनेमी देवइं देवि एवं कर दर्शन करने के लिये गयी और वन्दना तथा नमस्कार कर उपासना करने लगी उसी प्रकार देवकी भी रथ पर बैठ कर अहेत अरिष्टनेमि के समीप दर्शन करने के लिये गयी और वन्दन नमस्कार कर के भगवान की निरवद्य सेवा करने लगी । सू० १३ ॥
बाद भगवान् अर्हत अरिष्टनेमि ने देवकी देवी से इस प्रकार વન્દના અને નમસ્કાર કરી ઉપાસના કરવા લાગી. હતી તે પ્રકારે રથ ઉપર બેસીને અહંત અરિષ્ટનેમિની પાસે દર્શન કરવા માટે ગઈ અને વન્દન નમસ્કાર કરીને जापाननी निरवध सेवा ४२वा सा. (सू० १३) * * બાદ ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિએ દેવકી દેવીને આ પ્રકારે કહ્યું–હે દેવી!
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, संशयनिवारणार्थं देवकी प्रति भगवत उक्ति : ६३ वयासी' ततः खलु अर्हन अरिष्टनेमिः देवकी देवीम् एवमवदत् ‘से नूणं तव देवइ !' तन्नूनं तव देवकि !, 'तत् ' इति वाक्योपन्यासे नूनमिति वित 'इमे छ अणगारे पासेत्ता अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जेत्था' इमान् पडनगारान् दृष्ट्वा अयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत । इमान् पडनगरान् दृष्ट्वा तव मनसि विकल्पो जात इत्यर्थः। स च ईदृशः-'एवं खलु पोलासपुरे नयरे अइमुत्तेणं तं चेव जाव' एवं खलु पोलासपुरे नगरे अतिमुक्तेन तदेव यावत्-पोलासपुरे नगरेऽतिमुक्तोऽनगारो मामवोचत्, यत्त्वमेव ईदृशानां पुत्राणां जननी भविष्यसि, नान्या काऽपि भविष्यति भरतक्षेत्रे, दृश्यते चान्याऽपि जाता, कथमनगारवचनमन्यथा जातम् ? इति अहंदरिष्टनेमिसन्निधौ गत्वा शङ्काम् अपनेष्यामिः इति मनसि कृत्वा रथमारुह्य स्वगृहात् ‘णिग्गच्छसि निर्गच्छसि निर्गताऽसि, 'णिग्गच्छित्ता' निर्गत्य 'जेणेव मम अंतियं' यत्रैव ममान्तिकम् मम समीपम् 'तेणेव' तत्रैव 'हव्यमागया' शीघ्रमागता, हव्वं' इति शीघ्राथै देशीशब्दः ‘से नूणं देवईदेवि ! अढे समझे ? ' स नूनं देवकीकहा-हे देवकी ! आज. इन छ अनगारों को देख कर तेरे हृदय में इस प्रकार विकल्प पैदा हुआ कि मुझे पोलासपुर नगर में अतिमुक्त (एवन्ता) अनगार ने इस प्रकार कहा था-" हे देवकी ! तू आकार, वय और कान्ति आदि से तुल्य एवं नलकूबर के समान सुन्दर आठ पुत्रों को जन्म देगी, वैसे पुत्रों की जननी इस भरत क्षेत्र में और दूसरी कोई नहीं होगी"। परन्तु दूसरी माता ने भी अतिमुक्त से कथित लक्षणों वाले पुत्रों को जन्म दिया है। अतिमुक्त अनगार के वचन असत्य कैसे हुए ? इस शङ्का को अर्हत् अरिष्टनेमि के पास जा कर दूर करूँगी। ऐसा मन में विचार करके रथपर चढकर अपने घर से निकलकर मेरे समीप आयी है। क्यों देवकी આજે એ છ અનગારોને જોઈને તારા હૃદયમાં આ પ્રકારનો વિકલ્પ પેદા થયે કે મને પલાસપુર નગરમાં અતિમુકત (એવન્તા) અનગારે આ પ્રકારે કહ્યું હતું—“હે દેવકી ! તું આંકાર, વય અને કાન્તિ આદિથી સરખાં, નળકૂબવર જેવા સુંદર આઠ પુત્રને જન્મ આપશે. એવા પુત્રની માતા આ ભરતક્ષેત્રમાં બીજી કઈ થશે નહિ.” પરંતુ બીજી માતાએ પણ અતિમુકતે કહેલાં લક્ષણોવાળા પુત્રને જન્મ આપ્યા છે. અતિમુકત અનગારનાં વચન અસત્ય કેમ થયાં? આ શંકાને અતિ અરિષ્ટનેમિની પાસે જઈ દૂર કરીશ. એમ. મનમાં વિચારીને રથ પર ચડીને પિતાને ઘેરથી નીકળી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे देवि ! अर्थः समर्थ:-हे देवकि ! सः उपर्युक्तो मयोकोऽर्थः समर्थः यथार्थः किम् ? . देवकी वदति-'हंता अत्थि' हन्त अस्ति- हे प्रभो ! सर्वथा · सत्यमेतत् । 'हन्त' इति उक्तार्थस्वीकारे । भगवानाह-एवं खलु देवानुप्रिये ?= हे देवानुप्रिये ! अतिमुक्तवचनस्यान्यथात्वे यत्कारणं तदेवमवधारणीयं त्वया । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं भदिलपुरे णयरे णागे णाम गाहावई' परिवसई, तस्मिन् काले तस्मिन् समये भदिलपुरे नगरे नागो नाम गाथापतिः परिवसति, 'अड़े' आन्या धनधान्यादिपरिपूर्णः । 'तस्स णं णागस्स गाहावइस्स सुलसा णामं भारिया होत्था' तस्य खलु नागस्य गाथापतेः सुलसा नाम भार्या आसीत् । 'सा सुलसा गाहावइणी बालत्तणे चेव' सा सुलसा गाथापत्नी वालत्व एव 'नेमित्तिएणं' नैमित्तिकेन-नैमित्तिकः =भविष्यवेत्ता तेन, पितुरग्रे 'वागरिया' व्याकृता = उक्ता, 'एसा णं दारिया जिंदु भविस्सइ' एषा खलु दारिका मृतवत्सा भविष्यति । 'जिंदू' इति मृतवत्सार्थों देशीशब्दः । 'तए णं' ततः नैमित्तिककथनानन्तरं खलु ‘सा सुलसा वालप्पभिति चेव' सां देवी ! यह बात ठीक है ?
हाँ, भगवन् ! आप सर्वज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं, आपने जो कहा है सब सत्य है । . भगवान ने कहा-हे देवानुप्रिये ! इसका समाधान सुनो। उस काल उस समय में भदिलपुर नामक नगर था। उस नगर में धन-धान्य आदि से सम्पन्न नाग नामक गाथापति रहता था । उस नाग गाथापति की पत्नी का नाम सुलसा था । वह सुलसा गाथापत्नी जब बाल अवस्था में थी उस समय भविष्यवक्ता नैमित्तिक ने उसके पितासे इस प्रकार कहा था कि यह बालिका मृतમારી પાસે તું આવી છે. કેમ દેવકી દેવી! આ વાત ઠીક છે?
હા, ભગવાન, આપ સર્વજ્ઞ છે, સર્વ કાંઈ જાણે છે; આપે જે કહ્યું છે તે બધું સત્ય છે.
ભગવાને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે! એનું સમાધાન સાંભળો :- તે કાલ તે સમયે ભક્િલપુર નામે નગર હતું. તે નગરમાં ધન-ધાન્ય આદિથી સમ્પન્ન નાગ નામે ગાથાપતિ રહેતું હતું. તે નાગ ગાથાપતિની પત્નીનું નામ સુલસા હતું. તે સુલસા ગાથાપત્ની જ્યારે બાલ્ય અવસ્થામાં હતી તે સમયે ભવિષ્યવકતા નૈમિત્તિકે તેના પિતાને એમ કહ્યું હતું કે– આ બાલિકા મૃતવયા થશે. ત્યાર પછી તે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, संशयनिवारणार्थ देवकी प्रति भगवत उक्तिः ६५ सुलसा वालप्रभृत्येव वाल्यकालमारभ्यैव ‘हरिणेगमेसिदेवभत्ता यावि होत्था' हरिनैगमेषिदेवभक्ता चापि अभवत् । 'हरिणेगमेसिस्स' हरिनैगमेषिणः 'कल्लाकलिं' कल्यं कल्यम-प्रतिदिनं 'हाया' स्नाता-कृतस्नाना 'जाव पायच्छित्ता' यावत् प्रायश्चित्ता-यावच्छब्देन कृतवलिकर्मा दत्तवायसाधर्थान्नादिभागा, कृतकौतुकमङ्गलपायश्चित्ता= कृतमषीतिलकादिकौतुकदध्यक्षतादिमङ्गलकृत्यरूपदुःस्वप्नादिदोषविघातकमायश्चित्ता, 'उल्लपडसाडिया' आर्द्रपटशाटिका-परिधृतावसना, 'महरिहं ' महाहम् देवोचितम् , 'पुष्फच्चणं करेइ' पुष्पार्चनं करोति,' करित्ता' कृत्वा 'जाणुपायवडिया' जानुपादपतिता-जानुपादाभ्यां कृत्वा पतिता 'पणामं करेइ' प्रणामं करोति, ' तओ पच्छा आहारेइ वा नीहारेइ वा' ततः पश्चात् आहारयति वा नीहारयति वा ॥ मू० १४ ॥
.. ॥ मूलम् ॥ तए णं तीसे सुलसाए गाहावइणीए भत्तिबहुमाणसुस्सूसाए हरिणेगमेसी देवे आराहिए यावि होत्था । तए णं से हरिणेगमेसी देवे सुलसाए गाहावइणीए अणुकंपणट्रयाए सुलसं गाहावइणि तुमं च णं दो वि समउउयाओ करेइ । तए णं तुब्भे दो वि सममेव गन्भे गिण्हह, सममेव गन्भे वन्ध्या होगी। उसके बाद वह सुलसा अपने बाल्यकाल से ही हरिणैगमेषी देवता की भक्त हो गयी। उसने हरिणैगमेषी देव की प्रतिमा बनाई । अनन्तर प्रातःकाल स्नान कर पशु-पक्षि आदि प्राणियों के लिये अन्न आदि निकालने रूप बलिकर्म किया,
और दुःस्वप्न आदि दोष निवारक मषीतिलकादिरूप कौतुक-मंगल कृत्य किये । बाद गीली साडी पहिनकर देवोचित पुष्पार्चन कर प्रणाम करती थी, और बाद आहार आदि क्रिया करती थी ।। सू०१४॥ સુલસા પિતાના બાલ્યકાળથી જ હરિગમેવી દેવતાની ભક્ત બની ગઈ. તેણે હરિણગમેષી દેવની પ્રતિમા બનાવી. પછી પ્રાતઃકાલમાં સ્નાન કરી પશુ પક્ષી આદિ પ્રાણિઓને માટે અને વગેરે ભાગ જુદે કાઢવા રૂપ બલિકમ કરતી તથા દુઃસ્વપ્ન આદિ દેષ નિવારક મીતિલકારિરૂપ કૌતુક મંગલ કૃત્ય કરતી. પછી ભીની સાડી
પહેરીને દેચિત પુષ્પાર્ચન કરી પ્રણામ કરતી અને ત્યાર પછી આહારાદિ ક્રિયા ... ४२ ता (सू० १४) ... ... ... ... .. . .
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे परिवहह, सममेव दारए पयायह । तए णं सा सुलसा गाहावइणी विणिहायमावण्णे दारए पयायइ । तए णं से हरिणेगमेसी देवे सुलसाए गाहावइणीए अणुकंपणटाए विणि हायमावण्णे दारए करतलसंपुडेणं गिण्हइ, गिण्हिता तव अंतियं साहरइ ।तं समयं च ण तुमंपि णवण्हं मासाणं सुकुमालदारए पसवसि, जे वि य णं देवाणुप्पिए! तव पुत्ता ते वि य तव अंतियाओ करयलसंपुडेणं गिण्हइ,गिण्हित्ता सुलसाए गाहावइणीए अंतिए साहरइ, तं तव चेव णं देवइ ! एए पुत्ता, णो चेव सुलसाए गाहावइणीए ।सू० १५॥
॥ टीका ॥ - 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तीसे सुलसाए गाहावइणीए' ततः खलु तस्याः सुलसाया गाथापत्न्याः 'भत्तिवहुमाणसुस्मसाए' भक्तिबहुमानशुश्रूपया-भक्तिः अनुरागः, वहुमान-प्रचुरः सत्कारः, शुश्रूषा-सेवा, एतैः कृत्वा 'हरिणेगमेसी' हरिणैगमेपी हरेरिन्द्रस्य नैगमम् आज्ञाम् इच्छतीति हरिगैगमेपी इन्द्राज्ञापरिपालको 'देवे' देवः 'आराहिए यावि होत्था ' आराधितश्चाप्यभवत्-प्रसन्नो जातः । 'तए णं से हरिणेगमेसी देवे' ततः खलुस हरिणैगमेपी देवः 'सुलसाए गाहावइणीए अणुकंपणट्टयाए' सुलसाया गाथापल्या अनुकम्पनार्थम् 'सुलस गाहावइणि तुमं च णं दोवि' सुलसां गाथापत्नीम् त्वां च खलु द्वे अपि 'समउउयाओं समऋतुके 'करेइ' करोति । 'तए णं' ततः खलु 'तुम्भे दोवि' युवां वे अपि, 'सममेव' समानकाल एव 'गब्भे' गर्भो 'गिण्हह' गृह्णीथः, 'सममेव गम्भे परिवहह, सममेव दारए पयायह'
उसके बाद उस सुलसा गाथापत्नी की भक्ति, वहमान एवं शुश्रूषा से वह हरिणैगमेषी देव प्रसन्न हुआ। बाद हरिणेगमेषी ने सुलसा गाथापत्नी की अनुकम्पा के लिये सुलसा गाथापत्नी को और तुम्हें एक काल में ऋतुमती करता था। अनन्तर तुम दोनों साथ ही गर्भ को धारण करती । और साथही उनका पालन
- ત્યાર પછી તે સુલસા ગાથાપત્નીની ભક્તિ તથા બહમાન શશ્રષાથી તે હરિગમેથી દેવ પ્રસન્ન થઈ ગયે. બાદ હરિણગમેષીએ સુલસ ગાથાપનીની અનુક પાને. લીધે સુલસ ગાથાપત્નીને તેમજ તને એકજ વખતે તમતી કરતા હતા. અનન્તર તમે બન્ને સાથે જ ગર્ભ ધારણ કરતી તથા સાથે જ તેનું પાલન કરતી અને તમે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, संशयनिवारणार्थ देवकी प्रति भगवत उक्तिः ६७ सममेव गौं परिवहथः, सममेव दारको प्रजनयथः । 'तए णं सा मुलसा गाहावइणी' ततः खलु सा सुलसा गाथापत्नी 'विणिहायमावणे' विनिघातमापन्नान्मृतान् 'दारए पयायइ' दारकान् प्रजनयति । 'तए णं से हरिणेगमेसी देवे सुलसाए गाहावइणीए अणुकंपणठाए' ततः खल स हरिणैगमेपी देवः मुलसाया गाथापत्न्या अनुकम्पनार्थम् ' विणिहायमावण्णे दारए करतलसंपुडेणं गिण्हइ ' विनिघातमापन्नान् दारकान्-मृतान् बालकान् करतलसंपुटेन गृह्णाति 'गिहित्ता तव अंतिय' गृहीत्वा तव अन्तिकं 'साहरइ' समाहरति-आनयति तं समयं च णं' तस्मिन् समये च खलु 'तुमंपि णवण्हं मासाणं सुकुमालदारए पसबसि । त्वमपि नवानां मासानाम् सुकुमारदारकान् प्रमूषे प्रजनितवती । 'जेवि य णं देवाणुप्पिये ! तव पुत्ता ते वि य तव अंतियाओं करयलसंपुडेणं गिण्हइ' येऽपि च खल हे देवानुप्रिये ! तव पुत्राः तानपि च तवान्तिकात् करतलसंपुटेन गृह्णाति, "गिण्हित्ता सुलसाए गाहावइणीए अंतिए' गृहीत्वा सुलसाया गाथापत्न्याः अन्तिके 'साहरइ ' समाहरति 'तं' तत्-तस्मात्कारणात् 'तव चेव णं देवइ !' तवैव खलु हे देवकि ! 'एए पुत्ता' एते पुत्राः सन्ति 'णो चेव सुलसाए गाहावइणीए' नो चैव सुलसाया- गाथापत्न्या एते पुत्राः ॥ मू० १५ ॥ करती तथा तुम दोनों साथही बालकों को जन्म देती थी; परन्तु सुलसा गाथापत्नीके बालक मरे हुए जन्मते थे । अनन्तर हरिणैगमेषी देवने सुलसा की. अनुकम्पा के लिये मरे हुए बालक को अपने हाथों से उठा कर तुम्हारे समीप ले आता था। उस समय तू भी नौ महीना साडे सात दिन बीतने पर सुकुमार पुत्रों को जन्म देती थी। जो जो तुम्हारे पुत्र थे उनको हरिणैगमेषी देवने तुम्हारे पास से अपने हाथों से उठा कर सुलसा गाथापत्नी के पास
रख दिये। सो हे देवकी! अतिमुक्तक (एवन्ता) अनगार के वचन .. सत्य हैं। ये सभी तुम्हारे ही पुत्र हैं, न कि सुलसा गाथापत्नी
के ॥ सू० १५ ॥ ..... બને સાથે જ બાળકને જન્મ આપતી હતી. પરન્તુ સુલસી ગાથાપત્નીને બાળકે મરેલા જનમતા હતા. પછી હરિણગમેલી દેવે સુલતાની અનુકંપાને લીધે મરેલા બાળકને પિતાના હાથેથી ઉપાડી તમારી પાસે લાવી મુકત હતા. તે સમયે તું પણ નવ મહિના અને સાડા સાત રાત વીત્યા પછી સુકુમાર પુત્રને જન્મ આપતી હતી. જે જે તારા પુત્રો હતા તેને હરિણગમેષી દેવ પિતાના હાથે ઉપાડી સુલસી ગાથા
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे
॥ मूलम् ॥
॥ सूलम् ॥ तए णं सा देवई देवी अरहओ अरिट्रनेमिस्स अंतिए एयमदं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ट जाव हियया अरह अरिटनेमि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव ते छ अणगारा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिन्ता, ते छप्पि अणगारे वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता आगयपण्डया पप्पुयलोयणा कंचुयपडिक्खित्तया दरियवलयवाहा धाराहयकलंवपुप्फगं पिव समूससियरोमकूवा ते छप्पि अणगारे अणिमिसाए दिट्टीए पेहमाणी२ सुचिरं णिरिक्खइ, णिरिक्खित्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव अरिहा अरिट्रनेमी तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता, अरह अरिहनेमिं तिक्खुत्तो । आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता, तमेव धस्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव वारवई णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वारवई णयरिं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिन्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहइ, पच्चोरुहिता जेणेव सए वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयंसि सयणिज्जसि निसीयइ ॥ सू० १६ ॥
॥ टीका ॥ __'तए णं' इत्यादि । 'तए णं सा देवई देवी' ततः खलु सा देवकी देवी 'अरहओ अरिटनेमिस्स अंतिए एयमढं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ट जाव
उसके बाद देवकी देवीने अर्हत् अरिष्टनेमि के मुख से इस वृत्तान्त को सुना और उसे हृदय में अवधारित किया। बाद हृष्टપત્નીના પાસે મુકી દેતો. માટે હે દેવકી ! અતિમુક્તક (એવન્તા) અનગારનાં વચન સત્ય છે. આ બધા તારા જ પુત્ર છે, નહિ કે સુલસા ગાથાપત્નીના. (સૂ૦ ૧૫). - ત્યારપછી તે દેવકી દેવીએ અહંત અરિષ્ટનેમિના મુખેથી આ વૃત્તાન્ત સાંભળીને તે વાતને પિતાના હૃદયમાં અવધારિત કરી. પછી હુણ-તુષ્ટ-હૃદયથી અહંતુ અરિષ્ટ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, देवक्या वात्सल्यम् हियया' अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके इममथै श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट यावद्धृदया, इदं व्याख्यातपूर्वम् , 'अरहं अरिहनेमि वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव ते छ अणगारा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते छप्पि अणगारे वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता' अर्हन्तमरिष्टनेमिम् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव ते पडनगाराः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तान् पडपि अनगारान् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा 'आगयपाहुया' आगतप्रस्नुता-आगतं प्रस्नुतं यस्याः सा-स्वीयपुत्रदर्शनेन संजातस्तन्यप्रस्रवणा 'पप्फुयलोयणा' प्रप्लुतलोचना -पप्लुते लोचने यस्याः सा-हर्षाश्रुपूर्णनयना, 'कञ्चुयपरिक्खित्तया-कञ्चुकपरिक्षिप्तका-स्वपुत्रावलोकनजनितानन्दपकर्षेण स्थूलशरीरतया त्रुटितकञ्चुकवन्धना -त्रुटितकञ्चुककशेत्यर्थः, दरियवलयवाहू' दीर्णवलयबाहुः-दीणों-संकुचितौ वलयौ बाहू च यस्याः सा, 'धाराहयकलंबपुष्फगं पिव' धाराहतकदम्बपुष्पकमिव -धारया वर्षांधारया. आहतं . यत्कदम्बपुष्पकं कदम्बकुसुमं तदिव 'समूससियरोमकूवा' समुच्छ्वसितरोमकूपा-समुच्चसितः पुलकितो रोमकूपो = रोमराजियस्याः सा तथा-धारानिपाताहतं कदम्बपुष्पमेकस्मिन्नेव काले विकसति, तथैवेयं पुलकितसकलरोमा जाता। ततः 'ते छप्पि अणगारे' तुष्ट हृद्य से अर्हत् अरिष्टनेमि को वन्दन नमस्कार किया। अनन्तर जहाँ वे छ अनगार थे वहाँ गयी और उन्हें वन्दन नमस्कार किया। उन अनगारों को देखकर पुत्रप्रेम के कारण उसके स्तनों से दूध झरने लगा। हर्ष के कारण उसकी आँखों में आँसू भर आये। एवं अत्यन्त हर्ष के कारण शरीर के फूलने से कञ्चुकी की कसे टूट गयीं और भुजाओं के आभूषण तथा हाथ की चूडियां तंग होने लगीं। वर्षा की धारा पड़ने से जिस प्रकार कदम्बपुष्प एक साथ ही कुसुमित हो जाते हैं, उसी प्रकार उसके शरीर के सभी रोम पुलकित हो गये। उन छओं अनगारों को अनिमेष दृष्टि से देखती નેમિને વંદન નમસ્કાર કર્યો. અને ત્યાર પછી જ્યાં તે છ અનગાર હતા ત્યાં ગઈ અને તેમને વંદન નમસ્કાર કર્યા. તે અનગારોને જોઈ પુત્રપ્રેમને કારણે તેના સ્તનમાંથી દુધ ઝરવા લાગ્યું. હર્ષના કારણથી તેની આંખમાં હર્ષાશ્રુ ભરાઈ આવ્યા. હર્ષથી - શરીર પુલવાના કારણે કંચુકીની કસે તૂટી ગયી અને ભુજાઓ ઉપરનાં ઘરેણું તથા હાથની ચૂડિઓ ટૂંકી થવા લાગી. વરસાદની ધારા પડવાથી જેમ કદંબપુષ્પ એકીવખતે જ વિકસિત થઈ જાય છે તે પ્રકારે તેના શરીરનાં બધાં રૂંવાડા પુલકિત થઈ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे तान् पडपि अनगारान्, 'अणिमिसाए दिट्ठीए' अनिमिपया दृष्ट्या निमेपरहितया निश्चलया दृष्ट्या 'पेहमाणी २' प्रेक्षमाणा२=पुनः पुनरवलोकयन्ती 'मुचिरं णिरिक्खइ' सुचिरं निरीक्षते-अनिमिषेण लोचनेन पश्यन्त्यपि अतृप्ता सती बहुकालमवलोकयतीति भावः, 'णिरिक्वित्ता वंदइ णमंसई' निरीक्ष्य वन्दते नमस्यति, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेच अरिहा अरिटनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिहनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदाइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्थित्वा यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य अर्हन्तमरिष्टनेमि विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणम् करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा 'तमेव धम्मियं जाणप्पवरं' तमेव धार्मिक यानप्रवरं-धार्मिकम् केवलधर्मकृत्यकरणाय परिरक्षितं रथमिति भावः 'दुरोहति दुरुहित्ता जेणेव वारवई णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वारवई णयरिं अणुप्पविसइ' दुरोहति-दुरुह्य यत्रैव द्वारावती नगरी तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य द्वारावती नगरीम् अनुपविशति, 'अणुपविसित्ता, जेणेव सए गिहे जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला' अनुपविश्य यत्रैव स्वकं गृहं यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला, उपस्थानशाला-उपस्थानमण्डपः, 'तेगेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पञ्चोरुहइ, पच्चोरुहिता जेणेव सए वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयंसि सयणिज्जसि निसीयइ' तत्रैव उपागच्छति उपागत्य धार्मिकाद् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य यत्रैव स्वकं वासगृहम् यत्रैव स्वकं शयनीयम् , शयनीयं शय्या, तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य स्वके शयनीये 'निसीयइ' निपीदति-उपविशति ।। सू० १६॥ हुई बहुत काल तक निरखती रही। बाद में उन्हें वन्दन नमस्कार कर भगवान् अहेत् अरिष्टनेमि के पास आयी और भगवान को विधिपूर्वक वन्दन नमस्कार किया। बाद में अपने धार्मिक रथ पर चढकर द्वारका के मध्य होकर चली और कम से अपनी बाहरी उपस्थानशाला (वैठक ) में पहुँची, वहाँ अपने श्रेष्ठ धार्मिक रथ ગયાં. તે છએ અનગારને અનિમેષદષ્ટિથી જોતી થકી બકાલ સુધી નિરખવા લાગી. પછી તેમને વંદન-નમસ્કાર કરી ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિની પાસે આવી. અને ભગવાનને વિધિપૂર્વક વંદન નમસ્કાર કર્યા પછી પિતાના ધાર્મિક રથ ઉપર ચઢીને દ્વારકાની વ ચ્ચે થઈને ચાલી અને ક્રમથી પોતાની બહારની ઉપસ્થાનશાલા
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, देवक्या मनोगतः संकल्पः
. ॥ मूलम् ॥ . ... . तए णं तीसे देवईए देवीए अयं अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पण्णे-एवं खलु अहं सरिसए जाव नलकुब्बरसमाणे सत्त पुत्ते पयाया, नो चेव णं मए एगस्स वि बालत्तणए समणुभूए, एस वि य णं कण्हे वासुदेवे छण्हं मासाणं ममं अंतियं पायवंदए हव्वमागच्छइ, तं धण्णाओ णं ताओ अम्माओ जासि मण्णे णियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्धलुद्धयाइं महुरसमुल्लावयाई मम्मणपजपियाइं थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणाइं मुद्धयाइं पुणो य कोमलकमलोवमेहि हत्थेहिं गिहिऊण उच्छंगे णिवेसियाई देंति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिए, अहं णं अधन्ना, अपुन्ना, अकयपुन्ना एत्तो एगतरमवि न पत्ता, (एवं) ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ ॥ सू० १७ ॥
॥ टीका ॥ - 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तीसे देवईए देवीए' ततः खलु तस्या देवक्या देव्याः 'अयं अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे' अयमाध्यत्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितो मनोगतः संकल्पः-आध्यात्मिका अध्यात्मभवः
स्वपुत्रविषयकः चिन्तितः चिन्ताविषयीकृतः, पार्थितः अभिलषितः, मनोगतः= - मनःस्थितः संकल्प: विचारः, 'समुप्पण्णे' समुत्पन्नः । एवं खल्लु अहं सरिसए
से उतरी तथा अपने भवनमें जाकर अपनी सुकोमल शय्या पर बैठी ॥ सू० १६॥
उसके बाद वह देवकी इस प्रकार पुत्रसम्बन्धी चिन्ता से युक्त अभिलषित (चिन्तन किये हुए) विचार अपने मन में करने लगी कि मैंने आकार, वय और कान्ति से समान यावत् नलकूबर (બેઠકોમાં પહોંચી. ત્યાં પિતાના શ્રેષ્ઠ ધાર્મિક રથ ઉપરથી ઉતરીને પિતાના ભવનમાં
ने पातानी सुमित शय्या५२ मी. (सू०१६) ' ત્યારપછી તે દેવકી પુત્રસંબંધી ચિતાથી યુકત અભિલષિત (વિચારેલા વિચારે) પિતાના મનમાં આ પ્રમાણે કરવા લાગી કે-મેં આકાર, વય તથા કાતિમાં સરખાં
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
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जात्र नलकुब्बरसमाणे सत्त पुत्ता पयाया' एवं खलु अहं सदृशकान् यावत् नलकूवरसमानान् सप्त पुत्रान् प्रजाता=प्रजनितवती, 'नो चेत्र णं मए एगस्स वि वालत्तणए समणुभूए' न चैव खलु मया एकस्यापि पुत्रस्य चालवम् समनुभूतम् = नानुभूतमित्यर्थः, 'एस त्रियणं कण्हे वासुदेवे छण्हं मासाणं ममं अंतियं पायबंदए हव्वमागच्छ' एषोऽपि च खलु कृष्णो वासुदेव: पण्णां मासानां ममान्तिकं पादवन्दको हव्यमागच्छति, 'हव्य' शब्दोऽत्र पश्चादर्थकः, तस्य च मासशब्देन सहान्वयः । षण्मासानन्तरं सम पादौ वन्दितुमागच्छतीति भावः । 'तं' तस्मात् कारणात्, 'घणाओ णं ताओ अम्मयाओ जार्सि मण्णे' धन्याः खलु ता अम्बाः यासां मन्ये 'णियगकुच्छिसंभूयाई' निजककुक्षिसंभूतानि - निजकुक्षेः सम्भूतानि निजकुक्षिसंभूतानि - स्वोदरजातानि 'थणदुद्धलद्धयाई 'स्तनदुग्धलुब्धकानि - स्तनदुग्धस्य लुब्धकानि=स्तनदुग्धे संजातस्पृहाणि, 'महुरस मुल्लावयाई' मधुरसमुल्लापकानि - मधुरः समुल्लापको = बालभाषणं येषां तानि, स्तनपानार्थं वाला मनोहरैः सम्भाषणैर्मातरनुकूलयन्तीति वालस्वभाव: । 'मम्मणपजंपियाई' मम्मणप्रजल्पितानि - 'मम्मणं' इत्यव्यक्तध्वनिरूपं प्रजल्पितं = भाषणं येषां तानि, 'थणमूलकक्खदेस भागं अभिसरमाणाई' स्तनमूलकक्ष देशभागमभिसरन्ति=अभिगच्छन्ति 'मुद्धयाई' मुग्धकानि = भद्रकाणि, पुनश्च 'कोमलकमलोवमेहिं ' कोमसदृश सुन्दर सात पुत्रों को जन्म दिया, परन्तु उन पुत्रों में से किसी भी पुत्र का बालक्रीडाजनित आनन्द का अनुभव नहीं किया । यह कृष्ण भी मेरे पास चरण वन्दन के लिये छे छे महीने के बाद आता है, इसलिये मैं समझती हूँ कि वे माताएँ भाग्यशालिनी हैं कि - जिनकी कुंख से उत्पन्न हुए बच्चे दूध के लिये अपनी मनोहर तुतली बोली से उन्हें आकर्षित करते हैं और 'मम्मण' शब्द को उच्चारण करते हुए स्तनमूल से लेकर कक्ष (कख) तक के भाग में अभिसरण करते रहते हैं । फिर वे मुग्ध बालक बाद में अपनी
નલકૂમર જેવા સાત પુત્રાને જન્મ આપ્યા, પરન્તુ તે પુત્રમાંથી કાઈપણુ પુત્રના બાલક્રીડાથી થતા આનદને અનુભવ હું કરી શકી નહિ. આ કૃષ્ણે પણ મારી પાસે ચરણુવંદન માટે છ-છ મહિના પછી આવે છે આથી હું માનું છું કે તે માતાએ ભાગ્યશાલિની છે કે જેએની કૂ ખથી ઉત્પન્ન થતાં ખાળક દૂધને માટે પેાતાની મનહર તેાતડી ખેલીથી તેમને આકર્ષિત કરે છે, અને મસ્મણુ શબ્દનું ઉચ્ચારણુ કરી સ્તનના મૂળથી કાંખ સુધીના ભાગમાં અભિસરણ કરતાં રહે છે. પછી તે મુગ્ધ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, देवक्या मानसिकः संकल्पः . लकमलोपमैः मृदुकमलतुल्यैः ‘हत्थेहिं हस्तैः कृत्वा मातृभिः 'गिहिऊण' गृहीत्वा 'उच्छंगे' उत्सङ्गे-क्रोडे 'णिवेसियाई' निवेशितानि-उपवेशितानि अपत्यानि 'दंति' ददति, किम् ? इत्याह-'समुल्लावए सुमहुरे' समुल्लापकान् सुमधुरान् मनोहरान् , तथा 'पुणो पुणो मंजुलप्पभणिए' पुनः पुनः मञ्जुलप्रभणितान्-सुकोमलवचनाचलिरूपान् , बाला एतादृशं मनोहरं शब्दं स्वस्वमातरं श्रावयन्ति । 'अहं णं अधन्ना, अपुन्ना, अकयपुना' अहं खलु अधन्या अपुण्या अकृतपुण्या-अधन्याअभाग्या, अपुण्या-पुण्यरहिता, अकृतपुण्या-अविहितपुण्याचरणा, 'ज' यत् 'एत्तो' इतः एषु विविधवालविनोदजनितसुखेषु मध्ये 'एगतरमवि' एकतरमपि, 'न पत्ता' न प्राप्ता-अहं न प्राप्ताऽस्मि ['एवं' अनेन प्रकारेण,] 'ओहयमणसंकप्पा' अपहतमनःसंकल्पा-अपहतो भग्नो मनःसंकल्पो यस्याः सा-भग्नमनोरथा 'जाव' यावत् 'झियायइ' ध्यायति आर्तध्यानं करोति ।। मू० १७ ॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से कण्हे वासुदेवे पहाए जाव विभूसिए देवईए देवीए पायवंदए हवमागच्छइ। तए णं से कण्हे वासुदेवे देवइं देवि पासइ, पासित्ता देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ, करिता देवइं देवि एवं वयासी-अन्नया णं अमो! तुब्भे ममं पासित्ता हट्ट जाव भवह, किं णं अम्मो! अज तुब्भे ओहय जाव झियायह । तए णं सा देवई देवी कण्हं वासुमाँ के द्वारा कोमल-कमल-सदृश हाथों से उठाकर गोदी मैं बैठाये जाने पर दूध पीते हुए अपनी माँ से तुतले शब्दों में बातें करते हैं और मीटी२ बोली बोला करते हैं। मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, मैंने पुण्य नहीं किया, इसलिये मैं अपनी सन्तान की बालक्रीडा का आनन्दानुभव नहीं कर सकी। इस प्रकार वह देवकी खिन्नहृदय से विचार करने लगी ॥ सू०. १७॥ ... બાલકને પિતાની માતાઓ જ્યારે કેમલ કમળ જેવા હાથવડે ઉપાડીને પિતાના ખેળામાં બેસાડે ત્યારે તે દૂધ ધાવતાં ધાવતાં પિતપિતાની મા સાથે તેતડા શબ્દોમાં વાત કરે છે તથા મીઠી મીઠી બેલી બોલે છે. હું અધન્ય છું, અપુણ્ય છું, મેં પુણ્ય કર્યું નથી, તેથી હું મારાં સંતાનની બાલક્રીડાનો આનંદ અનુભવ કરી શકી नथी. भा २ ते ४ मिनायथी. विया२ ४२व! al. (सू० १७)
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अन्तकृतदशाङ्गमूत्रे देवं एवं वयासी-एवं खल्लु अहं पुत्ता! सरिसए जाव समाणे सत्त पुत्ते पयाया, नो चेव णं मए एगस्स वि बालत्तणे अणुभूए, तुम पि य णं पुत्ता ! ममं छण्हं छण्हं मासाणं अंतियं पायवंदए हवमागच्छसि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव झियामि ॥ सू० १८॥
॥ टीका ॥ 'तए णं इत्यादि । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे हाए जाव विभूसिए' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः स्नातो यावद् विभूपितः, 'देवईए देवीए पायबंदए हव्वमागच्छइ' देवक्या देव्याः पादवन्दकः हव्वं शीघ्रमागच्छति 'तए णं से कण्हे वासुदेवे ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः 'देवइं देविं पासइ' देवकी देवीं पश्यति, 'पासित्ता देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ' दृष्ट्वा देवक्या देव्याः पादग्रहणं करोति-चरणवन्दनं करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'देवई देविं' देवकी देवीम् ‘एवं वयासी' एवमवदत्-'अण्णया णं अम्मो !' अन्यदा खलु अम्ब ! 'तुम्भे ममं पासित्ता हट्ट जाव भवह' यूयं मां दृष्ट्वा, हृष्ट यावत्-हृष्टतुष्टचित्तानन्दिता इत्यादि पूर्वोक विज्ञेयम् , भवथ, 'किं णं अम्मो!' किं खलु अम्ब ! 'अज्ज तुब्भे ओहय जाव झियायह' अद्य यूयम् अवहत यावत् ध्यायथ, अवहतमनः-संकल्पा यावत् पूर्वोक्तोऽर्थोऽनुसन्धेयः,
__उसके बाद वह कृष्ण वासुदेव स्नान करके और यावत् सभी अलंकारों से अलंकृत हो देवकी देवी के चरणवन्दन के लिये आये, वहाँ आकर उनके चरण में जाकर वन्दन किया और इस प्रकार कहा- हे माता ! जब मैं पहिले तुम्हारे चरणवन्दन के लिये आता था तब उस समय मुझे देखकर तुम्हारा हृदय आनन्दित हो उठता था, परन्तु आज तुम्हारी दशा दूसरी ही दिखाई दे रही है। क्यों माता ! तुम दुःखित मनसे उदास होकर आज क्या सोच
ત્યારપછી તે કૃષ્ણ વાસુદેવ સ્નાન કરીને તથા તમામ અલંકારોથી વિભૂષિત થઈ દેવકી દેવીનાં ચરણવંદન માટે આવ્યા, ત્યાં આવીને તેનાં ચરણે વંદન કર્યા, તથા આ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, देवक्याः कृष्णस्य च संवादः
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ध्यायथ=चिन्तयथ । 'तए णं सा देवई देवी' ततः खलु सा देवकी देवी 'कन्दं वासुदेवं एवं वयासी' कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत् - ' एवं खलु अहं पुत्ता' एवं खलु अहं पुत्र ! ‘सरिसए जाव समाणे' सदृशकान् यावत् समानान् - समानान् = नलकूबरसमानान्, 'सत्त पुत्ते पयाया' सप्त पुत्रान् प्रजाता=प्रजनितवती, 'नो वेव णं मए एगस्स वि बालनणे अणुभूए' नो चैव खलु मया एकस्यापि वालत्वम् अनुभूतम् 'तुमं पि य णं पुत्ता' त्वमपि च खलु पुत्र != हे पुत्र ! त्वमपि च खलु, 'ममं छण्डं छण्डं मासाणं अंतियं' मम पण्णां षण्णां मासानाम् अन्तिकं 'पायबंदए हन्यमागच्छसि' पादवन्दको हव्यमागच्छसि - स्वमपि ममान्तिकं षण्मासानन्तरं पादौ वन्दितुमागच्छसीति भावः । ' तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओं जाव झियामि = तद् धन्याः खलु ता अम्बा यावद् ध्यायामि, व्याख्यातमिदमन्यत्र || सू० १८ ॥
रही हो ?
उसके बाद देवकी ने कहा- हे पुत्र ! आकार, वय और कान्ति में समान, यावत् नलकूबर के समान सुन्दर सात पुत्रों को मैंने जन्म दिया। परन्तु मैंने एक की भी बालक्रीडा का अनुभव नहीं किया । हे पुत्र ! तुम भी मेरे पास चरण में वन्दन करने के लिये. छ-छ महीने के बाद आते हो। इसलिये म समझती हूँ कि वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं, उन्होंने पुण्याचरण किया है जोकि अपनी सन्तान के बालकपन का अनुभव करती हैं, इसी बात को सोचती हुई दुःखितहृदय से उदासीन होकर बैठी हूँ | सू० १८ ॥ પ્રકારે કહ્યું :– હે માતા ! જ્યારે હું પહેલાં તમને ચરણુવંદન કરવા માટે આવતા હતેા ત્યારે મને જોઇને તમારૂ હૃદય આનંદિત થઈ જતું હતું, પરંતુ આજ તમારી દશા मीलन लेवामां आवे छे. भ भाता ! तुभे दु:खित भनथी उहास- मनी खान शु शोथ ४री रह्या छो १.
ત્યારપછી દેવકીએ કહ્યું—હે પુત્ર ! આકાર, વય અને કાન્તિમાં એક સરખા યાવત્ નલકૂબર જેવા સુંદર સાત પુત્રને મેં જન્મ આપ્યા. પરંતુ મે એકેયની બાલક્રીડાના અનુભવ કર્યાં નથી. હું પુત્ર ! તું પણ મારી પાસે ચરણવદન માટે છ-છ મહિને આવે છે. આથી હું સમજું છું કે તે માતાઓ ધન્ય છે, પુણ્યશાલિની છે, તેમણે પુણ્યાચરણ કર્યાં છે કે જે પેાતાનાં સતાનાના ખાલપણાંના અનુભવ કરે છે. આ વાતના शोय उरती थडी दुःमित हृध्यथी उदासीन यह मेही छु. (सु. १८)
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
॥ सूलम् ॥ तए णं से कण्हे वासुदेवे देवइं देवि एवं वयासीमा णं तुझे अम्मो! ओहय० जाव झियायह, अहणणं तहा वत्तिस्सामि जहा णं ममं सहोयरे कणीयसे भाउए भविस्सइत्ति कह देवई देविं ताहि इटाहि कंताहिं जाव वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता तओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जहा अमओ हरिणेगमेसिस्स अट्रमभत्तं पगिण्हइ जाव अंजलिं कट्ठ एवं वयासी - इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सहोयरं कणीयसं भाउयं विदिण्णं ॥ सू० १९ ॥
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः देवकीकथनान्तरं खलु, 'से कण्हे वासुदेवे' स कृष्णो वासुदेवः 'देवइं देवि एवं - वयासी' देवकी देवीम् एवमवदत्-'मा णं तुम्भे अम्मो !' मा खलु यूयमम्ब ! 'ओहय० जाव झियायह' अवहत० यावद् ध्यायत, 'अहण्णं तहा वत्तिस्सामि' अहं खलु तथा वतिष्ये यतिष्ये 'जहा णं ममं कणीयसे सहोयरे भाया भविस्सइ' यथा खलु मम कनीयान् सहोदरो भ्राता भविष्यति । हे मातः ! मा शुचः ! अहं तथा यतिष्ये यथा मम सहोदरो लघुभ्राता भवेता ‘ति कट्ट' इति कृत्वा%3 इत्युक्त्वा 'देवई देविं' देवकी देवीम् , 'ताहिं इटाहिं कंताहिं' ताभिरिष्टाभिः
. उसके बाद कृष्ण वासुदेवने उस देवकी देवी से इस प्रकार कहा-हे माता ! तुम अपने मनोरथ पूर्ण नहीं होने के कारण इस प्रकार आर्तध्यान मत करो। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि जिससे मेरा एक छोटाभाई हो । ऐसा कह कर अभिलषित प्रिय मनोनुकूल - ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવે તે દેવકી દેવીને આ પ્રકારે કહ્યું- હે માતા ! તમે તમારા મનેર ફલીભૂત ન થવાને કારણે આ પ્રકારે આર્તધ્યાન ન કરે. હું એવા પ્રયત્ન કરીશ કે જેથી મારે એક નાનો ભાઈ થશે. એમ કહી. અભિલષિત પ્રિય મને નુકૂળ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णस्य हरिणैगमेषिदेवाराधना
৩৩ कान्ताभिः, इष्टाभिः अभिलषिताभिः कान्ताभिः प्रियाभिः, 'जाव वग्गृहि' यावद् वाग्भिः यावन्मनोऽनुकूलाभिर्वाग्भिः . 'समासासेइ' समाश्वासयति समाश्वस्तां करोति, "समासासित्ता' समाश्वास्य 'तो' ततः तत्समीपात् 'पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्क्राम्यति, 'पडिनिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव पौषधशाला तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य ‘जहा अभए' यथा अभयः यथा अभयः कुमारः सपौषधः सब्रह्मचर्यों यावदेकाकी दर्भसंस्तारकोपगतो मित्रदेवस्य अष्टमभक प्रगृह्णाति तथैवायमपि, 'हरिणेगमेसिस्स' हरिणैगमेपिणः, 'अट्ठमभत्तं' अष्टमभक्क 'पगिण्डइ' प्रगृह्णाति-स्वीकरोति, 'जाव अंजलिं कट्ट एवं वयासी' यावत् अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-यावत् दश दिश उद्योतयन् दिव्यरूपधारी देवः समीपमागत्य गगनस्थितः कृष्णं वासुदेवमेवमवादीत्-हे देवानुप्रिय ! त्वया स्मृतोऽहं समागतोऽस्मि, विज्ञापय, किं करोमि, किं ददामि, किं च ते हृदयेप्सितम् ? तदनु कृष्णो वासुदेवः आकाशगतं देवं दृष्ट्वा संजातहर्षप्रकर्षः वचनों से देवकी महारानी को कृष्ण वासुदेवने धीरज और विश्वास बंधाया। बाद में उनके समीप से निकल कर जहा पोषधशाला थी वहाँ गये। जिस प्रकार अभयकुमारने ब्रह्मचर्य सहित पौषध से युक्त हो यावत् अकेले दर्भसंस्तार पर बैठकर अष्टमभक्त को स्वीकार कर मित्रदेवकी आराधना की थी, उसी प्रकार कृष्ण वासुदेवने भी हरिणैगमेषी देव की आराधना की। विशेष इतना ही हैं कि दस दिशा को उयोतित करता हुआ दिव्यरूपधारी वह देव समीप में आकर आकाश में खडा हो कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा :
हे देवानुप्रिय ! तुमने मेरा स्मरण किया है, मैं उपस्थित हूँ, बोलो, क्या करूँ ? क्या दूँ ? तुम्हारा मनोरथ क्या है ? વચનેથી દેવકી મહારાણીને કૃષ્ણ વાસુદેવે ધીરજ અને વિશ્વાસ આપે પછી તેની પાસેથી નીકળી જ્યાં પૌષધશાળા હતી ત્યાં ગયા. અને જેવી રીતે અભયકુમારે બ્રહ્મચર્ય સહિત પૌષધથી યુકત એકલા દના આસને બેસી અષ્ટમ ભકતને સ્વીકાર કરી મિત્ર દેવની આરાધના કરી હતી તેવીજ રીતે કૃષ્ણ વાસુદેવે પણ હરિગમેષ દેવની આરાધના કરી. વિશેષ એટલું જ છે કે દશેય દિશાઓને પ્રકાશમય કરતા દિવ્યરૂપધારી તે દેવે તેની सभीय मावी मारामां मा २ही वासुदेवन. मा २ यु:
वानुप्रिय! तभ भाई भ२ ४थुः छे. तेथी दु पस्थित थयछु:
- આ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे पौषधं पारयित्वा करतलपरिगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिं निधाय एवमवादीत् -- 'इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सहोयरं कणीयसं भाउयं विदिणं' इच्छामि खलु देवानुमियाः ! सहोदरं कनीयांसं भ्रातरं वितीर्णम् भवता प्रदत्तं कनिष्ठं सहोदरमभिलपामि ॥ सू० १९॥
॥ मूलम् ॥ . तए णं से हरिणेगमेसी देवे कण्हं वासुदेव एवं वयासीहोहिति णं देवाणुप्पिया ! तव देवलोयचुए सहोयरे कणीयसे भाउए, से णं उम्मुक्कवालभावे जाव जोवणगमणुपत्ते अरहओ अरिष्टनेमिस्स अंतिय मुंडे जाव पवइस्सइ । कण्हं वासुदेवं. दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ सू० २० ॥
॥टीका॥ ___ तए णं इत्यादि । 'तए णं से हरिणेगमेसी देवे' ततः खलु स हरिणैगमेपी देवः 'कण्हं वासुदेवं एवं वयासी' कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत्- 'होहिति णं देवाणुप्पिया! तब देवलोयचुए सहोयरे' भविष्यति खलु देवानुप्रिय ! तव देवलोकच्युतः सहोदरः 'कणीयसे' कनीयान् = लघुः 'भाउए' भ्राता, 'से णं. उम्मुक्कवालभावे जाव जोवणगमणुपत्ते' स खलु उन्मुक्तबालभावा यावत् उसके बाद कृष्ण वासुदेव, आकाश में स्थित उस देव को देखकर अत्यन्त हर्षित हो पोषध पाला और हाथ जोडकर इस प्रकार वाले हे देवानुप्रिय ! आपकी कृपा से मेरे एक सहोदर लघु भ्राता का जन्म हो, यह मेरी इच्छा है ॥ सू० १९ ॥ .
उसके बाद उस हरिणैगमेषी देवने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा:- हे देवानुप्रिय ! देवलोक से एक देवता आयुष्य पूर्ण करके तुम्हारा छोटाभाई होकर जन्म लेगा और वह बाल्यावस्था બેલે. હું શું કરું? શું આપું ? તમારે શું મરથ છે ? ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવે આકાશમાં ઊભેલા તે દેવને જોઈને બહુજ હર્ષિત થઈ પૌષધ પાળ્યું અને હાથ જેડીને આ પ્રકારે કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિય ! આપની કૃપાથી મારે એક સાદર લઘુભ્રાતાને भन्म थायमेवी भारी ४२छछे. (सू. १८)
ત્યારપછી તે હરિëગમેષી દેવે કૃષ્ણવાસુદેવને આ પ્રકારે કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિય ! દેવકથી એક દેવતા આયુષ્ય પૂર્ણ કરી તમારે નાનો ભાઈ થઈને જન્મ લેશે અને તે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णस्य वरमाप्तिः
७९ यौवनकमनुप्राप्तः-उन्मुक्तबालभावः = परित्यक्तबालस्वभावः, यौवनकम् = तरुणावस्थाम् अनुप्राप्त समाप्तः सन् 'अरहओ अरिट्टनेमिस्स' अतोऽरिष्टनेमे 'अंतियं मुंडे जाव पव्वइस्सइ'. अन्तिकं मुण्डो यावत् प्रत्रजिष्यति । 'कण्हं वासुदेवं दोच्चंपि तचंपि' कृष्णं वासुदेवम् द्वितीयमपि तृतीयमपि वारम् ‘एवं'. एवम् = 'भविष्यति तव लघुभ्राता' इति 'वयइ' वदति, 'वइत्ता' उदित्वा 'जामेव दिसं पाउन्भूए' यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतः 'तामेव दिसं पडिगए' तामेव दिशं प्रतिगतः ।। मू. २० ॥
तए णं से कण्हे वासुदेवे पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव. देवई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ, करित्ता एवं वयासीहोहिति णं अम्मो! ममं सहोदरे कणीयसे भाउति कट्ट देवई देवि इटाहिं जाव आसासइ, आसासित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तए णं सा देवई देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि जाव सीहं सुमिणे पासेत्ता पडिबुद्धा जाव हट्ठतुहियया गब्भं सुहं सुहेणं परिवहइ ॥ सू० २१ ॥
टीका ... 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः 'पोसहसालाओ पडिनिक्खमई' पौषधशालातः प्रतिनिष्क्राम्यति, बीतने पर अर्थात् युवावस्था प्राप्त होते ही अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप मुंडित हो प्रत्रजित होगा। उस हरिणैगमेषी देवने कृष्ण वासुदेव से दुवारा तिवारा भी पूर्वोक्त प्रकार से कहा। अनन्तर जिस दिशा से वह आया था उसी दिशा की और वापिस चला गया ॥ सू०. २० ॥
उसके बाद वह कृष्ण वासुदेव पौषधशाला से निकल कर બાલ્યાવસ્થા વીતી જતાં. અર્થાત યુવાવસ્થા પ્રાપ્ત થતાંજ અહંત અરિષ્ટનેમિની પાસે મુંડિત થઈ દીક્ષા લેશે. તે હરિëગમેષ દેવે કૃષ્ણવાસુદેવને બીજી વાર ત્રીજી વાર ઉપર પ્રમાણે કહ્યું, અને પછી જે દિશામાંથી તે આવ્યો હતો તે જ દિશા તરફ પાછો ચાલ્યા ગયે. (સૂ૨૦)
ત્યારપછી તે કૃષ્ણવાસુદેવ પૌષધશાળામાંથી નીકળી દેવકી દેવીની પાસે આવ્યા
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
८०
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' पडिनिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'जेणेव देवई देवी तेणेव एवागच्छन् ' यत्रैत्र देवकी देवी तत्रैव उपागच्छति, 'उचागच्छिता' उपागत्य 'देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ' देवक्या देव्याः पादग्रहणं करोति, 'करिता एवं व्यासी' कृत्वा एवमवदत् - ' होहिति णं अम्मो ! ममं सहोदरे कणीयसे भाउति कट्टु' भविष्यति खलु अम्ब ! मम सहोदरो भ्रातेति कृत्वा ' देव देवि देवक देवीम् ' इट्ठाहिं जात्र इष्टाभिर्यात् = इष्टाभिर्वाग्भिरित्यर्थः, 'आसास ' आश्वासयति = सन्तोपयति, 'आसासित्ता' आश्वास्य= संतोष्य 'जामेव दिसं पाउभूए तामेत्र दिसं पडिगए' यस्या दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । 'तए णं सा देवई देवी' ततः खलु सा देवकी देवी 'अन्नया कयाई' अन्यदा कदाचित् 'तंसि तारिसगंसि जाव' तस्मिन तादृशके यावत्- कृतपुण्योपाध्ये कोमलतादिगुणसंपन्ने शुभे शयनीये सुप्ता 'सीहं सुमिणे पासित्ता' सिंह स्वने दृष्ट्वा, 'पडिबुद्धा जाव तुहिया' प्रतिबुद्धा यावद् हृष्टतुष्टहृदया - स्त्रमदर्शनानन्तरं जागरिता सती तद्वृत्तान्तं राज्ञे निवेदितवती, अनन्तरं शुभस्वमजनितस्वाभिदेवकी के समीप आये और उनका चरण वन्दन किया। बाद में उन्होंने देवकी से इस प्रकार कहा- हे माता ! मुझे एक छोटा भाई होगा तुम चिन्ता मत करो, तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे । इस प्रकार के इष्ट, मनोहर एवं मनोनुकूल वचनों से कृष्ण वासुदेवने देवकी देवी को सन्तुष्ट किया । इस प्रकार उन्हें सन्तोष देकर उनके पास से चले गये । उसके बाद पुण्यशालियों से ही उपभोग्य सुकोमल शय्या में सोयी हुई इस देवकी ने स्वप्न में सिंह को देखा । स्वप्न देखने के बाद जागी और स्वप्न का वृत्तान्त उसने वसुदेव से कहा । अपने मनोरथ की पूर्णता को निश्चित समझ कर देवकी का मन हृष्टतुष्ट हो गया । अनन्तर उन्होंने अत्यन्त અને તેએના ચરણમાં વંદન કર્યું. પછી તેમણે દેવકી દેવીને આ પ્રકારે કહ્યું — હે માતા, મારે એક નાના ભાઇ થશે. તમે ચિતા ન કરેા. તમારા મનેારથ પૂર્ણ થશે. આ પ્રકારનાં ઇષ્ટ મનેાહર અને મનેાનુકૂળ વચનેાથી કૃષ્ણવાસુદેવે દેવકી દેવીને સંતુષ્ટ કર્યાં. એ પ્રમાણે તેમને સ ંતેષ આપીને તેમની પાસેથી ચાલ્યા ગયા. ત્યારપછી પુણ્યશાળીએજ માત્ર જેના ઉપભાગ કરી શકે છે તેવી સુકેમલ શય્યામાં સુતેલી તે દેવકીએ સ્વપ્નમાં સિંહને જોયે, સ્વપ્ન જોયા પછી જયારે જાગૃત થઈ ત્યારે સ્વપ્નના વૃત્તાન્ત તેણે વસુદેવને કહ્યો. પેાતાના મનાથની પરિપૂર્ણતાને નિશ્ચિત સમજીને દેવકીનું મન તુષ્ટ થઈ ગયું.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गजसुकुमालस्य जन्मादिवर्णनम् मतप्राप्तेरवश्यम्भावितया हृष्टतुष्टमानसा 'गब्भं सुहं सुहेणं परिवहइ' गर्भं सुखं सुखेन परिवहतिधारयति ॥ मू० २१ ॥ .
॥ मूलम् ॥ तए णं सा देवई देवी नवण्हं मासाणं जासुमणरत्तबंधुजीवयलक्खरससरसपारिजातकतरुणदिवायरसमप्पभं सवनयणकंतं सुकुमालं जाव सुरूवं गयतालुयसमाणं दारयं पयाया। जम्मणं जहा मेहकुमारे जाव जम्हा णं अम्हं इमे दारए गयतालुसमाणे तं होउ णं अम्हं एयस्स दारगस्स नामधेजे गयसुकुमाले । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामं करेइ गयसुकुमालेत्ति, सेसं जहा मेहे जाव अलं भोगसमत्थे जाए यावि होत्था । तत्थ णं बारवईए नयरीए
सोमिले नामं माहणे परिवसइ अड़े रिउवेय० जाव सुपरिनिट्रिए - यावि होत्था, तस्स सोमिलस्स माहणस्स सोमसिरी नामं
माहणी होत्था सुकुमाला। तस्स णं सोमिलस्स माहणस्स धूया सोमसिरीए माहणीए अत्तया सोमा नाम दारिया होत्था,
सुकुमाला जाव सुरूवा रूवेणं जाव लावण्णेणं उक्किट्टा, - उक्किटुसरीरा यावि होत्था ॥ सू० २२ ॥
॥ टीका ॥ - 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः गर्भधारणानन्तरं खलु, 'सा देवई देवी' सा देवकी देवी 'नवण्हं मासाणं' नवानां मासानाम् सार्धसप्तदिनाधिकेषु नवसु मासेषु व्यतीतेषु, 'जासुमणरत्तबंधुजीवयलवखरससरसपारिजातकतरुणदिवायरसमप्पभं' जपासुमनोरक्तवन्धुजीवकलाक्षारससरसपारिजातकतरुणदिवाकरसमप्रभम्, जपासुमनसः जपाकुसुमानि, रक्तवन्धुजीवकाः रक्तवन्धूका रक्तपुसुख से गर्भ को धारण किया ॥ सू० २१ ॥
. उसके बाद नौ महिने साढे सात दिन बीतने पर देवकी देवी ने जपाकुसुम, बन्धूकपुष्प, लाक्षारस, तथा पारिजात और ત્યારપછી તેણે અત્યન્ત સુખથી ગર્ભ ધારણ કર્યો. (સૂ. ૨૧)
ત્યારપછી નવ મહિના અને સાડાસાત દિવસ વીત્યા પછી દેવકીદેવીએ, જપાકુસુમ,
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८२
.. अन्तकृतदशागसूत्रे पविशेषाः, लाक्षारसः प्रसिद्धः, सरसपारिजातका अभिनवपारिजातपुष्पम्, तरुणदिवाकरः उदीयमानसूर्यः, एतेषां द्वन्द्वसमासः, तैः समा तुल्या प्रभा कान्तियस्य तम्-जपाकुसुमादिवद्रक्तकान्तिधरमित्यर्थः; 'सव्वनयणकंतं सुकुमारं जाव सुरूच' सर्वनयनकान्तं सुकुमारं यावत्सुरूपम्-सर्वजननयनानन्दजनकं सुकुमारं यावत् मुरूप गयतालुयसमाणं गजतालुकसमानम्-गजतालुवत्सुकोमलम् 'दारयं पयाया' दारकं प्रजाता-जनितवतीत्यर्थः । 'जम्मणं जहा मेहकुमारे जाव' जन्म यथा मेघकुमारो यावत्, यथा मेघकुमारस्य जन्ममहोत्सवादिकम् एवमेवास्य कुमारस्यापि विज्ञेयम् । 'जम्हा णं अम्हं इमे दारए गयतालुसमाणे' यस्मात् खलु अस्माकम् अयं दारको गजतालुसमाना=गजतालुसदृशः सुकुमाल: 'तं होउ णं अम्हं एयस्स दारगस्स नामधेजे गयसुकुमाले' तद् भवतु खलु आवयोरेतस्य दारकस्य नामधेयं गजसुकुमालः । 'तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामं करेंति गयसुकुमालेत्ति' ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नाम कुरुतः गजसुकुमाल इति । 'सेसं जहा मेहे जाव अलं भोगसमत्थे यावि होत्या' शेपं यथा मेघो यावत् अलं भोगसमर्थश्चाप्यभवत् । 'तत्थ णं वारवईए नयरीए सोमिले नामं माहणे उद्य होते हुए सूर्य के समान प्रभावाले तथा सभी जनों के नयन को सुख देने वाले, अत्यन्त कोमल यावत् सुरूप एवं गजके ताल के समान सुकोमल बालक को जन्म दिया। जिस प्रकार मेघकुमार के जन्म समय में उनके मातापिता ने महोत्सव किया, उसी प्रकार देवकी और वसुदेव ने भी जन्ममहोत्सव किया। उन्होंने सोचा कि यह हमारा बालक गजके तालु समान सुकोमल है इसलिये इसका नाम गजसुकुमाल हो । उसके बाद मातापिता ने उस बालक का नाम गजसुकुमाल रखा । गजसुकुमाल कुमार का बाल्यकाल से लेकर यौवन तक का वृत्तान्त मेघकुमार के समान जानना चाहिये । બધૂકપુપ, લાક્ષારસ તથા પારિજાત અને ઉગતા સૂર્યના જેવી પ્રભવાળે અને બધા જનોનાં નયનને સુખ આપવાવાળા, અત્યંત કેમળ યાવતુ સુરૂપ અને હાથીના તાળવા જે સુકેમળ બાળકને જન્મ આપે, જે પ્રકારે મેઘકુમારનો જન્મ થતાં તેના માતાપિતાએ મહત્સવ કર્યો હતો તેવી જ રીતે દેવકી અને વસુદેવે જન્મ મહોત્સવ કર્યો. તેમણે વિચાર્યું કે આ અમારે બાળક હાથીના તાળવા જે સુકેમલ છે, માટે એનું નામ ગજસુકુમાલ રહે. પછી તેના માતાપિતાએ તે બાળકનું નામ ગજસુકુમાલ પાડયું. ગજસુકુમાલ કુમારના બાલ્યકાળથી માંડીને યૌવનકાળ સુધીને વૃત્તાન્ત મેઘકુમારના જે જાણવે.
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मुनुकुमुदचन्द्रिका टीका, सोमिलब्राह्मणपुत्र्याः सोमाया वर्णनम् ८३ परिवसइ अड्डे रिउव्वेय० जाव सुपरिनिटिए यावि होत्था' तत्र खलु द्वारावत्यां नगयों सोमिलो नाम ब्राह्मणः परिवसति आढ्य ऋग्वेद० यावत् सुपरिनिष्ठितश्चाऽप्यभवत्-आढ्या समृद्धः, ऋग्वेद० यावत् सुपरिनिष्ठितः ऋग्यजुःसामाथर्वसु चतुर्पु वेदेषु तदङ्गेषु च पारंगतः, 'तस्स सोमिलस्स माहणस्स सोमसिरी नामं माहणी होत्था सुकुमाला' तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य सोमश्रीनाम ब्राह्मणी अभवत् सुकुमारा, 'तस्स णं सोमिलस्स माहणस्स' तस्य खलु सोमिलस्य ब्राह्मणस्य 'धूया' दुहिता-पुत्री 'सोमसिरीए माहणीए अत्तया' सोमश्रियो ब्राह्मण्या आत्मजा 'सोमा नामं दारिया' सोमा नाम दारिका-वालिका 'होत्था' अभवत्, कीदृशी सा? इत्याह-सुकुमाला जात्र सुरूवा' सुकुमारा यावत् सुरूपा, तथा 'रूवेणं' रूपेण-आकारेण 'जाव लावण्णेणं' यावत् लावण्येन यावत् परमया शोभया 'उक्किट्ठा' उत्कृष्टा-उत्तमा, 'उकिटसरीरा' उत्कृष्टशरीरा-उत्कृष्टम्= अहीन पञ्चेन्द्रितया यथाऽवस्थिताऽवयवसंनिवेशतया चोत्तमं शरीरं यस्याः सा तथोक्ता 'यावि होत्था' चापि आसीत् ।। मू० २२ ॥
. 'उस द्वारावती नगरी में ऋग्वेद आदि चारों वेदों में तथा वेदाङ्गों में परिनिष्ठित और धन-धान्यसे समृद्ध सोमिल नामका ब्राह्मण रहता था, उस ब्राह्मण की पत्नी का नाम सोमश्री था। वह सोमश्री ब्राह्मणी अत्यन्त सुकुमार थी। उस सोमिल ब्राह्मण की पुत्री सोमश्री की आत्मजा सोमा नामकी एक दारिका (कन्या) थीं। जो सुकुमार यावत् रूपवती थी और आकार एवं लावण्य में उत्कृष्ट थी। तथा वह सोमा बालिका पाँचों इन्द्रियों से अहीन होने के कारण एवं अवयवों की यथावत् स्थिति के कारण उत्कृष्ट शरीरशोभावाली थी ॥ सू० २२ ॥ - તે દ્વારાવતી નગરીમાં ત્રાગ્યેદ આદિ ચારેય વેદોમાં અને વેદાંગોમાં પરિનિષ્ઠિત તથા ધનધાન્યથી સમૃદ્ધ સેમિલનામને બ્રાહ્મણ રહેતું હતું. તે બ્રાહ્મણની પત્નીનું નામ સામગ્રી હતું. તે સમશ્રી બ્રાહ્મણી અત્યન્ત સુકુમાર હતી. તે સામિલ બ્રાહ્મણની પુત્રી સમશ્રીની આત્મજા સમા નામની એક દારિકા (કન્યા) હતી. જે સુકુમાર અને સુરૂપ હતી તથા આકાર અને લાવણ્યમાં ઉત્કૃષ્ટ હતી, તથા તે સોમા બાલિકા પાંચે ઇન્દ્રિયોથી અહીન (ખેડવગરની) હોવાને કારણે અને અવયની યથાવત્ સ્થિતિ પ્રાપ્ત હોવાને કારણે ઉત્કૃષ્ટ શરીરશેભાવાળી હતી. (સૂ૦ ૨૨)
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
८४
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॥ मूलम् ॥ तए णं सा सोमा दारिया अण्णया कयाइं पहाया जाव विभूसिया बहहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिकाखमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता रायमग्गंसि कणगतिंदूसएणं कीलेमाणी २ चिट्टइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्रनेमी समोसढे, परिसा णिग्गया। तए णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लट्रे समाणे पहाए जाब विभूसिए गयसुकुमालेणं कुमारेणं सद्धि हथिखंधवरवए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरेजमाणेणं सेयवरचामराहिं उडुबमाणीहि २ बारवईए नयरीए मझमझेणं अरहओ अरट्रिनेमिस्स पायवंदए णिग्गच्छमाणे सोमं दारियं पासइ, पासित्ता सोमाए दारियाए रूवेण जोवणेण य विम्हिए ॥ सू० २३ ॥
॥ टीका || 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं सा सोमा दारिया' ततः खलु सा सोमा दारिका 'अण्णया कयाई अन्यदा कदाचित् 'पहाया जाव विभूसिया' स्नाता यावद् विभूपिता, 'वहूहिं खुजाहि' बहुभिः कुब्जाभिः कुन्जादासीभिः, 'जाव' यावत् अन्यप्रकाराभिरपि दासीभिः 'परिक्खित्ता' परिक्षिप्ता-परिवेष्टिता 'सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ' स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, पिडिनिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'जेणेव रायमग्गो तेणेव उवागच्छई' यत्रैव राजमार्गः तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'रायमग्गे' राजमार्गे 'कणगतिंदू
उसके बाद वह सोमा बालिका स्नान कर यावत् अनेकविध अलंकारों से अलंकृत हो अनेक कुब्जादासियों से तथा अन्य दूसरी दासियों से घिरी हुई अपने घर से निकल कर राजमार्ग
ત્યારપછી તે મા બાલિકા નાન કરી યાવતુ અનેક જાતના અલંકારથી વિભૂષિત થઈ ઘણી કુન્ના દાસીઓ અને બીજી કેટલીક દાસીઓથી ઘેરાઈને પિતાનાં ઘેરથી નીકળી રાજમાર્ગ ઉપર આવી અને ત્યાં સોનાના દડાથી રમવા લાગી તે કાલ
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८५
- मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अरिष्टनेमिदर्शनार्थ कृष्णस्य गमनम् - सएणं' कनकतिन्दसकेन 'कीलेमाणी२ चिटई क्रीडन्ती २ तिष्ठति । 'तिन्दुसक' - इति कन्दुकार्थों देशीशब्दः । तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले
तस्मिन् समये 'अरहा अरिठ्ठनेमी' अर्हन् अरिष्टनेमिः 'समोसढे' समवसृतः= समागतः, 'परिसा णिग्गया' परिपन्निर्गता-धर्मकथाश्रवणाय जनसमुदायरूपा परिषत् स्वस्वगृहान्निष्क्रान्ता । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः, 'इमीसे कहाए लट्टे समाणे' अस्याः कथाया लब्धार्थः सन्= 'भगवदरिष्टनेमिरागत' इति वृत्तान्तं ज्ञात्वेत्यर्थः, 'पहाए जाब विभूसिए' स्नातो यावद् विभूषितः, “गयसुकुमालेणं कुमारेणं' गजसुकुमारेण कुमारेण 'सद्धिं' सार्द्धम्-स्वानुजेन गजसुकुमारेण कुमारेण सह, 'हत्थिखंधवरगए' हस्तिस्कन्धवरगता=गजकन्धरामारूढः, 'सकोरंटमल्लदामेणं' सकोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्टमाल्यस्य दाम कोरण्टमाल्यदाम तेन सह वर्तते यत्तेन-पीतवर्णपुष्पमालासहितेन "छत्तेणं धरिजमाणेणं' छत्रेण ध्रियमाणेन 'सेयवरचामराहिं उद्धव्यमाणीहिं' श्वेतवरचामरैरुद्धवद्भिः चीज्यमानैः-श्रेष्ठश्वेतचामरैश्चोपलक्षित इत्यर्थः, 'वारवईए नयरीए' द्वारावत्या नगर्याः 'मझमज्झेणं' मध्यमध्येन 'अरहओ अरिहनेमिस्स' अहतोऽरिष्टनेमे = पायवंदए' पादवन्दका चरणवन्दनार्थीत्यर्थः, "णिग्गच्छमाणे पर आयी और वहाँ सोने के गेंद से खेलने लगी। उसकाल उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि उस द्वारका नगरी में पधारे। जिससे धर्मकथा सुनने के लिये परिषद् अपने २ घर से निकली। उसके बाद कृष्ण वासुदेवने भगवान् के आने का वृत्तान्त सुनकर स्नान किया और यावत् भूषणों से विभूषित हो अपने छोटे भाई गजसुकुमाल कुमार के साथ हाथी पर बैठे करण्ट फूलों की माला से युक्त छत्र से तथा बोजते हुए चामरों से सुशोभित वह कृष्ण वासुदेव द्वारावती नगरी के मध्य से अहत् अरिष्टनेमि के समीप उनके चरणवन्दन के लिये निकले । उस समय द्वारका તે સમયે અહત અરિષ્ટનેમિ ભગવાન તે દ્વારકાનગરીમાં પધાર્યા. તેથી ધર્મકથા સાંભળવા માટે પરિષદ પિતાપિતાને ઘેરથી નીકળી. ત્યારપછી કૃષ્ણ વાસુદેવ ભગવાનના આવવાના વૃત્તાન્ત સાંભળી સ્નાન કરી ચાવત આભૂષણથી વિભૂષિત થઈ પિતાના નાનાભાઈ ગજસુકુમાલ કુમારની સાથે હાથી ઉપર બેઠા. કુરટ ફૂલેની માલાથી યુકત છત્રથી તથા વિંજાતા ચામથી સુશોભિત તે કૃષ્ણવાસુદેવ દ્વારાવતી નગરીના મધ્યમાંથી અર્હત્ અરિષ્ટનેમિની પાસે તેમનાં ચરણવંદન કરવા માટે નીકળ્યા. તે
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे सोमं दारियं पासइ' निर्गच्छन् सोमां दारिकां पश्यति, 'पासित्ता सोमाए दारियाए' दृष्ट्वा सोमाया दारिकायाः 'रूवेण य जोत्रणेण य' रूपेण च यौवनेन च 'विम्हिए' विस्मित: आश्चर्ययुक्तो जातः ॥ मू० २३ ।।
॥ मूलम् ॥ तए णं से कण्हे वासुदेवे कोथुवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया! सोमिलं जाइत्ता सोमं दारियं गेण्हह, गेण्हित्ता कन्नतेउरंसि पक्खिवह । तए णं एसा गयसुकुमालस्स भारिया भविस्सइ। तए णं ते कोडंबियपुरिसा जाव पक्खिवंति। तए णं ते कोडंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति। तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए नयरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जाव पज्जुवासइ । तए णं अरहा अरिटनेमी कण्हस्स वासुदेवस्स गयसुकुमालस्स कुमारस्स तीसे य० धम्मकहा, कण्हे पडिगये ॥ सू० २४ ॥
॥ टीका ॥ ___'तए गं' इत्यादि । 'तए णं' ततः तदन्तरं-दारिकाविलोकनानन्तरं खलु ‘से कण्हे वासुदेवे, स कृष्णो वासुदेवः कोडवियपुरिसे' कौटुम्बिकपुरुपान्-राजसेवकान् 'सदावेइ' शब्दयति आह्वयति, 'सदावित्ता एवं वयासी' शब्दयिखा एवमवदत्-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया !' गच्छत खलु यूयं नगरी के राजमार्ग में खेलती हुई सोमा दारिका को कृष्ण वासुदेवने देखा। उस सोमा दारिका के रूप लावण्य यौवन को देखकर कृष्ण वासुदेव को अत्यन्त आश्चर्य हुआ ॥ सू० २३ ॥
उसको देखकर कृष्ण बासुदेव ने अपने भृत्यों को बुलाया और इस प्रकार आज्ञा दी-हे देवानुप्रियो ! तुम लोग सोमिल સમયે દ્વારકા નગરીના રાજમાર્ગમાં રમતી સીમા દારિકાને કણવાસદેવે જોઈ. તે સમાં દારિકાનું રૂપ, લાવણ્ય અને યૌવનને જોઈને કૃષ્ણ વાસુદેવને ઘણું જ આશ્ચર્ય थयु(सु० २३)
તેને જોઈને કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના ભૂલ્યને બોલાવ્યા અને આ પ્રમાણે આજ્ઞા કરી- હે દેવાનુપ્રિય! તમે લેકે મિલ બ્રાહ્મણની પાસે જાઓ અને તેની પાસેથી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णस्य गजमुकुमालभार्यात्वेन सोमाया वर्णनम् ८७ देवानुप्रियाः ! 'सोमिलं माहणं' सोमिलं ब्राह्मणं 'जाइत्ता' याचिखा 'सोमं दारियं गेहह' सोमांदारिकां गृह्णीत, 'गेण्हित्ता' गृहीला 'कन्नतेउरंसि पक्खिवह कन्यान्त:पुरे प्रक्षिपत=कन्यानिवासभवने स्थापयत । 'तए णं एसा' ततः खलु एपा 'गयसुकुमालस्स' गजसुकुमालस्य कुमारस्य 'भारिया' भार्या 'भविस्सई' भविष्यति । 'तए णं' ततः खलु 'ते कोडॅवियपुरिसा जाव पक्खिवंति' ते कौटुम्बिकपुरुपा यावत्
प्रक्षिपन्ति-कौटुम्विकपुरुषाः कृष्णस्य वासुदेवस्याज्ञां शिरसि धृखा सोमिलब्राह्मण- सकाशानां सोमां याचिका कन्यान्तपुरेऽस्थापयन् ।'तए णं ते कोडंवियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति' ततः खलु ते कौटुम्विकपुरुपा यावत् प्रत्यर्पयन्ति-हे देवानुप्रिय ! भवदुक्तं कार्यमस्माभिः कृतमिति निवेदयन्ति । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे' ततः खलु स. कृष्णो वासुदेवः, 'वारवईए नयरीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ' द्वारावत्या नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, ‘णिग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संववणे उजाणे जाव पज्जुवासइ' निर्गत्य यत्रैव सहस्राम्रवनमुद्यानं यावत्पयुपास्ते-द्वारकाया मध्यमध्येन निर्गत्य सहस्राम्रवनमुद्यानं गत्वा भगवन्तं प्रणम्य च भगवतः संमुखे स्थितः पर्युपासनां करोतीत्यर्थः । 'तए णं' ततः खलु ब्राह्मण के पास जाओ, और उससे कन्या की याचना करो । तत्पश्चात् उसकी कन्या सोमा को लेकर कन्याओं के अन्तःपुर में पहुँचा दो। यह सोमा दारिका गजसुकुमार कुमार की भार्या होगी। अनन्तर आज्ञा के अनुसार वे राजसेवक सोमिल ब्राह्मण के पास गये, और उससे कन्या की याचना की। सोमिल ब्राह्मण ने प्रसन्नचित्त से उस कन्या को उन राजपुरुषों को अर्पित किया। उन्होंने उस कन्या को कृष्ण वासुदेव के कन्या के अन्तःपुर में रखी । उसके वाद कृष्ण वासुदेव द्वारावती नगरी के बीचोबीच से सहस्राम्रवन उद्यान. में जहाँ भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि विराजते थे वहां गये, वहाँ जाकर उन को वन्दन नमस्कार किया और भगवान् की उपासना करने लगे। તેની કન્યાની યાચના કરો. તે પછી તેની કન્યા સમાને લઈને કન્યાઓના અંત:પુરમાં પહોંચાડે. આ સમા દારિકા ગજસુકુમાલ કુમારની ભાર્ય થશે પછી આજ્ઞા પ્રમાણે તે રાજસેવક સોમિલ બ્રાહ્મણની પાસે ગયા અને તેની પાસે કન્યાની યાચના કરી.
મિલ બ્રાહ્મણે પ્રસન્નચિત્તથી તે કન્યાને તે રાજપુરુષને સેંપી દીધી. તેમણે તે કન્યાને કૃષ્ણવાસુદેવના કન્યાના અંતઃપુરમાં રાખી. ત્યારપછી કૃષ્ણવાસુદેવે દ્વારાવતી નગરીની વચ્ચે વચ્ચે થઈ સહસામ્રવન ઉદ્યાનમાં જ્યાં ભગવાન અહંતુ અરિષ્ટનેમિ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
'अरहा अनेिमी' अर्हन्नरिष्टनेमिः ' कण्हस्स वासुदेवस्स गयसुकुमालस्स कुमारस्स' कृष्णस्य वासुदेवस्य गजमुकुमालस्य कुमारस्य 'तीसे य० धम्म कहा ' तस्यां च० धर्मकथा, भगवानईन्नरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवं गजसुकुमारं कुमारं चोपलक्ष्य तस्यां विशालायां परिपदि धर्मकथामुपादिशदिति भावः । 'कण्हे पडिगए ' कृष्णः प्रतिगतः = धर्मकथाश्रवणानन्तरं कृष्णः स्वभवनं प्रतिनिवृत्तः ॥ २४ ॥
॥ मूलम् ॥
तए णं से गयसुकुमाले कुमारे अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतियं धम्मं सोच्चा जं नवरं अम्मापियरं आपुच्छामि, जहा मेहे, णवरं महिलियावज्जे जाव वड्ढियकुले । तए णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लखट्टे समाणे जेणेव गयसुकुमाले कुमारे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता गयसुकुमालं कुमारं आलिंगड, आलिंगिता उच्छंगे निवेसेड, निवेसित्ता एवं वयासी - तुमं ममं सहोदरे कणीयसे भाया, तं मा णं देवापिया ! इयाणि अरहओ अरिनेमिस्स अंतिए मुंडे जाव पवयाहि । अहण्णं वारवईए नयरीए महया महया रायाभिसेणं अभिसिंचिस्सामि । तए णं से गयसुकुमाले कुमारे कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे तुसिणीए संचिदृइ ॥ सू० २५ ॥
उसके बाद भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमिने कृष्ण वासुदेव और गजसुकुमाल के लिये उस विशाल परिषद् में धर्मोपदेश किया । अनन्तर धर्मकथा सुनकर वासुदेव कृष्ण अपने भवनकी ओर प्रस्थान किये || सू० २४ ॥
બિરાજતા હતા ત્યાં જઇ તેમને વંદન નમસ્કાર કર્યાં અને ભગવાનની ઉપાસના કરવા લાગ્યા ત્યારપછી ભગવાન અત્ અરિષ્ટનેમિએ કૃષ્ણ વાસુદેવ અને ગજસુકુમાલને માટે તે વિશાળ પરિષદમાં ધર્મોપદેશ કર્યાં. પછી ધ કથા સાંભળી કૃષ્ણવાસુદેવે घोताना महेस तर३ प्रस्थान यु. ( सू० २४)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गजसुकुमालस्य दीक्षाग्रहणविचारः
॥ टीका ॥ । 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः खलु-कृष्णस्य गमनानन्तरं खलु 'से गयसुकुमाले कुमारे' स गजसुकुमालः कुमारः, 'अरहओ अरिहनेमिस्स अंतिए धम्मं सोचा' अर्हतोऽरिष्टनेमेः अन्तिके धर्म श्रुखा, 'जं नवरं' यो विशेषः स उच्यते--अम्मापियरं आपुच्छामि' अम्बापितरौ आपृच्छामि, 'जहा मेहे' यथा मेघः यथा मेघो धर्म श्रुत्वा भगवन्तमेवं न्यवेदयत्-हे भदन्त ! मातापित्रोरनुमतिमादाय भवदन्तिके प्रव्रज्यां ग्रहीतुमिच्छामि, एवमयपि कुमारो न्यवेदयत् ; 'णवरं' विशेपश्चायम्-'महिलियावज्जे जाव वड्ढियकुले' महिलिकावों यावद् वर्धितकुल:-मेघवदयमपि कुमारो भगवतः समीपात्मतिनिवृत्तो मातापितृभ्यां निवेदिताऽखिलनिजाभिप्रायो दीक्षाग्रहणाय तदाज्ञां प्रार्थयामास, अनन्तरं ज्ञाततदभिप्रायौ मातापितरौ एवमुक्तवन्तौ-हे वत्स ! त्वं साम्प्रतं 'महिलियावज्जे' महिलिकावर्जः-अकृतविवाहोऽसि, अतो विवाहं कृत्वा सांसारिकभोगविलासान् भुञ्जानः 'जाव वड्रियकुले' यावद्वर्धितकुल:-वर्धितं सन्तानोत्पत्त्या कुलं येन स तथाभूतः प्रवज्यां गृहाणेति । तए णं से कण्हे वासुदेवे' ततः
परन्तु गजसुकुमाल को भगवान् अरिष्टनेमि की वाणी सुनकर वैराग्य उत्पन्न हो गया। बाद उन्होंने हाथ जोड कर भगवान से निवेदन किया कि-हे भदन्त ! मैं अपने माता-पिता से पूछकर आपके समीप प्रव्रज्या (दीक्षा) ग्रहण करूँगा। इस प्रकार मेघकुमार के समान भगवान को निवेदन करके अपने घर आये
और वहा उन्होंने माता-पिताके समक्ष अपना अभिप्राय प्रगट किया। माता-पिता ने उनकी दीक्षा की बात सुनकर उनसे कहा- हे वत्स ! तुम्हारा अभी विवाह भी नहीं हुआ है और तुम वर्धितकुल नहीं हो। इसलिये पहले तुम विवाह करो; बाद में
પરન્તુ ગજસુકુમાલને ભગવાન અરિષ્ટનેમિની વાણી સાંભળી વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થયું. આથી તેમણે હાથ જોડી ભગવાનને નિવેદન કર્યું કે—હે ભદન્ત ! હું મારા માતાપિતાને પૂછોને આપની પાસે દીક્ષા ગ્રહણ કરીશ. એ પ્રકારે મેઘકુમારની પેઠે ભગવાનને નિવેદન કરી પોતાને ઘેર આવ્યા, અને માતપિતાને પિતાને અભિપ્રાય કહી સંભળાવ્યા. માતાપિતા તેની દીક્ષાની વાત સાંભળી તેને કહ્યું –
હે વત્સ! તમારો હજી વિવાહ પણ થયું નથી અને હજી તમે વંશવૃદ્ધિ કરી નથી માટે તમે વિવાહ કરે. સંતાન થયા પછી તમારે ભાર તેને સેંપી દીક્ષા
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अन्तकृत दशाङ्गमुत्रे
खलु स कृष्णो वासुदेवः, 'इमीसे कहाए लड्डे समाणे' अस्याः कथायाः लव्धार्थः सन्= गजसुकुमालस्य संगमग्रहणेच्छारूपवृत्तान्तमधिगतः सन्, 'जेणेत्र' यत्रैव 'सुकुमाले कुमारे तेणेव उवागच्छङ' गजसुकुमालः कुमारस्तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता गयसुकुमा कुमारं आलिंगड़' उपागत्य गजसुकुमारं कुमारमालिङ्गति, 'आलिंगिता' आलिङ्गच, 'उच्छंगे निवेसेइ' उत्सङ्गे निवेशयति, 'निवेसित्ता एवं बयासी' निवेश्य एवमवदत् - 'तुमं ममं सहोयरे' त्वं मम सहोदरः 'कणीय से भाया ' कनीयान् = लघुभ्रता, 'तं मा णं देवाशुप्पिया' ! तत् मा खलु देवानुप्रिय ! 'इयाणिं अहओ अरिनेमिस्स अंतिए मुंढे जाव पन्नयाहि' इदानीम् अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके सुण्डो यावत्प्रव्रज । 'अण्णं वारवईए नयरीए महया महया रायाभिसेएणं' अहं खलु द्वारावत्या नगर्या महता महता राजाभिषेकेण - राज्ञो योऽभिषेकस्तेन 'अभिसिंचिस्सामि' अभिषेक्ष्यामि । महता समारोहेण द्वारावत्या नगर्या राजपदे त्वां स्थापयिष्यामीत्यर्थः । 'तए णं सन्तति होने पर अपना भार उसे सौंपकर दीक्षा ग्रहण करना | इत्यादि, दीक्षा नहीं लेने के बारे में अनेकों बातें कही ।
गजसुकुमाल के वैराग्य का समाचार पाकर कृष्ण वासुदेव गजसुकुमाल के पास आये और उन्होंने गजसुकुमाल को स्नेहपूर्वक अपने हृदय से लगाया । तत्पश्चात् उसे अपनी गोदी में बैठाकर इस प्रकार बोले
हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे छोटे भाई हो, इसलिये आशा करता हूँ तुम मेरी बातों पर अवश्य ध्यान दोगे। तुमसे यही कहना है कि अभी अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप दीक्षा मत लो। मैं आज़ अत्यन्त समारोह के साथ तुम्हारा राज्याभिषेक कर इस द्वारावती ગ્રહણ કરજો. ઈત્યાદિ દીક્ષા ન લવાના વિષયમાં અનેક વાર્તા કહી.
ગજસુકુમાલના વૈરાગ્યના સમાચાર મળતાં કૃષ્ણવાસુદેવ ગજસુકુમાલની પાસે આવ્યા. પછી તેમણે ગજસુકુમાલને સ્નેહપૂર્વક પેાતાના હૃદયથી ભેટયા. ત્યારપછી તેને પાતાના ખેાળામાં બેસાડી આ પ્રકારે કહ્યું —
હું દેવાઽપ્રય! તું મારા નાના ભાઇ છે, માટે આશા વાત ઉપર અવશ્ય ધ્યાન દઇશ. તને એટલું જ કહેવુ છે કે હાલ પાસે દીક્ષા ન લે. હું આજે જ અત્યન્ત સમારાહપૂર્વક તારા રાજ્યાભિષેક કરાવી આ
રાખું છું કે તુ મારી અત્ અરિષ્ટનેમિની
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गजमुकुमालस्य राज्याभिषेको दीक्षा च । ९१ से गयसुकुमाले कुमारे कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिठ्ठइ' ततःखलु स गजसुकुमारः कुमारः कृष्णेन वासुदेवेन एवमुक्तः सन् तुष्णीक: संतिष्ठते ॥ मू० २५ ॥.
.
तए णं से गयसुकुमाले कुमारे कण्हं वासुदेवं अम्मापियरो य दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी – एवं खलु देवाणुप्पिया! माणुस्सया कामा असुई असायसा वंतासवा जाव विप्पजहियवा भविस्संति, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहि अब्भणुन्नाए समाणे अरहओ अरिट्रनेमिस्स अंतिए जाव...पवइत्तए। तए णं तं गयसुकुमालं कुमारं कण्हे वासुदेवे अम्मापियरो. य जाहे नो सचाएंति बहुयाहिं अणुलोमाहि जाव आघवित्तए, ताहे अकामा चेव एवं वयासी-तं इच्छामो णं ते जाया! एगदिवसमपि रजसिरिं पासित्तए, निक्खमणं . जहा महब्बलस्स जाव तमाणाए तहा जाव संजमिलए, से गयसुकुमाले इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी ॥ सू० २६ ॥ ....
| टीका ॥ 'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं से गयसुकुमाले कुमारे कण्हं वासुदेवं' ततः खलु स गजसुकुमालः कुमारः कृष्णं वासुदेवम् 'अम्मापियरो य दोचंपि तचंपि एवं वयासी, अम्बापितरौ च द्वितीयमपि तृतीयमपि-द्वित्रिवारम् एवमवदत्नगरी का तुम्हें राजा बनाऊँगा। कृष्ण वासुदेव का ऐसा वचन सुन कर गजसुकुमाल कुमार मौन हो गये ।। सू० २५ ॥
. उसके बाद गजसुकुमाल कुमार ने कृष्ण वासुदेव और अपने माता-पिता से दो तीन बार इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! દ્વારાવતી નગરીને તેને રાજા બનાવીશ. કૃષ્ણવાસુદેવનાં એવાં વચન સાંભળી ગજકુસુમાલ छुमार मौन २४ गया. (सू० २५) - ત્યારપછી ગજસુકુમાલ કુમારે કૃષ્ણવાસુદેવ તથા પિતાનાં માતાપિતાને બે ત્રણ વખત આ પ્રકારે કહ્યું હે દેવાનુપ્રિય! કાપભેગના આધારભૂત આ સ્ત્રીપુરુષસંબંધી
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अन्तकृतदशाइस्त्रे 'एवं खल्लु देवाणुप्पिया!' एवं खलु देवानुप्रियाः! 'माणुस्सया कामा' मानुष्यकाः कामाः, कामशब्देनात्र कामाधारभूताः स्त्रीपुरुपशरीरा गृह्यन्ते, अत्र अर्धर्चादित्वात पुंस्त्वम् ; 'असुई' अशुचयः अशुचिस्थानभूता 'असासया' अशाश्वताः 'वंतासवा जाव विप्पजहियव्वा' वान्तावा यावद् विप्रहातव्याः, वान्तास्रवाः वमनोद्विरणस्थानभूताः, यावच्छन्देन 'पित्तासवा' पित्तास्रवाः पित्तस्थानरूपाः, 'खेला. सवा' श्लेष्मास्रवाः, 'मुक्कासवा' शुक्रास्रवाः, 'सोणियासवा' शोणितास्रवाः, 'दुरुस्सासनिस्सासा' दुरुच्छासनिःश्वासाः दुर्गन्धमयश्वासोच्छ्वासस्थानरूपाः, 'दुरूवमुत्तपुरीसपूयवहुपरिपुन्ना' दूरूपमूत्रपुरीषपूयवहुप्रतिपूर्णाः 'उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणवंतपित्तसुक्कसोणियसंभवा' उच्चारप्रस्रवणश्लेष्मजल्लसिङ्घाणवान्तपित्तशुक्रशोणितसंभवाः उच्चारादिसंभवस्थानानि, 'अद्धवा' अध्रुवाः अस्थिराः, 'अणियया' अनियताः अनिश्चिताः, 'असासया' अशाश्वता: अनित्याः, शटनपतनविध्वसनधर्माः पश्चात् पुरश्च खलु अवश्यं 'विप्पजहियव्वा' विप्रहातव्या परिहरणीया भविष्यन्ति । 'तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तत् इच्छामि खलु देवानुप्रियाः ! 'तुम्भेहि अन्भणुन्नाए समाणे अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतिए कामोपभोग का आधारभूत यह स्त्रीपुरुषसम्बन्धी शरीर, मल मूत्र, कफ, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित का भण्डार है। यह शरीर अस्थिर है, अनिश्चित है, अनित्य है तथा सड़ना गिरना और नष्ट होना-रूप धर्म से युक्त होने के कारण आगे पीछे कभी न कभी अवश्य नष्ट होने वाला है, और यह अशुचिका स्थान है, वमनका स्थान है, पित्तका स्थान है, कफ का स्थान है, शुक्र का स्थान है, शोणितका स्थान है, दुर्गन्ध-श्वास और निःश्वास का स्थान है और यह शरीर दुर्गन्ध युक्त मूत्र, विष्ठा और पीप से पूर्ण है। इस शरीर को एक दिन अवश्य छोडना होगा। इसलिये हे मातापिता! શરીર મલ, મૂત્ર, કફ, વમન, પિત્ત, શુક્ર, અને શાણિતને ભંડાર છે આ શરીર અસ્થિર છે, અનિશ્ચિત છે, અનિત્ય છે, તથા સડવું, પડવું, અને નષ્ટ થવું, એવા ધર્મથી યુકત હોવાને કારણે આગલ પાછલ કયારેને કયારેક અવશ્ય નષ્ટ થવાને છે. અને એ અશુચિનું સ્થાન છે. વમનનું સ્થાન છે, પિત્તનું સ્થાન છે, કફનું સ્થાન છે, શુક્રનું સ્થાન છે, શેણિતનું સ્થાન છે, દુર્ગન્ધ–શ્વાસ તથા નિ:શ્વાસનું સ્થાન છે. વળી આ શરીર દુર્ગધયુકત મૂત્ર વિષ્ટા તથા પરથી ભરેલું છે. આ શરીરને એક દિવસ અવશ્ય છોડવું પડશે. માટે હે માતાપિતા ! હે બધુવર ! આપ લેકેની આજ્ઞા લઈ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गजसुकुमालस्य राज्याभिषेको दीक्षा च । ९३ जाव पव्वइत्तए' युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके यावत्पत्रजितुम्-भवद्भिरभ्यनुज्ञातो भगवदरिष्टनेमिसमीपे गत्वा प्रव्रजितुमिच्छामीति भावः । 'तए णं तं गयसुकुमालं कुमारं कण्हे वासुदेवे अम्माषियरो य जाहे नो संचाएंति बहुयाहिं अणुलोमाहिं जाव' ततः खलु तं गजसुकुमाल कुमारं कृष्णो वासुदेवः अम्बापितरौ च यदा नो शक्नुवन्ति बहुकाभिरनुलोमाभिर्यावत्= बहुप्रकाराभिरनुकूलाभिः प्रतिकूलाभिश्च कथाभिरित्यर्थः, 'आधविनए' आख्यापयितुं युक्त्यादिभिहे स्थापयितुम् । 'ताहे अकामा चेव' तदा अकामा एव= इच्छारहिता एव, “एवं वयासी' एवमवदन्-'तं इच्छामो णं ते जाया' तत् इच्छामः खलु ते जात ! 'एगदिवसमपि रजसिरिं पासित्तए' एकदिवसमपि राज्यश्रियं द्रष्टुम् हे पुत्र ! अस्माकमाग्रहवशात् एकदिवसमपि राज्यलक्ष्मी स्वीकुरु । मातापित्रादिवचनमनुवर्तमानो मौनमवलम्ब्य स्थितो गजसुकुमालो राजा जातः । तदनन्तरं मातापित्रादयस्तं पृच्छन्ति-कथय हे पुत्र ! किं ते हे बन्धुवर ! आप लोगों की आज्ञा लेकर अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप प्रवज्या (दीक्षा) लेना चाहता हूँ। उसके बाद कृष्ण वासुदेव
और वसुदेव, देवकी, जब गजसुकुमाल को अनेक प्रकार से अनुकूल प्रतिकूल कथन से नहीं समझा सके, तब वे असमर्थ हो इस प्रकार बोले
हे पुत्र ! हम लोग तुझे एक दिन के लिये भी राजसिंहासन पर बैठाकर तेरी राज्यश्री देखना चाहते हैं। इसलिये तुम एकदिन के लिये भी इस राज्यलक्ष्मी को स्वीकार करो । मातापिता और बडे भाई के अनुरोध से गजसुकुमाल चुप होगये। अनन्तर उनका राज्याभिषेक हुआ और वे राजा होगये | उनके राजा होने के बाद मातापिता ने पूछा-हे पुत्र ! तुम क्या चाहते हो! અહંત અરિષ્ટનેમિની પાસે દીક્ષા લેવા ચાહું છું. ત્યારપછી કૃષ્ણવાસુદેવ અને વસુદેવ તથા દેવકી જ્યારે ગજસુકુમાલને અનેક પ્રકારનાં અનુકૂલ પ્રતિકૂલ કથનથી સમજાવી શક્યાં નહિ ત્યારે તેઓ અસમર્થ થઈ આ પ્રકારે બોલ્યાં. ' હે પુત્ર! અમે લેકે તને એક દિવસ માટે પણ રાજ્ય-સિંહાસન પર બેસાડીને તારી રાજ્યશ્રી જેવા ઈચ્છીએ છીએ. માટે તું એક દિવસ માટે પણ આ રાજ્યલક્ષ્મીને સ્વીકાર કર. માતાપિતા અને મોટાભાઈના અનુરોધથી ગજસુકમાલ ચુપ થઈ ગયા. ત્યારપછી તેને રાજ્યાભિષેક થયે અને તે રાજા થઈ ગયા. તેમના રાજા થઈ
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अन्तकृतदशाभूत्रे हृदयेप्सितम् ? सोऽवदत्-संयमं ग्रहीतुमिच्छामि, निक्खमणं' निष्क्रमण-दीक्षाग्रहणं 'जहा महब्बलस्स' यथा महावलस्य, 'जाव' यावत् 'तमाणाए' तदाज्ञया दीक्षाग्रहणसामग्रीसमानयनादिकं 'तहा' तथा तथैव 'संजमिए' संयमितः प्रत्रजितः; गृहीतदीक्षः ‘से गयसुकुमाले स गजसुकुमालोऽनगारो जातः, कीदृश इत्याह'इरियासमिए जाव गुत्तवंभयारी' ईर्यासमितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी' स गजसुकुमालोऽनगार ईर्यासमित्यादियुक्तः शब्दादिविपयानित्य वशीकृतसकलेन्द्रियो ब्रह्मचारी जात इति भावः ॥ मू० २६ ।।
॥ मूलम् ॥ तए णं से गयसुकुमाले अणगारे जं चेव दिवसं पवइए तस्सेव दिवसस्ल पुवावरण्हकालसमयंसि जेणेव अरहा अरिट्रनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिटनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे महाकालंसि सुसाणंसि एगराइयं महापडिमं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! तए णं से गयसुकुमाले अणगारे अरहया अरिट्रनेमिणा अब्भणुन्नाए समाणे अरहं अरिट्टनेमि वंदइ णमंसइ, बंदित्ता णमंसित्ता अरहओ अरिहनेमिस्स
वे बोले- संयम ग्रहण करना चाहता है। उसके बाद गजसुकुमाल की आज्ञा से संयम की सभी सामग्रियाँ लायी गई और महावल के समान प्रव्रजित होकर वे गजसुकुमाल अनगार होगये, तथा ईर्यासमिति आदि से युक्त बनकर शब्द आदि विषयों से निवृत्त हो सभी इन्द्रियों को अपने वश में करके गुप्तब्रह्मचारी होगये ॥ सू० २६ ॥ ગયા પછી માતાપિતાએ પૂછયું–હે પુત્ર ! તમારી શું ઈચ્છા છે?
તે બેલ્યા–“સંયમ ગ્રહણ કરવા ચાહું છું. ત્યારપછી ગજસુકુમાલની આજ્ઞાથી સંયમની તમામ સામગ્રીઓ લાવવામાં આવી અને મહાબલની પેઠે પ્રવ્રજિત થઈ તે ગજસુકુમાલ અણગાર થઈ ગયા તથા ધ્યસમિતિ આદિથી યુક્ત શબ્દાદિ વિષયેથી નિવૃત્ત બની સર્વે ઈન્દ્રિયેને પિતાના વશમાં રાખી ગુપ્તબ્રહ્મચારી થઈ ગયા. (સૂ૦ ૨૬)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, श्मशाने गजसुकुमालस्यैकरात्रिकी महाप्रतिमा ९५
अंतियाओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव महाकाले सुसाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थंडिलं पडिलेहेइ, पडिलेहिता उच्चारपासवणभूमि
पडिलेहेइ,पडिलेहिता ईसि पन्भारगएणं कारणं जाव दो वि पाए ___ साह? एगराइयं महापडिमं उवसंपजिन्ताणं विरहइ ॥ सू०२७॥
॥ टीका ॥ . 'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं से गयसुकुमाले अणगारे' ततः
खल्लु स गजकुसुमालोऽनगारः, 'जं चे दिवसं पव्वइए' यस्मिन्नेव दिवसे पत्रजितः, 'तस्सेत्र दिवसस्स' तस्यैव दिवसस्य 'पुवावरण्हकालसमयंसि' पूर्वापराह्नकालसमये अपराह्नकालस्य पूर्वस्मिन् प्रहरे 'जेणेव अरहा अरिहनेमी तेणेव उवागच्छइ'. यत्रैव अर्हन अरिष्टनेमिस्तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता अरहं अरिहनेमि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ' उपागत्य अर्हन्तमरिष्टनेमिं विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, करिता एवं वयासी' कृत्वा एवमवदत्'इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे' इच्छामि खल भदन्त ! युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् 'महाकालम्मि' महाकाले महाकालनामके 'सुसाणंसि श्मशाने 'एगराइयं महापडिमं' ऐकरात्रिकी महाप्रतिमाम् एकरात्रसम्बन्धिनी
महापतिमामित्यर्थः, 'उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए' उपसंपद्य खलु विहर्तुम् । हे - भदन्त ! भवताऽनुज्ञात एकरात्रसम्बन्धिनी महाप्रतिमां स्वीकर्तुमिच्छामीति
उसके बाद वे गजसुकुमाल अनगार जिस दिन प्रत्रजित हुए उसीदिन के चौथे प्रहर में भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप गये और तीन वार चन्दन नमस्कार करके इस प्रकार बोले-हे भदन्त ! मेरी इच्छा है कि महाकाल श्मशान में एक रात की भिक्षु महाप्रतिमा को स्वीकार कर विचरण करूँ अर्थात् सम्पूर्ण रात्रि ध्यानस्थ हो खडा रहूँ।
- ત્યારપછી તે ગજસુકુમાલ અનગાર જે દિવસે પ્રત્રજિત થયા તેજ દિવસે ચેથા પ્રહરમાં ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિની પાસે ગયા અને ત્રણવાર વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે કહ્યું:- હે ભદન્ત ! મારી ઈચ્છા છે કે મહાકાલ શ્મશાનમાં એક રાત ભિક્ષુ મહાપ્રતિમાને સ્વીકાર કરી વિચરણ કરૂં, અર્થાત્ સંપૂર્ણ રાત્રિભર ધ્યાનસ્થ થઈ असा २
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे भावः । तदनु भगवानाह-'अहानुहं देवाणुप्पिया !' यथामुखं देवानुपिय ! 'तए णं से गयसुकुमाले अणगारे' ततः खलु स गजमुकुमारोऽनगारः, 'अरहया अरिट्टनेमिणा अन्भणुण्णाए समाणे' अहंताऽरिष्टनेमिना अभ्यनुज्ञातः सन् 'अरहं अरिट्टनेमि वंदइ णमंसई' अर्हन्तमरिष्टनेमि वन्दते नमस्यति अर्हन्तमरिष्टनेमि स्तौति पञ्चाङ्गेन नमस्करोति च, 'वंदित्ता णमंसित्ता अरहओ अरिहनेमिस्स' वन्दित्वा नमस्यित्वा अर्हतोऽरिष्टनेमेः 'अंतियाओ' अन्तिकात् समीपादित्यर्थः, 'सहस्संबवणाओ उजाणाओ' सहस्राम्रबनात् उद्यानात् 'पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्क्रामति-निस्सरति, 'पडिनिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'जेणेव' यत्रैव 'महाकालं सुसाणं' महाकालं श्मशानं 'तेणेव उवागए' तत्रैव उपागतः 'उवागच्छित्ता थंडिलं पडिलेहेइ' उपागत्य स्थण्डिलं मासुकभूमि पतिलेखयति-निरीक्षते, 'पडिलेहिता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ' प्रतिलेख्य उच्चारप्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति, 'ईसिं पव्भारगएणं कारणं' ईपतपारभारगतेन कायेन-किंचिन्नम्रीभूतेन कायेन 'जाव दोवि पाए संहह' यावद् द्वावपि पादौ संहृत्य-संकोचं नीत्ता, 'एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरई' ऐकरात्रिकी महापतिमाम् उपसंपद्य खलु विहरति ।। सू० २७ ।।
__ भगवानने कहा हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो उस प्रकार करो । उसके बाद वह गजसुकुमाल अनगार अहत् अरिष्टनेमि से आज्ञा प्राप्त कर उन्हें वन्दन नमस्कार कर सहस्राम्रवन उद्यान से निकल कर महाकाल श्मशान में गये। वहाँ पर उन्होंने कायोत्सर्ग करने के लिये प्रासुकभूमि तथा उच्चार पासवण-यडीनीत, लघुनीत के परिष्ठापन-परिठने योग्य भूमिकी प्रतिलेखना की। बाद में काया को कुछ नमाकार चार अंगुल के अन्तर से दोनों पाँवों को सिकोड़ कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए ऐकरात्रिकी महापडिमा को स्वीकार कर ध्यान में निमग्न हुए ॥ सू० २७ ।।।
ભગવાને કહ્યું - હે દેવાનુપ્રિય! જે પ્રકારે તને સુખ થાય તેમ કર. પછી તે ગજસુકુમાલ અનગાર અહંતુ અરિષ્ટનેમિ પાસેથી આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરી તેમને વંદન નમસ્કાર કરી સહસામ્રવન ઉદ્યાનથી નીકળીને મહાકાલ શમશાનમાં ગયા. ત્યાં તેમણે કાયોત્સર્ગ કરવા માટે પ્રાસુકભૂમિ તથા ઉચ્ચાર પાસવણબડીનીત, લઘુનીતના પરિણામને
ગ્ય ભૂમિની પ્રતિલેખન કરી, પછી કાયાને જરા નમાવીને ચાર આંગુલના અંતરે બેઉ પગને સંકેચી એક પુદ્ગલ પર દૃષ્ટિ રાખીને એક રાત્રિી મહાપડિમાને સ્વીકાર ४श ध्यानमा निमा थया (सू० २७)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सोमिलस्य दुर्विचारः
..... ॥ मूलम् ॥ इमं च णं सोमिले माहणे सामिधेयस्स अटाए बारवईओ नयरीओ बहिया पुवणिग्गए समिहाओ य दम्भे य कुसे य पत्तामोडयं च गिण्हइ, गिमिहत्ता तओ पडिनिवत्तइ, पडिनिवत्तित्ता महाकालस्स सुसाणस्स अदूरसामंते णं वीइवयमाणे २ संझाकालसमयसि पविरलमणुसंसि गयसुकुमालं अणगारं पासइ, पासित्ता तं वरं सरइ, सरित्ता आसुरुत्ते एवं वयासी-एस गं भो! से गयसुकुमाले कुमारे अप्पत्थिय जाव परिवज्जिए, जे णं मम धूयं सोमसिरीए भारियाए
अत्तयं सोमं दारियं अदिट्रदोसपइयं कालवत्तिणीं विप्पजहेत्ता ___ मुंडे जाव पवइए ॥ सू० २८॥ . .
॥ टीका ॥ 'इमं च णं' इत्यादि । 'इमं च णं' इतश्च खलु 'सोमिलो माहणो' सोमिलों ब्राह्मणः 'सामिधेयस्स' सामिधस्य 'अट्ठाए' अर्थाय हवनार्थ विविधशुष्ककाष्ठग्रहणाय 'वारवईओ नयरीओ बहिया' द्वारावत्या नगर्या वहिः 'पुचणिग्गए' पूर्वनिर्गतः-पूर्व निर्गतः गजसुकुमारस्य श्मशानगमनात्पूर्वमेव द्वारावत्या नगर्या वहिनिर्गतः, 'समिहाओ य समिधश्च 'दन्भे य दीश्च ‘कुसे य'; कुशांश्च 'पत्तामोडयं च' पत्रामोटं.च-समिधः यज्ञकाष्ठानि, दर्भान्कुशसजातीयतृणान् , पत्रामोटम्-पत्राणामामोटः पत्रामोटस्तं पत्रामोटम्-पत्रसमूहं 'गिण्हइ' गृह्णाति, "गिण्हित्ता' गृहीत्वा 'तओ पडिनिवत्तइ' ततः प्रतिनिवर्तते, 'पडिनि
- उस समय वह सोमिल ब्राह्मण गजसुकुमाल अनगार के श्मशान जाने से पूर्व ही हवन के निमित्त समिधा आदि लाने के लिये द्वारका नगरी से बाहर निकला था, सो वह सोमिल ब्राह्मण समिधा, कुश, डाभ और पत्तों को लेकर अपने घर आरहा था।
તે સમયે તે મિલ બ્રાહાણ ગજસુકુમાંલ અનગારના સ્મશાન જવા પહેલાં જ હવનને નિમિત્તે સમિધ આદિ લેવા માટે દ્વારકાનગરીથી બહાર નીકળ્યું હતું. તે સમિલ બ્રાહ્મણ સમિધ, કુશ, ડાભ તથા પાંદડાં લઈને પાછો પિતાને ઘેર આવતું હતું.
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अन्तकृतदशाहमुत्रे वत्तित्ता' प्रतिनित्य 'महाकालस्स सुसाणस्स अदूरसामंतेणं' महाकालस्य श्मशानस्य अदूरसामन्ते नातिदुरे नातिनिकटे खलु, 'वीइवयमाणे २१ व्यतिव्रजन् २=गच्छन् २, 'संझाकालसमयंसि' संध्याकालसमये, 'पविरलमणुसंसि प्रविरलमानुषे-अविरला मानुषा यस्मिन् तस्मिन्-कचित्कचिदृष्टिगोचरीभवज्जनेप्रायोमनुष्यागमनरहित इत्यर्थः; 'गयसुकुमालं अणगारं पासइ' गजमुकुमालमनगारं पश्यति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'तं वे' तद्वैरम्-स्वपुत्रीपरित्यागरूपं वैरं 'सरई' स्मरति, 'सरित्ता' स्मृत्वा 'आसुरुत्ते' आशुरुतः वैरस्मरणजनितकोपवशाद्विमूढः, 'एवं वयासी' एवमवदत्-‘एस णं भो ! से गयसुकुमाले कुमारे' एप खलु भोः ! स गजसुकुमालः कुमारः 'अप्पत्थिय जाव परिवज्जिए' अपार्थित यावत् परिवर्जितः, अत्र 'यावत्'-पदेन 'अप्पत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीनपुन्नचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए' अप्रार्थितप्रार्थकः दुरन्तपान्तलक्षणः हीनपुण्यचातुर्दशः हीश्रीपरिवर्जित-इति संग्राह्यम्, तत्र-अप्रार्थितप्रार्थकः-अप्रार्थितस्य= अयाचितस्य मृत्योः प्रार्थको-मरणवाञ्छक इति भावः, दुरन्तप्रान्तलक्षण:दुरन्तं दुष्टावसानम् अत एव प्रान्तम् अमनोज्ञं लक्षणं यस्य सः-भाग्यहीन इत्यर्थः, हीनपुण्यचातुर्दशः-चतुर्दश्यां जातः चातुर्दशः, हीनं पुण्यं यस्यासों हीनपुण्यः, हीनपुण्यश्रासौ चातुर्दशश्च हीनपुण्यचातुर्दशः-पापात्मा इत्यर्थः,
तब महाकाल श्मशान के समीप से जाता हुआ उस सोमिल ब्राह्मण ने मनुष्यों के गममागमन से रहित संध्याकाल में श्मशान भूमि में कायोत्सर्ग करते हुए गजसुकुमाल अनगार को देखा, देखते ही उसके हृदय में वैरभाव जागृत हुवा और क्रोधित होकर वह इस प्रकार बोला. ओह ! यह वही निर्लज्ज अप्राथितप्रार्थक-मरण को चाहने वाला गजसुकुमाल कुमार है। यह दुर्लक्षणयुक्त और पुण्यहीन है,
તે વખતે મહાકાલ મશાનની પાસે થઈને જતા તે સોમિલ બ્રાહ્મણે મનુષ્યની આવજાથી રહિત સંધ્યાકાલના સમયે શમશાનમાં કાર્યોત્સર્ગ કરતા ગજસુકમાલ અનગારને જોયા. જોતાં વેંત તેના હૃદયમાં વેરભાવની જાગૃતિ થઈ અને ક્રોધિત થઈ तमा मारे मोत्या.
ઓહ! આ તે જ નિજ અપ્રાર્થિતપ્રાર્થક - મરણને ચાહવાવાળે ગજસુકુમાલ કુમાર છે..
આ દુર્લક્ષવાળે અને પુણ્યહીન છે, જે મારી પુત્રી, સામગ્રીની અંગજાત
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सोमिलेन गजसुकुमालशिरस्यङ्गारप्रक्षेपणम्
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ही श्री परिवर्जितः = लज्जालक्ष्मीरहित इत्यर्थः ; 'जे णं मम धूयं सोमसिरीए भारियाए अत्तयं सोमं दारियं यः खलु मम दुहितरं सोमश्रियो भार्याया आत्मजां सोमां दारिकाम्, 'अदिदोसपइयं' अदृष्टदोषप्रकृतिम् न दृष्टो दोषो यया सा अदृष्टदोषा, तादृशी प्रकृतिर्यस्याः सा ताम् - अदुष्टस्वभावामित्यर्थः 'कालवत्तिर्णि' कालवर्तिनीम् = यौवनकालवर्तिनीं - प्राप्तयौवनावस्थां 'विप्पजत्ता' विहाय 'मुंडे जाव पचइए' मुण्डो यावत् मत्रजितः = दीक्षितो जातः ||२८| ॥ मूलम् ॥
तं सेयं खलु मम गयसुकुमालस्स वेरनिज्जायणं करेत्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता दिसापडिलेहणं करेs, करित्ता सरसं मट्टियं गिues, गिoिहत्ता जेणेव गयसुकुमाले अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गयसुकुमालस्स अणगारस्स मत्थए महियाए पालि बंधइ, बंधित्ता जलतीओ चिययाओ फुल्लियकिंसुयसमाणे खयरंगारे कहल्लेणं गिoes, गिव्हित्ता गयसुकुमालस्स अणगारस्स मत्थए पक्खिवइ, पक्खिवित्ता भीए तओ खिप्पामेव अवकमइ, अवक्कमित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ सू० २९ ॥
॥ टीका ॥
'तं सेयं' इत्यादि । 'तं सेयं खलु मम गयसुकुमालस्स वेरनिज्जायणं करित्तए' तच्छ्रेयः खलु मम गजसुकुमालस्य वैरनिर्यातनं कर्तुम्, गजसुकुमारसंबन्धिप्रतिवैरस्यायमवसर इति भावः । ' एवं संपेहेइ' एवं संप्रेक्षते= एवं विचारयति 'संहिता' संप्रेक्ष्य विचार्य 'दिसापडिलेहणं' दिशामतिलेखनं जो मेरी बेटी सोमश्री की अंगजा, प्राणसे प्यारी दोषरहित सोमा - को छोड़कर संयमी होगया है । ॥ सू० २८ ॥
इसलिये मुझे उचित है कि मैं इस वैर का बदला लूँ । वह सोमिल ब्राह्मण इस प्रकार विचार कर चारों ओर देखने लगा कि દીક્રી, પ્રાણુથી પણ જે પ્યારી છે તેને દોષ વિના ત્યાગ કરી સ ંયમી થઈ गये। छे. (सू० २८ )
આથી મારા માટે એ ઉચિત છે કે હું આ વેરના ખલે લઉં. તે સેમિલ બ્રાહ્મણે આ પ્રકારે વિચાર કરીને ચારે ખાજુ જોયું કે કેાઇ આવતુ' જાતુ નથી ને ?
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अन्तकृत दशाङ्गभूत्रे 'करेइ' करोति=अस्मिन्नवरे कोऽपि आगच्छति प्रत्यागच्छति न वेति सकलदिशाऽवलोकनं करोति, 'करिता ' कृत्वा = जनानां गमनागमनमदृष्ट्वा 'सरसं मट्टियं' सरसां मृत्तिकाम्=आर्द्रा सरोमृत्तिकां 'गिण्हई' गृहाति, 'गिण्डित्ता' गृहीत्वा 'जेणेव गयसुकुमाले अणगारे' यत्रैव गजसुकुमालोऽनगार ईपदवनतशरीरः समाहितसर्वेन्द्रियः स्थिरीकृतसर्वाङ्गश्चरणद्वयं चतुरङ्गुलावकाशेन संकुचितं विधाय जानुपर्यन्तप्रलम्बितभुजद्वयः शुष्कैकपुद्गलोपरिसंनिविष्टा निमेपदृष्टिरूर्ध्वकायेन ध्यानावस्थितो वर्तते, 'तेणेव उवागच्छ तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता गयसुकुमालस्स अणगारस्स मत्थए' उपागत्य गजसुकुमालस्य अनगारस्य मस्तके 'मट्टियाए पालि बंध' मृत्तिकया पालि बध्नाति = मृत्तिकया शिरसि परिवेषं करोति, 'वंधत्ता' बद्ध्वा 'जलतीओ चिययाओ' ज्वलन्त्याश्चितिकाया:= प्रज्वलितायाश्चितायाः सकाशात् 'किंसुयसमाणे खयरंगारे' किंशुकसमानान् खदिराङ्गारान्-विकशितपलाशपुष्पसदृशान् जाज्वल्यमानान् खदिरकाष्टाङ्गारान् 'कहल्लेणं' कर्परेण 'कहल' इति कर्परार्थो देशी शब्द:, 'गिण्हइ' गृह्णाति' कोई आता जाता तो नहीं है । चारों ओर देखकर उसने तालाब से गीली मिट्टी निकाली । अनन्तर जहाँ पर गजसुकुमाल अनगार अपनी काया को नमा कर सभी इन्द्रियों को वश में, अङ्ग - उपाङ्गों को स्थिर रखते हुए अपने दोनों चरणों को चार अंगुल रख अपने के अन्तर से सिकोड कर अपने हाथों को घुटनों तक लटका कर एक सूखे हुए पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि रखते हुए ऊर्ध्वकाय से ध्यानावस्थित थे, वहाँ आया । वहाँ आकर गजसुकुमाल अनगार के शिर पर मिट्टी की पाल बाँधी । अनन्तर सोमिल ने जलती हुई चिता से फूले हुए टेसू के समान लाल२ खैर लकडी के अङ्गारों को फूटे हुए मिट्टी के बर्तन के टुकडे (ठीकरे) में भरकर लाया ચારે ખાજુ જોઇને તેણે તળાવમાંથી ભીની માટી કાઢી. પછી જ્યાં ગજસુકુમાલ પોતાની કાયાને નમાવી, બધી ઇન્દ્રિએ વશ રાખી, પેાતાનાં અંગ-ઉપાંગાને સ્થિર રાખી, પેાતાના બેઉ પગને ચાર આંશુલને અતરે સંકેચીને, પેતાના હાથેાને ઘુંટણા સુધી લટકાવી, એક સૂકાયેલા પુદ્ગલપર અનિમેષદૃષ્ટિ રાખી, ઉર્ધ્વ કાયથી ધ્યાનાવસ્થિત હતા, ત્યાં આવ્યો. ત્યાં આવીને ગજસુકુમાલ અનગારના શિરે માટીની પાલ બાંધી. પછી સામિલે મળતી ચિતામાંથી ટેસૂના ફૂલ જેવા લાલચેાળ ખેરના લાકડાંના અંગારા લઈને ફૂટેલા માટીના વાસણના કટકા (ઠીકરાં)માં ભરીને ગજસુકુમાલ અનગારના માથા ઉપર નાખી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सोमिलेन गजसुकुमालशिरस्यगारप्रक्षेपणम् १०१ 'गिण्हित्ता' गृहीत्वा ‘गयसुकुमालस्स अणगारस्स मत्थए पक्खिवई' गजमुकुमालस्य अनगारस्य मस्तके प्रक्षिपति, 'पक्खिवित्ता प्रक्षिप्य 'भीए' भीतः 'तओ' ततः श्मशानात् 'खिप्पामेव' क्षिप्रमेव-झटित्येव, 'अवकमइ' अपक्रामति-पलायते, - 'अवकमित्ता' अपक्रम्य-अपलाय्य, 'जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं . - पडिगए' यस्या दिशः प्रादुर्भूतः तस्यामेव दिशि प्रतिगतः ॥ सू० २९ ॥ . ....: ॥ मूलम् ॥
.. तए णं तस्स गजसकुमालस्स अणगारस्स सरोरयसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव दुरहियासा। तए णं से गयसुकुमाले अणगारे सोमिलस्स माहणस्स मणसावि अप्पदुस्समाणे तं उज्जलं. जाव अहियासेइ । तए णं तस्स गयसुकुमालस्त अणगारस्स तं उज्जलं जाव अहियासेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पस्सत्थज्झवसाणेणं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकरं अपुवकरणं अणुप्पविटुस्स अणते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे । तओ सिद्धे जावप्पहीणे । तत्थ णं अहासंनिहिएहिं देवेहि सम्मं आराहियंति कटु दिव्वे सुरभिगंधोदए बुट्टे, दसद्धवन्ने कुसुमे निवाइए, चेल्लुक्खेवे कए, दिव्वे य गीयगंधव्वनिनाए कए यावि होत्था ॥ सू० ३०॥
॥टीका ॥ - 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तस्स गयसुकुमालस्स अणगारस्स'
और उन धधगते हुए अंगारों को गजसुकुमाल अनगार के शिर पर रख दिया। उसके बाद-'कोई मुझे देख न ले' इस भय से चारों ओर इधर उधर देखता हुआ वह जल्दी२ वहां से भाग गया और जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया सू० २९॥
सोमिल द्वारा शिरपर अंगारों के रखने से गजसुकुमाल દીધા. અંગારા નાખ્યા પછી કે મને દેખી ન જાય, એવા ભયથી ચારે બાજુ આમ તેમ જે તે જલદી ૨ ત્યાંથી ભાગી ગયે. ને જે બાજુથી આવ્યું હતું તે દિશામાં यात्यो गयो. (सू० २८)
સેમિલ દ્વારા માથા ઉપર અંગારા મુકાયા પછી ગજસુકુમાલ અનગારના શરીરમાં
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे ततः खलु तस्य गजसुकुमालस्यानगारस्य 'सरीरे' शरीरे 'वेयणा' वेदनाविद्यते-अनुभूयतेऽनयेति वेदना-उदयावलिकाप्रविष्टस्य स्वकृतकर्मणोऽशातरूपानुभवः प्रादुर्भूता-प्रकटिता, कीदृशीत्याह-'उजला जाव दुरहियासा' उज्ज्वला यावत् दुरधिसहा, उज्ज्वला दुःखरूपतया जाज्वल्यमाना सुखलेशेनापि वनिता, यावच्छब्देन विपुला=महती प्रगाढा-कल्पनातीतेति ग्राह्यम् , तथा दुरधिसहानितरामसह्या । 'तए णं से गयसुकुमाले अणगारे ततः खलु स गजमुकुमालोऽनगारः 'सोमिलस्स माहणस्स मणसावि' सोमिलस्य ब्राह्मणस्य मनसाऽपि 'अप्पदुस्समाणे' अप्रदुष्यन्त दुपरि लेशतोऽपि द्वेपमकुर्वन् 'तं उज्जल जाव अहियासेइ' ताम् उज्ज्वलां यावद् दुःसहवेदनाम् अधिसहते परिपहते । 'तए णं तस्स गयसुकुमालस्स अणगारस्स' ततः खलु तस्य गजसुकुमालस्य अनगारस्य 'तं उज्जलं जाव अहियासेमाणस्स' तामुज्ज्वलां यावत् दुःसहवेदनामधिसहमानस्य 'सुहेणं परिणामेणं' शुभेन परिणामेन-शुभात्मकपरिणतिलक्षणेन, 'पसत्थज्झवसाणेणं' प्रशस्ताऽध्यवसानेन-उत्कृष्टतया मूक्ष्मात्मचिन्तनेन 'तयावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं' तदावरणीयानां कर्मणां क्षयेण-तदावरणीयानां= तत्तदात्मगुणावरणकानां कर्मणां क्षयेण 'कम्मरयविकिरणकरं' कर्मरजोविकिरणअनगार के शरीर में महावेदना उत्पन्न हुई; जों वेदना अत्यन्त दुःखमयी थी, जाज्वल्यमान थी, कल्पनातीत थी और असह्य थी। फिरभी वे गजसुकुमाल अनगार उससोमिल ब्राह्मण के प्रति लेशमात्र भी द्वेष नहीं करते हुए उस असह्य वेदना को सहन करने लगे। और उस दुःखरूप जाज्वल्यमान वेदना को सहन करते हुए उन गजसुझमाल अनगार ने शुभ परिणाम और प्रशस्त अध्यवसाय से तथा उन-उन आत्मा के गुणों के आच्छादक कमा के नाश से ज्ञानावरणादि कर्मों के निवारक आत्मा के अपूर्व करण મહાવેદના ઉત્પન્ન થઈ. તે વેદના અત્યન્ત દુ:ખમયી હતી, જાજવલ્યમાન હતી, કલ્પનાતીત હતી અને બહુજ અસહ્ય હતી. છતાં પણ ગજસુકુમાલ અનગાર તે સામિલ બ્રાહ્મણ પર લેશમાત્ર પણ દ્વેષ ન કરતાં તે અસહ્ય વેદના સહન કરવા લાગ્યા. અને તે દુઃખરૂપ જાજવલ્યમાન વેદનાને સહન કરતા ગજસુકુમાલ નગારે, શુભ પરિણામ તથા પ્રશસ્ત અથવસાયથી, તથા તે તે આત્માના ગુણોનાં આચ્છાદક કર્મોના નાશથી જ્ઞાનાવરણાદિ કર્મોના નિવારક આત્માના અપૂર્વ કરણમાં પ્રવેશ કર્યો. જેથી તેઓને
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मुनुकुमुदचन्द्रिका टीका, गजमुकुमालस्य सिद्धिपदमाप्तिः __ १०३ करम्-कम-ज्ञानावरणादिः तदेव रजः मलिनकारकत्वात् , तस्य यद् विकिरण प्रक्षेपणं पृथक्करणं ध्वंसनमिति यावत् , तस्य करं-तत्कारकम् 'अपुव्वकरणं' अपूर्वकरणम् आत्मनोऽभूतपूर्व शुभपरिणामम् - 'अणुप्पविट्ठस्स' अनुपविष्टस्य= प्राप्तस्येत्यर्थः, 'अणते. अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे' अनन्तमनुत्तरं यावत् केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्-अनन्तम् अन्तरहितम् , अनुत्तरम् प्रधानम् , यावत्-यावच्छब्देन 'निवाघाए' निर्व्याघातम्=व्याघातरहितम्-कुड्यादिभिरपतिहतम् , 'निरावरणे' निरावरणम् = आवरणवर्जितम्सर्वतः प्रद्योतमानमित्यर्थः, 'कसिणे' कृत्स्नम् संपूर्णम्, 'पडिपुणे' प्रतिपूर्ण सर्वतोव्याप्तम् केवलवरज्ञानदर्शनं केवल' इति नाम्ना प्रसिद्धम् एकमात्र सजातीयद्वितीयरहितं वरं मतिश्रुतज्ञानाद्यपेक्षया श्रेष्ठं ज्ञानं चक्षुदर्शनाद्यपेक्षया च श्रेष्ठं दर्शनम् , अनयोः सकलद्रव्यपर्यायविषयकत्वात् ; केवलज्ञानं केवलदर्शनं चेति द्वयं समुत्पन्नम् । 'तओ' ततः केवलज्ञानकेवलदर्शनोत्पादानन्तरमसौ गजसुकुमालोऽनगारः 'सिद्धे जाव पहीणे' सिद्धो यावत् प्रहीणः-सिद्धः कृतकृत्यत्वात् , यावत्महीणः, यावच्छब्देन 'बुद्ध' बुद्धः-लोकालोकसकलपदार्थावगमात् , 'मुत्ते मुक्तः-सकलकर्मव्यपगमात् , 'परिनिव्वाए' परिनिर्वातः सकलकर्मकृतविकारनिराकरणेन शीतीभूतत्वात् 'सव्वदुक्खप्पहीणे' सर्वदुःखाहीणः-शारीरमानसदुःखमें प्रवेश किया। जिससे उनको अनन्त-अन्तरहित, अनुत्तर-प्रधान, नियाघात-रुकावटरहित, निरावरण-आवरणरहित, कृत्स्न-सम्पूर्ण प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुए। और केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होने के बाद वे गजसुकुमाल अनगार कृतकृत्य बनकर 'सिद्ध ' पद को प्राप्त हुए, जिससे वे लोकालोक सभी पदार्थों के ज्ञान से 'बुद्ध' होगये। सभी कर्मों के नाश होने के कारण 'मुक्त' होगये। सभी प्रकार के कर्मों से उत्पन्न विकारों को दूर करने कारण 'परिनिर्वात' शीतलीभूत होगये । एवं शारीरिक दुःख मनन्त-मतडित, मनुत्तर-प्रधान, नियाघात-३॥वट 4॥२, नि२।१२९-१२ રહિત, કૃત્યન-સંપૂર્ણ પ્રતિપૂર્ણ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પન્ન થયાં. તથા કેવળજ્ઞાન કેવળદર્શન ઉત્પન્ન થયા પછી તે ગજસુકુમાલ અનગાર કૃતકૃત્ય થઈને “સિદ્ધ” પદને પ્રાપ્ત થયા. તેથી તેઓ લોકાલોક સવે પદાર્થોના જ્ઞાનથી “બુદ્ધ થઈ ગયા. બધાં કર્મોના નાશ થઈ જવાને કારણે મુક્ત થઈ ગયાં. સર્વ પ્રકારનાં કર્મોથી ઉત્પન્ન થત વિકારને દૂર કરવાના કારણથી “પરિનિર્વાત શીતલીભૂત થઈ ગયા. તેમજ શારીરિક
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे रहितत्वात् । 'तत्थ णं' तत्र खलु 'अहासंनिहिएहिं देवेहि' यथा संनिहितैदेवैः तत्समयसमीपवर्ति देवैः 'सम्मं आराहियं' सम्यक् आराधितम् अनेन गजसुकुमालेन मुनिना चारित्रं सम्यक् आराधितम् 'ति कट्ट' इति कृत्वा एवं मनसि निधाय 'दिव्वे सुरहिगंधोदए' दिव्यं सुरभिगन्धोदकम्-दिव्यम् चैक्रियशक्त्या संपादितं सुरभिगन्धोदकम् सुगन्धितमचित्तं जलम्, 'बुट्टे' वृष्टम् , 'दसद्धबन्ने कुसुमे' दशार्धवर्णानि पञ्चवर्णानि कुमुमानि=पुष्पाणि 'निवाइए' निपातितानिवर्पितानि, चेलुक्खेवे कए' चैलोत्क्षेपः कृतः वस्त्रदृष्टिः कृता; 'दिव्वे य' दिव्यश्च देवसंबन्धी च, 'गीयगंधव्यनिनाए' गीतगान्धर्वनिनादःगीत-स्वरतालयुकं गानं, गान्धर्व-मृदङ्गादिवादनम् , अनयोनिनादा ध्वनिः 'कए यावि होत्था' कृतश्चाप्यभूत् ।। मू० ३० ।।
॥ मूलम् ॥ तए णं से कण्हे वासुदेवे कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंते पहाए जाव विभूलिए हथिक्खंधवरगए सकोरंटमल्लतथा मानसिक दुःखसे रहित होने के कारण 'सर्वदुःखप्रहीण' होगये अर्थात् वह गजसुकुमाल अनगार परमपद को प्राप्त होगये। उन गजसुकुमाल अनगार के परमपद प्राप्त होने पर उस समय वहा के समीपवर्ती देवोंने 'इन गजसुकुमाल अनगारने चारित्र का सम्यक् आराधन किया है। ऐसा विचार कर अपनी वैक्रियशक्ति के द्वारा दिव्य सुगन्धित अचित्तजल की और पांच वर्षों के अचित्त
फूलों की वृष्टि करके तथा दिव्य वस्त्रों की वर्षा करके उन देवता__ ओंने दिव्य सुमधुर गान (गायन) से तथा मृदङ्गादि वाद्यों को
ध्वनि से आकाश को व्याप्त कर (गुंजा) दिया ॥ सू० ३० ॥ દુઃખ અને માનસિક દુઃખથી રહિત હોવાના કારણે “સર્વદુઃખપ્રહણ” થઈ ગયા, અર્થાત્ તે ગજસુકુમાલ અનગાર પરમપદને પ્રાપ્ત થયા. તે ગજસુકુમાલ અનગાર પરમદને પ્રાપ્ત થયા પછી તે સમયે ત્યાં સમીપવતી દેવેએ, “એ ગજસુકુમાલ અનગારે ચારિત્રનું સમ્યફ આરાધન કર્યું છે એમ વિચાર કરી, પિતાની વૈક્રિય શક્તિદ્વારા દિવ્ય સુગન્ધિત અચિત્ત જળની અને પાંચ વર્ણોનાં અચિત્ત ફેલોની વૃષ્ટિ કરી. તથા દિવ્ય વસ્ત્રોની વૃષ્ટિ કરીને તે દેવતાઓએ દિવ્ય સુમધુર ગીત (ગાયન)થી અને મૃદંગાદિ વાદ્યોની ધ્વનિથી આકાશને વ્યાપ્ત કરી (ગુંજાવી) દીધું. (સૂ) ૩૦).
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णस्य अर्हदरिष्टनेमिवन्दनार्थ गमनम् .. १०५ दामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उडुव्वमाणीहिं महया भडचडगरपहकरवंदपरिक्खित्ते बारवइं णयरिं मज्झं मझेणं जेणेव अरहा अरिटुनेमी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए णयरीए मझं मज्झेणं णिग्गच्छमाणे एक्कं पुरिसं पासइ जुण्णं जराजजरियदेहं जाव किलंतं महइमहालयाओ इट्टगरासीओ एगमेगं इट्टगं गहाय बहियारत्थापहाओ अंतोगिहं अणुप्पवेसमाणं पासइ। तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स पुरिसस्स अणुकंपणट्राए हथिक्खंधवरगए चेव एग इट्टगं गेहइ, गेण्हित्ता बहियारत्थापहाओ अंतोगिहं अणुप्पवेसइ। तए णं कण्हेणं वासुदेवेणं एगाए इट्टगाए गहियाए समाणीए अणेगेहिं पुरिससएहि से
महालए इट्टगस्स रासी बहिया रत्थापहाओ अंतोघरंसि - अणुप्पवेसिए ॥सू० ३१॥
॥ीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः 'कल्लं' कल्येन्दीक्षाद्वितीयदिवसे 'पाउप्पभायाए जाव जलंते' पादुःप्रभातायां यावत् ज्वलति, रात्रौ व्यतीतायां सूर्ये समुदिते सति-इत्यर्थः 'हाए जाब विभूसिए हथिक्खंधवगए' स्नातो यावद् विभूषितः हस्तिस्कन्धवरगतः करिस्कन्धारूढः 'सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं उडुबमाणीहिं' सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन श्वेतवर
चामरैरुद्धवद्भिः ‘महयाभडचडगरपहकरवंदपरिक्खित्ते' महाभटचटकरप्रकरबन्द. ..इधर गजसुकुमाल की दीक्षा के दूसरे दिन सूर्योदय होजाने पर स्नान करके यावत् सभी अलंकारों से अलंकृत हो हाथी के ऊपर बैठकर, कुरण्ट के फूलों की माला से युक्त छत्र को शिर पर धराते हुए तथा दायें बायें-दोनों तर्फ श्वेत चामर बोजाते हुए अनेक
તે બાજુ ગજસુકુમાલની દીક્ષાને બીજે દિવસે સૂર્યોદય થયા પછી સ્નાન કરીને તમામ અલંકારથી વિભૂષિત થઈને હાથીના ઉપર બેસીને, કોરન્ટના ફૂલની માલાથી, યુક્ત છત્રને શિર ઉપર ધરાવતા, તથા ડાબી જમણી બેઉ બાજુએ શ્વેત ચામર ઢળાવતા,
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे पंरिक्षिप्तः-महाभटानां ये चटकरप्रकाराः विस्तृतसमूहास्तेषां यद् वृन्दं तेन परिक्षिप्त संवेष्टितः 'वारवई णयरिं मज्झं मज्झेणं' द्वारावत्या नगर्या मध्यमध्येन 'जेणेव अरहा अरिहनेमी तेणेव पहारेत्थ गमणाए' यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिः तत्रैव प्राधारयद् गमनाय अरिष्टनेमिसविधे गमनाय निश्चयमकरोत् । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे वारवईए णयरीए मज्झं मझेणं णिग्गच्छमाणे एकं पुरिसं पासई' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः द्वारावत्यां नगर्यां मध्यमध्येन निर्गच्छन् एकं पुरुषम् पश्यति, कीदृशमित्याह-'जुण्णं जराजज्जरियदेई' जीर्ण जराजजरितदेहम्-जरसा जर्जरितं जर्जरीकृतं देहं यस्य तम् , 'जाव किलंतं'. यावत् क्लाम्यन्तम्-ग्लायन्तं 'महइमहालयाओ' महामहालयात अतिमहतः 'इटगरासीओ' इष्टकाराशेः 'एगमेगं इट्टगं गहाय' एकामेकाम् इष्टकां गृहीत्वा 'वहियारत्थापहाओ' वहीरथ्यापथात् बाह्यरथ्यापदेशात् 'अंतोगिह' अन्तर्गृहम् गृहमध्ये 'अणुप्पवेसमाणं' अनुप्रवेशयन्तं 'पासइ' पश्यति । 'तए णं' ततः खलु से कण्हे वासुदेवे तस्स पुरिसस्स' स कृप्णो वासुदेवः तस्य पुरुषस्य 'अणुकंपणसुभटों के समूह से युक्त वे कृष्ण वासुदेव द्वारावती नगरी के राजमार्ग से होते हुए भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप जाने के लिए रवाना हुए । तव द्वारका नगरी के बीचोबीच से जाते हुए उन कृष्ण वासुदेव ने एक पुरुष को देखा, वह पुरुष पूर्ण वृद्ध था, वृद्धावस्था के कारण उसकी देह जर्जरित होने से वह बहुत दुःखी था। ऐसी स्थिति को प्राप्त वह वृद्ध पुरुष ईंटों की विशाल राशिमें से एक २ ईंट को उठाकर बाहर के राजमार्ग से अपने घर में रखता था। उस समय उस दुःखी वृद्ध को इस प्रकार कार्य करते हुए देखकर कृष्ण वासुदेवने उसकी अनुकम्पा के लिये हाथी के ऊपर बैठे बैठे ही अपने हाथ से एक ईंट को उठाकर उसके घर અનેક સુભટના સમૂહથી યુકત, તે કૃષ્ણ વાસુદેવે દ્વારાવતી નગરીના રાજમાર્ગમાંથી પસાર થઈને, અહંત અરિષ્ટનેમિની પાસે જવા પ્રસ્થાન કર્યું. ત્યારે દ્વારકા નગરીના વચ્ચે વચ્ચે થઈને જતા તે કૃણવાસુદેવે એક પુરુષને જોયે. તે પુરુષ પૂર્ણ વૃદ્ધ હતા. વૃદ્ધાવસ્થાના કારણથી તેને દેહ જર્જરિત હોવાથી તે ઘણેજ દુ:ખી હતો. આવી દુ:ખિત સ્થિતિવાળે તે વૃદ્ધ પુરુષ એક મોટા ઇંટના ઢગલામાંથી એક એક ઈંટ ઉપાડીને બહારના રાજમાર્ગ ઉપરથી પિતાના ઘરમાં મૂકતો હતે. તે સમયે તે દુઃખી વૃદ્ધને આવી રીતે કાર્ય કરતો થકે જઈને કૃષ્ણ વાસુદેવે તેના ઉપર દયા. લાવી હાથી ઉપર બેઠા બેઠા
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णकृतो दृद्धपुरुषसहायः ।।
१०७ हाए अनुकम्पनार्थाय 'हत्थिक्खंधवरगए चेव' हस्तिस्कन्धनरगत एव हस्तिन उपरि स्थित एव स्वहस्तेन 'एग इट्टगं गेण्हई' एकाम् इष्टकाम् गृह्णाति, 'गिहित्ता' गृहीत्वा 'वहियारत्थापहाओ' बहीरथ्यापथात् 'अंतोगिई' अन्तर्गहम् गृहमध्ये 'अणुप्पवेसई अनुप्रवेशयति स्थापयति । 'तए णं कण्हेणं वासुदेवेणं एगाए इट्टगाए गहियाए समाणीए अणेगेहिं पुरिससएहिं से महालए इट्टगस्स रासी बहियारत्यापहाओ अंतोघरंसि अणुप्पवेसिए' ततः खलु कृष्णेन वासुदेवेन एकस्यामिष्टकायां गृहीतायां सत्याम् अनेकैः पुरुषशतैः स इष्टकाया राशिः बहीरथ्यापथात् अन्तर्गहे अनुप्रवेशितः । मू० ३१ ।।
॥ मूलम् ॥ तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए णयरीए मज्झं मझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव अरहा अरिटुनेमी तेणेव उवागए, उवागच्छित्ता जाव वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता गयसुकुमालं अणंगारं अपासमाणे अरहं अरिटनेमि वंदइ णसंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी - कहि णं भंते! से मम सहोयरे भाया गयसुकुमाले अणगारे? जपणं अहं बंदामि णमंसामि । तए णं अरहा अरिटनेमी कण्हं. वासुदेवं एवं वयासी-साहिए णं कहा! गयसुकुमालेणं अणगारेणं अप्पणो अटे। तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिटुनेमि एवं वयासी- कहाणं भंते! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिए अप्पणो अट्रे ॥ सू० ३२॥ . में रख दिया । वासुदेव कृष्ण के द्वारा एक ईंट उठाये जाने पर अन्य सभी जनोंने अपने हाथों-हाथ ईटों को उठाकर क्रमसे सारी राशि को उसके घर में पहुंचा दी, इस प्रकार श्रीकृष्ण के एक ईंट उठाने मात्र से उस वृद्ध पुरुष का बार२ चक्कर काटने का कष्ट दूर होगया ॥ सू०.३१ ।। . પિતાને હાથે એક ઈટ ઉપાડીને તેના ઘરમાં મૂકી દીધી. કૃષ્ણ વાસુદેવ દ્વારા એક ઈંટ ઉપાડવાથી અન્ય સજનેએ પિતાના હાથે હાથ ઈંટેના ઢગલાને ઉપાડીને તેના ઘરમાં પહોંચાડી દીધા. આ પ્રકારે શ્રીકૃષ્ણના એક ઈંટ ઉપાડવા માત્રથી તે વૃદ્ધ પુરુષના વારંવાર ફેરા કરવાનું કષ્ટ દૂર થઈ ગયું. (સૂ) ૩૧)
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
॥ टीका ॥
'a f' इत्यादि । 'तर णं से कण्हे वासुदेवे' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः 'वारवईए णयरीए' द्वारावत्या नगर्याः 'मज्झ मज्झेणं णिग्गच्छ' मध्यमध्येन निर्गच्छति, 'णिग्गच्छित्ता जेणेव अरहा अरिनेमी तेणेव उवागए' निर्गत्य यत्रैव अन् अरिष्टनेमिः तत्रैव उपागतः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'जाव बंदर णमंस' यावद् वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्थित्वा 'गयसुकुमालं अणगारं' गजमुकुमालम् अनगारम् 'अपासमाणे ' अपश्यन् 'अरहं अरिनेमिं बंद णमंसर वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' अर्हन्तमरिष्टनेमिं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवदत् - 'कहि णं भंते ! से मम सहोयरे भाया गयसुकुमाले अणगारे' क खलु भदन्त ! स मम सहोदरः कनीयान् भ्राता गजसुकुमालोऽनगारः ? 'जगणं अहं वंदामि णमंसामि' यं खलु अहं वन्दे नमस्यामि । 'तर णं अरहा अरिनेमी' ततः खलु अन्नरिष्टनेमिः 'कण्डं वासुदेव' कृष्णं वासुदेवम् ' एवं वयासी' एवमवदत् -
फिर वे कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी के मध्यभाग से होते हुए जहाँ भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि विराजते थे वहाँ पहुँचे । वहाँ जाकर उन्होंने भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि को वन्दन नमस्कार किया और बाद में अपने लघुभ्राता व नवदीक्षित गजसुकुमाल अनगार को वन्दना करने के लिये इधर उधर देखने लगे । गजसुकुमाल अनगार को कहीं नहीं देखा तब उन्होंने भगवान् से जब उन्होंने पूछा - हे भदन्त ! मेरा छोटा भाई नवदीक्षित गजसुकुमाल अनगार कहाँ है ? मैं उनको वन्दन नमस्कार करना चाहता हूँ । यह सुन कर भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार
પછી તે કૃષ્ણ વાસુદેવ દ્વારકા નગરીના મધ્ય ભાગમાં થઈને નીકળ્યા અને જયાં ભગવાન અતુ અરિષ્ટનેમિ બિરાજતા હતા ત્યાં પહોંચ્યા, ત્યાં જઈને તેમણે ભગવાન્ અર્હત્ અરિષ્ટનેમિને વન્દન નમસ્કાર કર્યા. અને પછી પેાતાના નાનાભાઇ અને નવદીક્ષિત ગજસુકુમાલ અનગારને વન્દના કરવા માટે આમ તેમ જોવા લાગ્યા. જયારે તેમણે ગજસુકુમાલ અનગારને ત્યાં જોયા નહિ ત્યારે તેમણે ભગવાનને પૂછ્યું-ડે ભદન્ત ! મ્હારા નાનાભાઇ—નવદીક્ષિત ગજસુકુમાલ અનગાર કયાં છે ? હું તેમને વન્દન–નમસ્કાર કરવા ચાહું છું. આ સાંભળીને ભગવાન અત્ અરિષ્ટનેમિએ કૃષ્ણ વાસુદેવને આ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गजसुकुमालविषये कृष्णस्य अरिष्टनेमेश्व संवादः १०९ 'साहिए णं कहा गयसुकुमालेणं अणगारेणं अप्पणो अट्टे' साधितः खलुः कृष्ण ! गजसुकुमालेन अनगारेण आत्मनोऽर्थः = हे कृष्ण ! गजसुकुमालेन अनगारेण मोक्षप्राप्तिरूप आत्मनोऽर्थः साधितः । तए णं से कहे वासुदेवे ar ago एवं वयासी' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः अर्हन्तमरिष्टनेमिमेवमवादीत् - 'कहणं भंते ! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिए अप्पणो अ कथं खलु भदन्त ! गजसुकुमालेन अनगारेण साधित आत्मनोऽर्थः १ ॥ सू० ३२ ॥ ॥ मूलम् ॥
तए णं अरहा अरिनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासीएवं खलु कण्हा ! गयसुकुमाले णं अणगारे मम कलं पुवाबरहका समयंसि वंदइ णमंसइ, वंदिता णमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं जाव उवसंपजित्ताणं विहरइ ! तर णं तं गयसुकुमालं अणगारं एगे पुरिसे पासइ, पासित्ता आसुरुते जाव सिद्धे । तं एवं खलु कण्हा ! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिए अप्पणो अहे । तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिनेमि एवं वयासी - केस णं भंते! से पुरिसे अप्पत्थिय'पत्थए जाव परिवजिए, जे णं ममं सहोदरं कणीयसं भायर गयसुकुमालं अणगारं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए । तर णं अरहा अरिनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - माणं कण्हा ! तुमं तस्स पुरिसस्स पदोसमावज्जाहि, एवं खलु कण्हा ! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स साहिज्जे दिने ॥ सू० ३३ ॥ कहा- हे कृष्ण ! गजसुकुमार अनगारने जिस अर्थ के लिये संयम को स्वीकार किया था उसने उस आत्मा के अर्थ को सिद्ध कर लिया है। यह सुनकर कृष्ण वासुदेवने आश्चर्ययुक्त होकर पूछाहे भदन्त ! उन्होंने किस प्रकार अपने अर्थ को सिद्ध कर लिया || सू० ३२ ॥
પ્રકારે કહ્યું—હે કૃષ્ણ ! ગજસુકુમાલ અનગારે જે હેતુ માટે સંયમનો સ્વીકાર કર્યાં હતા તે હતુ તેમણે સિદ્ધ કરી લીધા છે. કૃષ્ણ વાસુદેવે આશ્ચર્ય યુકત થઈને પૂછ્યુંलहन्त! ते ४६ रीते पोतानो अर्थ सिद्ध उरी सीधे ? सू० ३२)
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
॥ टीका ॥
'त णं' इत्यादि । 'तर णं अरहा अरिनेमी कण्डं वासुदेवं एवं बयासी' ततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत् - ' एवं खलु कण्हा ! गयसुकुमाले णं अणगारे सम' एवं खलु कृष्ण ! गजमुकुमालः खलु अनगारः माम् 'कल' कल्यम् = व्यतीतेऽहि 'पुव्वावरण्डकासमयंसि पूर्वापराकालसमये - दिवसस्य पश्चिमे महरे 'चंद णमंसर' वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता मंसित्ता एवं वयासी' वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवदत् - 'इच्छामि णं जाव उवसंपज्जित्ताणं विहर' इच्छामि खलु यावत् उपसंपथ विहरति यावत्पदेन अर्हदरिष्टनेमिनाऽनुज्ञातः श्मशानं गत्वा विशुद्धां भूमिमन्विष्य ध्यानमग्नो विहरति - इत्यर्थो गम्यः । ' तए णं गयसुकुमालं अणगारं एगे पुरिसे पास ' ततः खलु तं गजमुकुमालनगारमेकः पुरुषः पश्यति, 'पासिता आमुरुते जाव सिद्धे' दृष्ट्वा आशुरुतो यावत् सिद्ध:, अत्र सोमिलकृतपापाचारः, गजसुकुमालस्य अनगारस्य अनभिद्रोहपूर्वकं मरणं मोक्षप्राप्तिश्च इत्यादि पूर्वोक्तऽर्थो
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कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार पूछने पर भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमिने इस प्रकार कहा- हे कृष्ण ! कल दीक्षा लेने के बाद चौथे प्रहर में गजसुकुमाल अनगारने वन्दन नमस्कार कर मेरे समक्ष इस प्रकार इच्छा प्रगट की थी कि हे भदन्त ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर महाकाल श्मशान में ऐकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा का आराधन करना चाहता हूँ । हे कृष्ण ! मैंने कहा, जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर वह गजसुकुमाल अनगार महाकाल श्मशान में गये और वहां ध्यानारूढ होगये ।
उस समय वहां हे कृष्ण ! एक पुरुष आया और उसने गजसुकुमाल अनगार को ध्यानमग्न देखा। देखते ही उसे वैरभाव
કૃષ્ણ વાસુદેવ તરફથી આવી રીતે પૂછવા પરથી ભગવાન્ અર્હત અરિષ્ટનેમિએ આ પ્રમાણે કહ્યું— હું કૃષ્ણ ! કાલે દીક્ષા લીધા પછી ચેથા પ્રહરમાં ગજસુકુમાલ અનગારે વન્દન નમસ્કાર કરી મ્હારી સમક્ષ આ પ્રકારની ઇચ્છા પ્રગટ કરી હતી કેહે ભદન્ત ! હું આપની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને મહાકાલ સ્મશાનમાં એકરાત્રિકી ભિક્ષુપ્રતિમાનું આરાધન કરવા ચાહુ છું. હે કૃષ્ણ ! મેં કહ્યુ-જેમ તમને સુખ હાય તેમ કરા, આવી રીતે આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરી તે ગજસુકુમાલ અનગાર મહાકાલ શ્મશાનમાં જઇને ધ્યાનારૂઢ થઇ ગયા.
તે સમયે હે કૃષ્ણ ! ત્યાં એક પુરુષ આવ્યે, અને તેણે ગજસુકુમાલ અનગારને
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गजसुकुमालविषये कृष्णस्य अरिष्टनेमेश्व संवादः १११ गम्यः । ‘तं एवं खलु कण्हा ! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिए अप्पणी अहे' तदेवं खलु कृष्ण ! गजसुकुमालेनानगारेण साधित आत्मनोऽर्थः, गजसुकुमाल आत्मसिद्धरूपं स्वकीयमभिलषितं प्राप्तवानिति भावः । 'तर णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिनेमिं एवं क्यासी' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः अर्हन्तमरिष्टनेमिम् एवमत्रदत् - 'केस णं भंते ! अप्पत्थियपत्थर जाव परिवज्जिए ' कीदृशः खलु भदन्त । स पुरुषः अप्रार्थितमार्थको यावत् परिवर्जितः - अप्रार्थितप्रार्थकः = मरणाभिलाषुकः यावत् लजालक्ष्मीपरिवर्जितः 'जेणं ममं सहोदरं कणीयसं भायरं गयसुकुमालं अणगारं' यः खलु मम सहोदरं कनीयांसं भ्रातरं गजसुकुमालमनगारम् 'अकाले चेव जीवियाओ' अकाल एव जीविताद्
जागृत हुवा और वह क्रोध से आतुर होकर तालाब से गीली मिट्टी लाया, लाकर उसने उनके शिर पर चारों ओर उस मिट्टी की पाल बाँधी, फिर चिता से जलते हुए खैर के अत्यन्त लाल अंगारों को एक फूटे हुए मिट्टी के बर्तन में लेकर गजसुकुमाल अनगार के शिर पर डाल दिये । जिससे गजसुकुमाल अनगार को असह्य वेदना हुई । परन्तु फिरभी उनके हृदय में उस घातक पुरुष के प्रति थोडा भी द्वेषभाव नहीं हुआ । वे समभावों से भयंकर वेदना को सहनकर शुभ परिणाम और शुभ अध्यवसाय से केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष पहुंच गये । इसीलिये हे कृष्ण ! गजसुकुमाल अनगारने अपना कार्य सिद्ध कर लिया ऐसा मैंने कहा है । यह सुनकर कृष्ण बोले- हे भदन्त ! मृत्यु को चाहनेवाला लज्जारहित वह पुरुष कौन है ? जिसने मेरे छोटे भाई गजसुकुमाल ધ્યાનમગ્ન જોયા અને તે જોતાંજ તેને વૈરભાવ જાગૃત થયે અને તે ક્રોધથી આતુર થઇને તળાવમાંથી ભીની માટી લઈ આવી તેણે તેમના શિરપર ચારે તરફ તે માટીની પાળ ખાંધી. પછી ચિંતામાંથી મળતા ખેરના લાલચેાળ અંગારા એક ચૂંટેલા માટીના વાસણમાં લઇ આવી ગજસુકુમાલ અનગારના શિર ઉપર નાખી દીધા. જેથી ગજસુકુમાલ અણુગારને અસહ્ય વેદના થઇ. પરંતુ તેમના હૃદયમાં તે ઘાતક પુરુષ પ્રતિ જરા પણ દ્વેષમાવ ન થયા.તેઓ સમભાવથી ભયંકર વેદનાને સહન કરી શુભપરિણામ અને શુભ અધ્યવસાયથી કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી મેક્ષે પહોંચી ગયા. હું કૃષ્ણે ! તેથીજ મેં કહ્યું કે ગજસુકુમાલ અનગારે પેાતાનું કાર્ય સિદ્ધ કરી લીધું. આ સાંભળી કૃષ્ણ મેલ્યા—હે ભદન્ત ! મૃત્યુને ચાહનારા લજજારહિત તે પુરુષ કેણુ છે જેણે મારા નાના ભાઈ ગજસુકુમાલ અનગારના
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे 'ववरोविए' व्यपरोपितवान् पाणरहितं कृतवान् । 'तए णं अरहा अरिहनेमी कण्हं वासुदेवं एवं बयासी' ततः खलु अईन् अरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत- 'मा णं कण्हो !' मा खलु कृष्ण ! 'तुमं तस्स पुरिसस्स' त्वं तस्यः पुरुषस्य 'पओसमावज्जाहि' प्रद्वेपमापद्यस्व-हे. कृष्ण ! त्वं तस्य पुरुपस्योपरि द्वेपं मा कुरु । यतः-‘एवं खलु कण्हा ! एवं खलु कृष्ण ! अनेन प्रकारेण हे कृष्ण ! 'तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स साहिज्जे दिन्ने' तेन पुरुषेण गजसुकुमालाय साहाय्यं दत्तम् ।। सू० ३३ ॥
॥ मूलम् ॥ कहण्णं भंते ! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स णं साहिजे दिन्ने ? तए णं अरहा अरिट्रनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासीसे नूणं कण्हा ! ममं तुमं पायदए हवमागच्छमाणे बारवईए णयरीए एगं पुरिसं पाससि जाव अणुप्पवेसिए । जहा णं कण्हा ! तुमं तस्स पुरिसस्स साहिजे दिन्ने एवमेव कण्हा । तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स अणेगभवसयसहस्ससंचियं कम्मं उदीरेमाणेणं बहुकम्मणिज्जरट्रं साहिजे दिन्ने। तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्रनेमि एवं वयासीसे णं भंते ! पुरिसे मए कहं जाणियचे ? तए णं अरहा अरिटुनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जेणं कण्हा ! तुमं बारवईए णयरीए अणुप्पविसमाणं पासेत्ता ठियए चेव ठिइभेएणं कालं करिस्सइ तं णं तुमं जाणेज्जासि,एस णं से पुरिसे ॥ सू० ३४॥ अनगार का अकाल में ही प्राण हरण कर लिया। यह सुनकर भगवान्ने इस प्रकार कहा-हे कृष्ण! तुम उस पुरुष के ऊपर क्रोध मत करो, क्योंकि वह पुरुष गजसुकुमाल अनगार को परमपद् प्राप्ति कराने में सहायक बना है ॥ सू० ३३ ॥ . . અકાલે પ્રાણ હરણ કરી લીધા. આ સાંભળી ભગવાને આ પ્રકારે કહ્યું હે કૃષ્ણ! તમે તે પુરુષ ઉપર ક્રોધ નહિ કરો; કેમકે તે પુરુષ ગજસુકુમાલ અણગારને પરમપદ પ્રાપ્તિ કરાવવામાં સહાયક થએલ છે (સૂ૦ ૩૩)
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अथ कृष्णो वासुदेवोऽरिष्टनेमिमपृच्छत्- 'कहणं
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गजसुकुमाल विषये कृष्णस्य अरिष्टनेमेव संवादः ११३ इत्यादि । ' कहण्णं भंते! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स णं साहिज्जे दिने ? " कथं खलु भदन्त ! तेन पुरुषेण गजसुकुमालाय खलु साहाय्यं दत्तम् ? ' तए णं. ततः खलु ' अरहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी ' अहम् अरिहनेमिः कृष्णं वासुदेवमवदत् - 'से नूर्ण' अथ नूनं निश्चयेन 'कण्हा ! ममं तुमं पायबंद हव्यमागच्छमाणे वारवईए णयरीए एवं पुरिस पाससि जाव अणुष्पवेसिए ' हे कृष्ण ! मम त्वं पादवन्दकः शीघ्रमागच्छन् द्वारावत्यां नगर्याम् एकं पुरुषं पश्यसि यावत् अनुप्रवेशितः, 'जहा णं कण्हा " यथा खलु कृष्ण ! 'तुमं तस्स पुरिसस्स साहिज्जे दिने' त्वया तस्मै पुरुषाय दत्तम्, 'एवमेव कण्हा !'
यह सुनकर कृष्ण वासुदेवने भगवान् से पूछा - हे भदन्त ! वह पुरुष गजसुकुमाल अनगार को सहायक कैसे बना !
कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर भगवानने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा - हे कृष्ण ? मेरे चरणवन्दन करने के लिये आते हुए तुमने द्वारका के राजमार्ग पर एक बहुत बडी ईंट की राशि (ढेरी) में से एक ईंट को उठा कर घरमें रखते हुए एक दीन दुर्बल वृद्ध को देखा। उस वृद्ध को तुमने उस राशि को उठाने में असमर्थ देखकर उसकी अनुकम्पा के लिये हाथी परसे ही बैठे बैठे एक ईंट को उठाकर उसके घर में रखदी, जिससे तुम्हारे साथ वाले सभी पुरुषों ने क्रमसे उन सभी इटों को उठाकर उसके घर में पहुंचादी, इससे उस वृद्ध का दुःख दूर हुआ 1 આ સાંભળીને કૃષ્ણ વાસુદેવે ભગવાનને પૂછ્યું—હે ભદન્ત ! તે પુરુષ ગજસુકુમાલ અનગારને કેવી રીતે સહાયક થયેા છે?
કૃષ્ણ વાસુદેવ દ્વારા આવી રીતે પૂછવાથી ભગવાને કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રકારે કહ્યુ “હે કૃષ્ણ ! મારા ચરણ વંદન કરવાને માટે આવતા માર્ગમાં તમે દ્વારકા ના રાજમાર્ગ ઉપર એક મેટા ઇંટના ઢગલામાંથી એક એક ઇંટ ઉપાડીને ઘરમાં રાખતા એક દીન દુ લ વૃદ્ધને જોયા. તે વૃદ્ધને તમે તે ઇંટરાશિને ઉઠાવવામાં અસમર્થ જોઇને તેની અનુકંપા ખાતર તમે હાથી ઉપર બેઠાં બેઠાંજ એક ઇંટને ઉપાડી તેના ઘરમાં રાખી દીધી જેથી તમારી સાથેના બધા પુરુષાએ ક્રમથી તે સર્વે ઇંટા ઉપાડી તેના ઘરમાં પહોંચાડી દીધી જેથી તે વૃદ્ધનું દુ:ખ દૂર થયું.
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे एवमेव कृष्ण ! 'तेणं पुरिसेणं' तेन पुरुषेण 'गयसुकुमालस्स अणगाररस' गजसुकुमालस्य अनगारस्य 'अणेगभवसयसहस्ससंचियं' अनेकभवशतसहस्रसंचितभवस्य शतसहस्राणि भवशतसहस्राणि, अनेकानि च भवशतसहस्राणि अनेकभवशतसहस्राणि, तेपु संचितम्-अनेकशतसहस्रजन्मोपार्जितं 'कम्म' कर्म 'उदीरेमाणेणं' उदीरयता अप्राप्तेऽपि काले भोक्तुमुदयावलिकायां प्रवेशयता, 'बहुकम्मणिज्जरटुं' वहुकर्मनिर्जरार्थ बहुकर्मविनाशाय 'साहिज्जे दिन्ने' साहाय्यं दत्तम् । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्टनेमि एवं वयासी' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः अर्हन्तमरिष्टनेमिम् एवमवदत्-‘से णं भंते ! पुरिसे मए कह जाणियन्वे' स खलु भदन्त ! पुरुपः मया कथं ज्ञातव्यः ? 'तए णं अरहा अरिहनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी' ततः खलु अर्हन अरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत्-'जे णं कण्हा ! तुमं वारवईए णयरीए अणुप्पविसमाणं पासेत्ता' यः खलु कृष्ण ! त्वां द्वारावत्यां नगर्याम् अनुमविशन्तं दृष्ट्वा 'ठियए चेव' स्थित एव 'ठिइभेएणं' स्थितिभेदेन आयुपः स्थितिक्षयेण 'कालं करिस्सइ' कालं करिष्यति मृत्यु प्राप्स्यति, 'तण्णं तुम' तं खलु त्वं 'जाणेज्जासि'
हे कृष्ण ! जिस प्रकार तुमने उस वृद्ध पुरुष की सहायता की उसी प्रकार उस पुरुषने लाखों भवों में संचय किये हुए कर्मों की एकान्त उदीरणा करके गजसुकुमाल अनगार के अनेक लाखा भवों के संचित सम्पूर्ण कर्मों के नाश करने में बडी सहायता की है। . यह सुनकर कृष्ण वासुदेवने भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि से फिर पूछा-हे भदन्त ! मैं उस पुरुष को किस प्रकार जान सकूँगा। भगवान्ने कहा-हे कृष्ण ! द्वारका नगरी में प्रवेश करते हुए तुम्हें देखते ही जो पुरुष आयु तथा स्थितिक्षय से वहीं पर मृत्यु को
હે કૃષ્ણ! જે પ્રકારે તમે તે વૃદ્ધ પુરુષને સહાયતા કરી તેવાજ પ્રકારે તે પુરુષે પણ લાખો ભવેમાં સંચય કરાયેલાં કર્મોની એકાન્ત ઉદીરણા કરીને ગજસુકુમાલ અનગારના અનેક લાખ ના સંચિત સંપૂર્ણ કર્મોના નાશ કરવામાં ભારે સહાયતા કરી છે.
આ સાંભળીને કૃષ્ણ વાસુદેવે ભગવાન અત્ અરિષ્ટનેમિને પૂછ્યું–હે ભદન્ત! હું તે પુરુષને કેવી રીતે જાણી શકું? ભગવાને કહ્યું– કૃષ્ણ દ્વારકા નગરીમાં
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका,कृ.द्वारकायां प्रवेशःसोमिलस्य तत्पुरत आगमनं च। ११५ जानीयाः 'एस णं से पुरिसे' एष खलु स पुरुषः यस्त्वां दृष्ट्वा स्थित एव मृत्युमाप्नुयात् , स त्वया निजानुजघातकत्वेनावसेयः ॥ मू० ३४ ॥
तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्रनेमि वंदइ णमसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव आभिसेकं हत्थिरयणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हथिं दुरूहइ, दुरूहिता जेणेव बारवई णयरी, जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स कल्लं जाव जलंते अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पण्णे । एवं खलु कण्हे वासुदेवे अरहं अरिटनेमि पायदए निग्गए, तं णायमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, सिट्रमेयं अरहया भविस्सइ कण्हस्स वासुदेवस्स तं न नज्जइ णं कण्हे वासुदेवे ममं केणवि कुमारेणं मारिस्सइ ति कट्ठ भीए सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स बारवई णयरिं अणुप्पविसमाणस्स पुरओ सपक्खि सपडिदिसिं हवमागए ॥ सू० ३५ ॥
॥ टीका ॥ ... 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिहनेमि वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव आभिसेकं हत्थिरयणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हस्थि दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव वारवई णयरी, जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः अर्हन्तमरिष्टनेमि प्राप्त होजाय उसी पुरुष को तुम गजसुकुमाल अनगार का घातक
जानना ॥ सू. ३४ ॥ - उसके बाद वे कृष्ण वासुदेव भगवान् को वन्दन नमस्कार
करके आभिषेक्य हाथी पर बैठकर अपने स्थान द्वारका नगरी की પ્રવેશ કરતાં થકાં તમને દેખતાજ જે પુરુષ આયુ અને સ્થિતિ ક્ષયથી ત્યાંજ મૃત્યુને પ્રાપ્ત થાય તે પુરુષને તમારે ગજસુકુમાલને ઘાતક જાણ (સૂ) ૩૪) • - ત્યાર પછી તે કૃષ્ણ વાસુદેવ ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરી આભિષેકય હાથી
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ब्राह्मणस्य यात्मको यावत् समुत्पन्न काहे वासुदेव
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव आभिषेक्यं हस्तिरत्नं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य हस्तिनं दूरोहति, दूरुह्य यत्रैव द्वारावती नगरी यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैव प्राधारयद् गमनाय गन्तुमना अभवत् । 'तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स कल्लं जाव जलंते अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पण्णे' ततः खल्लु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य कल्ये यावज्ज्वलति-प्रभाते व्यतीतायां रजन्यां सूर्योदये सति,अयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत् समुत्पन्न वक्ष्यमाणप्रकार आत्मगतस्तकः समुत्पन्नः, कीदृशः सः ? इत्याह-एवं खलु कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्टनेमि पायबंदए निग्गए' एवं खलु कृष्णो वासुदेवः अर्हन्तमरिष्टनेमि पादवन्दको निर्गतः, 'तं' तत्=तस्मात् कारणात् , 'णायमेयं अरहया' ज्ञातमेतदहता, 'विण्णायमेयं अरहया' विज्ञातमेतदर्हता-एतमन्मया कृतं सर्व कर्म अईतारिष्टनेमिना ज्ञातं सामान्यरूपेण, विज्ञातं विशेषरूपेण भविष्यति, 'सुयमेयं अर्हता' श्रुतमेतदर्हता-कस्मादपि देवविशेपाद्वा भगवता श्रुतं भविष्यति, 'सिटमेयं अरहया भविस्सइ कण्हस्स वासुदेवस्स' शिष्टमेतदहता भविष्यति कृष्णाय वासुदेवाय कृष्णाय वासुदेवाय शिष्टं कथितं भविष्यतीति,'तं न नजइ णं कण्हे वासुदेवे ममं केणवि कुमारेणं मारिस्सई तद् न ज्ञायते खलु कृष्णो वासुदेवो मां केनापि कुमारेण मारयिष्यति, 'अपि' शब्दो निश्चये; 'त्ति कट्ट भीए' इति कृला भीतः भययुक्तोऽसौ 'कृष्णो वासुदेवो राजमार्गेण समागमिष्यतीत्यतो
ओर जाने के लिये तैयार हुए। इधर सूर्योदय होते ही सोमिल ब्राह्मण ने मनमें सोचा कि कृष्ण वासुदेव भगवान् के चरण वन्दन को गये हैं और भगवान् सर्वज्ञ हैं, उनसे कोई बात छिपी हुई नहीं है, वे सारा वृत्तान्त कृष्ण वासुदेव को कह देंगे। कृष्ण वासुदेव इस वृत्तान्त को जानकर न जाने मुझे किस कुमौत से मारेंगे ! ऐसा विचार कर भयभीत हो उस सोमिलने द्वारका से ઉપર બેસીને પિતાને સ્થાને દ્વારકા નગરી તરફ જાવા તૈયાર થયા. આ બાજુ સૂર્યોદય થતાંજ સોમિલ બ્રાહ્મણે મનમાં વિચાર કર્યો કે કૃષ્ણ વાસુદેવ ભગવાનના ચરણવ દેને માટે ગયા છે, અને ભગવાન સર્વજ્ઞ છે, તેનાથી કોઈ વાત છાની નથી. તેઓ સર્વ વૃત્તાન્ત કૃષ્ણ વાસુદેવને કહી દેશે. કૃષ્ણ વાસુદેવ તે વૃત્તાન્તને જાણી મને કેવા કુમતે મારા નાખશે, એમ વિચારી ભયભીત થઈ તે મિલે દ્વારકાથી ભાગી જવા વિચાર કર્યા.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सोमिलस्य कृष्णस्य पुरत आगमनम् ११७ - मया रथ्यामार्गेण गन्तव्यम्' इति चिन्तयन् 'सयाओ गिहाओं' स्वकाद् गृहात् 'पडिनिक्खमइ'प्रतिनिष्क्रामति=निस्सरति, 'पडिनिक्खमित्ता'प्रतिनिष्क्रम्य 'कण्हस्स वासुदेवस्स बारवई णयरिं अणुप्पविसमाणस्स' कृष्णस्य वासुदेवस्य द्वारावती नगरीमनुप्रविशतः भ्रातृशोकेन राजमार्ग विहाय रथ्यापथेन द्वारावत्यां प्रवेश कुर्वतः 'पुरओ' पुरतः अग्रतः 'सपक्खिं समपडिदिसिं' सपक्षं समतिदिशम्= सर्वथा संमुखम् , 'हव्यमागए' शीघ्रमागतः अकस्मादागत इति भावः ॥ ३५॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से सोमिले माहणे कण्हं वासुदेवं सहसा पासित्ता भीए ठियए चेव ठिइभेएणं कालं करेइ, करिता धरणितलंसि सव्वंगेहि धसत्ति संनिवडिए । तए णं से कण्हे वासुदेवे सोमिलं माहणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एस
णं भो देवाणुप्पिया ! से सोमिले माहणे अप्पत्थियपत्थए - जाव परिवजए। जेण ममं सहोयरे कणीयसे भायरे गयसुकुमाले अणगारे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए-तिकट्ठ सोमिलं माहणं पाणेहिं कड्ढावेइ, कड्ढावित्ता तं भूमि भागने का विचार किया। फिर उसने सोचा कि कृष्ण वासुदेव राजमार्ग से ही आवेंगे इसलिये मुझे उचित है कि मैं गली के रास्ते चलकर द्वारका नगरी से निकल भागें । ऐसा विचार कर वह अपने घरसे निकला और गली के रास्ते भागता हुवा जाने लगा। इधर कृष्ण वासुदेव भी अपने छोटे भाई गजसुकुमाल अनगार के मरणजन्य शोक से व्याकुल होने के कारण राजमार्ग को छोडकर गली के रास्ते से ही आ रहे थे, जिससे संयगोवश वह सोमिल कृष्ण वासुदेव के सामने ही आ निकला ॥ सू० ३५ ॥ ફરી તેણે વિચાર્યું કે કૃષ્ણ વાસુદેવ રાજમા થઈને જ આવશે, માટે મહેને ઉચિત છે
કે હું ગલીને રસ્તે દ્વારકા નગરીમાંથી ભાગી જાઉં. એમ વિચાર કરી તે પિતાના - ઘેરથી નીકળે અને ગલીને રસ્તે ભાગ થકે જાવા લાગ્યા. આ બાજુ કૃષ્ણ વાસુદેવ
પણ પિતાના નાનાભાઈ ગજસુકુમાલ અનગારના મરણજન્ય શોકથી વ્યાકુળ હોવાને કારણે રાજમાર્ગ છેડીને ગલીને રસ્તે થઈને જ આવતા હતા. જેથી સગવશ તે સોમિલ, કૃષ્ણ વાસુદેવની સામે જ આવી નીક. (સૂ૦ ૩૫)
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे पाणिएणं अब्भोक्खावेइ, अमोक्खावेत्ता, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए सयं गिहं अणुप्पविटे । एवं खलु जंबू! समणेणं अगवया जाव' संपलेणं अट्रमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्ल अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयमटे पण्णत्ते ॥ सू० ३६ ॥
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से सोमिले माहणे. कण्हं वासुदेव' ततः खलु स सोमिलो ब्राह्मणः कृष्णं वासुदेवं संमुखमागच्छन्तं सहसा अकस्मात् 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'भीए ठियए चेव' भीतः स्थित एव 'ठिइभेएणं' स्थितिभेदेन आयुषः स्थितिनाशेन 'कालं करेइ' कालं करोति-मृत्युमामोति, 'करिता' कृखा मृत्युं प्राप्य "धरणितलंसि' धरणितले 'सन्चंगेहि' सर्वाङ्गः कृखा 'धसिनि'-'धस' इति शब्देन 'संनिवडिए' संनिपतितः । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे सोमिलं माहणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सोमिल ब्राह्मणं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवदत-'एस णं भो देवाणुप्पिया!' एप खलु भो देवानुपियाः !-एप:=पुरोवर्ती भूमिनिपतितो जनः 'से सोमिले माहणे अप्पत्थियपत्थए जाव परिवज्जिए' स सोमिली ब्राह्मणः अपार्थितप्रार्थको यावत् परिवज्जितः; 'जेण ममं सहोयरे कणीयसे भायरे गयसुकुमाले अणगारे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए' येन मम सहोदरः
उस समय वह सोमिल ब्राह्मण कृष्ण वासुदेव को सामने आते हुए देखकर भयभीत हो खडा होगया। और वह खडा ही खडा आयु की स्थिति के भेद (पूर्ण होने)से मृत्यु को प्राप्त होगया, जिससे उसका मृतशरीर पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पडा । ज्योंही कृष्ण वासुदेवने सोमिल ब्राह्मग को मृत्यु प्राप्त होते देखा त्यों ही वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रियो! यह वही अप्रार्थितप्रार्थक-मृत्यु को चाहनेवाला निलेज सोमिल ब्राह्मण है, जिसने मेरे सहोदर छोटे
તે સમયે તે મિલ બ્રાહ્મણ કૃષ્ણ વાસુદેવને સામે આવતા જોઈને ભયભીત થઈ ઉભે રહ્યો. અને ઉભે ઉભેજ આયુની સ્થિતિના ભેદ (પૂર્ણ હોવા)થી મૃત્યુને પ્રાપ્ત થશે. જેથી તેને મૃત શરીર ધડામથી પૃથ્વી ઉપર પડી ગયે. તે સમયે કૃષ્ણ વાસુદેવે મિલ બ્રાહ્મણને તે પ્રકારે મૃત્યુ પ્રાપ્ત થતો જોયે અને આ પ્રકારે કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિયે! આ તે અપ્રાર્થિતપ્રાર્થક- મૃત્યુને ચાહવાવાળે નિર્લજજ મિલ બ્રાહ્મણ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सोमिलस्यमरणम् कनीयान् भ्राता =लघुर्धाता, गजमुकुमालोऽनगारः, अकाल एव जीविताद् व्यपरोपितः, 'नि कट्ट' इति कुला-इति उक्त्वा 'सोमिलं माहणं पाणेहिं कड्ढावेई' सोमिलं ब्राह्मणं पाणैः चाण्डालैः कर्षयति-चरणे रज्जु बन्धयित्वा चाण्डालैः नगराद् वहिनिष्काशयति, 'कड्ढावित्ता' नगराद् वहिनिष्काश्य 'तं भूमि पाणिएणं अभोक्खावेइ' तां भूमि पानीयेन अभ्युक्षयति = यत्र भूमौ पापात्मा सोमिलो मृत्वा निपतितस्तां भूमि जलेन प्रक्षालयतीत्यर्थः, 'अब्भोक्खावित्ता' अभ्युक्ष्य जलेन क्षालयित्वा 'जेणेव सए गिहे' यत्रैव स्वकं गृहं 'तेणेव' तत्रैव 'उवागए' उपागतः, 'सयं गिहं अणुप्पविटे' स्वकं गृहम् अनुपविष्टः गतः। 'एवं खलु जंवू ! समणेणं जाव संपत्तेणं' एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन-मोक्षं संप्राप्तेन 'अट्टमरस अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अट्ठमस्स अज्झयणस्स' अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां तृतीयस्स वर्गस्य अष्टमस्य अध्ययनस्य 'अयमढे पण्णत्ते' अयमर्थः प्रज्ञप्तः ॥ मू० ३६ ॥.
___॥ इत्यन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्याष्टममध्ययनं संपूर्णम् ॥ । भाई गजसुकुमाल अनगार को अकाल में ही मृत्यु के शरण पहँचा दिया। ऐसा कह कर उस मृत सोमिल ब्राह्मण के पैरों को रस्सी से बंधवा कर तथा चण्डालों से घसीटवाकर कर नगर के बाहर फिकवा दिया और उससे स्पर्श हुई अपवित्र भूमि को पानी से धुलवाकर शुद्ध करवाया। फिर वहाँ से चलकर कृष्ण वासुदेव अपने महल में पहुँच गये । हे जम्बू ! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने अन्तकृतदशा नामक आठवें अंग के तृतीय वर्ग के आठवें अध्ययन का इस प्रकार यह भाव कहा है ॥ सू० ३६ ॥
...॥ इति आठवा अध्ययन संपूर्ण ॥ છે, જેણે મારા સહોદર નાનાભાઈ ગજસુકમાલ અનગારને અકાલે મૃત્યુની શરણે પહોંચાડી દીધે, આવી રીતે કહીને તે મરેલા સોમિલ બ્રાહ્મણના પગને દેરડાથી બંધાવી તથા ચાંડાલ દ્વારા ઘસેડાવી નગરની બહાર ફેંકાવી દીધું. અને તેનાથી સ્પર્શાવેલી જમીનને પાણીથી ધવરાવી શુદ્ધ કરાવ્યા. પછી ત્યાંથી ચાલીને કૃષ્ણ વાસુદેવ પિતાના મહેલમાં પહોંચી ગયા.
હે જબ્બ ! મેક્ષપ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે અન્તકૃતદશા નામના આઠમા અંગના તૃતીય વર્ગમાંના આઠમાં અધ્યયનને આ પ્રકારે એ ભાવ કહ્યો છે. (સૂ૩૬)
ति: २४ मध्ययन संपूर्ण
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
॥ सूलम् ॥ नवमस्स णं उक्खेवओ० । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवईए णयरीए जहा पढमे जाव विहरइ । तत्थ णं बारवईए णयरीए बलदेवे नामं राया होत्था । वण्णओ०। तस्स णं बलदेवस्स रपणो धारिणी नामं देवी होत्था, वण्णओ० । तए णं सा धारिणी सीहं सुमिणे, जहा गोयमे, णवरं सुमुहे णामं कुमारे, पण्णासं कण्णाओ, पन्नासं दाओ, चोदस पुव्वाइं अहिज्जइ, वीसं वासाइं परियाओ, सेसं तं चेव जाव' सेत्तुंजे सिद्धे, निक्वेवओ ॥९॥ एवं दुम्सुहे वि कूवदारए वि, दोण्हं वि बलदेवे पिया धारिणी माया ॥ १० ॥ दारुए वि, एवं चेव णवरं वसुदेवे पिया, धारिणी माया ॥ ११ ॥ एवं अणादिट्टी वि, वसुदेवे पिया, धारिणी माया । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्रमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स तेसरसमस अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते ॥१२॥ ॥सू०३७॥
॥ टीका ॥ गजसुकुमालनामकाष्टमाध्ययनानन्तरं नवममाह-'नवमस्स णं, इत्यादिना
'नवमस्स णं उक्खेवओ' नवमस्य खलु उत्क्षेपका हे भदन्त ! अष्टमस्य अध्ययनस्यायं भावो भगवता प्रतिपादितः, अनन्तरं नवमस्य अध्ययनस्य भगवता कीदृशोऽर्थः प्रतिपादित इति नवमस्याध्ययनस्य प्रारम्भ
हे भदन्त ! भगवान ने उक्तरूप से जो आठवें अध्ययन के भावों का निरूपण किया वह आपके समीप मैंने सुना। हे भदन्त ! अब नववां अध्ययन के भावों का निरूपण भगवान ने किस प्रकार से निरूपण किया है ? श्री जम्बूस्वामी का इस प्रकार प्रश्न सुनकर
હે ભદન્ત ! ભગવાને ઉકતરૂપે જે આઠમા અધ્યયનના ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે તે આપની પાસેથી મેં સાંભળ્યું. હે ભદન્ત ! હવે નવમા અધ્યયનના ભાવેનું ભગવાન કયા પ્રકારે નિરૂપણ કર્યું છે? શ્રી જખ્ખ સ્વામીને આ પ્રશ્ન સાંભળી શ્રી સુધમો સ્વામી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुमुखकुमारवर्णनम्
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वाक्यार्थो ज्ञातव्यः ! एतच्छ्रुत्वा सुधर्मा स्वामी माह एवं खलु हे जम्बूः तस्मिन् काले तस्मिन् समये, द्वारावत्यां नगर्यौ यथा प्रथमे यावद विहरति, हे जम्बू ! अरिष्टनेमिः पूर्वोक्तसर्वविशेषणविशिष्टायां द्वारावत्यां नगर्यो तीर्थङ्करपरम्परया विहरन् समवसृतः । तत्र खलु द्वारावत्यां नगर्या वलदेवो नाम राजाऽसीत् । वर्णकः = राजवर्णनं पूर्ववदेवावसेयम् । तस्य खलु वलदेवस्य राज्ञः धारिणी नाम देवी आसीत्, वर्णकः = धारिण्या वर्णनमपि पूर्वोक्तमेव विज्ञेयम् । ततः खलु सा धारिणी सिंह स्वप्ने =सा धारिणीदेवी सुकोमलायां शय्यायां शयाना स्व सिंहमपश्यत् स्वमवृत्तान्तं च सा स्वपतये निवेदितवती । 'जहा गोयमे' यथा गौतमः = गौतमकुमारवत् सर्व विज्ञेयम् । स कुमारः शीलेन सौन्दर्येण आकारप्रकारेण गुणैश्व गौतमसदृश आसीत् । 'णवरं' विशेपस्तु 'सुमुहे णामं कुमारे' सुमुखो नाम कुमारः = तस्य कुमारस्य नाम सुमुख श्री सुधर्मास्वामी ने कहा- हे जम्बू ! उस काल उस समय द्वारका नाम की मनोहर नगरी थी, जिसका वर्णन पहिले आचुका है । उस नगरी में भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि तीर्थङ्करपरम्परासे विचरते हुए पधारे। उस द्वारका नगरी में बलदेव नामक राजा थे । उनकी पत्नी का नाम धारिणी था । वह अत्यन्त सुन्दर और सुकोमल थी । एक समय सुकोमल शय्या पर सोयी हुई धारिणी रानी ने स्वप्न में सिंह को देखा । स्वप्न देखते ही जागृत होकर उनने अपने पति के समीप जाकर स्वप्नवृत्तान्त सुनाया | स्वप्नानुसार उन्हें श्रेष्ठ पुण्योदय से पुण्यशाली पुत्र उत्पन्न हुआ । इस पुत्र का जन्म, वाल्यकाल आदि का वर्णन गौतमकुमार के समान जानना चाहिए । यह कुमार शील, स्वभाव, सुन्दरता और आकारप्रकार में गौतम મેલ્યા :– હું જમ્મૂ ! તે કાળ તે સમયે દ્વારકા નામે મનેહર નગરી હતી. જેનું વર્ણન પહેલાં આવી ગયું છે. તે નગરીમાં ભગવાન અહેતુ અરિષ્ટનેમિ તીથ કર– પરંપરાથી વિચરતા પધાર્યાં. દ્વારકા નગરીમાં ખલદેવ નામના રાજા હતા. તેમની પત્નીનું નામ ધારિણી હતું, જે અત્યન્ત સુંદર તથા સુકેમલ હતી, એક વખત સુકેામલ શય્યા ઉપર સુતેલી તે ધારિણી રાણીએ સ્વપ્નામાં સિંહને જોયે સ્વપ્ન આવતાંજ જાગૃત થઈ તે પેાતાના પતિ પાસે જઇ સ્વપ્નવૃત્તાન્ત સંભળાવ્યેા. પછી તેને સ્વપ્નાનુસારે શ્રેષ્ઠ પુણ્યાયથી પુણ્યશાલી પુત્ર ઉત્પન્ન થયા. તે પુત્રના જન્મ, ખાલ્યકાળ આદિનું વર્ણન ગૌતમ કુમારના જેવું જાણી લેવું. આ કુમાર શીલ, સ્વભાવ, સુંદરતા તથા આકાર
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे आसीत् । स सुमुखः कुमारो यौवनमनुप्राप्तः 'पण्णासं कण्णाओ' पञ्चाशत् कन्याः= राजकन्याः परिणीतवान् । परिणये 'पन्नासं दाओ' पञ्चाशद्विधो दायो लब्धः, यावत्स प्रत्रजितः । अनन्तरम् 'चोदस पुन्वाइं अहिज्जाइ' चतुर्दश पूर्वाणि अधीते । तस्य सुमुखस्यानगारस्य 'वीसं वासाइं परियाओ' विंशति वर्पाणि पर्यायः, पर्यायः दीक्षापर्यायः; 'सेसं तं चेव जाव सेत्तुंजे सिद्धे' शेपं तदेव यावत् शत्रुञ्जये सिद्धः, अनन्तरम् 'निक्खेवओ' निक्षेपका-उपसंहारवाक्यम्-- 'एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत्समाप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां तृतीयस्य वर्गस्य नवमस्य अध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः' इत्येवं विज्ञातव्यम् ॥ सू० ९ ॥ के समान ही था। उस कुमार का नाम सुमुख था। यौवन-अवस्था प्राप्त होने पर उस कुमार का विवाह पचास राजकन्याओं के साथ हुआ और विवाह में कन्याओं के मातापिता की तरफ से पचासपचास तरह का कुमार को दहेज मिला । अनन्तर जव भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि पधारे तव उनकी वाणी सुनकर वे उनके पास, वैराग्य से प्रत्रजित होगये । एवं थोडे काल में ही उन्होंने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया और बीस वर्ष पर्यन्त चारित्र पर्याय का पालन किया। अंतिम समय में सन्थारा करके शत्रुञ्जय पर्वत पर मोक्ष को प्राप्त हुए।
हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीरने अन्तकृतदशा-नामक आठवें अंग के तृतीय-वर्ग-सम्बन्धी नववें अध्ययन के भाव का इस प्रकार से वर्णन किया है ॥ ९ ॥ પ્રકારમાં ગૌતમના જેવો જ હતું તે કુમારનું નામ સુમુખ હતું. યુવાવસ્થા પ્રાપ્ત થતાં તે કુમારના વિવાહ પચાસ રાજકન્યાઓની સાથે થયા અને વિવાહમાં કન્યાઓના માતા-પિતા તરફથી પચાસ-પચાસ તરેહના દહેજ કુમારને મળ્યા. થોડા સમય પછી
જ્યારે ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિ પધાર્યા ત્યારે તેઓની વાણી સાંભળી ભગવાનની પાસે તેઓ વૈરાગ્યથી પ્રવ્રજિત થઈ ગયા. થોડા જ વખતમાં તેમણે ચૌદ પૂર્વનું અધ્યયન કર્યું અને વિશ વરસ પર્યન્ત ચારિત્રપર્યાયનું પાલન કર્યું. અંતિમ સમય સંથારો કરીને શત્રુંજય પર્વત ઉપર મેક્ષને પ્રાપ્ત થયા.
હે જન્! શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીરે અન્નકૃતદશા નામે આઠમા અંગના તૃતીય . वर्ग-संधी नवमा अध्ययननी भावमा प्रा२ वर्णन यों छे. (सू०८) .
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, दुर्मुखादिकुमारवर्णनम्
१२३ “एवं दुम्मुहे वि' एवं दुर्मुखोऽपि 'कूवदारए वि' कूपदारकोऽपि; यथा सुमुखः एवमेव दुर्मुखः कूपदारकोऽपि कुमारौ; 'दोण्हं वि वलदेवे पिया धारिणी माया' द्वयोरपि वलदेवः पिता धारिणी माता, सुमुखकुमारवदनयोरपि चरितं विज्ञेयम् ॥ १०-११॥ .
'दारुए वि एवं चेव' दारुकोऽपि एवमेव-दारुकस्यापि कुमारस्य सर्व चरितं पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् । 'णवरं' विशेष:-'वसुदेवे पिया, धारिणी माया'
वसुदेवः पिता धारिणी माता ॥ १२ ॥ . .. 'एवं अणादिट्ठी वि एवमनादिष्टिरपि=अनादिष्टेरपि चरितं पूर्ववदेव । ज्ञातव्यम् , अस्यापि कुमारस्य 'वसुदेवे पिया धारिणी माया' वसुदेवः पिता .. धारिणी माता। ‘एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स
इसी प्रकार दुर्मुख और कूपदारक कुमार का वर्णन जानना। इन्होंने भी अन्त समय सन्थारा करके मोक्ष को प्राप्त किया। इन दोनों के पिता का नाम बलदेव और माता का नाम धारिणी था। इनका सारा चरित्र सुमुख अनगार के समान ही जानना चाहिए ॥ १०-११ ॥
- दारुक कुमार का भी सारा वर्णन सुमुख कुमार के समान ही जानना । विशेष केवल इतना ही है कि इनके पिता का नाम वसुदेव था और माता का नाम धारिणी था ॥ १२ ॥ .. इस प्रकार अनादिष्टि के भी चरित्र का वर्णन जानना चाहिए। इनके पिता का नाम भी वसुदेव था और माता का नाम धारिणी था।
એજ પ્રકારે દુર્મુખ અને કૃપદારક કુમારનાં વર્ણન પણ જાણી લેવા જોઈએ. તેમણે પણ અંત સમયે સંથારા કરીને મેક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો હતે. એ બેઉના પિતાનું નામ બલદેવ અને માતાનું નામ ધારિણું હતું. તેમનું આખું ચરિત્ર સુમુખ અનગારના જેવું १ तj नये. (सू०१०-११)
દારુક કુમારનું પણ આખું ચરિત્ર સુમુખ કુમારના જેવું જાણવું. વિશેષ માત્ર એટલું જ છે કે તેમના પિતાનું નામ વસુદેવ તથા માતાનું નામ ધારિણી હતું. (સૂ) ૧૨) - આ પ્રકારે અનાદિષ્ટિના પણ ચરિત્રનું વર્ણન જાણવું જોઈએ. તેના પિતાનું નામ વસુદેવ અને માતાનું નામ ધારિણું હતું.
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अन्तकृतदशासूत्रे
अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स तेरसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते' एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां तृतीयस्य वर्गस्य त्रयोदशस्य अध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः ॥ सू० ३७ ॥
॥ इति त्रयोदशमध्यनं सम्पूर्णम् ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित-कोल्हापुर
राजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-व्रतिविरचितायाम् . अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य मुनिकुमुदचन्द्रिकायां टीकायां तृतीयवर्गः संपूर्णः ॥३॥
हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने अन्तकृतदशा नामक आठवें अंग के तृतीय वर्ग में तेहरवें अध्ययन के भावको कहा है ॥ १३ ॥
॥ इति तेरहवा अध्ययन संपूर्ण ॥
॥ इति तृतीय वर्ग संपूर्ण ॥
| હે જમ્મુ ! આ પ્રકારે મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે અન્તકૃતદશા નામે આઠમા અંગના તૃતીય વર્ગમાં તેરમા અધ્યયનના ભાવ કહ્યા છે. (સૂ૦ ૧૩)
ઇતિ તેરમું અધ્યયન સંપૂર્ણ ઇતિ તૃતીય વર્ગ સંપૂર્ણ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पद्मावतीवर्णनम्
१२५ ॥ अथ चतुर्थो वर्गः ॥ - ॥ मूलम् ॥ . जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्टमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयम? पण्णत्ते, चउत्थस्स णं भंते ! वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स वग्गस्स अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पण्णता, तं जहा-जालि मयालि उवयालि, पुरिससेणे य वारिसेणे य ।
पज्जुन्न संब अनिरुद्धे, सच्चनेमी य दढनेमी ॥१॥
जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अहे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई णामं णयरी होत्था। जहा पढमे कण्हे वासुदेवे आहेवच्च जाव विहरति ॥१॥
॥ टीका || तृतीयवर्गसमाप्त्यनन्तरं चतुर्थों वर्गः समारभ्यते-'जइ णं भंते' इत्यादि । 'जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयम? पण्णत्ते' यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां तृतीयस्स वर्गस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः, अयम्= पूर्वोक्तः अर्थः भावः, प्रज्ञप्तः प्ररूपितः। 'चउत्थस्स णं भंते ! वग्गस्स
. अथ चतुर्थ वर्ग . अब चतुर्थवर्ग के प्रारम्भ में श्री जम्बूस्वामी श्रीसुधर्मास्वामी से पूछते हैं कि-हे भदन्त ! श्रमण भगवान् महावीर प्रभु जो मुक्ति में पधारे, उन्होंने आठवें अङ्ग
- पथ यतुथ वर्ग - ત્રીજા વર્ગની સમાપ્તિ પછી ચતુર્થવર્ગના પ્રારંભમાં શ્રીજંબુસ્વામી શ્રી સુધમાં સ્વામીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ જે મુકિતમાં પધાર્યા તેઓએ આઠેમાં અંગ શ્રી અન્નકૃત સૂત્રના ત્રીજા વર્ગને જે ભાવ કહ્યા તે
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
अंतगडदसाणं समणेणं जात्र संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते' चतुर्थस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य अन्तकृतदशानां श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? = हे भदन्त ! भगवता चतुर्थस्य अध्ययनस्य कोऽर्थो निरूपितः ? सुधर्मा स्वामी माह एवं खलु जंबू ! समणेणं जात्र संपतेणं चउत्यस्स नग्गस्स अंतगाणं दस अणा पण्णत्ता' एवं खलु हे जम्बूः ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन चतुर्थस्य वर्गस्स अन्तकृत दशानां दश अध्ययनानि मज्ञप्तानि, 'तं जहा-
जालि सयालि उवयालि, पुरिससेणे य वारिणे य । पज्जुन्न संघ अनिरुद्धे, सच्चनेमी य दढनेमी ॥ १ ॥
तद्यथा-
जालिर्मयालिरूपयालिः, पुरुषसेन नारिषेण । मद्युम्नः साम्वोऽनिरुद्धः सत्यनेमि
भाव
कहा उसे मैंने
श्री अन्तकृत सूत्र के तृतीय वर्ग का जो आपके श्रीमुख से सुना । फिर उसके वाद हे भदन्त ! श्रमण भगवान् महावीरने चतुर्थवर्ग के भावों का निरूपण किस प्रकार से किया है, उसे कहने की कृपा करें ।
नेमिः ॥ १ ॥
इस प्रकार विनयशील सुशिष्य श्री जम्बूस्वामी के पूछने पर श्री सुधर्मा स्वामीने कहा- हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीरने अन्तकृतदशा नामक आठवें अङ्ग के चतुर्थ वर्ग में दश अध्ययनों का निरूपण किया है, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
(१) जालि (२) मयालि (३) उपयालि (४) पुरुष सेन (५) वारिषेण (६) प्रद्युम्न (७) साम्ब (८) अनिरुद्ध (९) सत्यनेमि और (१०) दृढनेमि ।
મેં આપના શ્રીમુખથી સાંભળ્યા. પછી હું બદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ચતુર્થ વર્ગના ભાવાતુ નિરૂપણ કયા પ્રકારે કર્યું છે, તે કહેવાની કૃપા કરી.
આ પ્રકારે વિનયશીલ સુશિષ્ય શ્રીજું ખૂસ્વામીએ પ્રશ્ન કરવાથી શ્રીસુધર્માં સ્વામીએ કહ્યું :- હું જંબૂ ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે અન્તકૃતદશા નામના આઠમાં અંગના થતુ વમાં દશ અધ્યયનેનું નિરૂપણ કર્યું છે, જેમનાં નામ આ પ્રકારે છે:(१) असि (२) भयासि (3) उपयासि (४) पुरुषसेन (4) वाश्षेिषु (६) अधुन (७) सामण (८) अनिरुद्ध (2) सत्यनेभि तथा (१०) दृढने.भि.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पद्मावतीवर्णनम् ।
‘जइ णं भंते ! समणंणे जाव संपत्तेणं चउत्थस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता' यदि खलु भदन्त श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन चतुर्थस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, 'पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं' प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत्संपाप्तेन 'के अट्टे' कोऽर्थः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? सुधर्मा स्वामी प्राह-‘एवं खलु जंबू!' एवं खलु हे जम्बूः ! 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'वारवई णामं णयरी होत्था' द्वारावती नाम नगरी आसीत् । 'जहा पढमे कण्हे वासुदेवे' यथा प्रथमे कृष्णो वासुदेवः 'आहेवचं नाव विहरइ' आधिपत्यं यावद् विहरति । द्वारावत्या नगर्याः कृष्णस्य वासुदेवस्य च वर्णनं प्रथमवर्गस्य प्रथमाध्ययनवद् विज्ञेयम् ॥ मू० १॥
॥ मूलम् ॥ तत्थ णं बारवईए णयरीए वसुदेवे राया, धारिणी देवी, वण्णओ० । जहा गोयमो, णवरं जालिकुमारे, पण्णासओ
- हे भदन्त ! यदि मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने चतुर्थ वर्ग में दस अध्ययनों का निरूपण किया है, तो उन्होंने प्रथम अध्ययन का क्या भाव कहा है ?
श्री सुधर्मा स्वामीने कहा-हे जम्बू ! भगवान्ने चतुर्थ वर्ग के प्रथम अध्ययन का भाव इस प्रकार कहा है:
उस काल उस समय में द्वारावती नामकी नगरी थी। जिसका वर्णन प्रथम अध्ययनमें कर चुके हैं और वहा श्री कृष्ण वासुदेव राज करते थे ॥ सू० १ ॥ " હે ભદન્ત ! જે મોક્ષ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે ચતુર્થ વર્ગમાં દશ અધ્યયનેનું નિરૂપણ કર્યું છે તો તેઓએ પ્રથમ અધ્યયનને શું ભાવ કહ્યો છે?
શ્રીસુધર્માસ્વામીએ કહ્યું - હે જબૂ! ભગવાને ચતુર્થ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનને ભાવ આ પ્રકારે કહ્યો છે :
તે કાલે તે સમયે દ્વારાવતી નામે નગરી હતી, (જેનું વર્ણન પ્રથમ વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનમાં અપાઈ ગયું છે) અને , ત્યાં શ્રીકૃષ્ણ વાસુદેવ રાજ્ય કરતા ता. (सू० १)
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे दाओ, वारसंगी, सोलसवासा परियाओ, सेसं जहा गोयमस्स जाव सेतुंजए सिद्धे । एवं मयालि उवयालि पुरिससेणे वारिसेणे य। एवं पज्जुन्ने वित्ति, णवरं कण्हे पिया, रुप्पिणी माया। एवं संवे वि, णवरं जंववई माता। एवं अनिरुद्धे वि, णवरं पज्जुन्ने पिया, वेदव्मी माया । एवं सच्चनेमी, णवरं समुद्दविजए पिया, सिवा माया । एवं दढनेमी वि । सवे एगगमा । चउत्थस्स वग्गस्स निक्खेवओ ॥ सू० २॥
॥ टीका ॥ ____ 'तत्थ णं' इत्यादि । 'तत्थ णं बारवईए णयरीए' तत्र खलु द्वारावत्यां नगी 'वसुदेवे राया' 'वसुदेवो राजा' धारिणी देवी, धारिणी देवी, 'वष्णओं' वर्णकः =वर्णनं पूर्ववदेव विज्ञेयम् । एकदा सुकोमलशव्यायां शयानाधारिणी स्वप्ने सिंहमवलोकितवती, स्वमवृत्तान्तं च वसुदेवाय निवेदितवती । अनन्तरम् 'जहा गोयमो, यथा गौतमः यथा गौतमः कुमार उत्पन्नः, तथैव तस्या अपि पुत्र उत्पन्नः । 'णवरं विशेषोऽयमेव यत्तस्य कुमारस्य नाम 'जालिकुमारे जालिकुमार आसीत् । संप्राप्ते यौवने तस्य कुमारस्य विवाहः पञ्चाशता राजकन्याभिः
उस द्वारावती नगरी में वसुदेव महाराजा राज करते थे, उनकी रानी का नाम धारिणी था जो अत्यन्त सकुमारी एवं सुशीला थी। एक समय सुकोमल शय्या पर सोयी हुई उस धारिणी देवीने स्वप्न में सिंह देखा । स्वप्नवृत्तान्त को उसने अपने पति वसुदेव को जाकर सुनाया । बाद गौतम के समान एक तेजस्वी बालक को महाराणीने जन्म दिया, जिसका नाम जालिकुमार रखा गया । जब वह कुमार युवावस्था को प्राप्त हुआ तय उसका विवाह पचास कन्याओं के साथ किया गया और उसे
તે દ્વારાવતી નગરીમાં વસુદેવ મહારાજા રાજ્ય કરતા હતા. તેમની રાણીનું નામ ધારિણી હતું, જે અત્યંત સુકુમાર અને સુશીલા હતી. એક સમય સુકમલ શગ્યા ઉપર નિદ્રાવસ્થામાં તે ધારિણી દેવીએ સ્વપ્નમાં સિંહ જે. સ્વનવૃત્તાન્ત તેણે પિતાના પતિ વસુદેવને કહી સંભળાવ્યું. ત્યાર પછી ગૌતમના જેવો એક તેજસ્વી બાળકને મહારાણીએ જન્મ આપે, જેનું નામ જાલિકુમાર રાખવામાં આવ્યું જ્યારે તે કુમાર યુવાવસ્થાને પ્રપ્ત થયા ત્યારે તેમનાં લગ્ન પચાસ કન્યાઓની સાથે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, जालिकुमारादीनां वर्णनम् सहाभूत् । विवाहे च तस्मै कन्यापितृभिः पण्णासओं दाओ' पञ्चाशद्विधो दायः= पञ्चाशत्मकारको दायो दत्तः । अनन्तरमेकदा स भगवदर्हदरिष्टनेमिसमीपे दर्शनार्थं गतः, तत्र भगवदुपदेशेन संजातवैराग्यो मातापित्रोरनुमत्या भगवतः समीपे प्रव्रजितः। प्रव्रज्यानन्तरं स 'वारसंगी' द्वादशाङ्गी-द्वादश अङ्गानि सन्त्यधीतत्वेनास्य सः-अधीतद्वादशाङ्गो जातः। अथ च तस्य 'सोलस वासा' पोडश वर्षाणि 'परियाओ' पर्यायःचारित्रपर्याय आसीत् । सेसं जहा गोयमस्स' शेपं यथा गौतमस्य यथा गौतमस्य अनगारस्य चरितं तथैव अस्यापि अनगारस्य अवशिष्टं चरितं विज्ञेयम् । 'जाव सेत्तुंजए सिद्धे' यावत् शत्रुञ्जये सिद्धा=असौ जालिकुमारोऽप्यनगारो मासिक्या संलेखनया शत्रुञ्जये पर्वते सिद्धः। 'एवं मयालि उवयालि पुरिससेणे य वारिसेणे य' एवं मयालिः, उपयालिः, पुरुषसेनश्च वारिषेणश्च--एवं मयाल्यादीनामपि चरितं विज्ञेयम् । एतेषामपि पिता वसुदेवो, माता धारिणी । 'एवं पज्जुण्णे वित्ति' एवं प्रशुम्नोऽपीति एवमेव श्वशुरपक्ष की ओर से पचास-पचास प्रकार का दहेज मिला। बाद एक दिन भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि विहार करते हुए द्वारका पधारे तब वह कुमार दर्शन करने के लिये गया और वहाँ भगवान् के उपदेश को सुनकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ जिससे वह मातापिता की आज्ञा प्राप्त कर प्रवजित होगया। प्रव्रज्या लेने पर उन्होंने बारह अंगों का अध्ययन किया और सोलह वर्ष पर्यन्त दीक्षा पर्याय पाली । अन्त में गौतम अनगार के समान इन्होंने भी मासिक सन्थारा किया और सर्वकर्म से मुक्त होकर शत्रुञ्जय पर्वत पर सिद्ध हुए ॥ १ ॥ इसी प्रकार मयालि, उपयालि, पुरुषसेन और वारिषेण का भी चरित्र जानना चाहिये। ये सभी वसुदेव के पुत्र और થયાં અને તેઓને સસરાં પક્ષ તરફથી પચાસ-પચાસ પ્રકારના દહેજ મળ્યા. ત્યાર પછી એક દિવસ ભગવાન અહંતુ અરિષ્ટનેમિ વિહાર કરતા થકા જ્યારે દ્વારકા પધાર્યા ત્યારે તે કુમાર દર્શન કરવા માટે ગયા અને ત્યાં ભગવાનને ઉપદેશ સાંભલી તેઓને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થયે જેથી તેઓ માતા-પિતાની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરી પ્રજિત થઈ ગયા. દિીક્ષા લીધા પછી તેઓએ બાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું અને સેળ વરસ સુધી દીક્ષાપર્યાયનું પાલન કર્યું. અંતમાં ગૌતમ અનગારની પેઠે તેઓએ પણ માસિક સન્હારે કર્યો તથા સર્વ કર્મથી મુક્ત થઈ શત્રુંજય પર્વત પર સિદ્ધ થયા (૧). આ પ્રકારે માલિ, ઉપયાલિ, પુરુષસેન અને વારિષણનું પણ ચરિત્ર જાણી લેવું જોઈએ. તે બધા વસુદેવના પુત્ર તથા ધારિણીના અંગજાત હતા. એ પ્રકારે પ્રદ્યુમ્નનું પણ ચરિત્ર
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे प्रद्युम्नस्यापि चरित विज्ञेयम् । 'णवरं' विशेपस्त्वयमेव यद् अस्य 'कण्हे पिया रुप्पिणी माया' कृष्णः पिता, रुक्मिणी माता । 'एवं संवे वि' एवं साम्बोऽपि, प्रद्युम्नवदेव साम्बस्यापि चरितं विज्ञेयम् । अस्यापि पिता कृष्ण एव । 'णवरं' विशेपस्त्वयम् – 'जंबवई माया' जाम्बवती माता । 'एवं अणिरुद्ध वि' एवमनिरुद्धोऽपि, अनिरुद्धस्यापि कुमारस्य चरितमेवं विज्ञेयम् । 'णवरं' विशेपस्तु-'पज्जुन्ने पिया वेदव्भी माया' प्रद्युम्नः पिता वैदर्भी माता । 'एवं सच्चणेमी एवं सत्यनेमिः-एवं सत्यनेमेरपि सर्व चरितं विज्ञेयम् । 'नवरं विशेषः'समुद्दविजए पिया सिवा माया' समुद्रविजयः पिता, शिवा देवी माता। ‘एवं दढनेमी वि' एवं दृढनेमिरपि दृढने मेरपि कुमारस्य चरितं पूर्ववदेव । अस्यापि मातापितरौ शिवादेवी-समुद्रविजयौ । 'सव्वे एगगमा सर्वाणि एक
धारिणी के अङ्गजात थे । इसी प्रकार प्रद्युम्न का भी चरित्र जानना चाहिए। परन्तु इनकी माता का नाम रुक्मिणी और पिता का नाम कृष्ण था ॥६॥ इसी प्रकार साम्बकुमार का भी चरित्र जानना चाहिये । इनके पिता कृष्ण और माता जाम्बवती थी ॥७॥ इसी तरह अनिरुद्ध का भी वृत्तान्त जानना, विशेप जीवन वृत्तान्त यह है कि इनके पिता का नाम प्रद्युम्न और माता का नाम वैभी था ॥ ८ ॥ तथा सत्यनेमि का भी वर्णन इसी प्रकार जानना, अन्तर केवल इतना है कि इनके पिता का नाम समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था ॥ ९ ॥ इसी प्रकार दृढनेमि का, इनके पिता का नाम भी समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था ॥ १० ॥
જાણવું. પરંતુ તેમની માતાનું નામ રુકિમણી અને પિતાનું નામ કૃષ્ણ હતું (૬). એ જ રીતે સામ્બનું પણ ચરિત્ર જાણી લેવું જોઈએ. તેમના પિતા કૃષ્ણ અને માતા જાંબવતી હતી (૭). એ જ પ્રકારે અનિરુદ્ધનું પણ વૃત્તાન્ત જાણવું. વિશેષ જીવનવૃત્તાન્ત એ છે કે એમના પિતાનું નામ પ્રદ્યુમ્ન અને માતાનું નામ વૈદભી હતું (૮). સત્યનેમિનું પણ વર્ણન એવુંજ જાણવું, અતર માત્ર એટલું જ છે કે એમના પિતાનું નામ સમુદ્રવિજય અને માતાનું નામ શિવાદેવી હતું (ઈ. એજ રીતે દઢનેમિનું વૃત્તાન્ત જાણવું. તેમના પિતાનું નામ સમદ્રવિજય અને માતાનું નામ શિવાદેવી तुं (१०). Mi मध्ययनाना पा8 (वर्शन) समान शत तक नये.
એટલુજ છે
(૮).
હતુ
જાણવું તેમના પિતાનું નામ શિવાલી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, जालिकुमारादीनां वर्णनम् गमानि, सर्वाणि अध्ययनानि समानपाठानीति भावः। 'चउत्थस्स वग्गस्स निक्खेवओ' चतुर्थस्य वर्गस्य निक्षेपका चतुर्थस्य वर्गस्य समाप्तिवाक्यम्- एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन चतुर्थस्य वर्गस्यायमर्थः प्रज्ञप्तःइत्येवं विज्ञातव्यम् ॥ मू० २ ॥
इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललित
कलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहू- छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदभूषित-कोल्हापुर- राजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री
घासीलाल-तिविरचितायाम् अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य मुनिकुमुदचन्द्रिकायां टीकायां चतुर्थों वर्गः संपूर्णः ॥४॥
- सभी अध्ययनों का पाठ (वर्णन) समान प्रकार से जानना चाहिये ।
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर प्रभुने चतुर्थ वर्ग के भावों को इस प्रकार कहा है ॥ सू० २ ॥
॥ इति चतुर्थ वर्ग संपूर्ण ॥
હે જંબૂ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ ચતુર્થ વર્ગના ભાવેને આ પ્રકારે ' ह्या छे (२० २)
ति न्यतुर्थ पू.
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१३२
॥ अथ पञ्चमो वर्गः ॥ ॥ मूलम् ॥
अंतगड साणं
जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स वग्गस्स अयमडे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? । एवं समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस पण्णत्ता, तं जहा -
खलु जंबू ! अज्झयणा
पउमावई व गोरी, गंधारी लक्खणा सुसीमा य । जंबवई सच्चभामा, रुप्पिणि मूलसिरी मूलदत्तावि ॥ १ ॥ जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? ॥ सू० १ ॥ ॥ टीका ॥
'जइ णं भंते' इत्यादि । 'जड़ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं' यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन 'चउत्थस्स वग्गस्स अयमठ्ठे पण्णत्ते' चतुर्थस्य वर्गस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः = पूर्वोक्तो भावः प्ररूपितः, 'पंचमस्स णं भंते ! ॥ अथ पञ्चम वर्ग ॥
अब पाँचवा वर्ग कहते है:
हे भदन्त ! सिद्विगति - नामक स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने अन्तकृत सूत्र के चौथे वर्ग में इन पूर्वोक्त भावों का निरूपण किया वह सुना, अब हे भदन्त ! इसके बाद - पंचम वर्ग में भगवान् ने कौनसे भाव निरूपण किये हैं ? श्री
અથ પંચમ વ
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
હવે પાંચમા વર્ગ કહે છે:
હે ભદન્ત ! સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત અન્તકૃતસૂત્રના ચોથા વમાં એ પૂર્વાંકત ભાવેનું નિરૂપણ કર્યું તે સાંભળ્યું. હવે હું ભદન્ત ! ત્યાર પછીના પાંચમાં વમાં ભગવાને ક્યા કયા ભાવ નિરૂપણુ કર્યા છે ?
શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पश्चमवर्गस्थिताध्ययनानां नामानि । १३३ वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?' पञ्चमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य अन्तकृतदशानां श्रमणेन यावत समाप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः । सुधर्मा स्वामी प्राह-एवं खल जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता' एवं खल हे जम्बूः! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन पञ्च- मस्य वर्गस्य दश अध्यनानि प्रज्ञप्तानिः । 'तंजहा
पउमावई य गोरी, गंधारी लक्खणा सुसीमा य । ... जंववई सच्चभामा, रुप्पिणि मूलसिरी मूलदत्ता वि ॥ १ ॥ तद्यथापद्मावती च गौरी, गान्धारी लक्ष्मणा सुपीमा च।
जाम्बवती सत्यभामा, रुक्मिणी मूलश्रीर्मूलदत्ताऽपि ॥१॥ . : 'जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढ़ें पण्णते' यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन पञ्चमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽथः प्रज्ञप्तः ? ॥ सू० १॥ सुधर्मा स्वामीने कहा-हे जम्बू ! सिद्धिगति-नामक स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने पञ्चम वर्ग में दस अध्ययनों का निरूपण किया है, वह इस प्रकार से है:. (१) पद्मावती (२) गौरी (३) गान्धारी (४) लक्ष्मणा (५) सुषीमा (६) जाम्बवती (७) सत्यभामा (८) रुक्मिणी (९) मूलश्री और (१०) सूलदत्ता ।
श्रीजम्बूस्वामी पूछते हैं-हे भदन्त ! यदि भगवान ने पंचम वर्ग में पद्मावती आदि दस अध्ययनोंका निरूपण किया है શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ કહ્યું- હે જંબૂ! સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પંચમ વર્ગમાં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે, જે આ પ્રકારે છે – ... (१) पावती (२) गी1 (3) गान्धारी (४) १६भए! (५) सुपीमा (6) annad(७) सत्यमामा (८) रुभिणी (6) भूयश्री तथा (१०) भूसत्ता.
શ્રી જખ્ખસ્વામી પૂછે છે-હે ભદન્ત! જે ભગવાને પંચમ વર્ગમાં પદ્માવતી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
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॥ मूलम् ॥ एवं खलु जंबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई णामं णयरी होत्था, जहा पढमे, जाव कण्हे वासुदेवे आहेवच्चं जाव विहरइ । तस्स णं कण्हस्स वासुदेवस्स पउमावई नामं देवी होत्था। वण्णओ०। तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्रनेमी समोसढे जाव विहरइ । कण्हे निग्गए जाव पज्जुवासइ। तए णं सा पउमावई देवी इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ट तुटु० जहा देवई जाव पज्जुवासइ । तए णं अरहा अरिटुनेमी कण्हस्स वासुदेवस्स पउमावईए देवीए जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया। तए णं कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्रनेमि वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीइमीसे णं भंते! बारवईए दुवालसजोयणआयामाए जाव पच्चक्खं देवलोगभूयाए किंमूलए विणासे भविस्सइ ? कण्हाइ ! अरहा अरिटुनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु ! कण्हा ! इमीसे बारवईए णयरीए दुवालसजोयणआयामाए नवजोयण जाव पच्चक्खं देवलोगभूयाए सुरग्गिदीवायणमूलए विणासे भविस्सइ ॥ सू० २ ॥
॥ टीका ॥ "एवं खलु' इत्यादि ।
'एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चारवई णाम णयरी तो उनमें प्रथम अध्ययन के भाव का किस प्रकार निरूपण किया है ॥ सू० १ ॥
श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं
हे जम्बू ! उस काल उस समय में द्वारावती नामकी नगरी थी, આદિ દશ અધ્યયનું નિરૂપણ કર્યું છે તે તેમાં પ્રથમ અધ્યયનના ભાવને કયા ४ारे नि३५५५ श्या छ ? (सू०१)
સુધર્મા સ્વામી કહે છે :હે જંબૂ!તે કાલ તે સમયે દ્વારાવતી નામની નગરી હતી. તે નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका अरिष्टनेम्यागभनं, कृष्णपद्मावत्योस्तदर्शनार्थ गमनं च १३५ होत्था' एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावती नाम नगरी आसीत् । 'जहा पढमे जाव कण्हे वासुदेवे आहेवचं जाव विहरइ' यथा प्रथमे यावत् कृष्णो वासुदेव आधिपत्यं यावद् विहरति । 'तस्स णं कण्हस्स वासुदेवस्स पउमावई नामं देवी होत्था' तस्य खलु कृष्णस्य वासुदेवस्य पद्मावती नाम देवी आसीत् । देवी पट्टमहिषी । 'वण्णओ' वर्णका-पद्मावत्या वर्णनमन्यराजीवदन्यतोऽवसेयम् । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी समोसढे' तस्मिन् काले तस्मिन् समये अईन् अरिष्टनेमिः समवस्ताद्वारावत्यां नगर्या समुपागतो 'जाब विहरइ यावद् विहरति । 'कण्हे निग्गए जाव पज्जुवासई' कृष्णो निर्गतो यावत्पर्युपास्ते । 'तए णं सा पउमावई देवी'ततः खलु सा पद्मावती देवी 'इमीसे कहाए लट्ठा समाणी' अस्याः कथायाः लब्धार्थी सती ज्ञातभगवदागमनवृत्तान्ता सती 'हट्टतुट० जहा देवई जाव पज्जुवासइ' हृष्टतुष्ट० उस नगरी में कृष्ण वासुदेव राजा राज्य करते थे। द्वारावती नगरी
और कृष्ण वासुदेव का विस्तृत वर्णन प्रथम वर्ग में हो चुका है। उन कृष्ण वासुदेव की रानी का नाम पद्मावती था, जो अत्यन्त सुकुमार अंगवाली थी। इस सम्बन्ध का वर्णन अन्य रानी के समान जानना चाहिये । - , उस काल उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि भगवान् विचरते हुए वहा पधारे, और उद्यानपाल की आज्ञा लेकर उद्यानमें ठहरे, एवं तपसंयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। भगवान् का आगमन सुनकर कृष्ण वासुदेव उनके दर्शन के लिये गये और यावत् उपासना करने लगे। भगवान के आनेका वृत्तान्त जानकर पद्मावती देवी भी अत्यन्त हृष्ट-तुष्ट हो देवकी રાજા રાજ્ય કરતા હતા. દ્વારાવતી નગરી અને કૃષ્ણ વાસુદેવનું સવિસ્તર વર્ણન પ્રથમ વર્ગમાં અપાઈ ગયું છે. તે કૃષ્ણ વાસુદેવની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું, જે અત્યંત સુકુમાર અંગવાળી હતી. તેનું વિસ્તૃત વર્ણન બીજી રાણીઓના જેવું જાણવું જોઈએ. { તે કાલ તે સમયે અહંત અરિષ્ટનેમિ ભગવાન વિચરતા થકા ત્યાં પધાર્યા તથા ઉદ્યાનપાલની આજ્ઞા લઈને ઉદ્યાનમાં વિરાજ્યા અને તપસંયમથી આત્માને ભાવિત કરતા વિચરવા લાગ્યા. ભગવાનના આગમનના સમાચાર સાંભળી કૃષ્ણ વાસુદેવ તેમનાં દર્શન માટે ગયા અને યાવતું ઉપાસના કરવા લાગ્યા. ભગવાનના આવવાના સમાચાર જાણી રાણી પદ્માવતી દેવી અત્યંત હૃષ્ટતુષ્ટ થઈ દેવકીની પિઠે ધાર્મિક રથ પર ચઢી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे यथा देवकी यावत् पर्युपास्ते । देवकीवदेपाऽपि पद्मावतीदेवी हृष्टतुष्टहृदया धार्मिकरथमारुह्य भगवत्समीपे दर्शनार्थ गतेत्यर्थः। 'तए णं अरहा अरिहनेमी कण्हस्स वासुदेवस्स पउमावईए देवीए' ततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः कृष्णस्य वासुदेवस्य पद्मावत्या देव्याः, 'जाव धम्मकहा' यावद् धर्मकथा। कृष्णं वासुदेवं पद्मावती देवी चोद्दिश्य भगवता धर्मकथा कथितेत्यर्थः । धर्मकथाश्रवणानन्तरं 'परिसा पडिगया' परिपत् प्रतिगता-धर्म श्रुत्वा परिपत् स्वस्वस्थानं प्रतिनिवृत्ता । 'तए णं कण्हे वासुदेवे अरहं अस्टिनेमि वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' ततः खलु कृष्णो वासुदेवः अर्हन्तमरिष्टनेमि वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवदत्-'इमीसे णं भंते ! वारवईए णयरीए दुवालसजोयणआयामाए जाव पञ्चक्खं देवलोगभूयाए किंमूलए विणासे भविस्सइ' अस्याः खलु भदन्त ! द्वारावत्या नगर्या द्वादशयोजनायामाया यावत् प्रत्यक्षं देवलोकभूतायाः किम्मूलको विनाशो भविष्यति । अस्या द्वारकायाः केन कारणेन विनाशो भविष्यतीति भावः! 'कण्हाई' कृष्ण के समान ही धार्मिक रथपर चढकर भगवान के दर्शन के लिये निकली और भगवान् के समीप जाकर विधियुक्त वन्दन-नमस्कार किया। उसके बाद भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव तथा रानी पद्मावती को उद्देश करके धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर परिषत् अपने २ घर लौट आयी। उसके बाद कृष्ण वासुदेवने अहत अरिष्टनेमि को वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-हे भदन्त ! बारह योजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक समान इस द्वारका नगरी का विनाश किस कारण से होगा ?
भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-हे कृष्ण ! बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौडी तथा प्रत्यक्ष ભગવાનનાં દર્શન માટે નીકળી, અને ભગવાનની પાસે જઈને વિધિસહિત વંદનનમસ્કાર કર્યા. ત્યાર પછી ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિએ કુણુ વાસુદેવ તથા રણ પદ્માવતીને ઉદેશીને ધર્મકથા કહી. ધર્મકથા સાંભળી પરિષદુ તિપિતાને ઘેર પાછી ગઈ. ત્યાર પછી કૃષ્ણ વાસુદેવે અહંતુ અરિષ્ટનેમિને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે પૂછયું :- હે ભદન્ત ! બાર યોજન લાંબી આ પ્રત્યક્ષ દેવકના જેવી દ્વારકા નગરીને વિનાશ કયા કારણથી થશે?
ભગવાન અહંતુ અરિષ્ટનેમિએ કૃષ્ણ વાસુદેવને આ પ્રકારે કહ્યું - હે કૃષ્ણ !
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, द्वारावत्या विनाशविषये कृष्णारिष्टनेम्योः संवादः १३७ इति = हे कृष्ण ! इत्युक्त्वा 'अरहा अरिनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी' अर्हन् अरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत् - ' एवं खलु कण्हा - ! इमीसे वारवईए णयरीए' एवं खलु हे कृष्ण ! अस्या द्वारावत्या नगर्याः 'दुवालसजोयणआयामाए नवजोयण जाव पञ्चक्खं देवलोगभूयाए' द्वादशयोजनायामाया नवयोजनयावत् - प्रत्यक्षं देवलोक भूतायाः = द्वादशयोजनपर्यन्तं लम्बायमानाया नवयोजनपर्यन्तं विस्तृतायाः स्वर्गतुल्याया अस्या द्वारावत्या नगर्याः 'सुरग्गिदीवायणमूलए' सुराग्निद्वैपायनमूलक:- सुराग्निद्वैपायनाः-मुरा= मदिरा, अग्निः = अनलः, द्वैपायनः = ऋषिविशेषः, एते मूलं कारणं यस्मिन् सः, सुराग्निद्वैपायननिमित्त इत्यर्थः विनाशः = विध्वंसेा भविष्यति । यदुवंशिनां सुरापानेन, द्वैपायनऋषेरपराधेन, निदानवशादग्निकुमार देवतयोत्पन्नद्वैपायनऋषिकृताग्निवर्षणेन चैतत्कारणत्रयेण द्वारकाया विनाशो भविष्यतीति भावः 11 500 R 11
॥ मूलम् ॥
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तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अरहओ अरिट्टने मिस्स अंतिए एयम सोच्चा अयमेयारूवे अज्झत्थिए ४ समुप्पन्नेधन्ना णं ते जालि-मयालि - उवयालि - पुरिससेण-वारिसे - पज्जुन्न-संब- अणिरुद्ध - दढने मि- सच्चनेमिप्पभियओ कुमारा, जें णं चिच्चा हिरण्णं जाव परिभाएत्ता अरहओ अरिट्टने मिस्स अंतियं मुंडा जाव पवइया, अहणणं अपने अकयपुण्णे रज्जे य जाव अंतेउरे य माणुस्सएस् य कामभोगेसु मुच्छिए नो संचाएमि अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतिए जाव पव्वइत्तए । कण्हाइ ! अरहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - से नूर्ण कण्हा ! तत्र अयं अज्झत्थिए ४ समुत्पन्ने धन्ना णं ते
देवलोक समान इस द्वारका नगरीका विनाश मदिरा, अग्नि और द्वैपायन ऋषि के क्रोध के कारण होगा || सू० २ ॥
ज
ખાર ચેાજન લાંખી, નવ. ચેાજન પહેાળી તથા પ્રત્યક્ષ દેવલેાકના સમાન આ દ્વારકાનગરીનો विनाश भहिरा, अग्नि भने द्वैपायन ऋषिना शेधना अर थशे. ( सू० २ )
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अन्तकृतदशास्त्रे जाली जाव पव्वइत्तए; से नूणं कण्हा! अयमढे समटे ? हंता! अत्थि ॥ सू०३॥ .
॥टीका ॥ . .. 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अरहओ अरिहनेमिस्स अंतिए एयमहूँ सोचा अयमेयारूवे अज्झथिए ४ समुप्पन्ने' ततः खलु कृष्णस्य वासुदेवस्य अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा अयमेवंरूप आध्यात्मिकः ४ समुत्पन्नः । अहंतोऽरिष्टनेमेरन्तिके द्वारकाया विनाशकारणं श्रुत्वा कृष्णस्य वासुदेवस्याऽऽत्मनि वक्ष्यमाणप्रकारो विचारः समुत्पन्न इति भावः । कीदृशः स विचारः ? इत्याह-'धन्ना णं ते' धन्याः खलु ते, 'जालिमयालि-उवयालि-पुरिससेण-चारिसेण-पज्जुन्न-संव-अणिरुद्ध-दढनेमि-सच्चनेमिप्पभियओ कुमारा'जालि-मयाल्युपयालि-पुरुपसेन-वारिषेण-प्रधुम्न-साम्बा -निरुद्ध-दृढनेमि-सत्यनेमि-प्रभृतयः कुमाराः, 'जे णं चिच्चा हिरणं जाव परिभाएत्ता' ये खलु त्यक्त्वा हिरण्यं. यावत्परिभाज्य=ये खलु कुमारा हिरण्यादिकं स्वीयं धनं परित्यज्य वान्धवेभ्यो याचकेभ्यश्च दत्त्वा 'अरहओ अरिहनेमिस्स अंतियं मुंडा जाव पव्वइया' अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके मुण्डा यावत् पत्रजिताः, 'अहणं अधन्ने अकयपुण्णे' अहं खलु अधन्योऽकृतपुण्यः, योऽहम् 'रज्जे य जाव अंतेउरे य माणुस्सएसु कामभोगेसु मुच्छिए'
भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप इस प्रकार द्वारका नगरी का वृत्तान्त जानने के बाद श्रीकृष्ण वासुदेव के हृदय में ऐसा आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुआ कि. वे जालि, मयालि, उपयालि, पुरुषसेन, वारिषेण, प्रद्युम्न, साम्ब, अनिरुद्ध, दृढनेमि
और सत्यनेमि धन्य हैं कि जिन्होंने अपनी सम्पत्ति, स्वजन और याचकों को देकर अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप मुण्डित हो प्रव्रजित हो गये। मैं तो अधन्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ, जिससे मैं राज्य में,
ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિ સમીપે દ્વારકા નગરીનો વિનાશ વૃત્તાન્ત આવી રીતે સાંભળ્યા પછી શ્રી કૃષ્ણ વાસુદેવના હૃદયમાં એ આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન थयो त, भयाति, Guयाति, पुरुषसेन, पाश्रिय, प्रधुम्न, सांभ, मनिस, ઢનેમિ તથા સત્યનેમિને ધન્ય છે કે જેઓએ પિતાની સંપત્તિ, સ્વજન તથા વાચકને 'આપીને અહંત અરિષ્ટનેમિ પાસે મુંડિત થઈ પ્રજિત થઈ ગયા. હું તે અધન્ય છું, અકૃતપુણ્ય છું, કેમકે રાજ્યમાં, અંતઃપુરમાં તથા મનુષ્યસબંધી કામગમાંજ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका कृष्णस्याभ्यात्मिको विचारः
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अन्तःपुरे च: मानुष्यकेषु च
कामभोगेषु
राज्ये च यावत् सुखेषु मूर्च्छितः । अतो 'नो संचाएमि अरहओ अरिहने मिस्स अंतिए जाव yapar' नो शक्नोमि अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके यावत् प्रव्रजितुं - अहं न शक्नोमि = न समर्थोऽस्मि अर्हतोऽरिष्टनेमेः समीपे मत्रजितुं दीक्षां ग्रहीतुम् । एवं विचारयन्तं कृष्णं वासुदेवं 'कहा ' कृष्ण ! इति सम्बोध्य, 'अरहा अरिनेमी कण्ह वासुदेवं एवं वयासी' अनरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवादीत्- 'से नृणं कण्डा !" तन्नूनं हे कृष्ण ! ' तव अयं अज्झत्थिए समुप्पण्णे' तवायमाध्यात्मिकः समुत्पन्नः = हे कृष्ण ! तव मनसि एतादृशो विचारः समुत्पन्नः, यत् - ' घण्णा णं ते जाली जाव पव्वइत्तए' धन्याः खलु ते जालियवत् प्रव्रजितुम् = ते जालिप्रभृतिसत्य नेमिपर्यन्ताः कुमारा एव धन्याः, ये हि परित्यज्य प्रविभज्य च हिरण्यादीनि धनानि अदरिष्टनेमिसविधे दीक्षिताः, अहं हि राज्ये अन्तःपुर में तथा मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों में ही फंसा हुआ पडा रहा ! क्या मैं भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप प्रव्रज्या नहीं ले सकता ?
उस समय अपने ज्ञान द्वारा कृष्ण वासुदेव के हृदय में आये हुए विचारों को जानकर उन आर्तध्यान करते हुए कृष्ण 'वासुदेव को 'कृष्ण' इस शब्द से सम्बोधन कर अर्हत् अरिष्टनेमिने इस प्रकार कहा :
हे कृष्ण ! तुम्हारे मनमें इस प्रकार की भावना हो रही है कि उन जालि आदिकुमारों को धन्य है कि जो अपना धन वैभव याचकों और सम्बन्धियों में बाँट कर अनगार होगये। मैं तो अधन्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ, जो ऐहिक भोगविलास में ही फसा हुवा पडा रहा। क्या मैं अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप *સાએલા પડી રહ્યો છું. શું હું ભગવાન અર્હત અરિષ્ટનેમિ પાસે દીક્ષા ન લઈ શકું ? તે સમયે પેાતાના દિવ્યજ્ઞાનથી કૃષ્ણ વાસુદેવના હૃદયમાં ઉત્પન્ન થએલા વિચારાને જાણી, આત ધ્યાન કરતા તે કૃષ્ણ વાસુદેવને, ‘હું કૃષ્ણ ' એ શબ્દથી સબાધન કરી અર્હત્ અરિષ્ટનેમિએ આ પ્રકારે કહ્યુ :
હું કૃષ્ણ ! તમારાં મનમાં આવા પ્રકારની ભાવના થઇ રહી છે કે તે જાલિ આદિ કુમારને ધન્ય છે કે જેઓ પેાતાનાં ધન-વૈભવને યાચકે તથા સમધીઓમાં વહેંચી આપી અનગાર થઇ ગયા. હું તે અધન્ય છું, અકૃતપુણ્ય છુ, જેથી ઐહિક ભાગવિલાસમાંજ ફસાએલા પડયા રહ્યો છું. શું હું અતિ અરિષ્ટનેમિ પાસે દીક્ષા
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
अन्तःपुरे कामभोगेषु च मूच्छितो न शक्नोमि भगवदन्तिके दीक्षां ग्रहीतुम् । 'से नृणं कण्हा ! अयमट्ठे समट्ठे ?' तन्नूनं हे कृष्ण ! अयमर्थः समर्थः ? इति भगवत्कथनानन्तरं कृष्णः माह - 'हंता ! अत्थि' हन्त ! अस्ति, 'हन्त' इति कथितस्वीकारे; हे भदन्त ! यद् भवता प्रोक्तं तत्सर्वं सत्यमेवास्ति || सू० ३ ॥ ॥ मूलम् ॥
तं नो खलु कण्हा ! एवं भूयं वा भवं वा भविस्सइ वा जन्नं वासुदेवा चइत्ता हिरन्नं जाव पवइस्संति । से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-न एवं भूयं वा जाव पवइस्संति ! कण्हाइ अरहा अरिनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी- एवं खलु कण्हा ! सवे वि य णं वासुदेवा पुवभवे नियाणकडा, से एएण्ट्ठेणं कण्हा ! एवं बुच्चइ - न एवं जाव पवइस्संति ॥ सू० ४ ॥ ॥ टीका ॥
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'तं नो' इत्यादि । 'तं नो खलु कण्हा ! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सर वा जन्नं वासुदेवा चइत्ता हिरन्नं जाव पव्त्रइस्संति' तन्नो खलु कृष्ण ! एवं भूतं वा भव्यं वा भविष्यति वा यत्खलु वासुदेवास्त्यक्त्वा हिरण्यं यावत् प्रव्रजिष्यन्ति !=हे कृष्ण ! वासुदेवाः कामभोगान् त्यक्त्वा हिरण्यादिकं सर्वे प्रविभाज्य न प्रत्रजिताः, न मत्रजन्ति, न वा प्रत्रजिष्यन्ति यतः कालत्रयेऽपि प्रव्रज्या नहीं ले सकता ?
हे कृष्ण ! क्या मैंने तुम्हारे हृदय में जो बात उत्पन्न हुई वह कही, वह बिलकुल ठीक है ?
कृष्ण ने कहा- हे भदन्त ! आप सर्वज्ञ हैं, आपसे कोई बात छिपी हुई नहीं है, आपने जो कुछ है ॥ ० ३ ॥ कहा वह सर्वथा सत्य
भगवान् ने कहा- हे कृष्ण ! वासुदेव अपने भवमें हिरण्य ન લઈ શકું ?
હે કૃષ્ણુ ! તમારા હૃદયમાં ઉત્પન્ન થએલ જે વાત મેં કહી તે ઠીક છે ? કૃષ્ણે કહ્યુ “હે ભદન્ત ! આપે જે કહ્યું છે તે અધુ ઠીક છે, કારણકે આપ सर्वज्ञ छो, यापथी अर्थ वात सन्नगी नथी ( सू० 3 )
ભગવાને કહ્યું-હે કૃષ્ણ, એ તે કદી ભૂતકાળમાં બન્યું નથી, વર્તમાનમાં બનતુ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, वासुदेवस्य प्रव्रज्याऽभावे कारणम् १४१ वासुदेवानामनगारित्वमसम्भवि । एतच्छ्रुत्वा कृष्णो वासुदेवः प्राह-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-न एवं भूयं वा जाव पव्वइस्संति' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- न एवं भूतं वा यावत् पत्रजिष्यन्ति । एतच्छ्रुत्वा 'कण्हाइ'= कृष्ण ! इति संवोध्य, 'अरहा अरिहनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी' अर्हन् अरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत् , 'एवं खलु कण्हा !' एवं खलु हे कृष्ण ! 'सव्वे वि य णं वासुदेवा पुन्वभवे नियाणकडा' सर्वेऽपि च खलु वासुदेवाः पूर्वभवे निदानकृताः= हे कृष्ण ! सर्वेऽपि वासुदेवाः पूर्वजन्मनि कृतनिदाना भवन्ति । ‘से एएणडेणं कण्हा ! एवं बुच्चइ-न एवं जाव पवईस्संति' तदेतेनार्थेन कृष्ण ! एवमुच्यते न एवं भूतं यावत् प्रत्रजिष्यन्ति हे कृष्ण ! एतस्मादेव कारणादेवमुच्यते यद् वासुदेवानां कालत्रयेऽपि प्रव्रजनमसंभवि ॥ मू० ४ ॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिहनेमि एवं वयासीअहं णं भंते ! इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिस्सामि ? कर्हि उववजिस्सामि ? तए णं अरहा अरिट्रनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - एवं खल्लु कण्हा ! तुमं बारवईए ·णयरीए आदि संपत्ति को छोडकर भूत काल में न कभी प्रत्रजित हुए, वर्तमान में न प्रव्रजित होते हैं, और न भविष्य में प्रवजित बनेंगे ।
कृष्ण ने कहा-हे भदन्त ! इस प्रकार आप क्यों कहते हैं ?
भगवान्ने कहा-हे कृष्ण ! सभी वास्लुदेव अपने पूर्वजन्म में निदानकृत (नियाणा करने वाले) होते हैं। इसीलिये मैं ऐसा कहता हूँ-न कभी हुआ, न होता है, न कभी होगा जो कि वासुदेव अपनी हिरण्य आदि संपत्ति को छोडकर प्रवजित बनें ॥ सू० ४ ॥ નથી, તેમ કદી ભવિષ્યમાં બનનાર પણ નથી કે વાસુદેવ પિતાના હિરણ્ય આદિ સંપત્તિને છોડીને પ્રવૃજિત થાય.
કૃષ્ણ કહ્યું- હે ભદન્ત! એ પ્રકારે આપ કેમ કહે છે?
ભગવાને કહ્યું- હે કૃષ્ણ! બધા વાસુદેવ પિતાના પૂર્વજન્મમાં નિદાનકૃત (નિયાણું કરવાવાળા) થાય છે. તેથી હું એમ કહું છું કે કયારેય નથી બન્યું, હાલ નથી બનતું અને હવે પછી કયારેય બનશે નૈહિ કે વાસુદેવ પિતાની હિરણ્ય આદિ સંપત્તિને छ। प्रनित थाय (सू० ४)
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे सुरग्गिदीवायणकोवनिद्दड्ढाए अम्मापिइनिययविप्पहणे रामेण बलदेवेण सद्धिं दाहिणवेलाए अभिमुहे जोहिडिल्लपामोक्खाणं पंचण्हं पंडवाणं पंडुरायपुत्ताणं पासं पंडुमहुरं संपत्थिए कोसंबवणकाणणे नग्गोहवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टए पीयवस्थपच्छाइयसरीरे जरकुमारेणं तिक्खेणं कोदंडविप्पमुक्केणं इसुणा वामे पाए विद्धे समाणे कालमासे कालं किच्चा तच्चाए वालयप्पभाए पुढवीए जाव उववजिहिसि ॥ सू० ५॥
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिहनेमि एवं वयासी' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः अर्हन्तमरिष्टनेमिम् एवमवदत्-'अहं णं भंते ! इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिस्सामि ? कहिं उववज्जिस्सामि ?' अहं खलु भदन्त ! कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यामि ? कुत्र उत्पत्स्ये ? । 'तए णं अरहा अरिहनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी' ततः खलु अन्नरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवादीत्-‘एवं खलु कण्हा!' एवं खलु हे कृष्ण ! 'तुमं वारवईए णयरीए सुरग्गिदीवायणकोवनिद्दड्ढाए' त्वं द्वारावत्यां नगर्या सुराग्निद्वैपायनकोपनिर्देग्धायाम् 'अंबापिइनिययविप्पहूणे' अम्बापितृनिजकविप्रहीणः हे कृष्ण ! सुरानिद्वैपायनकोपेन द्वारावत्यां नगर्या प्रज्वलितायां सत्यां मातापितृभ्यां स्वजनेभ्यश्च विहीनस्त्वम् 'रामेण बलदेवेण सद्धि' रामेण वलदेवेन साद्धम्स्वज्येष्ठभ्रात्रा रामेण सह 'दाहिणवेलाए अभिमुहे' दक्षिणवेलाया अभिमुखे
यह सुनकर कृष्ण वासुदेवने अहत् अरिष्टनेमि से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! मैं कालमास में कालकर कहाँ जाऊँगा ? कहा उत्पन्न होऊँगा ? भगवान्ने कहा-हे कृष्ण ! अग्नि और द्वैपायनऋषि के क्रोध से इस द्वारका नगरी का नाश होजाने पर एवं अपने मातापिता और स्वजनों से विहीन होकर तुम राम बलदेव के साथ दक्षिण समुद्र के किनारे पाण्डुराजा के पुत्र युधि
આ સાંભળી કૃષ્ણ વાસુદેવ અહંતુ અરિષ્ટનેમિને આ પ્રકારે કહ્યું - હે ભદન્ત! હું કાલમાસમાં કોલ કરીને કયાં જઈશ? કયાં ઉત્પન્ન થઈશ? ભગવાને કહ્યું- હે કૃષ્ણ. મદિરા, અગ્નિ, દ્વેપાયન ઋષિના કોધથી આ દ્વારકા નગરીનો નાશ થઈ જવાથી તથા પિતાના માતા પિતા અને સ્વજનથી વિહીન થઈ રામ બલદેવની સાથે દક્ષિણ સમુદ્ર
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णस्य स्वविषये प्रश्नः
१४३ 'जोहिडिल्लपामोक्खाणं' युधिष्ठिरप्रमुखाणां 'पंचण्हं पंडवाणं पंडुरायपुत्ताणं' पञ्चानां पाण्डवानां पाण्डुराजपुत्राणां 'पास' पार्श्वम्-समीपे 'पंडुमहुरं संपत्थिए' पाण्डुमथुरां संपस्थितः, पाण्डुपुत्राणां युधिष्ठिर-भीमार्जुन-नकुल-सहदेवानां समीपे पाण्डुमथुरां प्रति प्रस्थित इति भावः, 'कोसंववणकाणणे' कोशाम्रवनकानने कोशाम्रनामकफलविशेषवृक्षाणामरण्ये 'नग्गोहबरपायवस्स' न्यग्रोधवरपादपस्य= महावटवृक्षस्य 'अहं' अधः छायायामित्यर्थः, 'पुढविसिलापट्टए' पृथ्वीशिलापट्टकेभूमिस्थितशिलापट्टके 'पीयवस्थपच्छाइयसरीरे' पीतवस्त्रप्रच्छादितशरीरः-पीताम्वरमच्छादिततनुः सन् शयानो 'जरकुमारेणं जरकुमारेण 'तिक्खेणं' तीक्ष्णेन% निशितेन 'कोदंडविप्पमुक्केणं' कोदण्डविप्रमुफेन कोदण्डाद् विप्रमुक्तः कोदण्डविप्रमुक्तस्तेन-धनुर्विनिर्गतेन, 'इसुणा' इषुणा-वाणेन 'वामे पाए विद्धे समाणे' वामे पादे. विद्धः सन् 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा मृत्युसमये मृत्युं प्राप्य 'तचाए वालुयप्पभाए पुढवीए' तृतीयस्यां वालुकाप्रभायां पृथिव्याम् 'जाव उववजिहिसि' यावदुपपत्स्यसे ॥ मू० ५ ॥
॥ मूलम् ॥ तए णं कण्हे वासुदेवे अरहओ अरिट्रनेमिस्स अंतिए एयमदं सोचा निसम्म ओहय जाव झियाइ। कण्हाइ ! अरहा अरिटुनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-मा णं तुमं ष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव इन पांचों पाण्डवों के समीप पाण्डुमथुरा की तरफ जाते हुए विश्राम लेने के लिये कोशाम्रवृक्ष के वनमें अत्यन्त विशाल वट वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर पीताम्बर से अपनी देह को ढाक कर सो जाओगे। उस समय जराकुमार द्वारा मृगकी आशङ्का से चलाया हुवा तीक्ष्ण बाण तुम्हारे दाहिने पैरको बोधेगा । इस प्रकार बाणविद्ध होकर तुम कालमास में काल करके तीसरी पृथ्वी में उत्पन्न होवोगे।॥ सू. ५ ॥ કિનારે પાંડુરાજાના પુત્ર યુધિષ્ઠિર, ભીમ, અર્જુન, નકુલ અને સહદેવ એ પાંચે પાંડેની પાસે પાંડુમથુરા તરફ જાતા થકા વિશ્રામ લેવા માટે કે શામ્રવૃક્ષના વનમાં અત્યંત વિશાલ વટ વૃક્ષની નીચે પૃથ્વીશિલાપટ્ટ પર પીતાંબરથી તમારા શરીરને ઢાંકીને સૂઈ જશે. તે સમયે જરાકુમાર દ્વારા મૃગની આશંકાએ ચલાવેલ તીર્ણ બાણથી તમારે ડાબે પગ વિંધાઈ જશે. આમ બાણ લાગવાથી કાલમાસમાં કોલ કરી त्री पृथ्वीमा Shri थी, (सू०५).
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॥ टीका ॥
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे देवाणुप्पिया ! ओहय जाव झियाहि ।। एवं खलु तुम देवाणुप्पिया ! तच्चाओ पुढवीओ उज्जलियाओ अणंतरं उबिट्टित्ता इहेव जंबूदीवे भारहे वासे आगमेस्साए उस्सम्पिणीए पुंडेसु जणवएसु सयदुवारे वारसमे अममे नामं अरहा भविस्ससि, तत्थ तुमं बहूई वासाइं केवलपरियायं पाउणित्ता सिज्झिहिसि ॥ सू० ६ ॥
_ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं कण्हे वासुदेवे अरही अरिहनेमिस्स अंतिए' ततः खलु कृष्णो वासुदेवः अर्हतोऽरिष्टनेमेः अन्तिके 'एयमद्वं' एतमर्थम् उक्तमर्थस् ‘सोच्चा निसम्म ओहय जाव झियाइ' श्रुत्वा निशम्य अवहत यावद् ध्यायति । ततः 'कण्हाइ' कृष्ण ! इति संवोध्य 'अरहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी' अर्हन अरिष्टनेमिः कृष्णं वासुदेवम् एवमवदत्'मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय जाव झियाहि' मा खलु त्वं देवानुप्रिय ! अवहत यावद् ध्याय, यतः ‘एवं खलु तुमं देवाणुप्पिया !' एवं खलु त्व हे देवानुप्रिय ! 'तच्चाओ पुढवीओ उज्जलियाओ' तृतीयस्याः पृथिव्या उज्ज्वलितायाः 'अणंतरं' अनन्तरम् 'उविट्टित्ता' उद्धृत्य=निःसृत्येत्यर्थः, 'इहेव जंबूदीवे भारहे वासे' इहैव जम्बूद्वीपे भारते वक्-इह जम्बूद्वीपस्थितभरतक्षेत्रे 'आगमेस्साए उस्सप्पिणीए' आगमिष्यन्त्याम् उत्सर्पिण्याम्, 'पुंडेसु जणवएसु'
___ अपनी भविष्यदशा का उक्त वर्णन अहत् अरिष्टनेमि के मुख से सुनकर कृष्ण वासुदेव आर्तध्यान करने लगे। उस समय आर्तध्यान करते हुए कृष्ण वासुदेव को भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमिने इस प्रकार कहा
. हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार दुःख मत करो; क्यों कि आनेवाली उत्सर्पिणी काल में तृतीय पृथ्वी से निकल कर इसी जम्बूद्वीप स्थित भरतक्षेत्र के पुण्ड जनपद के शतद्वार नगर में 'अमम'
પિતાની ભવિષ્ય દશાને ઉકત વર્ણન અહંતુ અરિષ્ટનેમિના મુખેથી સાંભળી કૃષ્ણ વાસુદેવ આર્તધ્યાન કરવા લાગ્યા. તે સમયે આર્તધ્યાન કરતા કૃષ્ણ વાસુદેવને ભગવાન અહંતુ અરિષ્ટનેમિએ આ પ્રકારે કહ્યું –
હે દેવાનુપ્રિય! આપ દુઃખ ન કરે, કેમકે આવતા ઉત્સર્પિણી કાલમાં તૃતીય પૃથ્વીથી નીકળીને આ જંબુદ્વિીપમાં આવેલા ભરતક્ષેત્રના પંડ્રજનપદના શતદ્વાર
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मु. टीका, अरिष्टनेमिकृतो भावितीर्थकरत्वेन कृष्णस्योत्पत्तिनिर्देशः १४५ 'पुण्डेषु जनपदेषु 'सयदुवारे' शतद्वारे शतद्वारनामके नगरे 'वारसमे अममे नाम अरिहा भविस्ससि' द्वादशः अममो नाम अर्हन् भविष्यसि, 'तत्थ तुम वहूई वासाई केवलपरियायं पाउणित्ता' तत्र त्वं बहूनि वर्षाणि केवलपर्याय पालयित्वा 'सिज्झिहिसि' सेत्स्यसि-सिद्धो भविष्यसि ॥ सू० ६ ॥...
... तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहओ अरिट्रनेमिस्स अंतिए एयमद्रं सोचा निसम्म हटतुटु० अप्फोडेइ, अप्फोडित्ता वग्गइ, वग्गित्ता तिवई छिंदइ, छिदित्वा सीहनायं करेइ, करिता अरहं अरिट्टनेमि वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता तमेव अभिसेकं हस्थिरयणं दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव बारवई णयरी जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए अभिसेयहत्थिरय'णाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव बाहिरिया उवटाणसाला जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता कोडंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! बारवईए णयरीए सिंघाडग जाव उवघोसे-माणा एवं वयह--एवं खलु देवाणुप्पिया ! बारवईए णयरीए
दुवालसजोयणआयामाए जाव पञ्चक्खं देवलोगभूयाए सुरग्गिदीवायणमूलए विणासे भविस्सइ, तं जो णं देवाणुप्पिया! इच्छइ बारवईए णयरीए राया वा जुवराया वा ईसरे तलवरे माडंबिए कोडुबिए इन्भे सेट्टी वा देवी वा कुमारो वा
कुमारी वा अरहओ अरिटुनेमिस्स अंतिए मुंडे जाव पवइ- त्तए, तं णं कण्हे वासुदेवे विसज्जइ, पच्छातुरस्स वि य से नामक बाहरवें तीर्थङ्कर बनोगे। वहाँ बहुत वर्षोंतक केवलपर्याय का पालन कर सिद्विपद पाओगे। ॥ सू० ६ ॥ નગરમાં “અમૂમ નામના બારમા તીર્થંકર થશે, ત્યાં ઘણાં વર્ષો સુધી કેવલપર્યાયનું पासनश सिद्धपहने भगवा (सू०.६), .. .
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे अहापवित्तं वित्तं अणुजाणइ, महया इड्ढीसकारसमुदएण य से निक्खमणं करेइ, दोचं पि तचं पि घोसणयं घोसेह, घोसइत्ता मम एयं आणत्तियं पञ्चप्पिणह। तए णं ते कोडंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति ॥ सू० ७ ॥
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहओ अरिहनेमिस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म' ततः खल्लु स कृष्णो वासुदेवः अर्हतोऽरिष्टनेमेः अन्तिके एतमर्थ श्रुखा निशम्य 'हट्टतुट्ट० अप्फोडेइ' हृष्टतुष्ट० आस्फोटयति हृष्टतुष्टहृदयः सन् वाहुमास्फालयति, 'अप्फोडित्ता' आस्फोट्य= वाहुमास्फाल्य 'वग्गइ' वल्गति-उच्चैः शब्दं करोति, 'वग्गित्ता' वल्गित्वा, 'तिवई छिंदई' त्रिपदी छिनत्ति पश्चात् पदत्रयमुल्लङ्घन्ते-समवसरणे पदत्रयं समुच्छलतीत्यर्थः, छिदित्ता' छित्त्वा 'सीहनायं करेइ' सिंहनादं करोति, 'करिता अरहं अरिटनेमि वंदइ णमंसइ' कृत्वा अर्हन्तमरिष्टनेमि वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा, 'तमेव अभिसेक्कं हत्थिरयणं' तदेव आभिषेक्यं हस्तिरत्नम् 'दुरूहइ' दृरोहति-आरोहति, 'दुरूहिचा जेणेव वारवई णयरी जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए' दूरुह्य यत्रैव द्वारावती नगरी यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैव उपागतः 'अभिसेयहत्थिरयणाओ' आभिषेक्यहस्तिरत्नात् 'पञ्चो
अर्हत् अरिष्टनेमि के मुख से अपना भविष्य वृत्तान्त सुनकर कृष्ण वासुदेव हृष्टतुष्टहृदय से अपनी भुजा फरकाने लगे और खुशी के कारण जोर २ से आवाज करते हुए समवसरणमें फूत्ती से तीन कदम तक पीछे गये और वहाँ सिंहनाद करने लगे । बाद में भगवान् अहत् अरिष्टनेमि को वन्दना-नमस्कार कर आभिषेक्य हस्तिरत्नपर चढकर द्वारका नगरी में होते हुए अपने महल में पहुँचे। हाथी से उतर कर जहाँ उपस्थानशाला थी और जहां उनका
અહંત અરિષ્ટનેમિના મુખથી પિતાના ભવિષ્યનું વૃત્તાન્ત સાંભળીને કૃષ્ણ વાસુદેવ હતુષ્ટહદયથી પિતાની ભુજા ફરકાવવા લાગ્યા અને આનંદમાં આવી જઈને જોર જોરથી અવાજ કરતા સમવસરણમાં કુતીથી ત્રણ પગલાં સુધી પાછા ગયા અને ત્યાં સિંહનાદ કરવા લાગ્યા. પછી ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિને વંદન નમસ્કાર કરી આભિષેક્ય હસ્તિરન (શ્રેષ્ઠ હાથી) પર ચઢીને દ્વારકા નગરીમાં થઈને પિતાના મહેલમાં પહોંચ્યા. હાથી ઉપરથી ઉતરી જ્યાં ઉપસ્થાન શાલા (કચેરી, બેઠક) હતી અને જ્યાં
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णकृता द्वारकायां प्रव्रज्याघोषणा, १४७ रुहइ' प्रत्यवरोहति अवतरति, 'पच्चोरुहिता' प्रत्यवरुह्य अवतीर्य 'जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव स्वकं सिंहासनं तत्रैव उपागच्छति, ‘उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे' उपागत्य सिंहासनवरे पौरास्त्याभिमुखः पूर्वाभिमुखो 'निसीयइ निषीदति-उपविशति, 'निसीइत्ता कोडुबियपुरिसे सदावेइ' निषद्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, 'सदावित्ता एवं वयासी' शब्दयित्वा एवमवदत्-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! वारवईए णयरीए सिंघाडग जाव उवघोसेमाणा एवं वयह' गच्छत खलु यूयं हे देवानुप्रियाः ! द्वारावत्यां नगयो शृङ्गाटक यावत् महापथेषु उपघोषयन्त एवं वदत-हे देवानुपियाः ! यूयं चतुष्पथादिषु सर्वस्थलेषु गत्वा एवं घोषणामुद्घोषयत-यत् ‘एवं खलु देवाणुप्पिया! वारवईए गयरीए दुवालसजोयणआयामाए जाव पच्चक्खं देवलोगभूयाए सुरग्गिदीवायणमूलए विणासे भविस्सइ' एवं खलु देवानुप्रियाः ! द्वारावत्या नगर्याः द्वादशयोजनायामाया यावत् प्रत्यक्ष देवलोकभूतायाः सुरानिद्वैपायनमूलको विनाशो · भविष्यति-हे देवानुपियाः ! द्वादशयोजनदीर्घा नवयोजनविस्तृता यावत् प्रत्यक्षदेवलोकसमाना · एषा द्वारका सुरानिद्वैपायनकोपामिदाहेन विनष्टा भविष्यति, 'तं जो णं देवाणुप्पिया। इच्छइ वारवईए णयरीए' तद् यः खलु देवानुपियाः ! इच्छति द्वारावत्या सिंहासन था वहाँ गये, वे सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे
और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! इस द्वारका नगरी के प्रत्येक चतुष्पथ (जहां चार रास्ते मिलते हैं)
आदि सभी स्थलों में मेरी आज्ञा को इस प्रकार उद्घोषित करो कि-हे देवानुप्रियों ! बारह योजन लम्बी नौ योजन चौडी यावत् प्रत्यक्षदेवलोक सदृश इस द्वारका नगरी का नाश मदिरा, अग्नि और द्वैपायन ऋषि के द्वारा होगा। इसलिये द्वारका नगरीका कोई भी व्यक्ति તેમનું સિંહાસન હતું ત્યાં ગયા. તેઓ સિંહાસન પર પૂર્વાભિમુખ થઈને બેઠા અને કૌટુંબિક પુરુષને બેલાવીને તેઓએ આ પ્રકારે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે ! આ દ્વારકાનગરીના પ્રત્યેક ચતુષ્પથ (જ્યાં ચાર માર્ગ ભેગા થાય) આદિ બધાં સ્થળમાં મારી આજ્ઞાને આ પ્રકારે ઉદ્દેષિત કરે (જાહેર કરે) કે હે દેવાનુપ્રિયે! બાર યોજન લાંબી, નવ જન પહોળી અને પ્રત્યક્ષ દેવલેક જેવી આ દ્વારકા નગરીને નાશ મદિરા, અગ્નિ તથા વૈપાયન ત્રાષિ દ્વારા થશે. માટે દ્વારકા નગરીની કઈ પણ વ્યકિત, ચાહે તે
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.. अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे नगर्या 'राया वा' राजा वा 'जुवराया वा' युवराजो वा 'ईसरे तलवरे' ईश्वरस्तलवरो 'माउंविए' माडम्बिकः 'कोडुविए' कौटुम्बिकः 'इन्भे सेट्ठी वा' इभ्यः श्रेष्ठी वा 'देवी वा' देवी वा 'कुमारो वा' कुमारो वा 'कुमारी वा' कुमारी वा 'अरहओ अरिहनेमिस्स अंतिए' अतः अरिष्टनेमेरन्तिके 'मुंडे जाव पव्वइत्तए' मुण्डो यावत् प्रत्रजितुम् , 'तं णं कण्हे वासुदेवे विस्सज्जइ' .. तं खलु कृष्णो वासुदेवो विसृजति तस्मै कृष्णो वासुदेवः प्रव्रजितुमाज्ञां ददाति, 'पच्छातुरस्स वि य से अहापवितं वित्तं अणुजाणई' पश्चादातुरायापि स यथापत्तं वित्तम् अनुजानाति-यः कश्चिदनगारो भविष्यति, तद्गृहे यः कश्चिद् वालो वा वृद्धो वा रोगी वा भविष्यति, तत्परिपोषणार्थ स कृष्णो वासुदेवो यावता तत्परिपोषणं भविष्यति तावद् वित्तं दत्त्वा सर्वथा तस्य निर्वाह करिष्यति, पुनश्च 'महया इडिसकारसमुदएण य से निक्खमणं करेइ' महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन तस्य निष्क्रमणं करोति-महद्धिसत्कारैस्तस्य दीक्षामोहत्सवं करिष्यतीति भावः । 'दोचपि तच्चपि घोसणं घोसेह' द्वितीयमपि तृतीयमपि घोषणां घोषयत-हे देवानुप्रियाः ! यूयमेवंविधां ममाज्ञाघोषणां द्विवारं त्रिवारं चाहे वह राजा हो, युवराज हो, ईश्वर हो, तलवर हो, माडम्बिक हो, कौटुम्बिक हो, इभ्यश्रेष्ठी हो, रानी हो, कुमार हो, या कुमारी हो, जो भी भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप प्रव्रजित होना चाहते हों उन्हें कृष्ण वासुदेव प्रव्रज्या लेने की आज्ञा देते हैं। जो कोई प्रवजित होगा उसके पीछे घर में जो कोई बाल, वृद्ध और रोगी होंगे उनका परिपोषण कृष्ण वासुदेव स्वयं अपनी तरफ से करेंगे, और जो दीक्षित होंगे उनका दीक्षामहोत्सव बहुत बडे समारोह के साथ श्रीकृष्ण अपनी ओर से ही करेंगे । इस . प्रकार दो बार-तीन बार घोषणा करके मेरे पास आओ और मुझे રાજા હોય, યુવરાજ હૈય, ઈશ્વર હોય, તલવર હેય, માડંબિક હેય, કૌટુંબિક હોય, ઈભ્યશ્રેણી હોય, રાણું હેય, કુમાર હોય, કુમારી હોય તે ભગવાન અહંત અરિઇનેમિ પાસે દીક્ષા લેવા ચાહતા હોય તો તેને કૃષ્ણ વાસુદેવ દીક્ષા લેવાની આજ્ઞા આપે છે. જે કઈ દીક્ષા લેશે તેના ઘરમાં જે કઈ બાલ, વૃદ્ધ અને રોગી હશે તેનું પાલનપોષણ કૃષ્ણ વાસુદેવ તમામ પ્રકારે કરશે, અને જે દીક્ષા લેશે તેમને દીક્ષામહોત્સવ ઘણું મેટા સમારોહથી શ્રી કૃષ્ણ પિતાના તરફથી કરશે. આ પ્રકારે બે ત્રણ વાર ઘોષણા કરીને મારી પાસે આવે અને મને સૂચિત કરે. ત્યાર પછી તે કૌટુંબિક
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कौटुम्बिककृतकृष्णाज्ञोद्घोषणा
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घोषयत, 'घोसत्ता मम एवं आणत्तियं पञ्चपिह' बोपयित्वा ममैतामाइसि प्रत्यर्पयत - घोषणानन्तरं यूयं मां निवेदयत । 'तए णं ते कोईवियपुरिसा जात्र पञ्चपिणंति' ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा यावत् प्रत्यर्पयन्ति - ते राजपुरुषाः वासुदेवस्य कृष्णस्याज्ञां शिरसि धारयित्वा सर्वत्र तामुद्घोष्य great कृष्णाय वासुदेवाय निवेदयन्ति ॥ सू० ७ ॥
॥ मूलम् ॥
तए णं सा पउमावई देवी अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुङ जाव हियया अरहं अरिनेमिं वंदs णमंसs, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - सहामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं, से जहेयं तुभे वदह, जं णवरं देवाप्पिया ! कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि, तए णं अहं देवाप्पियाणां अंतिए मुंडा जाव पवयामि । अहासुहं देवाशुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह ॥ सू० ८ ॥ ॥ टीका ॥
'a f' इत्यादि । 'तए णं सा पउमावई देवी अरहओ अमिस्स' ततः खलु सा पद्मावती देवी अर्हतोऽरिष्टनेमे : 'अंतिए' अन्तिके= समीपे 'धम्मं' धर्मे=सर्वविरतिरूपं ‘सोच्चा निसम्म' श्रुत्वा निशम्य = हृदयेऽवधार्य 'हट्ट जाहिया' हृष्टतुष्टया हृदया 'अरहं अनेिमिं चंद णमंसः' अर्हन्तमरिष्टनेमि सूचित करो । उसके बाद वे कौटुम्बिक पुरुष कृष्ण वासुदेव की आज्ञा को सर्वत्र उद्घोषित (जाहिर) करते हैं और शहरमें सर्वत्र उद्घोषणा करने के बाद उसकी सूचना पुनः श्री कृष्ण वासुदेव को करते हैं || सू० ७ ॥
उसके बाद वह पद्मावती देवी अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप धर्म सुनकर और उसे अपने हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट यावत् भावपूर्ण हृदय से भगवान को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार પુરુષ કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞાને સર્વત્ર ઉદ્દેાષિત( જાહેર) કરે છે અને શહેરમાં સર્વત્ર ઉદ્દેાષણા કર્યાં પછી તેની સૂચના શ્રી કૃષ્ણ વાસુદેવને આપે છે. (સ્૦ ૭)
ત્યાર પછી તે પદ્માવતી દેવી અર્હત્ અરિષ્ટનેમિની પાસે ધમ સાંભળીને તે પોતાના હૃદયમાં ધારણ કરી હતુષ્ટ ભાવપૂર્ણ હૃદયથી ભગવાનને વંદના તથા
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
चन्दते नमस्यतिः 'वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवदत् - 'सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं' श्रद्दधामि खलु भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, 'से जहेयं तुम्भे वदह' तद्यथैतद् यूयं वदथ, 'जं नवरं' यो विशेषः, स तु एवम् - 'देवाणुपिया' हे देवानुप्रिय ! हे भदन्त ! 'कण्डं वासुदेवं आपूच्छामि' कृष्णं वासुदेव मापृच्छामि 'तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पन्चयामि' ततः खलु अहं देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा यावत् पव्रजामि पश्चात् कृष्णानुमत्याऽहं भवत्समीपे दीक्षिता भूत्वा मत्रजिष्यामि । भगवानाह - 'अहासुह देवापिया' यथासुखं देवानुप्रिये ! ' मा पडिबंधं करेह' मा प्रतिबन्धं कुरु ।हे देवाप्रिये ! यथा ते स्वात्मसुखकरं भवेत् तथा कुरु । अत्र शुभकार्ये यथा प्रतिबन्धो नो भवेत्तथा प्रयतनीयमिति भावः ॥ ०८ || ॥ मूलम् ॥
तए णं सा पउमावई देवी धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव बारवई णयरी जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणाओ पच्चोरुहइ, पञ्चोरुहिता जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता करयल० जाव कट्टु कण्हं वासुदेवं एवं वयासीइच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुभेहिं अन्भणुष्णाया समाणी अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतिए मुंडा जाव पवयामि, अहासुहं बोली- हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मेरी श्रद्धा है । आपका सभी उपदेश यथार्थ है । उसके श्रवण से मेरी आँखें खुल गई हैं । इसलिये मैं श्रीकृष्ण वासुदेव से पूछकर आपके समीप प्रत्रजित होना चाहती हूँ | भगवान ने कहा- हे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो। शुभ कार्य में प्रमाद न करो ॥ सृ० ८ ॥
નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે મેલી:– હે ભદન્ત ! નિગ્રન્થ પ્રવચન પર મને શ્રદ્ધા છે. આપને બધે ઉપદેશ યથાર્થ છે. તેના શ્રવણથી મારી આંખ ઉઘડી ગઇ છે, તેથી હું શ્રીકૃષ્ણુ વાસુદેવને પૂછીને આપની પાસે દીક્ષા લેવા ચાહું છું. ભગવાને કહ્યું – હૈ દેવાનુપ્રિયે! જેમ તમારા આત્માને સુખ થાય તેમ કરે. શુભ કાર્ય માં પ્રમાદ नये (सू० ८ )
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पदमावत्या दीक्षासमारोहः
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देवाप्पिए । तर णं से कहे वासुदेवे कोडुबिए पुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! पउमावईए देवीए महत्थं निक्खणाभिसेयं उवटुवेह, उवटूवित्ता एवं आणत्तियं पञ्चविपणह । तए णं ते कोडुबिया जाव पञ्चष्पिणति ॥ सू० ९ ॥
॥ टीका ॥
'तए णं' इत्यादि । 'तर णं सा पउमावई देवी' ततः खलु सा पद्मावती देवी 'धम्मियं जाणप्पवरं' धार्मिकं यानमवरं = धार्मिकं रथम् ; यो हि रथः केवलं धर्माचरणायैव रक्षितो भवति स धार्मिको रथ उच्यते; 'दुरूह ' दूरोहति 'दुरुहित्ता जेणेव वारवई णयरी जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छ ' दूरु यत्र द्वारावती नगरी यत्रैत्र स्वकं गृहं तत्रैव उपागच्छति, 'उनागच्छित्ता धम्मियाओ जाणाओ पच्चोरुहइ' उपागत्य धार्मिकाद् यानात् प्रत्यवरोहति = अवतरति, 'पच्चोरुहिता' प्रत्यवरुह्य = अवतीर्य 'जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उनागच्छंइ, उवागच्छित्ता करयल जाव कट्टु' यत्रैव कृष्णो वासुदेवः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य करतल० यावत् कृत्वा = करतलपरिगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा 'कण्डं वासुदेवं' कृष्णं वासुदेवम् ' एवं वयासी' एवमवदत् - 'इच्छामि णं देवाणुप्रिया ! तुभेहिं अम्भणुष्णाया समाणी अरहो अरिनेमिस्स अंतिए' इच्छामि खलु हे देवानुमिया ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती अर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तिके 'मुंडा जाव पव्त्रयामि' मुण्डा यावत् मवजामि । हे स्वामिन् ! भवदनुज्ञाता सती भगवतोऽर्हतोऽरिष्ट ने मेरन्तिके मत्रजितुमिच्छामीति भावः । ' तर णं से कण्हे
उसके बाद वह पद्मावती देवी धार्मिक रथ पर चढकर द्वारका नगरी की ओर लौटी और अपने महल में आकर धार्मिक रथ से उतरी, तथा जहाँ कृष्ण वासुदेव थे वहाँ गयी । वहाँ जाकर उनके समीप हाथ जोडकर इस प्रकार बोली- हे देवानुप्रिय ! मैं भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप प्रव्रजित होना चाहती हूँ, इसलिये
ત્યાર પછી તે પદ્માવતી દેવી ધાર્મિક રથ ઉપર ચઢીને દ્વારકા નગરી તરફ પાછી ગઈ અને પેાતાના મહેલમાં આવીને ધાર્મિક રથ ઉપરથી ઉતરી, અને જ્યાં કૃષ્ણે વાસુદેવ હતા ત્યાં જઇ તેમની સમીપે હાથ જોડીને આ પ્રકારે ખેલી-હૈ દેવાનુપ્રિય ! ભગવાન અત્ અરિષ્ટનેમિની પાસે દીક્ષા લેવા ચાહુ છુ, તે માટે મારી પ્રાના
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अन्तकृतदशासत्रे वासुदेवे कोडुविए पुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं चयासी' ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कौटुम्विकपुरुपान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवदत्-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! पउमावईए देवीए' क्षिप्रमेव भो देवानुमियाः ! पद्मावत्या देव्या 'महत्थं निक्खमणाभिसेयं' महाथै निष्क्रमणाभिषेकं-विशालं दीक्षामहोत्सवम् 'उवट्टवेह' उपस्थापयत-सजयत । हे देवानुप्रियाः ! देवी पद्मावती भगवतोऽरिष्टनेमेः समीपे प्रव्रजितुमिच्छति; यूयं तस्या दीक्षाऽभिषेकसामग्रीरुपकल्पयतेत्यर्थः, अनन्तरम् ‘एवं आणत्तियं पच्चप्पिणह' एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत=निवेदयत। 'तए णं ते कोईविया जाव पच्चप्पिणंति' ततः खलु ते कौटुम्बिका यावत् प्रत्यर्पयन्ति। श्रीमतामाज्ञाऽस्माभिः सम्यक् संपादितेति ते कौटुम्बिकपुरुपाः कृष्णं निवेदयन्तीत्यर्थः ।। भू० ९ ॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमावइं देवि पट्टयं दुरूहइ, दुरूहिता अट्टसएणं सोवन्नकलस० जाव निक्खमणाभिसएणं अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता सवालंकारविभूसियं करेइ, करिता पुरिससहस्सवाहिणी सिवियं दुरुहावेइ, दुरुहावित्ता बारवईणयरीमझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छिता जेणेव रेवयए मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे इस पवित्र कार्य के लिये आज्ञा दें।
पद्मावती द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर कृष्ण वासुदेवने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! शीघ्रातिशीघ्र पद्मावती देवी के लिये विशाल दीक्षा महोत्सव की तैयारी करो। तैयारी होजाने के बाद मुझे सूचना करो। तदनुसार उन कौटुम्बिक पुरुपोंने दीक्षामहोत्सव की तैयारी करके पुनः उसकी सूचना कृष्ण वासुदेव को दी ॥ सू० ९ ॥ છે કે આપ આ પવિત્ર કાર્ય માટે આજ્ઞા આપે.
પદ્માવતી દ્વારા આ પ્રકારે કહેવામાં આવતાં કૃષ્ણ વાસુદેવે કૌટુંબિક પુરુષને બોલાવ્યા અને આમ કહ્યું - હે દેવાનુપ્રિયે ! એકદમ ઉતાવળથી પદ્માવતી દેવીને માટે મહાન્ દીક્ષા મહોત્સવની તૈયારી કરે. તૈયારી કરીને મને સૂચના કરે એ પ્રમાણે તે કૌટુંબિક પુરુએ દીક્ષા મહોત્સવની તૈયારી કરી અને તેની સૂચના કૃષ્ણ વાસુદેવને मापी. ( सू० ८)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पद्मावत्या दीक्षाग्रणम्
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पवए जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छन्, उवागच्छित्ता, सीयं ठवेइ, पउमावई देवी सीयाओ पच्चोरुहइ । तए णं से कहे वासुदेवे पउमावई देवि पुरओ कट्टु जेणेव अरहा अरिटुनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्टनेमि आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता, वंदइ णमंसइ, वंदिता णमंसित्ता एवं वयासीएस णं भंते ! मम अग्गमहिसी पउमावई नामं देवी इट्टा कंता पिया मणुन्ना मणामा अभिरामा जीविय उसासा हिययाणंदजणिया उंबरपुष्कं पिव दुल्लभा सवणयाए, किमंग ! पुणे पासणयाए ? तन्नं अहं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणीभिक्खं दलयामि, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सणीभिक्खं । अहासुहं । तए णंसा पउमावई देवी उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवकमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ, करिता जेणेव अरहा अरिनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्टनेमिं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - आलिते जाव धम्ममाइक्खियं ॥ सू० १० ॥ ॥ टीका ॥
'तए णं' इत्यादि । 'तर णं से कण्हे वासुदेवे पउमावई देवि ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः पद्मावतीं देवीं 'पट्टयं' पट्टकं = पट्टकफलकं 'दुरुह ' दूरोहयति, 'दुरुद्दित्ता असणं सोवन्नकलस० जाव निक्खमणाभिसेएणं' दूरोहा अष्टशतैः सौवर्ण कलशैर्यावत् निष्क्रमणाभिषेकम् 'अभिसिंचइ' अभिपिश्चति=करोति । कृष्णो वासुदेवो देवीं पद्मावत फलके समारोह्य अष्टशतसुवर्णमय कलशैर्यावत् स्नपयतीति भावः । 'अभिसि चित्ता' अभिषिच्य 'सव्वालंकारविभूतियं' सर्वालङ्का
"
उसके बाद स्वयं कृष्ण वासुदेवने पद्मावती को पाट पर बैठाकर एक सौ आठ स्वर्ण कलशों से स्नान करवाया यावत्
ત્યાર પછી સ્વયં કૃષ્ણુ વાસુદેવે પદ્માવતીને પાટ ઉપર બેસાડીને એકસે આ સુવર્ણ કલશથી સ્નાન કરાવ્યું અને દીક્ષાને અભિષેક કર્યાં, તથા બધા અલકારાથી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
रविभूषितां= सर्वालङ्कारैरलंकृतां 'करेड़' करोति, 'करिता ' कृत्वा 'पुरिससहस्सवाहिणि सिवियं दुरूहावे३' पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दुरोहयति । अभिषेकानन्तरं कृष्णो वासुदेव: पद्मावतीं देवीं सहस्रपुरुपैरुह्यमानायां शिविकायामारोहयतीत्यर्थः ' दुरूहाविचा वारवईणयरीमज्झमज्झेणं निम्गच्छन्' दूरो द्वारावतीनगरीमध्यमध्येन निर्गच्छति, 'निग्ग च्छित्ता जेणेव' निर्गत्य यत्रैव 'dare roar जेणेव सहस्संववणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता सिवियं ठवे' रैवतकः पर्वतो यत्रैव सहस्राम्रवनम् उद्यानं तत्रैव उपागच्छति, उपागस्य शिविकां स्थापयति, 'पउमावई देवी सीयाओ' पद्मावती देवी शिविकायाः 'पच्चीरुह' प्रत्यवरोहति - अवतरतीत्यर्थः । 'तए णं' ततः खलु 'से कहे वासुदेवे पउमावई देविं पुरओ कट्टु जेणेव अरहा अरिनेमी तेंव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता अरहं अरिनेमिं बंदर णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' स कृष्णो वासुदेव: पद्मावतीं देवी पुरतः कृत्वा यत्रैव अन् अरिष्टनेमिः . तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य अर्हन्तमरिष्टनेमिं त्रित्व आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थिता एवमवदत् - 'एस णं भंते ! मम अग्गमहिसी पउमावई नामं देवी इट्ठा कंता पिया मणुन्ना दीक्षा का अभिषेक किया और सभी अलङ्कारों से अलङ्कृत करके हजार पुरुषों से वाहित शिविका पर उसे बैठाकर द्वारका नगरी के बीचोबीच होते हुए धामधूम से जहाँ रैवतक पर्वत था और जहाँ सहस्राम्रवन उद्यान था वहाँ लाकर शिबिका उतरवायी, उस समय पद्मावती देवी के शिबिका से उतर जाने के अनन्तर कृष्ण वासुदेवने पद्मावती देवी को आगे करके जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि थे वहाँ गये । वहाँ जाकर उन्हों ने तीन बार आदक्षिण - प्रदक्षिण करके वन्दन नमस्कार किया और इस प्रकार कहा - हे भदन्त ! यह पद्मावती देवी मेरी पहरानी है, तथा मेरे लिये इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, વિભૂષિત કરીને હજાર પુરુષાથી ઉપાડેલી પાલખીમાં બેસાડી દ્વારકા નગરી વચ્ચેાવચ્ચ થઇને ધામધૂમથી જ્યાં રૈવતક પર્યંત હતા અને જ્યાં સહસ્રામ્રવન ઉદ્યાન હતું ત્યાં લઈ આવી પાલખી ઉતારી, તે સમયે પદ્માવતી દેવીના પાલખીમાંથી ઉતર્યા" પછી કૃષ્ણ વાસુદેવ પદ્માવતી દેવીને આગળ કરીને જ્યાં અતિ અરિષ્ટનેમિ હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઇને ત્રણવાર આદક્ષિણપ્રદક્ષિણુ કરી વદન નમસ્કાર કર્યાં અને આ પ્રકારે કહ્યું:-હે ભદન્ત ! આ પદ્માવતી દેવી મારી પટ્ટરાણી છે, તથા મારે માટે ઇષ્ટ છે, કાન્ત છે, પ્રિય છે,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पद्मवत्या दीक्षाग्रहणम् __ मणामा अभिरामा' एषा खलुभदन्त ! मम अग्रमहिषी पद्मावती नाम देवी इष्टा
कान्ता प्रिया मनोज्ञा मनोऽमा अभिरामा, 'जीवियउस्सासा' जीवितोच्छ्वासाप्राणसमाना, पुनः ‘हिययाणंदजणिया' हृदयानन्दजनिका; तथा 'उंबरपुप्फं पिव' उदुम्बरपुष्पमित्र 'दुलहा' दुर्लभा, 'सवणयाए' श्रवणतायै-श्रवणाय 'किमंग पुण पासणयाए' किमङ्ग ! पुनदर्शनतायै-दर्शनाय-हे भदन्त ! एतादृशी पुण्यवती उदुम्बरपुष्पवत् श्रवणायापि दुर्लभा, किं पुनर्द्रष्टुमित्यर्थः। 'तन्नं अहं देवाणुप्पिया' तां खलु अहं हे देवानुप्रिय ! 'सिस्सिणीभिक्खं' शिष्याभिक्षाम्-शिष्यारूपां भिक्षां 'दलयामि' ददामि, 'पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया' प्रतीच्छन्तु-स्वीकुर्वन्तु खलु हे देवानुप्रियाः ! 'सिस्सिणीभिक्खं' शिष्याभिक्षाम् । कृष्णस्य वचनं श्रुत्वा भगवानाह-'अहासुह' यथासुखम् हे कृष्ण ! यथा तुभ्यं
रोचते इति । 'तए णं सा पउमावई देवी' ततः खलु सा पद्मावती देवी __ मनोज्ञ है, मनामा (मन के अनुकूल कार्य करने वाली) है एवं गुण
आदि से सुन्दर है। हे भगवन् ! यह मेरे जीवन में श्वासउच्छ्वास के समान प्रिय है, एवं मेरे हृदय को आनन्दित करने वाली है। इस प्रकार का स्त्रीरत्न गूलर के फूल के समान सुनने के लिये भी दुर्लभ है तो फिर देखना तो बडा ही असंभव है। हे देवानुप्रिय ! मैं आपको इस पद्मावती को शिष्यारूप से भिक्षा देता हूँ,
आप कृपा करके इस शिष्यारूप भिक्षा को स्वीकार करें। कृष्ण की प्रार्थना सुनकर भगवान्ने कहा- हे कृष्ण ! जैसी तुम्हारी इच्छा।
. उसके बाद पद्मावती देवीने ईशानकोण में जाकर अपने મનેઝ છે, મનામાં – મનને અનુકૂળ કાર્ય કરવાવાળી છે અને ગુણ આદિથી સુંદર છે. હે ભગવન્! આ મારા જીવનમાં શ્વાસઉચ્છવાસની પેઠે પ્રિય છે અર્થાત મારા હૃદયને આનંદ આપવા વાળા છે. આવા પ્રકારનું સ્ત્રીરત્ન ઉંબરાના ફૂલની પેઠે સાંભળવું પણ દુર્લભ છે તે પછી તે નજરે જોવું તે બહુજ અસંભવ છે. હે દેવાનુપ્રિય! હું આપને આ પદ્માવતીને શિષ્યરૂપે ભિક્ષા આપું છું તે આપ કૃપા કરીને આ શિષ્યારૂપ ભિક્ષાને સ્વીકાર કરે, કૃષ્ણની પ્રાર્થના સાંભળી ભગવાને કહ્યું- હે કૃષ્ણ! જેવી
તમારી ઈચ્છા. - ત્યાર પછી તે પદ્માવતી દેવીએ ઈશાનકેણમાં જઈને સ્વહસ્તે પિતાનાં શરીર
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• अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे 'उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं' उत्तरपौरस्त्यम् दिग्भागम् 'अवक्कमइ' अपक्राम्यति= . गच्छति, 'अवकमित्ता' अपक्रम्य 'सयमेव आभरणालंकार' स्वयमेव आभरणालङ्कारम् 'ओमुयई' अवमुञ्चति-शरीरादवतारयति, 'ओमुइत्ता' अवमुच्य अवतार्य 'सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ' स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, 'करिता जेणेव अरहा अरिहनेमी तेणेव उवागच्छइ' कृखा यत्रैव अर्हन् अरिष्टनेमिः तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'अरहं अरिद्वनेमि' अर्हन्तमरिष्टनेमि 'वंदइ णमंसइ' वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' वन्दिता नमस्यित्वा एवमवदत्-'आलित्ते जाव धम्ममाइक्खियं' आलिप्तो यावद् धर्म आख्यातः । हे भदन्त ! एप संसार आदीप्तो जन्मजरामरणादिदुःखादिभिरनिभिरनवरतं ज्वलितः, तस्मादिच्छामि देवानुपियैः स्वयमेव प्रत्राजितां यावद्धर्म आख्यातः ॥ मू० १० ॥
॥ मूलम् ॥ . तए णं अरहा अरिट्रनेमी पउमावई देवि सयमेव पवावेइ, पवावित्ता सयमेव मुंडावेइ, जक्खिणीए अज्जाए सिस्सिणी दलयइ । तए णं सा जक्खिणी अज्जा पउमावइं देवि सय पवावेइ जाव संजमियत्वं । तए णं सा पउमावई जाव संजमइ । तए णं सा पउमावई अजा जाया ईरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी ॥ सू०.११॥ हाथों से अपने शरीर ऊपर के सभी आभरण उतारे और स्वयं केशों का पञ्चमुष्टिक लुञ्चन (लोच) करके जहा भगवान् अरिष्टनेमि थे वहाँ आकर वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार बोली-हे भदन्त ! यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि दुःखरूप अग्नि से प्रज्वलित हो रहा है, अतः इस दुःखसमूह से अलग होने के लिये में आपके समीप मुण्डित होकर प्रवजित होना चाहती हूँ; एतदर्थ आप कृपा करके मुझको चारित्र धर्म सुनाइये ॥ सू० १० ॥ ઉપરના સવે આભારણ ઉતાર્યા. અને પિતેજ કેશેનું પંચમૃષ્ટિક લંચન (ચ) કરીને જ્યાં ભગવાન અરિષ્ટનેમિ હતા ત્યાં આવીને વંદન નમસ્કાર કરી આ પ્રકારે બેલી, હે ભદન્ત આ સંસાર જન્મ, જરા, મરણ આદિ દુ:ખરૂપ અગ્નિથી પ્રજવલિત થઈ રહ્યો છે, તેથી હું આ દુખસમૂહુથી પૃથક થવા માટે આપની પાસે મુંડિત થઈને દીક્ષા લેવા ચાહું છું. માટે આપ કૃપા કરીને ચારિત્ર ધર્મ સંભળાવે (સૂ૦ ૧૦)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पद्मावत्या दीक्षाग्रहणम्
१५७ ॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं अरहा अरिहनेमी पउमावई देवि ततः खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः पद्मावती देवीं 'सयमेव पवावेई' स्वयमेव प्रत्राजयति-प्रव्रज्यां ददाति, 'पव्वावित्ता' पत्राज्य 'सयमेव मुंडावेई' स्वयमेव मुण्डयति-भावतो मुण्डि तां करोति । अनन्तरं भगवानर्हदरिष्टनेमिः 'सयमेव जक्खिणीए अजाए सिस्सिणि दलयइ' स्वयमेव यक्षिण्यै आर्याय शिष्यां ददाति स्वयमेव भगवान् तां पद्मावती यक्षिण्य आर्यायै शिष्यारूपेण ददाति । 'तए णं सा जक्खिणी अज्जा' ततः खलु सा यक्षिणी आर्या 'पउमावइं देविं' पद्मावती देवीं, 'सयं पञ्चावेई' स्वयं प्रव्राजयति केशलुञ्चनादिरूपां प्रव्रज्यां ददाति, 'जाव संजमियव्वं' यावत् संयन्तव्यम्-संयमे यतितव्यम् इत्युपदिशति । 'तए णं' ततः खलु, 'सा पउमावई जाव संजमइ' सा पद्मावती यावत् संयच्छतेसंयमे यत्नं करोति । 'तए णं सा पउमावई अज्जा जाया' ततः खलु सा पद्मावती आर्या जाता, पुनश्च 'ईरियासमिया जाव गुत्तवंभयारिणी' ईर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी ईयासमित्यादिभिः पञ्चभिः समितिभिर्युक्ता सती यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी जाता ॥ सू० ११ ॥
उसके बाद भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमिने पद्मावती देवी को स्वयमेव प्रव्रजित और मुण्डित करके यक्षिणी आर्या के सुपुर्द करदी। ____ अनन्तर यक्षिणी आर्याने पद्मावती को प्रव्रजित किया, और संयम
क्रिया में सावधान रहने के लिये शिक्षा दी कि-हे पद्मावती! तुम संयम में सदा सावधान रहना ! पद्मावती आर्या भी यक्षिणी आर्या के कथनानुसार संयम में यत्न करने लगी और वह पदमावती आर्या बन करके तथा ईर्यासमिति आदि पाचों समितियों से युक्त हो यावत् ब्रह्मचारिणी होगयी ॥ सू० ११ ॥
. ત્યાર પછી ભગવાન અહંત અરિષ્ટનેમિએ પદ્માવતી દેવીને પિતેજ પ્રવ્રજિત તથા મુંડિત કરાવીને યક્ષિણ આયને સુપ્રત કરી દીધી. અનન્તર તે યક્ષિણી આર્યાએ પદ્માવતીને પ્રવૃજિત કરીને સંયમ ક્રિયામાં સાવધાન રહેવા શિખામણ આપી કે હે પદ્માવતી ! “તમારે સંયમમાં સદા સાવધાન રહેવું. પદ્માવતી આ પણ યક્ષિણ આર્યાના કહેવા પ્રમાણે સંયમમાં યત્ન કરવા લાગી, અને તે પદ્માવતી આય થઈને તથા ઈર્યાસમિતિ આદિ-પાંચે સમિતિઓથી યુક્ત થઈ ચાવત બ્રહ્મચારિણું થઈ ७. (२०११).
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे ॥ मूलम् ॥ तए णं सा पउमावई अजा जक्खिणीए अज्जाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहि चउत्थछट्टमदसमदुवालसेहिं मासार्द्धमासखमणेहिं विविहेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणा विहरइ । तए णं सा पउमावई अजा बहुपडिपुन्नाई वीसं वासाइं सामन्नपरियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेइ, झोसित्ता सर्टि भत्ताइं अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सट्टाए कोरई नग्गभावे जाव तमह आराहेइ, चरिमुस्सासेहिं सिद्धा ॥ सू० १२ ॥ इय पंचमवग्गस्स पढममज्झयणं समत्तं ।
॥टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं पउमावई अज्जा' तत: खलु सा पद्मावती आर्या 'जविखणीए अजाए' यक्षिण्या आर्याया 'अंतिए' अन्तिके 'सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई' सामायिकादीनि एकादश अङ्गानि, 'अहिज्जइ' अधीते 'वहूहिं चउत्थछटमदसमदुवालसेहिं' वहुभिश्चतुर्थपष्ठाष्टमदशमद्वादशभिः 'मासद्धमासखमणेहिं विविहेहिं तवोकम्मेहिं ' मासार्द्धमासक्षपणैर्विविधैस्तपःकर्मभिः 'अप्पाणं भावमाणा विहरइ' आत्मानं भावयन्ती विहरति । 'तए णं' ततः खलु ‘सा पउमावई अज्जा' सा पद्मावती आर्या 'बहुपडिपुन्नाई वीसं वासाइं' बहुप्रतिपूर्णानि विंशतिं वर्षाणि 'सामन्नपरियाय पाउणित्ता' श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा 'मासियाए संलेहणाए' मासिक्या संलेखनया,
__अनन्तर पद्मावती आर्याने यक्षिणी आर्या के समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और साथ ही साथ उपवास, वेला, तेला, चोला, पचोला, पन्द्रह २ और महीने २ तक की विविध तपस्या करती हुई विचरने लगी। पद्मावती आर्याने पूरे बीस वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला । अन्त में जब दुर्बल होगयों
તે પછી પાવતી આર્યાએ યક્ષિણી આર્ય પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું અને તેની સાથેજ ઉપવાસ, છઠ, અષ્ટમ, ચાર, પાંચ, પંદર પંદર દિવસ અને મહિના મહિના સુધીની વિવિધ તપસ્યા કરતી કરતી વિચરવા લાગી. પદ્માવતી આર્યાએ પુરાં વીશ વર્ષ સુધી ચારિત્ર પર્યાયનું પાલન કર્યું. અંતમાં જ્યારે દુર્બલ થઈ ગઈ ત્યારે તેણે એક માસની સંલેખનને પ્રારંભ કર્યો. અને સંલેખના દ્વારા
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भावयित्वा परि मान्तरं श्रामण्यपर्याय यात । पुनः सा
मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पद्मावत्याः सिद्धगतिप्राप्तिः
१५९ 'अप्पाणं झोसेइ ' आत्मानं जोपयति-सेवते , 'झोसित्ता सढि भत्ताई' जोपयित्वा सेवित्वा षष्टिं भक्तानि, 'अणसणाए छेदेइ ' अनशनेन छिनत्ति, ' छेदित्ता जस्सहाए कीरई नग्गभावे जाव तमहं आराहेइ' छिच्चा यस्यार्थाय क्रियते नग्नभावः यावत्तमर्थम् आराधयति । पुनः सा पद्मावती आर्या विंशति वर्षाणि यावत् निरन्तरं श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा मासिक्या संलेखनया आत्मानं भावयित्वा पष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्वा, यमर्थमुद्दिश्य संयम स्वीकृतवती तमर्थ प्राप्तवती । तदनु ' चरमुस्सासेहिं सिद्धा' चरमोच्छ्वासैः सिद्धा-अन्तिममुच्छ्वासमुत्सृज्य सा सिद्धिं गता ॥ सू० १२ ॥
इति पञ्चमवर्गस्य प्रथमाध्ययनं सम्पूर्णम् । ... ॥ मूलम् ॥
उक्खेवओ य अज्झयणस्स । तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई णयरी, रेवयए, उजाणे नंदनवणे,तत्थ णं बारवईए णयरीए कण्हे वासुदेवे राया होत्था। तस्स णं कण्हस्स वासुदेवस्स गोरी देवी, वण्णओ, अरहा अरिहनेमी समोसढे, कण्हे णिग्गए, गोरी जहा पउमावई तहा णिग्गया, धम्मकहा, परिसा पडिगया, कण्हे वि पडिगए। तए णं सा गोरी जहा पउमावई तहा णिक्खंता जाव सिद्धा २, एवं गंधारी ३, लक्खणा ४, सुसीमा ५, जंबवई ६, सच्चभामा ७, रुप्पिणी ८, अह वि पउमावईसरिसयाओ अट्ट अज्झयणा ॥ सू० १३॥ तो उनने एक मास की संलेखना प्रारम्भ की, और संलेखना द्वारा साठ भक्तों को अनशन से छेदित कर अर्थात् एक महिने का संथारा करके जिस मोक्षप्राप्ति के लिये संयम लिया उसका आराधन कर अन्तिम श्वास के बाद सिद्ध पद को प्राप्त किया ॥ सू० १२॥
. प्रथम अध्ययन संपूर्ण સાઠ ભક્તોનું અનશનથી છેદન કરી અર્થાત એક મહિનાને સંથારે કરી જે મેક્ષ પ્રાપ્તિ માટે સંયમ લીધું હતું તેનું આરાધન કરતાં અંતિમ શ્વાસ પછી સિદ્ધ પદને प्रास यु.. ..
. प्रथम अध्ययन संपूर्ण
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
॥ टीका ॥
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'उक्खेवओ' इत्यादि । ' उक्खेवओ य अज्झयणस्स ' उत्क्षेपकच अध्ययनस्य=अस्याध्ययनस्य प्रारम्भवाक्यं पूर्वस्याध्ययनस्य प्रारम्भवाक्यवद् विज्ञेयम् । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवई णयरी' तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावती नगरी, तत्र 'रेवयए' रैवतकः पर्वतः, 'उज्जाणे नंदनवणे' नन्दनवनम्=नन्दनवननामकमुद्यानम् । 'तत्थ णं तत्र खलु ' चारखईए rate aor वासुदेवे राया होत्था ' द्वारावत्यां नगर्यां कृष्णो वासुदेवः राजा आसीत् । ' तस्स णं 'कण्ड्स्स वासुदेवस्स गोरी देवी ' तस्य खलु कृष्णस्य वासुदेवस्य गौरी देवी आसीत् । 'वण्णओ' वर्णकः - अस्या वर्णनं पूर्ववद् विज्ञेयम् । ' अरहा अरिट्ठनेमी समोसढे ' अर्हन् अरिष्टनेमिः समवसृतः । भगवद्दर्शनार्थं ' कण्हे णिग्गए ' कृष्णो निर्गतः । ' गोरी जहा पउमावई
उद्यानं
द्वितीय अध्ययन का प्रारम्भवाक्य इस चाहिए, श्री जम्बूस्वामी श्री सुधर्मास्वामी से पूछते हैं - हे भदन्त ! प्रकार जानना भगवान महावीर के द्वारा निरूपित प्रथम अध्ययन का भाव मैंने सुना, परन्तु इसके बाद भगवान ने द्वितीय अध्ययन में किस भाव का निरूपण किया है ? सो कृपा कर सुनाइये । श्री सुधर्मास्वामी ने कहा- हे जम्बू ! उस काल उस समय में द्वारका नामक नगरी थी । उस नगरी के समीप में ही रैवतक नामक पर्वत था । उस पर्वत पर नन्दवन नामक एक मनोहर तथा विशाल उद्यान था । उस द्वारावती नगरी के राजा कृष्ण वासुदेव थे । उस कृष्ण वासुदेव की पट्टरानी का नाम गौरी था । एक समय नन्दनवन उद्यान में भगवान अर्हत् अरिष्टनेमि पधारे । कृष्ण वासुदेव भगवान के दर्शन
આ ખીજા અધ્યયનનું પ્રારંભ વાકય આ પ્રકારે જાણવું જોઇએ.
શ્રી જમ્મૂસ્વામી શ્રી સુધર્માસ્વામીને પૂછે છે :-ડે ભદન્ત ! ભગવાન મહાવીર દ્વારા નિરૂપિત પ્રથમ અધ્યયનના ભાવ મેં સાંભળ્યે પણ તેના પછી ભગવાને દ્વિતીય અધ્યયનમાં કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે તે કૃપા કરીને સભળાવેા. શ્રી સુધર્માં સ્વામીએ કહ્યું–હે જમ્મૂ ! તે કાલ તે સમયે દ્વારકા નામની નગરી હતી, તે નગરીની પાસેજ રૈવતક નામે પત હતા. તે પર્યંત ઉપર નંદનવન નામે એક મનેહર તથા વિશાળ ઉદ્યાન હતું. તે દ્વારકા નગરીના રાજા કૃષ્ણ વાસુદેવ હતા. તે કૃષ્ણ વાસુદેવની પટ્ટરાણીનું નામ ગૌરી હતું. એક સમય નંદનવન ઉદ્યાનમાં ભગવાન અર્હત્ અરિષ્ટનેમિ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गौर्यादीनां दीक्षाग्रहणं सिद्धपदप्राप्तिश्च. १६१ तहा निग्गया' गौरी यथा पद्मावती तथा निर्गता। भगवता 'धम्मकहा' धर्मकथा कथिता। धर्मकथां श्रुत्वा 'परिसा पडिगया' परिपत्पतिगता । अनन्तरं 'कण्हे वि पडिगए' कृष्णोऽपि प्रतिगतः। 'तए णं सा गोरी जहा पउमावई' ततः खलु सा गौरी यथा पद्मावती 'तहा णिक्खंता जाव सिद्धा' तथा निष्क्रान्ता यावत् सिद्धा ॥ इति द्वितीयमध्ययनम् ॥ २ ॥
.. 'एवं गंधारी ३, लक्खणा ४, सुसीमा ५, जंववई ६, सच्चभामा ७, रुप्पिणी ८, अवि पउमावईसरिसाओ। एवं गान्धारी ३, लक्ष्मणा ४; सुसीमा ५, जाम्बवती ६, सत्यभामा ७, रुक्मिणी ८, अष्टावपि पद्मावतीसदृशाः पद्मावतीमारभ्य रुक्मण्यन्ता अष्टावपि कृष्णपट्टमहिष्यः समानचरिताः । एवं 'अट्ट अज्झयणा-अष्ट अध्ययनानि समाप्तानि ॥ मू० १३ ॥ के लिये भगवान के समीप पहुँचे। गौरी देवी भी पद्मावती देवी के समान भगवान के दर्शन के लिये गयी। भगवान ने धर्मकथा कही। धर्मकथा सुनकर परिषद् अपने२ घर लौट गयी। कृष्ण भी भगवान के दर्शन कर अपने महल में पहुँचे । उसके बाद वह गौरी देवी पद्मावती के समान प्रबजित हुई और यावत् सिद्ध होगयी ॥ २ ॥
- इसी प्रकार गान्धारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जाम्बवती, सत्यभामा और रुक्मिणी का वृत्तान्त समानरूपसे जानना चाहिये। पद्मावती आदि आठों रानियां एक समान प्रवजित हो सिद्ध होगयों। ये आठों रानियां कृष्ण वासुदेव की पट्टरानियां थीं। इस प्रकार ये आठ अध्ययन समाप्त हुए ॥ सू० १३ ॥ પધાર્યા. કૃષ્ણ વાસુદેવ ભગવાનનાં દર્શન માટે ભગવાનની પાસે પહોંચ્યા ગૌરી દેવી પણ પાવતી દેવીની પેઠે ભગવાનનાં દર્શન માટે ગઈ ભગવાને ધર્મકથા કહી. ધર્મકથા સાંભળી પરિષદુ પિતપિતાને ઘેર પાછી ગઈ, કૃષ્ણ પણ ભગવાનનાં દર્શન કરી પિતાના મહેલમાં ગયા. ત્યાર પછી તે ગૌરી દેવી પદ્માવતીની પેઠે પ્રવજ્યા ગ્રહણ ४शन [सद्ध थ६ ७. (२)
આ પ્રકારે ગાન્ધારી, લમણા, સસીમા, જાંબવતી, સત્યભામા તથા રૂકિમણીનું વૃત્તાન્ત સમાનરૂપે જાણવું જોઈએ. પદ્માવતી આદિ આઠે રેણીઓ એકજ સરખી રીતે પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરીને સિદ્ધ થઈ ગઈ. એ આઠ રાણીઓ કૃષ્ણ વાસુદેવની પટ્ટરાણીઓ उत्ती. सारे २३४ मध्ययन समास थयां (सू० १3) .
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे
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उक्खेवओ य नवमस्स। तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवईए णयरीए रेवयए पव्वए, नंदणवणे उज्जाणे, कण्हे राया, तत्थ णं बारवईए णयरीए कण्हस्स वासुदेवस्स पुत्तए जंववईए देवीए अत्तए संबे नामं कुमारे होत्था। अहीण । तस्स णं संबस्स कुमारस्स मूलसिरी नाम भारिया होत्था, वण्णओ, अरहा अरिट्रनेमी समोसढे । कण्हे णिग्गए, मूलसिरी वि णिग्गया, जहा पउमावई, नवरं देवाणुप्पिया ! कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि, जाव सिद्धा। एवं मूलदत्ता वि ॥ सू० १४ ॥
॥ टीका ॥ 'उक्खेवओ' इत्यादि । 'उक्खेवओ य नवमस्स' उत्क्षेपकश्च नवमस्य, नवमस्याध्ययनस्य प्रारम्भवाक्यं पूर्ववदेव ज्ञेयम् । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवईए णयरीए रेवयए पव्वए' तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावत्यां नगयों रैवतकः पर्वतः 'नंदणवणे उज्जाणे' नन्दनवनमुद्यानम् , 'कण्हे राया' कृष्णो राजा । 'तत्थ णं वारवईए णयरीए कण्हस्य वासुदेवस्स पुत्तए
नवम अध्ययन का प्रारम्भवाक्य भी इसी प्रकार जानना कि जम्बूस्वामी ने पूछा-हे भदन्त ! भगवान से प्ररूपित आठवें अध्ययन का भाव आपके द्वारा मैंने सुना, परन्तु हे भगवन् ! अब मैं चाहता हूँ कि आप मुझे भगवान महावीर प्रभु-कथित नवमें अध्ययन के भावों को सुनावें । श्री सुधर्मास्वामी ने कहा-हे जम्बू ! उस काल उस समय में द्वारका नामक नगरी थी, उस नगरी के समीप रैवतक नामक पर्वत था । वहाँ पर नन्दनवन नामक उद्यान था । उस नगरी के राजा कृष्ण वासुदेव थे । उस द्वारका नगरी
નવમા અધ્યયનનું પ્રારંભ વાકય પણ એજ રીતે જાણવું કે શ્રી જંબુસ્વામીએ પૂછયું–હે ભદન્ત! ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત ઉકત આઠમા અધ્યયનને ભાવ આપના દ્વારા મેં સાંભળ્યું, પરંતુ હે ભગવાન્ ! હવે હું ચાહું છું કે આપ મને નવમા અધ્યયનના જે ભાવે ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ કહ્યા હોય તે સંભળાવે. શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ કહ્યુંહે જંબૂ! તે કાલ તે સમયે દ્વારકા નામે નગરી હતી. તે નગરીની પાસે રૈવતક નામે પર્વત હતા અને ત્યાં નંદનવન નામે ઉદ્યાન હતું. એ નગરીના રાજા કૃષ્ણ
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निकुमुदचन्द्रिका टीका, मूलश्री- मूलदत्तयोश्चरितम्.
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jaade देवीए अतए ' तत्र खलु द्वारावत्यां नगर्यौ कृष्णस्य वासुदेवस्य पुत्रो जाम्बवत्या देव्या आत्मजः = अङ्गजातः, ' संबे नामं कुमारे होत्था ' arrat नाम कुमार आसीत् । यो हि कुमारः अहीण ० अहीन० = अहीनपञ्चेन्द्रियशरीर आसीत् । ' तस्स णं संवस्त कुमारस्स ' तस्य खलु साम्वस्य कुमारस्य 'मूलसिरी नामं भारिया होत्था ' मूलश्रीर्नाम भार्याऽसीत्, 'वण्णओ०' वर्णक:- अस्या वर्णनं पूर्ववद्विज्ञेयम् । तत्र द्वारावत्याम् ' अरहा अरिनेमी समोसढे ' अर्हन् अरिष्टनेमिः समवसृतः ' कण्हे णिग्गए ' कृष्णो निर्गतः, 'मूलसिरी वि गिरगया ' मूलश्रीरपि निर्गता, 'जहा पउमावई' यथा पदमावती ' नवरं विशेषः, 'देवाणुप्पिया ! कन्हं वासुदेवं आपुच्छामि' हे देवानुप्रिय ! कृष्णं वासुदेवमापृच्छामि । साम्वकुमारः पूर्वमेव प्रत्रजितस्तस्मादियं
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कृष्ण वासुदेव के पुत्र जाम्बवती देवी के आत्मज साम्ब नामक कुमार थे, जो सर्वाङ्गसुन्दर थे । उस साम्बकुमार की पत्नी का नाम मूलश्री था । जो अत्यन्त सुन्दरी और कोमलाङ्गी थी । उस नगर में अर्हत् अरिष्टनेमी पधारे । कृष्ण उनके दर्शन के लिये गये । मूलश्री भी भगवान के दर्शन के निमित्त पद्मावती के समान गयी। भगवान ने धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर परिषद् अपने-अपने घर लौट गयी । कृष्ण भी भगवान को वन्दन नमस्कार कर लौट गये । उसके बाद मूलश्रीने भगवान से कहा- हे भदन्त ! कृष्ण वासुदेव की आज्ञा लेकर आपके समीप प्रव्रजित होना चाहती हूँ । साम्बकुमार पहले ही प्रव्रजित होगये इसलिये सूलश्रीने कृष्ण
में
વાસુદેવ હતા. તે દ્વારકા નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવના પુત્ર અને જાખવતી દેવીના આત્મજ સાંખ નામે કુમાર હતા, જે સર્વાંગસુંદર હતા. તે સાંપ કુમારની પત્નીનું નામ મૂલશ્રી હતુ, જે અત્યંત સુંદર તથા કેમલાગી હતી. તે નગરીમાં અર્હત અરિષ્ટનેમિ पधार्या. કૃષ્ણ તેમનાં દર્શન માટે ગયા. મૂત્રશ્રી પણ ભગવાનનાં દનનાં નિમિત્તે પદ્માવતીની પેઠે ગઇ. ભગવાને ધર્મકથા કહી. ધ કથા સાંભળી પરિષદ્ પોતપોતાને ઘેર પાછી ગઇ. કૃષ્ણે પણ ભગવાનને વંદન નમસ્કાર કરી પાછા ગયા. ત્યાર પછી ભૂલશ્રીએ ભગવાનને કહ્યું – હું ભદ્રંન્ત ! કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞા લઇને આપની પાસે હું પ્રશ્નજિત થવા ચાહુ છું. સાંખકુમાર પહેલાંજ પ્રત્રજિત થઈ ગયા હતા તેથી
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अन्तकृतदशाङ्गमुत्रे
स्वश्वशुरं कृष्णं वासुदेवं पृच्छति स्मेति विशेषः । 'जाब सिद्धा' यावत्सिद्धा । ' एवं मूलदत्ता वि' एवं मूलदत्ताऽपि मूलश्रीरिव मूलदत्ताऽपि साम्बकुमारस्य द्वितीयभार्याऽपि विज्ञेया । सर्वमस्याश्चरितं पूर्ववदेव विज्ञेयमित्यर्थः ॥ १४ ॥
इति श्रीविश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा कलितललितकलापाऽऽलापक-मविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - जैनशास्त्राचार्य - पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्रीघासीलाल - प्रतिविरचितायाम् अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य मुनिकुमुदचन्द्रिकायां टीकायां पञ्चमो वर्गः संपूर्णः ||५||
वासुदेव से आज्ञा लेकर पद्मावती के समान अर्हत् अरिष्टनेमि के समीप प्रत्रजित होकर तप संयम की आराधना करके सिद्ध पद को प्राप्त किया ॥ ९॥
मूली के समान मूलदत्ता का भी सारा वृत्तान्त जानना चाहिये । यह साम्यकुमार की दूसरी पत्नी थी ॥ १० ॥ (सू० १४) ॥ पाँचवा वर्ग संपूर्ण ॥
મૂલશ્રી કૃષ્ણ વાસુદેવની આજ્ઞા લઈને પદ્માવતીની પેઠે અર્હત્ અરિષ્ટનેમિની પાસે પ્રવ્રજ્યા ગ્રહણ કરી તપસયમની આરાધના કરી સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કર્યુ. (૯) મૂલશ્રીના જેવુંજ મૂલદત્તાનું બધું વૃત્તાન્ત જાણવું જોઇએ. આ સાંખકુમારની भील पत्नी हुती. ॥ १० ॥ (सू. १४)
પાંચમા વર્ગ સંપૂર્ણ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पष्ठ वर्गप्रारभ्भः
अथ षष्ठो वर्गः
॥ मूलम् ॥ जइ णं भंते ! छटुमस्स उक्खेवओ। नवरं सोलस अज्झयणा पण्णत्ता; तं जहा -
मंकाई किंकमे चेव, मोग्गरपाणी य कासवे । खेमए धितिधरे चेव, केलासे हरिचंदणे ॥१॥ वारत्त-सुदंसण-पुन्नभद्द-सुमणभद्द-सुपइट्टे मेहे । अइमुत्ते अ अलक्खे अज्झयणाणं तु सोलसयं ॥२॥
जइ सोलस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स अज्झयणस्स के अटे. पपणत्ते ? ॥ सू० १॥
॥ टीका ॥ 'जइ णं' इत्यादि । 'जइ णं भंते !' यदि खलु भदन्त ! इत्यादि 'छट्टमस्स उक्खेवओ' षष्ठस्य . उत्क्षेपकः प्रारम्भवाक्यं पूर्वसदृशमेव, 'नवरम्' अयं विशेषः-हे जम्बूः ! अत्र षष्ठवर्गे 'सोलस अज्झयणा पण्णत्ता' पोडश अध्यययानि प्रज्ञप्तानि;
अब छठा वर्ग प्रारम्भ करते हैं:
छठे वर्ग का प्रारम्भ वाक्य इस प्रकार जानना चाहिये, श्री जम्बूस्वामीने कहा-हे भदन्त ! भगवान महावीर प्रभु के द्वारा कथित पंचमवर्ग के भाव को आपके मुख से मैंने सुना, अब इसके बाद भगवान के द्वारा निरूपित छठे वर्ग के भाव को मैं सुनना चाहता हूँ । श्री सुधर्मास्वामीने कहा-हे जम्बू ! भगवान महावीरने छठे वर्ग में सोलह अध्ययनों का निरूपण किया है, उनके नाम
હવે છ વર્ગને પ્રારંભ કરીએ છીએ
છઠ્ઠા વર્ગનું પ્રારંભવાકય આ પ્રકારે જાણવું જોઈએ. શ્રી જંબુસ્વામીએ કહ્યુંભદન્ત ! ભગવાન મહાવીર પ્રભુના દ્વારા કહેવાયેલ પંચમ વર્ગના ભાવને આપના મુખથી મેં સાંભળ્યા, હવે ત્યાર પછી ભગવાને નિરૂપણ કરેલા છઠ્ઠા વર્ગના ભાવને હું સાંભળવા ચાહું છું. શ્રી સુધમ સ્વામીએ કહ્યું- હે જંબૂ ! ભગવાન મહાવીરે છઠ્ઠા
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अन्तकृत दशाङ्गस्त्रे
'जहा - 'मंकाई किकमे चेव, मोग्गरपाणी य कासवे ।
खेमए धितिधरे चैत्र, केलासे हरिचंदणे ॥ १ ॥ वारत्त - सुदंसण-- पुन्नभद्द - सुमभद्द - सुपडे मे | अइमुत्ते अ अलक्खे अज्झयणाणं तु सोलसयं ॥ २ ॥' तद्यथा - मङ्काई ः किङ्कमचैव मुद्रपाणिश्च काश्यपः । क्षेमको धृतिधरचैव कैलासो हरिचन्दनः ॥ १ ॥ वारत - सुदर्शन पुण्यभद्र - सुमनोभद्र - सुप्रतिष्ठाः मेघः ।
अतिमुक्तश्च अलक्षोऽध्ययनानां तु पोडशकम् ॥ 'मङ्काई' इत्यारभ्यालक्षपर्यन्तानि अध्ययनानि पोडशसंख्यकानि सन्ति । ' जड़ सोलस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते' यदि पोडश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य अध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? अयं भावः - जम्बूस्वामी पृच्छतिहे भदन्त ! पष्ठवर्गस्य पोडशाध्ययनेषु प्रथमाध्ययनस्य भगवता कोऽर्थः प्ररूपितः ।। सू० १ ॥
॥ मूलम् ॥
एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया । तत्थ णं मंकाईगाहावई णामं गाहावई परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए ।
इस प्रकार हैं - ( १ ) मंकाई (२) किंकम (३) मुद्गरपाणि (४) काश्यप (५) क्षेमक (६) धृतिधर (७) कैलास (८) हरिचन्दन (९) वारन्त (१०) सुदर्शन (११) पूर्णभद्र (१२) सुमनोभद्र (१३) सुप्रतिष्ठ (१४) मेघ (१५) अतिमुक्त और (१६) अलक्ष्य !
हे भदन्त ! भगवान् महावीरने अन्तकृत सूत्र के छठे वर्ग में सोलह अध्ययनों का निरूपण किया है तो इसके प्रथम अध्ययन में किस भाव का निरूपण किया है ? ॥ सू० १ ॥
વર્ગમાં સેળ અધ્યયનોનુ” નિરૂપણ કર્યું છે, તેનાં નામ આ પ્રકારે છે, (૧) મકાઈ (२) भि (3) भुद्रश्चाथि (४) अश्यय (1) क्षेभ: (१) धृतिधर (७) सास (८) हरियंडन (E) वारत (१०) सुदर्शन (११) यूर्भुभद्र (१२) सुमनोलद्र ( 13 ) सुप्रतिष्ठ (१४) भेध (१५) अतिभुत तथा (१६) असक्ष्य.
હે ભદન્ત! ભગવાન મહાવીરે અન્તકૃત સૂત્રના છઠ્ઠા વર્ગીમાં સેાળ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે તે તેના પ્રથમ અધ્યયનમાં કયા ભાવેત્તુ નિરૂપણ કર્યું છે ? (સૂ॰ ૧)
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... मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका मङ्काईकिङ्कमचरितम्
१६७ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे गुणसिलए जाव विहरइ, परिसा निग्गया । तए णं से मंकाई गाहावई इमीसे कहाए लडे जहा पन्नत्तीए गंगदत्ते तहेव, इमोवि जेट्रपुत्तं कुटुंबे ठवेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीए सीयाए णिक्खंते जाव अणगारे जाए इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी । तए णं से मंकाई अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिज्जइ, सेसं जहा खंदगस्स, गुणरयणं तवोकम्म, सोलस वासाई परियाओ, तहेव विपुले सिद्धे ।१। दोच्चस्स उक्खेवओ०, किंकमे वि एवं चेव जाव विपुले सिद्धे । २। ॥ सू० २॥
॥ टीका ॥ . 'एवं खलु' इत्यादि । 'एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे' एवं खलु हे जम्बूः! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् , तत्र 'गुणसिलए चेइए' गुणशिलकं चैत्यम् , तस्मिन् नगरे 'सेणिए राया' श्रेणिका राजाऽसीत् । 'तत्थ णं' तत्र खलु राजगृहे नगरे, 'मंकाईगाहावई णाम गाहावई परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए' मङ्काईगाथापतिनाम गाथापतिः परिवसति आढ्यो यावदपरिभूतः, आढ्यः = समृद्धः अपरिभूतः = पराभवरहितः। तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये, 'समणे भगवं महावीरे आइगरे गुणसिलए जाव विहरइ' श्रमणो भगवान् महावीर आदिकरो गुणशिलके यावद् विहरति । 'परिसा निग्गया' परिपत्
हे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था ! उसमें गुणशिलक नामक एक चैत्य था । उस नगर में श्रेणिक नामक राजा थे। उस राजगृह नगर में सड़ाई नामक गाथापति रहते थे। जो अत्यन्त समृद्ध एवं दूसरों से अपराभवित थे।
હે જબ્બ ! તે કાલ તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તેમાં ગુણશિલક નામે એક ચિત્ય હતું. તે નગરમાં શ્રેણિક નામે રાજા હતા. તે રાજગૃહ નગરમાં મકાઈ નામે ગાથાપતિ રહેતા હતા, જે બહુજ સમૃદ્ધ અને બીજાથી અપરાભવિત (अथा पराम नहि थाय तवा) उता. .
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे निर्गता भगवदर्शनाय । 'तए णं से मंकाई गाहावई' ततः खलु स मङ्काईगाथापतिः, 'इमीसे कहाए' अस्याः कथाया 'लडे' लब्धार्थ:-ज्ञातभगवदागमनवृत्तान्तः 'जहा पण्णत्तीए गंगदने' यथामज्ञप्त्यां गङ्गादत्तः-यथा प्रज्ञप्त्यां भगवतीमूत्रे गङ्गादत्तः, 'तहेव इमो वि जेटपुत्रं कुटुंवे टवेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीए सीयाए णिक्खंते' तथैव अयमपि ज्येष्टपुत्रं कुटुम्वे स्थापयित्वा पुरुषसहस्रवाहिन्या शिविकया निष्क्रान्तः 'जाव अणगारे जाए'
उस काल उस समय में धर्म के आदिकर श्रमण भगवान महावीर गुणशिलक उद्यान में पधारे, जिससे परिपद भगवान के दर्शन निमित्त अपने २ घर से निकली । अनन्तर भगवान के आनेका वृत्तान्त सुनकर मङ्काई गाथापति भी, भगवतीमूत्र में वर्णित गङ्गदत्त के समान, भगवान के दर्शन के लिये अपने घर से निकले
और भगवान के समीप पहुँच कर वन्दना की, एवं भगवान के द्वारा उपदिष्ट धर्मकथा सुनकर उनके हृदय में गङ्गदत्त के समान वैराग्य उत्पन्न होगया, और उन्होंने हाथ जोड कर भगवान से अर्ज की कि-हे भदन्त ! आपके द्वारा उपदिष्ट धर्मकथा सुनकर हमारे हृदय में वैराग्य उत्पन्न होगया है, अतः मैं अपने बड़े पुत्र को कुटुम्बभार देकर आपके समीप दीक्षा लेना चाहता हूँ। भगवान ने कहा-हे देवानुप्रिय ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो। उसके बाद वह मङ्काई गाथापति अपने घर गये और अपने पुत्र को गङ्गदत्त के समान ही कुटुम्बभार सौंप कर हजार मनुष्यों से उठाई जाने
તે કાલ તે સમયે ધર્મના આદિકર શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં પધાર્યા. પરિષદ્ ભગવાનનાં દર્શન નિમિત્તે પોતપોતાને ઘેરથી નીકળી. પછી ભગવાનના પધાર્યાનું વૃત્તાંત સાંભળી મંકાઈ ગાથાપતિ પણ ભગવતીસૂત્રમાં કહેલ ગંગદત્તની પેઠે ભગવાનનાં દર્શન માટે પિતાને ઘેરથી નીકળી ભગવાન પાસે પહોંચીને વન્દના કરી, એવં ભગવાન દ્વારા ઉપદેશાયેલી ધર્મકથા સાંભળી તેમના હૃદયમાં ગંગદત્તની પેઠે વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થયે અને તેમણે હાથ જોડીને ભગવાનને અર્જ કરી કે-હે ભદન્ત ! આપનાથી ઉપદેશાયેલી ધર્મકથા સાંભળવાથી મારા હૃદયમાં વૈરાગ્ય ઉત્પન થયેલ છે. તેથી હું મારા મોટા પુત્રને કુટુંબને ભાર શેંપીને આપની પાસે દીક્ષા લેવા ઈચ્છું છું. ભગવાને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! જેવી તમારી ઈચ્છા. ત્યાર પછી તે મંકાઈ ગાથાપતિ પિતાને ઘેર ગયા. ગંગદત્તની પેઠે તેમણે પિતાના પુત્રને કુટુંબનો ભાર સેંપી દઈ હજાર મનુષ્યએ ઉપાડેલી પાલખીમાં બેસી પ્રવજ્યા લેવા માટે નીકળ્યા અને યાવત્ અનગાર
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, मङ्काईकिङ्कमचरितम् .
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यावदनगारो जातः कीदृशोऽनगारो जातः ? इत्याह- 'इरियासमिए जाव गुत्तभयारी' ईर्यासमितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी |
"तए णं से मंकाई अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए ' ततः खलु स मङ्काईरनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके ' सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ' सामायिकादीनि एकादश अङ्गानि अधीते, 'सेस' शेषम् अवशिष्टमेवं विज्ञेयम्, 'जहा खंदगस्स ' यथा स्कन्दकस्य, गुणरयणं तवोकम्मं' गुणरत्नं तपःकर्म = अयं स्कन्दकवत्तपःकर्म कृतवान् ; 'सोलस वासाई परियाओ' षोडश वर्षाणि पर्याय:- दीक्षा पर्यायः ; 'तहेव विपुले सिद्धे' तथव विपुले सिद्ध : = स्कन्दकव देव विपुल गिरौ सिद्धः । इति प्रथममध्ययनम् ॥ १ ॥
'दोच्चस्स उक्खेवओ' द्वितीयस्य उत्क्षेपकः = द्वितीयस्याध्ययनस्य प्रारम्भवाक्यं प्रथमाध्ययनवदेव ज्ञातव्यम् । 'किंकसे वि एवं चेव' किंकमोऽपि वाली शिबिका पर चढकर प्रव्रज्या लेने के लिये निकले और यावत् अनगार होगये । उसके बाद वह मङ्काई अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के समीप सामयिक आदि ग्यारह अङ्गों का अध्ययन किया, और स्कन्दक के समान गुणरत्न तप का आराधन किया, एवं सोलह वर्ष पर्यन्त दीक्षापर्याय का पालन करके अन्तमें स्कन्दक के समान ही विपुलपर्वत पर सिद्धपद को प्राप्त हो गये ।
प्रथम अध्ययन समाप्त |
द्वितीय अध्ययन का प्रारम्भ वाक्य भी प्रथम अध्ययन के समान जानना चाहिये । इस अध्ययन में किङ्कम गाथापति का થઇ ગયા. ત્યાર પછી તે મકાઇ અનગારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના તથારૂપ વિરાની પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું, અને સ્કન્દકની પેઠે ગુણરત્ન તપનું આરાધન કર્યું, તથા સેાળ વર્ષ પર્યંન્ત દીક્ષા પર્યાયનું પાલન કરી અંતમાં સ્કન્દકની પેઠે જ વિપુલ પ`ત પર સિદ્ધ પદને પ્રાપ્ત થયા.
પ્રથમ અધ્યયન સંપૂર્ણ
એજ રીતે દ્વિતીય અધ્યયનનાં પ્રારંભવાકયને પણ પ્રથમ અધ્યયનની સમાન જાણી લેવું જોઈએ. આ અધ્યયનમાં કિમ ગાથાપતિનું વર્ણન છે. કિંકમ ગાથાપતિ
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अन्तकृतदशाङ्गमुत्रे
एवमेव, 'जाव विपुले सिद्धे' यावद् विपुले सिद्ध: किंकमस्य सिद्धिपर्यन्तं सर्वे चरितं मङ्काईवदेव विज्ञेयम् ॥ ०२ ॥ इति द्वितीयमध्ययनम् || २ || ॥ मूलम् ॥
तच्चस्स उक्खेवओ ! एवं खल जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समपुणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, चेल्लणा देवी । तत्थ णं रायगिहे णयरे अज्जुणए णामं मालागारे परिवes अड्ढे जाव अपरिभूए । तस्स णं अज्जुणयस्स मालागारस्स बंधुमई णामं भारिया होत्था, सूमालपा - णिपाया । तस्स णं अज्जुणयस्स मालागारस्स रायगिहस्स नयरस बहिया एत्थ णं महं एगे पुप्फारामे होत्था कण्हे जाव निकुरंबभूए दसद्धवन्नकुसुमकुसुमिए पासाईए ४ । तस्स णं पुप्फारामस्त अदूरसामंते तत्थ णं अज्जुणयस्स मालागारस्स अज्जयपज्जय पिइपज्जयागए अणेगकुलपुरिसपरंपरागए मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, पोराणे दिवे सच्चे जहा पुण्णभद्दे । तत्थ णं मोग्गरपाणिस्स पडिमा एगं महं पलसहस्सणिफण्णं अयोमयं मोग्गरं गहाय चिट्ठा ॥ सू० ३ ॥ ॥ टीका ॥
' तच्चस्स ' इत्यादि । ' तच्चस्स उक्खेवओ' तृतीयस्य उत्क्षेपकः पूर्ववदेव ज्ञेयः । ' एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, चेलणा देवी' एवं खलु हे जम्बू : ! तस्मिन् काले वर्णन है । किङ्कम गाथापति मङ्काई के समान ही प्रव्रजित हुए तथा उसी प्रकार विपुल गिरि पर सिद्ध हुए || सू० २ ॥
द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ ॥ अथ तृतीय अध्ययन ॥
तृतीय अध्ययन का आरम्भ इस प्रकार करते हैं-श्री जम्बू
પશુ મકાઇની સમાન જ પ્રવ્રુજિત થયા, તેજ પ્રકારે વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ થયા (સ્૦ ૨) દ્વિતીય અધ્યયન સમાય.
અથ તૃતીય અધ્યયન,
તૃતીય અધ્યયનના આરંભ આ પ્રકારે કરીએ છીએ, શ્રી જંબૂસ્વામીએ શ્રી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका,
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तस्मिन् समये, राजगृहं नगरम्, तत्र गुणशिलकं चैत्यम्, श्रेणिको राजा, वेल्लना देवी । ' तत्थ णं रायगिहे णयरे अज्जुणए णामं मालागारे परिवसई' तत्र खलु राजगृहे नगरे अर्जुनको नाम मालाकारः परिवसति 'अड्ढे जाव अपरिभू' आयो यावदपरिभूतः । ' तस्स णं अज्जुणयस्स मालागारस्स' तस्य खलु अर्जुनकस्य मालाकारस्य 'बंधुमई णामं भारिया होत्था' बन्धुमती नाम भार्या आसीत् 'मालपाणिपाया' सुकुमालपाणिपादा- कोमलाङ्गीत्यर्थः ' तस्स णं अज्जुणयस्स मालागारस्स रायगिहस्स नयरस्स वहिया' तस्य खलु अर्जुनकस्य मालाकारस्य राजगृहाद् नगराद् बहिः, 'एत्थ णं महं एगे पुफारामे होत्था' अत्र खलु महान् एकः पुष्पाराम आसीत्, 'कण्हे जाव निकु
भूए' कृष्णो यावन्निकुरम्वभूतः, यो हि आरामः कृष्णः कृष्णावभासो यावद्
स्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से पूछा - हे भदन्त ! भगवान से निरूपित अन्तकृत के छठे वर्ग के द्वितीय अध्ययन का भाव आपके द्वारा ज्ञात हुआ, अब इसके आगे भगवान के द्वारा निरूपित तृतीय अध्ययन का भाव जानना चाहता हूँ । श्री सुधर्मा स्वामीने कहाहे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस नगर में गुणशिलक नामक चैत्य था । उस नगर के राजा श्रेणिक थे। उनकी रानी का नाम चेलना था । उस राजगृह नगर में अर्जुन नामका माली रहता था । उस माली की पत्नी का नाम बन्धुमती था जो अत्यन्त सुकुमार थी । अर्जुन माली के अधीन में राजगृह नगर के बाहर एक विशाल पुष्पाराम (फूलों का बगीचा ) था । वह पुष्पाराम नीले पत्तों से आच्छादित होने के कारण
સુધર્માંસ્વામીને પૂછ્યું – હૈ ભદન્ત ! ભગવાને નિરૂપણ કરેલા અંતકૃત સૂત્રના છઠ્ઠા વર્ગના દ્વિતીય અધ્યયનના ભાવ આપના દ્વારા જાણ્યા, હવે તેથી આગળ ભગવાને નિરૂપણ કરેલા તૃતીય અધ્યયનના ભાવ જાણવા ચાહુ છું. શ્રી સુધર્માંસ્વામીએ કહ્યુંહે જબૂ! તે કાલ તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ. તે નગરમાં ગુરુશિલક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરના રાજા શ્રેણિક હતા. તેમની રાણીનું નામ ચેલના હતું. તે રાજગૃહ નગરમાં અર્જુન નામે માલી રહેતા હતા. તે માલીની પત્નીનું નામ મધુમતી હતુ, જે અત્યંત સુકુમાર હતી. અર્જુન માટીની માલિકીના એક વિશાળ પુષ્પારામ (ફૂલના પગીચા) રાજગૃહ નગરની બહાર હતા. જે પુષ્પારામ લીલાં પાંદડાંથી આચ્છાદિત હાવાને કારણે આકાશમાં
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
निकुरम्बभूतः=महामेघसदृशश्यामकान्तियुक्तः 'दसद्धवनकुसुमकुसुमिए' दशार्द्धवर्णकुसुमकुसुमितः-दशार्द्धवर्णानि पञ्चवर्णानि यानि कुसुमानि तैः कुसुमितः = पुष्पितः 'पासाईए' प्रासादीयः = मनःप्रसादजनकः, तथा दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपश्ञ्चासीत् । ' तस्स णं पुप्फारामस्स अदूरसामंते' तस्य खलु पुष्पारामस्य अदूरसामन्ते= नातिदूरे नातिनिकटे, 'तत्थ णं अज्जुणयस्स मालागारस्स' तत्र खलु अर्जुनकस्य मालाकारस्य 'अज्जयपज्जयपिइपज्जयागए' आर्यकमार्यक पितृपर्यंयागतम्–आर्यकः=पितामहः प्रार्यकः = प्रपितामहः, आर्यकश्च प्रार्यकश्च पिता च आर्यकमार्यकपितरः तेषां पर्ययः पर्यायः - क्रमस्तेन आगतम् 'अणेगकुलपुरिसपरंपरागए' अनेककुलपुरुष परम्परागतम् = अनेक पूर्व पुरुषपरम्परया समागतं 'मोग्गरपाणिस्स' मुद्गरपाणेर्यक्षस्य 'जक्खाययणे' यक्षायतनमासीत् । तत्कीदृशमासीत् ? इत्याह- 'पोराणे' पुराणम् = प्राचीनम्, 'दिव्वे ' दिव्यम् = मनोहरम्, 'सच्चे' सत्यमिति । किमिव ? 'जहा पुण्णभदे' यथा पूर्णभद्रं - पूर्णभद्रयक्षायतनमिव, 'तत्थ णं मुग्गरपाणिस्स पडिमा ' तत्र खलु मुद्गरपाणेः प्रतिमा = प्रतिकृतिः 'एगं महं' एकं महान्तं ' पलसहस्रणिफण्णं अयोमयं मुग्गरं गहाय चिट्ठइ' पलसहस्र निष्पनमयोमयं मुद्गरं गृहीला तिष्ठति ॥ सू० ३ ॥
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१७२
आकाश में चढे हुए बादल की घनघोर घटा के समान श्याम कान्ति से युक्त दीखता था, एवं पाँच प्रकार के फूलों से सुशोभित और मन को प्रसन्न करने वाला था, तथा सभी प्रकार से मनको आकृष्ट करता था । उस पुष्पाराम के समीप पिता - पितामह ( दादा ) - प्रपितामह आदि कुलपरम्परा से आया हुआ मुद्गरपाणि यक्ष का यक्षायतन था । जो पूर्णभद्र के समान पुराना दिव्य एवं सत्य था । उसमें मुद्रपाणि यक्ष की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी । के हाथ में एक हजार पल परिणाम ( माप) उस मुद्गरपाण मुद्गर था || सू० ३ ॥ वाला लोहेका
ચઢેલા વાદલાની ઘનઘાર ઘટા જેવે શ્યામકાંતિ-યુક્ત દેખાતા હતા. વળી તે પાંચ પ્રકારના ફૂલેાથી સુથેભિત અને મનને આનંૐ આપે તેવા હતા, તથા દરેક રીતે મનને આણુ કરતા હતા. તે પુષ્પારામની પાસે પિતા-પિતામઠુ-પ્રપિતામહ આદિ કુલપરંપરાથી મળેલું મુદ્રાણિ યક્ષનું યક્ષાયતન હતું. જે પૂર્ણ ભદ્રના સમાન પુરાણુ દિવ્ય અને સત્ય હતુ. તેમાં મુદ્ગરપાણિ યક્ષની પ્રતિમાની પ્રતિષ્ઠા કરેલી હતી, તે મુદ્ગરપાણુિના हाथमा भेट हुन्नर यस परिभाष ( भाथ ) वाणु बोदानु भुदर तु. ( सू० 3 )
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. मु. टीका, मुद्गरपाणियक्षायतनवर्णनं, अर्जुनस्य दिनकृत्यवर्णनं च. १७३
॥ मूलम् ॥ तए णं से अज्जुणए मालागारे बालप्पभिई चेव मोग्गरपाणिजक्खस्स भत्ते यावि होत्था। कल्लाकल्लिं पच्छिपिडगाइं गेण्हइ, गेण्हित्ता रायगिहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ, पडि निक्खमित्ता जेणेव पुष्फारामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुटफुच्चयं करेइ, करित्ता अग्गाइं वराइं पुटफाई - गहाइ, गहित्ता जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चणयं करेइ, करिता जाणुपायपडिए पणामं करेइ, करिता तओ पच्छा रायमगंसि वितिं कप्पमाणे विहरइ ॥ सू० ४॥
. ॥टीका ॥ . 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से अज्जुणए मालागारे' ततः खलु सोऽर्जुनको मालाकारो वालप्पभिई चेव' वालप्रभृत्येव-बाल्यावस्थामारभ्यैव, 'मोग्गरपाणिजक्खस्स भत्ते यावि होत्था' मुद्रपणियक्षस्य भक्तश्चाप्यभवत् , स च 'कल्लाकल्लिं' कल्याकल्यि प्रतिदिनं 'पच्छिपिडगाई' पच्छिपिटकान् वेत्रविनिर्मितपिटकान्-'छावडी' इति भसिद्धाम्, 'गेहइ' गृह्णाति, 'गेण्हित्ता' गृहीत्वा 'रायगिहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ' राजगृहान्नगरात् प्रतिनिष्क्राम्यति, 'पडिनिक्खमित्ता जेणेव पुप्फारामे' प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव पुष्पारामः 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य, 'पुप्फुच्चय' पुष्पोचय=पुष्पराशिं 'करेइ' करोति, 'करित्ता' कृखा 'अग्गाई अग्र्याणि-अग्रभवानि-विकसितानि 'वराई' वराणि श्रेष्ठानि, 'पुप्फाई' पुष्पाणि-कुसुमानि,
वह अर्जुन माली बाल्यकाल से ही मुद्गरपाणि यक्ष का भक्त था और प्रतिदिन बेंत की बनी हुई छाबडी लेकर राजगृह नगर से बाहर निकल कर जहाँ वह पुष्पाराम था वहा जाता था और वहां फूलों को बीन २ कर एकट्ठा करता था, बाद में वह माली છે તે અર્જુન માલી બાલ્યકાળથી જ મુદ્રાણિ યક્ષને ભકત હતું અને હમેશાં નેતરની બનાવેલી છાબડી લઈને રાજગૃહ નગરથી નીકળી જ્યાં તે પુષ્પારામ હતું ત્યાં જાતે અને ફૂલે વીણી વીણીને ભેગાં કરતે હતે. પછી તે માલી ખિલેલાં છે ફૂલને
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे 'गहाइ' गृह्णाति, 'गहित्ता' गृहीत्वा 'जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स' यत्रैव मुद्गरपाणेर्यक्षायतनं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य मुद्गरपाणेर्यक्षस्य, 'महरिहं पुप्फच्चणयं करेई' महाई पुष्पाचनकं करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'जाणुपायपडिए' जानुपादपतितः-भूमौ उभे जानुनी पादौ च पातयित्वा प्रणतः सन् 'पणामं करेइ' प्रणामं करोति । 'तओ पच्छा रायमग्गंसि वित्तिं कप्पमाणे विहरइ ततः पश्चाद् राजमार्गे वृत्ति जीविकां कल्पयन्-जीविकाथै पुष्पविक्रयं कुर्वाणो विहरति ॥ मू० ४ ॥
॥ मूलम् ॥ तत्थ णं रायगिहे णयरे ललिया नामं गोट्री परिवसइ, अड्ढा जाव अपरिभूया जंकयसुकया यावि होत्था। तए णं रायगिहे नगरे अण्णया कयाइं पमोए घुटे यावि होत्था । तए णं से अज्जुणए मालांगारे कल्लं पभूयतरएहिं पुप्फेहिं कजमिति कटु पच्चूसकालसमयंसि बंधुमईए भारियाए सद्धिं पच्छिपिडयाई गेण्हइ, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुप्फारामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंधुमईए भारियाए सद्धिं पुप्फुच्चयं करेइ ॥ सू० ५॥
॥ टीका ॥ __ 'तत्थ णं' इत्यादि। 'तत्थ णं रायगिहे णयरे ललिया नाम' तत्र खलु राजगृहे नगरे ललिता नाम 'गोही' गोष्ठी समानवयस्कमित्रमण्डली फूले हुए श्रेष्ठ फूलों को लेकर जहाँ मुद्गरपाणि यक्ष का यक्षायतन था वहाँ आकर उस मुद्गरपाणि यक्ष की अच्छी तरह से अचना करता था और पृथ्वी पर दोनों जानु तथा पैर को नमाकर प्रणाम करता था। उसके बाद राजमार्ग के किनारे बैठकर आजीविका के लिये फूल वेचता था, और सुखपूर्वक अपना जीवन बिताता था ॥ सू० ४ ॥ લઈને જ્યાં મુદગરપાણિ યક્ષનું યક્ષાયતન હતું ત્યાં જતે અને મુદુગરપાણિ યક્ષની સારી રીતે અર્ચના કરતે. પછી પૃથ્વી પર જાનું તથા પગ બેઉને નીચા નમાવી પ્રણામ કરતું હતું. ત્યાર પછી રાજમાર્ગને કિનારે ( બાજુએ ) બેસીને આજીવિકા, માટે ફૂલ વેચતે હતે તથા સુખપૂર્વક પિતાનું જીવન પસાર કરતો હતો ( ૪ ).
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अर्जुनस्य भार्यया सह पुष्पोच्चयार्थ गमनम् . १७५
'परिवसई' परिवसति, 'अड्डा' आद्या = समृद्धा 'जाव अपरिभूया' यावत् अपरिभूता=अन्यकृत पराभवरहिता, 'जंकयसुकया' यत्कृतसुकृता यत्कृतं तदेव सुकृतं श्रेष्ठं यस्याः सा यत्कृतसुकृता, राजाज्ञावशात्स्वविचारानुकूलाचरणपरायणे'त्यर्थः, 'यावि' चापि 'होत्था' आसीत् । 'तए णं रायगिहे पयरे अण्णया कयाई' ततः खलु राजगृहे नगरे अन्यदा कदाचित् ' पमोए घुडे यावि होत्था' प्रमोदो घुश्चापि अभवत् - उत्सवस्योद्घोषणा जातेत्यर्थः ; 'तए णं से अज्जुणए मालागारे' ततः खलु सोऽर्जुनको मालाकारः 'कलं प्रभूयतरएहिं पुष्फेहिं कज्ज मिति कट्टु ' कल्ये प्रभूतरकैः पुष्पैः कार्यमिति कृत्वा = उत्सवार्थ मातरधिकपुष्पस्यावश्यकता भविष्यतीति मनसि कृत्वा, 'पच्चूसकालसमयंसि ' प्रत्यूषकालसमये = प्रातःकाले 'बंधुमईए भारियाए सद्धिं बन्धुमत्या भार्यया सार्द्ध 'पच्छिपिडयाई ' पच्छिपिटकान् = वेत्र विनिर्मित पात्रविशेषान् 'गेण्डइ' गृह्णाति, 'गेण्हिता' गृहीत्वा 'सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ' स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्क्राम्यति, 'पडिनिमित्ता रायगि नयरं ' प्रतिनिष्क्रम्य राजगृहं नगरं 'मज्झंमज्झेणं गिग्गच्छइ' मध्यमध्येन निर्गच्छति, 'णिग्गच्छित्ता, जेणेव पुप्फारामे तेणेव उबागच्छइ' निर्गत्य, यत्रैत्र पुष्पारामः तत्रैव उपागच्छति, 'उवाग़च्छित्ता'
उस राजगृह नगरी में ललिता नामकी एक गोष्टी (मित्रमण्डली) रहती थी जो अत्यन्त समृद्ध एवं अन्यकृत पराभवों से रहित थी । राजा के अनुग्रह प्राप्त होने के कारण अपने मनमाने काम करने में वह मित्रमण्डली स्वच्छन्द थी । एक दिन राजगृह नगर में एक उत्सव की घोषणा हुई । जिससे उस माली ने विचार किया कि कल उत्सव में अधिक फूलों की आवश्यकता होगी । इसलिये वह सवेरे ही उठा और अपनी पत्नी बन्धुमती के साथ बेंतकी बनी हुई छाबडी लेकर घर से निकला और राजगृह नगर के मध्यमार्ग से होता हुआ जहाँ उसका बगीचा था वहाँ गया और अपनी पत्नी बन्धुमती के साथ फूलों को
તે રાજગૃહ નગરીમાં લલિતા નામની એક ગોષ્ઠી (મિત્રમંડળી) રહેતી હતી. જે ઘણીજ સમૃદ્ધ અને ખીજાથી પરાભવરહિત હતી. તથા રાજાના અનુગ્રહ પ્રાપ્ત હાવાથી પેાતાનાં મનનાં ધારેલાં કામ કરવામાં તે મિત્રમ`ડળી સ્વચ્છંદ હતી. એક દિવસ રાજગૃહ નગરમાં એક ઉત્સવની ઘેાષણા થઈ. તેથી તે માલીએ વિચાર કર્યાં કે કાલે ઉત્સવમાં અધિક ફૂલાની જરૂર પડશે માટે તે વહેલા ઉઠયા, અને
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
उपागत्य ' बंधुमईए भारियाए सद्धिं पुप्फुच्चयं वन्धुमत्या भार्यया सार्द्धं पुष्पोच्चयम् = एकत्रस्थले पुष्पपुञ्ज 'करेइ' करोति ॥ ०५ ॥ ॥ मूलम् ॥
तए णं तीसे ललियाए गोट्टीए छ गोटिल्हा पुरिसा जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया अभिरममाणा चिति । तए णं से अज्जुणए मालागारे बंधुमईए भारिया सद्धिं पुपुच्चयं करेइ, करिता अग्गाई वराई पुप्फाई गहाय जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ । तए णं ते छ गोट्टिल्ला पुरिसा अज्जुणयं मालागारं बंधुमईए भारियाए सद्धिं एजमाणं पासइ, पासित्ता अन्नमन्नं एवं वयासी - एस णं देवाशुप्पिया ! अज्जुणए मालागारे बंधुमईए भारियाए सद्धिं इहं हवमागच्छइ, तं सेयं खलु देवाशुप्पिया! अम्हं अज्जुणयं मालागारं अवओडयबंधणयं करेत्ता बंधुमईए भारियाए सद्धिं विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणाणं विहरितए ति कट्टु एयमहं अन्नमन्नस्स पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता कवाडंतरेसु निलुक्कंति, निच्चला निष्कंदा तुसिणीया पच्छण्णा चिति ॥ सू० ६ ॥
॥ टीका ॥
4
'तए णं' इत्यादि । 'तर णं तीसे ललियाए गोट्टीए छ गोहिल्ला पुरिसा जेणेत्र मोग्गर पाणिस्स जक्खस्स' ततः खलु तस्या ललिताया गोष्ठ्याः पड् गौष्ठिकाः पुरुषा यंत्र मुद्गरपाणेर्यक्षस्य 'जक्खाययणे' यक्षायतनं 'तेणेव ' तत्रैव = यक्षायतने ' उवाग़या' उपागताः = समागताः 'अभिरममाणा चिद्वंति ' अभिरमणमाणाः=क्रीडन्तस्तिष्ठन्ति । 'तए णं से अज्जुणए मालागारे ' ततः खलु चुनकर एकत्रित करने लगा || सू० ५ ॥
उस समय पूर्वोक्त ललिता गोष्टी के छ गौष्टिक पुरुष मुद्गरपाणि के यक्षायतन में घूम रहे थे, अर्जुन माली भी बन्धुमती के પેાતાની પત્ની બન્ધુમતીની સાથે ફૂલેલા વીણીને એકઠાં કરવા લાગ્યા (સ્૦ ૫ )
તે સમયે પૂર્વકિત લલિતા ગાછીના છ માણુસા મુદ્ગરપાણિના યક્ષાયતનમાં ક્રૂરતા
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, गौष्ठिकपुरुषाणां बन्धुमती प्रति दुर्भावः १७७ सोऽर्जुनको मालाकारो 'बंधुमईए भारियाए सद्धिं पुप्फुच्चयं करेइ' वन्धुमत्या भार्यया सार्धे पुष्पोच्चयं करोति, 'करित्ता अग्गाई वराई पुप्फाइं गहाय जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ' कृत्वा अग्र्याणि वराणि पुष्पाणि गृहीत्वा यत्रैव मुद्गरपाणेर्यक्षस्य यक्षायतनं तत्रैव उपागच्छति । 'तए णं ते छ गोहिल्ला पुरिसा अज्जुणयं मालागारं वंधुमईए भारियाए सद्धि' ततः खल ते षड् गौष्ठिकाः पुरुषा अर्जुनकं मालाकारं वन्धुमत्या भार्यया साम् 'एज्जमाणं' एजमानम् आगच्छन्तं 'पासइ' पश्यति, 'पासित्ता अन्नमन्नं एवं वयासी' दृष्ट्वा अन्योऽन्यम् एवमवदत्-'एस णं देवाणुप्पिया !' एष खलु हे देवानुप्रियाः ! 'अज्जुणए मालागारे' अर्जुनको मालाकारो 'बंधुमईए भारियाए सद्धि' बन्धुमत्या भार्यया सार्द्धम् , 'इहं' इह 'हन्चमागच्छइ' शीघ्रमागच्छति, 'त सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अहं अज्जुणयं मालागारं' तच्छ्रेयः खलु हे देवानुप्रियाः ! अस्माकम् अर्जुनकं मालाकारम् 'अवओडयवंधणयं' अवकोटकवन्धनक-गले रज्जु कृत्वा बाहू पृष्ठदेशे आनीय यद्वन्धनं तदवकोटकम् उच्यते, तादृशं वन्धनं यस्य स तथा तं 'करेत्ता' कृत्वा, अर्जुनकं मालाकारमवकोटक: वन्धनेन वद्ध्वा इत्यर्थः; 'वंधुमईए भारियाए सद्धिं' वन्धुमत्या भार्यया साई 'विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणाणं विहरित्तए' विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जानानां विहर्तुम् अर्जुनकं मालाकारमवकोटकवन्धनेनोद्ध्य तद्भायया सह साथ पुष्पसंग्रह करके उत्तम २ फूलों को लेकर मुद्रपाणि यक्ष की. पूजा के लिये यक्षायतन की ओर जा रहा था। बन्धुमतो भार्या के साथ आते हुए अर्जुनमाली को देखकर उन छहों गौष्टिक पुरुषों ने परस्पर विचार किया हे मित्रों! यह अर्जुन माली अपनी पत्नी बन्धुमती के साथ यहाँ आरहा है, इसलिये हम लोगों को उचित है कि इस माली को औंधी-मुश्कियों से बलपूर्वक बांधकर इसकी भार्या बन्धुमती के साथ विपुल भोगों को भोगें । इस प्रकार હતા. અર્જુન માલી પણ બધુમતીની સાથે એકઠાં કરેલા પુષ્પમાંથી સારામાં સારાં પુષ્પ લઈને મુળરપાણિ યક્ષની પૂજા માટે યક્ષાયતન તરફ જતો હતે. બધુમતી ભાર્યા સાથે આવતા અર્જુનમાલીને જોઈને તે છએ ગૌષ્ટિક પુરુષેએ પરસ્પર વિચાર કર્યો કે હે મિત્ર! આ અર્જુન માલી પિતાની પત્ની બન્દુમતીની સાથે અહીં આવે છે. તેથી આપણું માટે ઊચિત છે કે આ માલીને અવળા હાથે બાંધી બલપૂર્વક તેની ભાર્યા બધુમતીની સાથે વિપુલભેગો ભેગવીએ. આ પ્રકારે પરસ્પર વિચાર કરી
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विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जानैरस्माभिर्विहर्तव्यम् -'त्ति कट्ट' इति कृत्वा 'एयम अन्नमन्नस्स' एतमर्थम् अन्योऽन्यस्य 'पडिसुर्णेति' प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति, 'पडिणिचा' प्रतिश्रुत्य ' कवाडंतरेसु' कपाटान्तरेपु = यक्षायतनकपाटपृष्ठभाग इत्यर्थः ; 'निलुक्कंति' निलीयन्ते - तिरोहिता भवन्तिः 'निच्चला' निश्चलाः= शरीरव्यापाररहिताः, 'निष्कंदा ' निष्पन्दाः = स्पन्दनरहिताः = अवरुद्धश्वासोच्छ्वासाः; 'तुसिणीया' तूष्णीका: = मौनाः 'पच्छण्णा' प्रच्छन्नाः = कपाटान्तर्हिताः 'चिद्वंति' तिष्ठन्ति ॥ ०६ ॥ ॥ मूलम् ॥
तए णं से अज्जुणए मालागारे बंधुमईए भारियाए सद्धि जेणेव मोग्गरपाणिजक्खाययणे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता, आलोए पणामं करेइ, करिता महरिहं पुष्फच्चणियं करेइ, करिता जाणुपायवडिए पणामं करेइ । तए णं ते छ गोटिया पुरिसा दवदवस्स कवाडंतरेहिंतो णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता, अज्जुणयं मालागारं गेव्हंति, गेण्हित्ता, अवओडगबंधणं करेंति, करिता बंधुमईए मालागारीए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति । तए णं तस्स अज्जुणयस्स मालागारस्स अयमज्झत्थिए ५ समुप्पण्णे, एवं खलु अहं बालप्पभि चेव मोग्गरपाणिस्स भगवओ कल्लाकालि जाव वित्ति कप्पेमाणे विहरामि तं जइ णं मोग्गरपाणिजक्खे इह संनिहिए होंते से णं किं ममं एवारूवं आवत्तिं पावेजमाणं पासते ? तं नत्थि णं मोग्गरपाणिजक्खे इह संनिहिए, सुबत्ते तं एस कडे ॥ सू० ७ ॥
॥ टीका ॥
'तर णं' इत्यादि । 'तर णं से अज्जुणए मालागारे बंधुमईए परस्पर विचार करके वे किवाड़ों के पीछे छिप जाते हैं और निश्चल एवं सांस रोककर चुपचाप बैठ जाते हैं || सू० ६ ॥
6
તે કમાડ પછવાડે છુપાઈ જાય છે અને નિશ્ચલ થઈ શ્વાસ રોકીને ચુપચાપ બેસી लय छे. ( सू० ६ )
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मु. टीका, गौष्ठिककृतवन्धुमतीशीलध्वंसः, अर्जुनस्य स यक्षसत्तायामविश्वासः १७९ भारियाए सद्धिं' ततः खलु सोऽर्जुनको मालाकारो वन्धुमत्या भार्यया साई 'जेणेव मोग्गरपाणिजक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए' यत्रैव मुङ्गरपाणियक्षायतनं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य आलोकयन्-मुद्गरपाणिं यक्षं पश्यन् ‘पणामं करेइ' प्रणामं करोति, ‘करित्ता महरिहं पुप्फचणियं करेइ' कृत्वा महाही पुष्पार्चनिकां करोति, 'करित्ता जाणुपायवडिए पणाम करेइ' कृत्वा जानुपादपतितः प्रणामं करोति । 'तए णं ते छ गोहिल्ला पुरिसा' ततः खलु ते पड् गौष्टिकाः पुरुषाः 'दवदवस' द्रुतद्रुतेन = अतित्वरया गत्या 'कवाडंतरेहिता' कपाटान्तरात् कपाटपृष्ठप्रदेशाद् ‘णिग्गच्छंति' निर्गच्छन्ति-निस्सरन्ति, 'णिग्गच्छित्ता' निर्गत्य 'अज्जुणयं मालागारं गेण्हंति' अर्जुनकं मालाकारं गृह्णन्ति, 'गेण्हित्ता अवओडयवंधणं करेंति' गृहीत्वा अवकोटकवन्धनं कुर्वन्ति, 'करित्ता बंधुमईए मालागारीए' कृत्वा बन्धुमत्या • मालाका अर्जुनमालाकारस्त्रिया 'सद्धि' साद्ध 'विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति' विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति । 'तए णं तस्स अज्जुणयस्स' ततः खलु तस्य अर्जुनकस्य 'मालागारस्स' मालाकारस्य' 'अयमज्झ
. उसके बाद वह अर्जुनमाली बन्धुमती भार्या के साथ जहाँ मुद्गरपाणियक्ष का यक्षायतन था वहाँ आया, आकर भक्तिभाव से प्रफुल्ल लोचनों (नेत्रों) के द्वारा मुद्गरपाणि यक्ष की तरफ देखता हुआ प्रणाम करने लगा और प्रणाम करके उचित पुष्पार्चना करने के बाद घुटने और पैरों के बल नीचे झुक कर प्रणाम करने लगा। उसी समय उन छहों गौष्टिक पुरुषोंने जल्दी २ किवाडों के पीछे से निकल कर अर्जुनमालीको पकड लिया और औंधी मुश्की बाँधकर उसे एक तरफ गुंडका दिया। अनन्तर उसके सामने उसकी पत्नी बन्धुमती के साथ विविध भोगों को भोगते हुए वे विचरने
- ત્યાર પછી તે અર્જુન માલી બધુમતી ભાર્યાની સાથે જ્યાં મુદગરપાણિ યક્ષનું યક્ષાયતન હતું ત્યાં આવીને ભકિતભાવે પ્રફુલ નેત્રવડે મુગરપાણિ યક્ષની તરફ જોતો થકે પ્રણામ કરવા લાગે, અને પ્રણામ કરીને ઉચિત પુષ્પાર્ચના કરી લીધા પછી ઘૂંટણ અને પગના બલ ઉપર નીચે નમી પ્રણામ કરવા લાગ્યું. તે સમયે તે છએ ગૌષ્ટિક પુરુષે જલદી જલદી કમાડની પાછળથી નીકળીને અર્જુન માલીને પકડી લીધે અને અવળા હાથે બાંધીને તેને એક બાજુએ ગબડાવી દીધે પછી તેની સામે તેની પત્ની બધુમતીની સાથે વિવિધ ભેગે ભેગવતા વિચરવા લાગ્યા આ જોઈને અર્જુન માલીના
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अन्तकृतदंशाङ्गसूत्रे थिए ५' अयमाध्यात्मिकः ५-प्रार्थितश्चिन्तितः कल्पितो मनोगतः संकल्पः । 'समुप्पण्णे' समुत्पन्नः, ‘एवं खल्लु अहं वालप्पभिई चेव मोग्गरपाणिस्स भगवओ' एवं खलु अहं वालप्रभृत्येव मुद्गरपाणेभंगवतः इष्टरूपस्य, 'कल्लाकल्लिं जाव वित्ति' कल्याकल्यि यावद् वृत्तिं 'कप्पेमाणे' कल्पयन् प्रतिदिनं तत्सेवां विधाय जीविकार्थ राजमार्गे पुष्पविक्रय कुर्वाणो विहरामि । 'तं जइ णं, मोग्गरपाणिजक्खे इह' तद् यदि खलु मुद्गरपाणियक्ष इह 'संनिहिए होते। संनिहितो भवेत् , ' से णं किं ममं एयारूवं आवत्तिं पावेजमाणं' स खलु किं माम् एतद्रूपामापत्ति प्राप्नुवन्तं 'पासते' पश्येत् , 'तं नत्थि णं मोग्गरपाणिजक्खे' तन्नास्ति खलु मुद्गरपाणियक्षः 'इह संनिहिए' इह संनिहिता= समीपस्थः, 'सुव्वत्तं तं एस कटे' सुव्यकं तदेपः तस्मादेप यक्षः काष्ठमेव न तु यक्षः ॥ सू० ७ ॥ . . . ॥ मूलम् ॥
तए णं से मोग्गरपाणिजक्खे अजुणयस्स मालागारस्स अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव वियाणेत्ता अज्जुणयस्स मालागारस्स सरीरयं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता तडतडस्स लगे। यह देख कर अर्जुनमाली के हृदय में इस प्रकारका विचार उत्पन्न हुआ कि मैं बाल्यकाल से ही प्रत्येक दिन अपने इष्ट मुद्गरपाणि यक्षकी पूजा करता आ रहा हूँ। इनकी पूजा कर लेने के बाद ही आजीविका के लिये सडक के किनारे फूल बेचने के लिये जाता हूं और फूल बेचकर निर्वाह करता हूँ। आज मुझे ऐसा सन्देह होता है कि यदि मुद्रपाणि यक्ष यहा होते . तो क्या वे इस प्रकार की आपत्ति में पडे हुए मुझको देख सकते थे? इसलिये यही निश्चय होता है कि यहा मुद्गरपाणि यक्ष संनिहित नहीं है, अपितु यह काष्ठमात्र है ॥ सू० ७ ॥.... હૃદયમાં એ વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે હું બાલ્યકાળથીજ હમેશાં મહારા ઈષ્ટ મુદુગરપાણિ ચક્ષની પૂજા કરતો રહું છું. તેની પૂજા કરી લીધા પછી જ આજીવિકા માટે સડકની બાજુએ ફલ વેચવા માટે જાઉં છું અને ફૂલ વેચીને નિર્વાહ કરું છું. આજ મને એવા સંદેહ થાયે છે કે જે મુદુગરપાણિ યક્ષ અહીં હોત તે શું આ પ્રકારની આપત્તિમાં પડેલે મને તે જોઈ શકત? માટે એ નિશ્ચય થાય છે કે અહીં સુગરપાણિ યક્ષ. ४०४२ नथी, परंतु माता ३४ 2. ( सू०-७). ..
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अर्जुनाविष्टयक्षेण सबन्धुमतीक गौष्टिकनाशः १८१ बंधाइं छिंदइ, तं पलसहस्सणिप्फपणं अओमयं मोग्गरं गेण्हइ, गेण्हित्ता ते इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएइ । तए णं से अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्वेणं अण्णाइटे समाणे रायगिहस्स नयरस्त परिपेरंते णं कल्लाकलिं छ इथिसत्तमे - पुरिसे घाएमाणे विहरइ ॥ सू० ८॥
'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से मोग्गरपाणिजक्खे' ततः खलु स मुद्गरपाणियक्षः,, 'अज्जुणयस्स मालागारस्स' अर्जुनकस्य मालाकारस्य, 'अयमेयारूवं अज्झत्थियं . जाव वियाणेत्ता' इममेतद्रूपमाध्यात्मिकं. यावद् विज्ञाय-अत्र मुद्गरपाणिर्यक्षो नास्ति, इदं तु काष्ठमेवेत्यादिरूपं पूर्वोक्त मनसि गतं विचारं ज्ञात्वा, 'अज्जुणयस्य मालागारस्स सरीरय' अर्जुनकस्य मालाकारस्य शरीरकम् 'अणुप्पविसइ' अनुप्रविशति-शरीरे प्रवेशं करोतीत्यर्थः, 'अणुप्पविसित्ता' अनुपविश्य 'तडतडस्स' 'तडतड' इति शब्देन 'वंधाई' वन्धान् ‘छिदइ छिनत्ति, अनन्तरं मुद्गरपाणियक्षाविष्टः सोऽअर्जुनको मालाकारः 'तं पलसहस्सणिप्फणं' तं पलसहस्रनिष्पन्नं-पलानां सहस्रं पलसहस्रं, पलं च-आधुनिकरूप्यपञ्चकपरिमितं भवति, पोडशभिः पलैरेकः शेटको भवति, एवं पलसहस्रं साईद्विपष्टिशेटकपरिमितं भवति, तेन पलसहस्रेण निष्पन्न-निर्मितम् 'अओमयं' अयोमयं लोहमयं 'मोग्गरं गेहइ' मुद्गरं गृह्णाति, 'गेण्हित्ता ते इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएइ' गृहीत्वा तान् स्त्रीसप्तमान् पुरुषान् घातयति
. उस समय वह मुद्गरपाणि यक्ष अर्जुनमाली के मनमें अपने अस्तित्व के विषय में आये हुए सन्देह को जानकर उसके शरीर में प्रविष्ट हुआ और तडतड करके उसके बन्धनों को तोड दिया। अनन्तर मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट वह अर्जुनमाली एक हजार पलका लोहमय मुद्गर लेकर बन्धुमती-सहित उन छहों गौष्टिक पुरुषों
તેજ સમયે તે મુદ્દગરપાણિ યક્ષે અર્જુન માલીના મનમાં પિતાના અસ્તિત્વ વિષે સંદેહ થયે છે એમ જાણીને તેના શરીરમાં પ્રવેશ કર્યો અને તડ તડ કરીને તેનાં બંધનને તોડી નાખ્યાં. પછી મુદગરપાણિ યક્ષથી આવિષ્ટ તે અજુન માલીએ એક હજાર પવને લોઢાને મુગર લઈને બધુમતી સાથે તે છએ ગૌષ્ટિક પુરુષને મારી નાખ્યા. આ
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अन्तकृतदशासूत्रे स्त्री सप्तसंख्यायाः पूरणी येषां तान् स्त्रीसप्तमान पुरुषान् , अर्थात् षड् गौष्टिकपुरुपान् एकां वन्धुमती स्त्रियं च 'घाएइ' घातयति । 'तए णं से अज्जुणए मालागारे' ततः खलु सोऽअर्जुनको मालाकारो 'मोग्गरपाणिणा जक्खणं' मुद्गरपाणिना यक्षेण 'अण्णाइटे समाणे' अन्वाविष्टः अधिष्ठितः सन् , 'रायगिहस्स णयरस्स' राजगृहस्य नगरस्य 'परिपेरंते णं' परिपर्यन्ते खलुपान्तभागे बहिर्भागे इत्यर्थः; 'कल्लाकल्लिं' कल्याकल्यि प्रतिदिनं 'छ इत्थिसत्तमे पुरिसे' पट् स्त्रीसप्तमान् पुरुषान् पट् पुरुषान् एकां स्त्रियं च 'घाएमाणे विहरइ' घातयन् विहरति ॥ सू० ८ ॥
तए णं रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव महापहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ' ४-एवं खलु देवाणुप्पिया! अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा अण्णाइट्रे समाणे रायगिहे छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएमाणे विहरइ । तए णं से सेणिए राया इमीसे कहाए लद्धहे समाणे कोडुंबियपुरिसे सदावेइ,सदावित्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया! अज्जुणए मालागारे जावघाएमाणे विहरइ। तं मा णं तुम्भे केइ तणस्स वा कट्रस्स वा पाणियस्त वा पुप्फफलाणं वा अट्टाए सइ निगच्छउ, मा णं तस्स सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ-त्ति कटु दोंचं पि तचं पि घोसणं घोसेह, घोसित्ता खिप्पामेव ममेयं पञ्चप्पिणह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति ॥ सू० ९॥ को मारडाला। इस प्रकार इन सातों को मारकर मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट वह अर्जुनमाली राजगृह नगर की बाहरी सीमा में प्रतिदिन छ पुरुष और एक स्त्री, इस प्रकार सात मनुष्यों को मारता हुआ विचरने लगा ॥ सू० ८॥ પ્રકારે એ સાતેયને મારીને મુળરપાણિ યક્ષથી આવિષ્ટ તે અર્જુનમાલી રાજગઈ નગરની બહારની હદમાં હંમેશાં છ પુરુષ અને એક સ્ત્રી, એમ કુલ સાત મનુષ્યને भारत पियवा साव्या. (सू० ८) ।
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- मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, श्रेणिककृतःप्रजानां वहिर्गमननिषेधः
...... ॥ टीका ॥ _ 'तए णं.' इत्यादि । 'तए णं रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव - महापहेसु.' ततः खलु राजगृहे नगरे शृङ्गाटक यावद् महापथेषु = चतुष्पथादिषु
सर्वत्र स्थलेषु-इति भावः; 'बहुजणा अण्णमण्णस्स' बहुजनः अन्योऽन्यस्य 'एवमाइक्खइ४' एवमाख्याति४-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अज्जुणए मालागारे'. एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! अर्जुनको मालाकारः 'मोग्गरपाणिणा' मुद्गरपाणिना 'अण्णाइटे' अन्वाविष्टः अधिष्ठितः 'समाणे' सन् 'रायगिहे वहिया' राजगृहानगराद् वहिः 'छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएमाणे विहरइ ! पट् स्त्रीसप्तमान्. पुरुषान् घातयन् विहरति । 'तए णं से सेणिए राया इमीसे कहाए लढे
समाणे कोडं वियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं बयासी' ततः खलु स __ श्रेणिको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् कौटुम्विकपुरुषान् शब्दयति,
शब्दयित्वा एवमवदत्- ‘एवं खलु देवाणुप्पिया! अजुणए मालागारे जाव घाएमाणे विहरइ' एवं खलु हे देवानुपियाः! अर्जुनको मालाकारः यावद् घातयन् विहरति, 'तं' तस्माद् ‘मा गं' मा खल 'तुम्भे' यूयं - उस समय राजगृह नगर के राजमार्ग आदि सभी स्थलों में बहुत से व्यक्ति एक दूसरों से इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रिय ! अर्जुनमाली मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट हो राजगृह नगर के
आसपास में एक स्त्री छ पुरुष, इस प्रकार सात व्यक्तियों को प्रतिदिन मारता हुआ विचर रहा है। इस समाचार को राजा श्रेणिकने सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों को वुलवाया और इस प्रकार कहाहे देवानुप्रिय ! अर्जुनमाली राजगृह नगर के बाहर सीमान्त प्रदेश में प्रतिदिन छ पुरुष एक स्त्री, इस प्रकार सात व्यक्तियों को मारता हुआ विचर रहा है। इसलिये तुम लोग मेरी आज्ञा को सारे नगर
તે સમયે રાજગૃહ નગરના રાજમાર્ગ આદિ બધે સ્થળે ઘણા લોકો એક બીજાને આ પ્રકારે કહેવા લાગ્યા...હે દેવાનુપ્રિય! અનમાલી મુદગરપાણિ યક્ષથી આવિષ્ટ થઈને રાજગૃહ નગરની આસપાસમાં એક સ્ત્રી અને છ પુરુષ એમ સાત વ્યકિતઓને હમેશાં મારતો વિચરી રહ્યો છે. આ સમાચારને રાજા શ્રેણિકે સાંભળી કૌટુંબિક પુરુષને બેલાવ્યા, અને આ પ્રકારે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! અર્જુનમાલી રાજગૃહ નગરની બહાર સીમાંત પ્રદેશમાં હમેશાં છ પુરુષ અને એક સ્ત્રી એમ સાત વ્યકિતઓને મારતો વિચરી રહ્યો છે, માટે તમે લોકો મારી આજ્ઞાને આખા નગરમાં આવી રીતે
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अन्तकृतदशाङ्गमुत्रे
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' के वि' केऽपि 'तणस्स वा' तृणस्य वा 'कट्टस्स वा' काष्ठस्य वा 'पाणियस्स वा' पानीयस्य वा 'पुप्फफलाणं वा' पुष्पफलानां वा 'अट्टाए' अर्थाय 'सह' सकृत् = एकवारमपि 'णिग्गच्छउ' निर्गच्छन्तु, राजगृहनगराद्वहिः केनापि न गन्तव्यमित्यर्थः ; अतः 'मा णं' मा खलु - न खलु ' तस्स सरीरस्स वावत्ती भविस्सर तिकट्टु' तस्य शरीरस्य व्यापत्तिः कष्टं भविष्यतीति कृत्वा 'दोचंपि ' द्वितीयमपि ' तच्चपि' तृतीयमपि वारं 'घोसणं घोसेह' घोषणां घोषयत, 'घोसित्ता' घोषयित्वा 'खिप्पामेव ममेयं पञ्चपिह' क्षिप्रमेव ममैतामाज्ञां प्रत्यर्पयत = घोषणानन्तरं शीघ्रमेव मां निवेदयत । 'तए णं ते कोटुंबियपुरिसा जाव पच्चष्पिणंति' ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत्प्रत्यर्पयन्ति = घोषणां कृत्वा राज्ञे निवेदयन्तीत्यर्थः ॥ ०९ ॥
॥
मूलम् ॥
तत्थ णं रायगिहे णयरे सुदंसणे णामं सेट्ठी परिवसइ अडूढे । तए णं से सुदंसणे समणोवासए यावि होत्था । - में इस प्रकार घोषित करो कि यदि जीवित रहने की इच्छा तुम लोगों को हो तो, तुम लोग घास के लिये, काठ के लिये, पानी के लिये और फूलफल के लिये एक बार भी राजगृह नगर से बाहर मत निकलो ! यदि तुम लोग बाहर नहीं निकलोगे तो तुम्हारे शरीर की किसी भी प्रकार से हानि नहीं होगी ।
हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार की इस घोषणा को घोषित करो, और बाद में मुझे सूचित करो । इस प्रकार राजा दुबारा - तिबारा की आज्ञा पाकर वे कौटुम्बिक पुरुष राजगृह नगर में घूम २ कर राजा की आज्ञा की घोषणा की और बाद में इसकी सूचना राजा को दी ॥ सू० ९॥
•
જાહેર ઘેષણા કરીને કહેા કે જે તમારે જીવવાની ઇચ્છા હાય તો તમે લેાકેા ઘાસ માટે, લાકડાં માટે, પાણી માટે, અને ફળફૂલને માટે એકવાર પણ રાજગૃહ નગરની બહાર નીકળવું નહિં. જો તમે લેકા બહાર નહિ નીકળેા તો તમારા શરીરની જરાય હાનિ થશે નહિં.
હું દેવાનુપ્રિય ! આ પ્રકારની એ ઘાષણા બેવાર-ત્રણવાર જાહેર કરેા અને પછી મને સૂચિત કરી. આ જાતની રાજાની આજ્ઞા મળવાથી તે કૌટુંબિક પુરુષાએ રાજગૃહ નગરમાં ફરતા ફરતા રાજાની આજ્ઞાની ઘેાષણા કરી અને પછી તેની સૂચના ( ખખર ) शमने आयी. (सू० 6)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, भगवतो महावीरस्य समवसरणम्
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अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे जाव विहरड़ । तए णं रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव महापहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़, जाव किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तए णं तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म अयं अज्झथिए जाव समुत्पन्ने एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरs, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छs, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी एवं खलु अम्मताओ ! समणे भगवं महावीरे जाव विहरs, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि नमंसामि जाव पज्जुवासामि ॥ सू० १० ॥
' तत्थ णं' इत्यादि । 'तत्थ णं' तत्र खलु, 'रायगिहे णयरे' राजगृहे ''नगरे 'सुदंसणे णामं सेट्टी' सुदर्शनो नाम श्रेष्ठी 'परिवसई' परिवसति 'अड्ढे ० १ आद्यः ०= समृद्धिसम्पन्नः यावद परिभूतः = पराभवरहितः । ' तए णं से सुदंसणे समणोवास या होत्था ' ततः खलु स सुदर्शनः श्रमणोपासकञ्चाप्यभवत् । 'अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ' अभिगतजीत्राजीवो यावद् विहरति = जीवाजी
सकलतत्त्वज्ञो भूत्वा विहरति । " तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'समणे भगवं महावीरे समोसढे जाव विहरइ' श्रमणो भगवान महावीरः समवसृतो यावद् विहरति । 'तर णं' ततः = भगवदागमनान
उस राजगृह नगर में सुदर्शन नामक सेठ रहते थे, वे पूर्ण ऋद्धिसंपन्न और अपराभूत थे, वे श्रमणोपासक श्रावक थे तथा जीवादि नौ तत्त्व और पचीस क्रिया के ज्ञाता थे। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर धर्मोपदेश करते हुए राजगृह नगरी के बाहर पधारे। उनके पधारने के समाचार जानकर राजगृह
એ રાજગૃહ નગરમાં સુદેન નામના શેઠે રહેતા હતા. તે પૂર્ણ ઋદ્ધિસપન્ન અને અપરાભૂત હતા. તે શ્રમણાપાસક શ્રાવક હતા તથા વાદિ નવતત્ત્વ અને પચીશ ક્રિયાના જ્ઞાતા હતા તે કાળે તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ધર્માંદેશ કરતાં
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे न्तरं खलु 'रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव महापहेसु' राजगृहे नगरे शृङ्गाटकयावन्महापथेषु 'बहुजणो' बहुजनः = बहुसंख्यको जनः, 'अन्नमन्नस्स' अन्योऽन्यस्मै ‘एवमाइक्खइ' एवमाख्याति 'जाव किमंग! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए' यावत् किमङ्ग ! पुनर्विपुलस्य अर्थस्य ग्रहणेन हे देवानुप्रियाः ! यस्य नामगोत्रश्रवणेनापि महाफलं भवति, किं पुनरभिगमनादिना तदुपदिष्टधर्मसम्बन्धिविपुलस्यार्थस्य ग्रहणेन वेति। - 'तए णं तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढं सोचा निसम्म अयं अज्झथिए जाव समुप्पण्णे-एवं णं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ' ततः खलु तस्य सुदर्शनस्य बहुजनस्य अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य अयमाध्यात्मिका यावत् समुत्पन्नः-एवं खलु श्रमणो भगवान् महावीरो यावद् विहरति, 'तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि तद्. गच्छामि खलु श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दे नमस्यामि । ‘एवं संपेहेइ !.. नगर के राजमार्ग आदि स्थलों में बहुत से मनुष्य एक दूसरे को इस प्रकार कह रहे थे-हे देवानुप्रिय ! भगवान महावीर प्रभु इस नगर के बाहर पधारे हैं। जिनके नाम गोत्र श्रवण से भी महाफल होता है तो फिर उनके दर्शन करने से तथा उनसे प्ररूपित धर्म का विपुल अर्थ ग्रहण करने से जो फल होता है वह तो अवर्णनीय ही है। इस प्रकार बहुत से मनुष्यों के मुख से भगवान के आने का वृत्तान्त सुनकर सुदर्शन सेठ के हृदय में इस प्रकार आध्यात्मिक विचार यावत् मन में संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान महावीर इस राजगृह नगर के बाहर गुणशिलक चैत्य में पधारे हैं, इसलिये मुझे उचित है कि मैं भगवान के दर्शन के लिये जाऊँ। થકા રાજગૃહ નગરીમાં પધાર્યા. તેમના પધારવાના સમાચાર જાણી રાજગૃહ નગરના : રાજમાર્ગ આદિ સ્થળમાં ઘણાં મનુષ્ય એક બીજાને આ પ્રકારે કહેતાં હતાં, હે દેવાનું પ્રિય! ભગવાન મહાવીર પ્રભુ આ નગરમાં પધાર્યા છે. તેમનાં નામશેત્ર સાંભળવાથી પણ મહાફળ થાય છે તે પછી તેમનાં દર્શન કરવાથી તથા તેમનાથી ઉપદેશાતા ધર્મને વિપુળ અને ગ્રહણ કરવાથી જે ફળ થાય છે તે તે અવર્ણનીય છે. આ પ્રકારે ઘણુ મનુષ્યના મુખથી ભગવાનને આવવાના વૃત્તાંત સાંભળીને સુદર્શન શેઠના હૃદયમાં એ આધ્યાત્મિક વિચાર એટલે મનમાં સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે શ્રમણ ભગવાને મહાવીર આ રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ચિત્યમાં પધાર્યા છે. માટે મને ઉચિત છે કે
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मु. टीका, भगवदर्शनार्थं गन्तुकामस्य सुदर्शनस्य तन्मातापित्रोश्च संवादः, १८७ एवं संप्रेक्षते-विचारयति, संपेहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता' संप्रेक्ष्य यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य
करयलपरिगहियं जाव एवं वयासी' करतलपरिगृहीतं यावत् एवमवादीत्"एवं खलु अम्मताओ! समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि नमसामि जाव पज्जुवासामि' एवं खलु अम्बातातौ = हे मातापितरौ ! श्रमणो भगवान महावीरो यावद् विहरति, तद् गच्छामि खलु श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दे नमस्यामि यावत् पयुपासे ॥ सू० १० ॥. . ..
॥ मूलम् ॥ - तए णं तं सुदंसणं सेटिं अम्मापियरो एवं वयासी
एवं खलु पुत्ता ! अज्जुणे मालागारे जाव घाएमाणे विहरइ, तं मा णं तुमं पुत्ता ! समणं भगवं महावीरं वंदए णिग्गच्छाहि, मा णं तव सरीरयस्स वायत्ती भविस्सइ । तुमण्णं इह गए चेव समणं भगवं महावीरं बंदाहि णमंसाहि । तए णं सुदंसणे सेट्री अम्मापियरं एवं वयासी-किपणं अहं अम्मयाओ! समणं भगवं महावीरं इहमागयं इह पत्तं इह समोसढं इह गए चेव वंदिस्सामि मंसिस्सामि ? तं गच्छामि णं अहं अम्मयाओ! तुब्भेहि अब्भणुनाए समाणे समणं भगवं महावीरं वंदामि जाव पज्जुवासामि ॥ सू० ११ ॥ इस प्रकार विचार कर अपने मातापिता के समीप आये और हाथ जोडकर इस प्रकार कहा-हे मातापिता! श्रमण भगवान महावीर प्रभु राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में समवसृत हुए हैं, इस लिये मैं चाहता हूँ कि श्रमण भगवान महावीर के पास जाऊँ
और उन्हें वन्दन नमस्कार कर यावत् सेवा करूँ। ॥ सू० १० ॥ હું ભગવાનનાં દર્શન માટે જાઉં. એ પ્રકારે વિચાર કરી તે પિતાનાં માતાપિતા પાસે આવ્યું અને હાથ જોડીને આમ કહ્યું - હે માતાપિતા ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ
રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં સમવસૃત થયા છે. માટે હું ચાહું છું કે શ્રમણ - ભગવાન મહાવીરની પાસે જાઉં અને તેમને વંદન નમસ્કાર કરી સેવા કરું. (સૂ૧૦)
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अन्तकृतदशास्त्रे
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तं सुदंसणं सेटिं अम्मापियरो एवं वयासी' ततः खलु तं सुदर्शनं श्रेष्ठिनम् अम्बापितरौ एवमवदताम्‘एवं खलु पुत्ता ! अज्जुणे मालागारे जाव घाएमाणे विहरइ' एवं खलु हे पुत्र ! अर्जुनो मालाकारो यावद् घातयन् विहरति, 'तं मा गं तुम पुत्ता ! समणं भगवं महावीरं वंदए णिग्गच्छाहि ' तन्मा खलु लं हे पुत्र ! श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दका निर्गच्छ हे पुत्र ! तस्मात् श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दितुं नगराद्धहिर्मा गच्छ, ‘मा णं तव सरीरयस्स वावत्ती भविस्सइ' मा खलु तव शरीरकस्य व्यापत्तिर्भविष्यति । बहिरगमनेन तव शरीरस्य न कोऽपि व्याघातो भविष्यतीत्यर्थः । हे पुत्र ! 'तुमण्णं इह गए चेव समणं भगवं महावीरं वंदाहि णमसाहि' त्वं खलु इह गत एव श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दस्व नमस्य । 'तए णं सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरं एवं वयासी' ततः खलु सुदर्शनः श्रेष्ठी अम्बापितरौ एवमवदत्-'किण्णं अहं अम्मयाओं ! समणं भगवं महावीरं ' किं खलु अहमम्बातातौ ! श्रमणं भगवन्तं महावीरम् " इहमागयं ' इहागतम् ' इह पत्तं' 'इह प्राप्तम् 'इह समोसहं ' इह समवसृतम्
सुदर्शन के द्वारा इस प्रकार निवेदन करने पर मातापिता ने उनसे कहा-हे पुत्र ! अर्जुनमाली नगर के बाहर मनुष्यों को मारता हुआ घूम रहा है, इस हेतु हे पुत्र ! भगवान महावीर प्रभु को वन्दना करने मत जाओ। वहाँ जाने से न जाने तुम्हारे शरीर पर कोई आपत्ति हो ! इसलिये तुम यहीं से भगवान महावीर प्रभु को वन्दन नमस्कार करो, वे सर्वज्ञ हैं, यहींसे की हुई तुम्हारी भक्ति को स्वीकार कर लेंगे। मातापिता के ऐसे वचन सुनकर वे सुदर्शन सेठ इस प्रकार बोले-हे मातापिता ! भगवान महावीर प्रभु इस राजगृह नगर के बाहर जब पधारे हैं, जब यहां विराजित हैं और
સુદર્શન દ્વારા આ પ્રકારે નિવેદન સાંભળી માતાપિતાએ તેને કહ્યું – હે પુત્ર ! અર્જુનમાલી નગરની બહાર મનુષ્યને મારતે ફરે છે, માટે હે પુત્ર ! ભગવાન મહાવીર પ્રભુને વંદન કરવા ન જાઓ. ત્યાં જવાથી ખબર નથી કે તમારા શરીરને કઈ આપત્તિ થાય ! માટે તમે અહીંથી જ ભગવાન મહાવીર પ્રભુને વંદન નમસ્કાર કરી તેઓ સર્વજ્ઞ છે અહીંથી કરાયેલી તમારી ભકિતનો સ્વીકાર કરશે. માતાપિત નાં આવા વચન સાંભળી તે સુદર્શન શેઠે આ પ્રકારે કહ્યું - હે માતાપિતા ! ભગવાન મહાવીર
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मु. टीका, भगवद्दशनार्थ गन्तुकामस्य सुदर्शनस्य तन्मातापित्रोश्च संवादः १८९ इह गए चेव ' इह गत एव-गृहस्थित एव 'बंदिस्सामि णमंसिस्सामि' वन्दिष्ये नमस्यिष्यामि । हे मातापितरौ ! भगवान महावीर इह समागतोऽस्ति, भगवत्समीपमगत्वा इह स्थित एव भगवन्तं वन्दिष्ये नमस्यिष्यामि इति किं युक्तम् ? न कदापीत्यर्थः; 'तं गच्छामि णं अहं अम्मयाओ !' तद् गच्छामि खलु अहम् हे अम्बातातौ ! 'तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे' युष्मामिरभ्यनुज्ञातः सन् समीपं गत्वैव 'समणं भगवं महावीरं ' श्रमणं भगवन्तं महावीरं 'वंदामि जाव पज्जुवासामि' वन्दे यावत्पर्युपासे ॥ सू० ११ ॥
तए णं तं सुदंसणं सेटिं अम्मापियरो जाहे नो संचायंति, बहूहिं आघवणाहिं जाव परूवित्तए । तए णं से अम्मापियरो ताहे अकामया चेव सुदंसणं सेलुि एवं वयासीअहासुहं देवाणुप्पिया !। तए णं से सुदंसणे सेट्टी अम्मापिईहि अब्भणुण्णाए समाणे पहाए सद्धप्पावेसाइं जाव सरीरे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पायविहारचारेण रायगिहं नगरं मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिचा मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणस्स अदूरसामंतेण जेणेव गुणसिलए चेइऐ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं २ पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते तं पलसहस्सणिप्फन्नं अयोमयं मोग्ग उल्लालेमाणे २ समक्मत हैं तो भी मैं उनको यहीं से वन्दन-नमस्कार करूँ, उनके पास न जाऊँ, यह कैसे हो सकता है! मैं भगवान के दर्शन के लिये जाना चाहता हूँ। इसलिये आप मुझे आज्ञा दें कि मैं वहाँ जाकर भगवान को वन्दन-नमस्कार कर सेवा करूँ॥ सू० ११ ॥ પ્રભુ આ રાજગૃહ નગરમાં જ્યારે અહીં પધારેલ છે, જ્યારે અહીં વિરાજેલ છે અને સમવસૃત છે તે પણ હું તેમને અહીંથી વંદન નમસ્કાર કરું, તેમની પાસે નહીં જાઉં આ કેમ બની શકે? હું ભગવાનનાં દર્શન માટે જાવાની ઈચ્છા રાખું છું, માટે આપ મને આજ્ઞા આપે કે હું ત્યાં જઈને ભગવાનને વંદને નમસ્કાર કરી સેવા કરૂં (સૂ૦ ૧૧)
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अन्तकृतदशासूत्रे जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० १२ ॥
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तं सुदंसणं सेट्टि' ततः खलु तं सुदर्शन श्रेष्ठिनम् 'अम्मापियरो' अम्बापितरौ 'जाहे नो संचाएंति' यदा नो शक्नुतो 'वहूहिं आघणवाहि' बहुभिराख्यापनाभिः सामान्यतः कथनः, 'जाव' यावत्-यावत्पदेन 'पण्णवणाहिं परूवणाहिं आघवित्तए पण्णवित्तए' इति सङ्ग्रहः, 'पण्णवणाहिं' प्रज्ञापनाभिः विशेषतः कथनः, 'परूषणाहि' प्ररूपणाभिः युक्तिप्रयुक्तिरूपाभिः, 'आघवित्तए' आख्यापयितुं सामान्यतया 'बोधयितुं, 'पण्णवित्तए' प्रज्ञापयितुं विशेपतो वोधयितुं, 'परूवित्तए' प्ररूपयितुं युक्तिप्रयुक्तिभिः प्रतिवोधयितुम् । यदाऽनेकपकाराभिर्युक्तिप्रयुक्तिभिस्तं 'गृहस्थित एव वन्दस्व' इंति स्वीकारयितुं न शक्नुतः स्मेति भावः । 'ताहे' तदा पुत्रस्य परमोत्कृष्टभगवदर्शनश्रद्धां विज्ञाय 'अकामया चेव' अकामेनैव= इच्छां विनैव 'सुदंसणं सेटुिं' सुदर्शनं श्रेष्ठिनम् ‘एवं वयासी' एवमवदताम्-'अहासुहं देवाणुप्पिया!' यथासुखं देवानुप्रिय ! हे देवानुप्रिय ! यथा तव सुखं भवेत्तथा कुरुष्व । भद्रं भवतु तव । 'तए णं से सुदंसणे सेट्ठी अम्मापिईहिं अब्भणुण्णाए समाणे' ततः खलु स सुदर्शनः श्रेष्ठी अम्बापितृभ्यामभ्यनुज्ञातः सन् 'पहाए सुद्धप्पावेसाइं जाव सरीरे' स्नातः शुद्धमावेश्यानि यावच्छरीरः पवित्राणि वस्त्राणि परिदधानः सर्वालङ्कारविभूपितशरीरश्च, 'सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ' स्व
उसके बाद सुदर्शन सेठ को मातापिता जब अनेक प्रकार की युक्तियों से नहीं समझा सके तो उन्होंने अनिच्छापूर्वक उनको आज्ञा दी-हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो उसी प्रकार करो। इसके बाद सुदर्शन सेठ मातापिता से आज्ञा प्राप्त करके शुद्ध वस्त्र धारण किये, एवं अलंकारों से अलंकृत हो भगवान के दर्शनार्थ अपने घरसे निकले और पैदल ही राजगृह नगर के बीचो
ત્યાર પછી સુદર્શન શેઠને માતાપિતા જ્યારે અનેક પ્રકારની યુકિતઓથી સમજીવી ન શક્યા ત્યારે તેમણે અનિચ્છાપૂર્વક તેને આજ્ઞા આપી – હે દેવાનુપ્રિય! જેમ તમને સુખ થાય તેમ કરો. ત્યાર પછી સુદર્શન શેઠ માતાપિતાની આજ્ઞા મેળવી શુદ્ધ વસ્ત્ર પહેરી, અલંકારથી વિભૂષિત થઈ ભગવાનનાં દર્શનાર્થે પિતાને ઘેરથી નીકળ્યા અને પગે ચાલીને રાજગૃહ નગરની વચ્ચે વચ્ચે થઈને મુદગરપાણિ યક્ષના યક્ષાયતનની
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, भगवदर्शनार्थं गच्छतःसुदर्शनस्य समीपे यक्षागमनम् १९१ काद् गृहात् प्रतिनिष्क्राम्यति, 'पडिनिक्खमित्ता पायविहारचारेण प्रतिनिष्क्रम्य पादविहारचारेण 'रायगिहं नगरं राजगृहं नगरं राजगृहस्य नगरस्य 'मज्झंमज्झेणं' मध्यमध्येन 'णिगच्छई' निर्गच्छति, "णिग्गच्छित्ता मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणस्स' निर्गत्य मुद्गरपाणेयक्षस्य, यक्षायतनस्य 'अदूरसामंतेणं' अदूरसामन्तेन 'जेणेव गुणसिलए चेइए' यत्रैव गुणशिलकं चैत्यं 'जणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान महावीरः 'तेणेव पहारेत्थ गमणाए' तत्रैव प्राधारयद् गमनाय-मुद्गरपाणेर्यक्षस्य यक्षायतनसंनिहितेन पथा गुणशिलके उद्याने गन्तुं निश्चयमकरोत् । 'तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं' ततः खलु स मुद्गरपाणियक्षः सुदर्शनं श्रमणोपासकम् 'अदूरसामंतेणं अदूरसामन्तेन-नातिदूरेण नातिनिकटेन च 'वीईवयमाणं २' व्यतिव्रजन्तम् २ 'पासइ पश्यति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'आसुरुत्ते' आशुरुतः= क्रोधाग्निना प्रज्वलन् 'तं पलसहस्सणिप्फणं अयोमयं मोग्गरं उल्लालेमाणे २' तं पलसहस्रनिष्पन्नम् अयोमयं मुदगरमुल्लालयन् २ वारंवारमृधि उच्छालयन् २, 'जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव पहारेत्थ गमणाए' यत्रैव सुदर्शनः श्रमणोपासकः तत्रैव प्राधारयद् गमनाय गन्तुमुद्यतः ॥ सू० १२ ॥
॥ मूलम् ॥ - तए णं से सुदंसणे समणोवासए मोग्गरपाणिं जक्खं एजमाणं पासइ, पासित्ता, अभीए अतत्थे अणुविग्गे अक्खुभिए अचलिए असंभंते वत्थंतेणं भूमि पमजइ, पमजित्ता, करयल एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोत्थु णं समणस्स जाव संपाविउकामस्स, पुदि च णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्त अंतिए थूलए पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए, थूलए मुसावाए, थूलए अदिबीच से होते हुए मुदगरपाणि यक्ष के यक्षायतन के समीप से जाने का उन्होंने निश्चय किया और उधर से ही जाने लगे। उन्हें जाते हुए देखकर वह मुद्गरपाणि यक्ष क्रोध से विस्फुरित होकर एक हजार पलके लोहमुद्गर को घुमाता हुआ सुदर्शन सेठ की और जानेका उपक्रम किया ॥ सू० १२ ॥ પાસે થઈને જવાને તેમણે નિશ્ચય કર્યો અને ત્યાંથી જવા લાગ્યા. ત્યારે તેને જતા જોઈને તે મુદગરપાણિ યક્ષ ક્રોધથી વિકરાળ બની એક હજાર પલનું લોઢાનું મુદગર ३२वता सुदर्शन नी. त२६ वा. साय: (सू० १२) ।
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे नादाणे, सदारसंतोसे कए जावजीवाए, इच्छापरिमाणे कए जावजीवाए, तं इयाणिं पि णं तस्सेव अंतियं सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए, सव्वं मुसावायं सव्वं अदिन्नादाणं सवं मेहुणं सवं परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीवाए, सवं कोहं जाव मिच्छादंसणसल्लं पञ्चक्खामि जावजीवाए, सवं असणं पाणं खाइमं साइमं चउविहं पि आहारं पच्चक्खामि जावजीवाए, जइ णं एत्तो उवसग्गाओ मुच्चिस्सामि तो मे कप्पइ पारेत्तए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ न मुच्चिस्सामि तओ मे तहा पच्चक्खाए चेव तिकट्ट सागारं पडिमं पडिवजइ ॥ सू० १३ ॥
॥टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से सुदंसणे समणोवासए मेग्गिरपाणिं जक्खं ' ततः खलु स सुदर्शनः श्रमणोपासको मुद्गरपाणिं यक्षम् , 'एज्जमाणं ' एजमान-सन्मुखमागच्छन्तं 'पासइ' पश्यति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा, 'अभीए अतत्थे अणुबिग्गे अक्खुभिए अचलिए असंभंते ' अभीतोऽत्रस्तोऽनुद्विग्नोऽक्षुब्धोऽचलितः, किमपि भयजनकं वस्तु दृष्ट्वा जनः पूर्व भीती भवति, अनन्तरं त्रस्तः, तदनु उद्विग्नः, पश्चात् क्षुब्धः, पुनश्चलितो भवति; अयं सुदर्शनः कृतान्तसदृशं तं दृष्ट्वाऽपि भयादिरहित एव तस्थौ । एतादृशः स सुदर्शनः 'वत्थं तेणं' वस्त्रान्तेन वस्त्राग्रभागेन 'भूमि पमज्जइ' भूमिं प्रमार्जयति, 'पमज्जित्ता . उस समय वे सुदर्शन सेठ उस मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी और उछलता हुआ आता देखकर भी भय, त्रास, उद्वेग और क्षोभ से दूर ही रहे । उनका हृदय तनिक भी विचलित और सम्भ्रान्त नहीं हुआ। उनने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि को प्रमार्जित किया और मुखपर उतरासङ्ग धारण करके - ત્યાર પછી તે સુદર્શન શેઠ તે મુદગરપાણિ યક્ષને પિતાની તરફ ઉછળ આવતો જોઈને પણ ભય, ત્રાસ, ઉદ્વેગ અને ક્ષેભથી દૂર જ રહ્યા તેમનું હૃદય જરા પણ વિચલિત અને સંભ્રાન્ત ન થયું. તેમણે નિર્ભય થઈને પિતાના વસ્ત્રના છેડાથી ભૂમિને પ્રમાર્જિત કરી (વાળી) અને મુખ પર ઉત્તરસંગ ધારણ કર્યું તથા પૂર્વ દિશા તરફ મોટું
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुदर्शनकृतं साकारप्रतिमाग्रहणम् करयल० एवं वयासी' प्रमाज्य करतल० एवमदत करतलपरिगृहीतं शिरआवत दशनखं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा वक्ष्यमाणप्रकारेणावदत् - 'नमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं' नमोऽस्तु खलु अर्हद्भ्यो यावत् मोक्षं संप्राप्तेभ्यः 'नमोत्थु णं समणस्स जाव संपाविउकामस्स' नमोऽस्तु खलु श्रमणाय यावत्संप्राप्तुकामाय, ये भगवन्तोऽर्हन्तो मोक्षं गतास्तेभ्यो नमोऽस्तु, यश्च भगवान् महावीरो मोक्षगामी तस्मै नमोऽस्तु-इत्यर्थः । 'पुचि च णं मए' पूर्व च खलु मया 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतिए' अन्तिके 'थूलए पाणाइवाए पचक्खाए जावजीवाए' स्थूलका माणातिपातः प्रत्याख्यातो यावज्जीवम् , एवं 'थूलए मुसावाए' स्थूलको मृपावादः प्रत्याख्यातः, 'थूलए अदिनादाणे' स्थूलकमदत्तादानम्-अदत्तस्यादानं ग्रहणं-चौर्य प्रत्याख्यातम्, 'सदारसंतोसे कए जावजीवाए' स्वदारसन्तोषः कृतो यावज्जीवम् , 'इच्छापरिणामे कए जावजीवाए' इच्छापरिमाणः कृतो यावज्जीवम् , परिग्रहविषये इच्छाया अवधिः कृत इति भावः। 'तं' तत्-तस्मात् 'इयाणि पिणं' इदानीमपि खलु 'तस्सेव' तस्यैव भगवतः श्रीमहावीरस्य 'अंतियं' अन्तिकम् , भगवन्तं साक्षीपूर्वदिशा की ओर मुंह कर बैठ गये और वामजानु (दाहिने घुटने) को ऊँचा करके दोनों हाथ जोड कर मस्तक पर अंजलिपुट रख कर बोले-नमस्कार है उन अर्हन्तों को जो मोक्ष में पधार गये हैं। और वर्तमान अर्हन्तों को भी नमस्कार है जो मोक्ष में पधारने वाले हैं। पहले मैंने भगवान महावीर के समीप स्थूल प्राणातिपात पचखा था, एवं स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्वदारसन्तोष और इच्छापरिमाण इन स्थूलपरिग्रहरूप अणुव्रतों को धारण किया था। अब इस समय उन्हीं प्रभुकी साक्षी से यावज्जीव सर्व प्राणातिपात का त्याग करता है, इसी प्रकार मृषावाद, રાખી બેસી ગયા, અને ડાબા પગને ઉંચે કરી બેઉ હાથ જોડી મસ્તક ઉપર અંજલિપુટ રાખી બેલ્યા – નમસ્કાર છે તે અહંન્તને કે જે મોક્ષમાં પધારી ગયા છે, અને વર્તમાન અન્તને પણ નમસ્કાર છે જે મેક્ષમાં પધારવાના છે. પહેલાં મેં ભગવાન મહાવીરની પાસે સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતનું પચ્ચખાણ લીધેલું, એટલે સ્થૂલ મૃષાવાદ, સ્થૂલ અદત્તાદાન, સ્વદારસંતોષ, અને ઈચ્છાપરિમાણ આ સ્થૂલ પરિગ્રહરૂપ આણુવ્રતોને ધારણ કર્યા હતાં. હવે આ સમયે તે પ્રભુની સાક્ષીથી યાજજીવ સર્વપ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરું છું. આ પ્રકારે મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન, પરિગ્રહને જીવનભર માટે પચ્ચકખાણ
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अन्तकृतदशाहमुत्रे कृत्येत्यर्थः; 'सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए' सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम् , 'सव्यं मुसावायं सव्यं अदिन्नादाणं सव्वं मेहुणं सव्वं परिग्गरं पञ्चक्खामि जावजीवाए' सर्व मृपावादं सर्वमदत्तादानं सर्व मैथुनं सर्वे परिग्रहं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम् , तथा च 'सव्वं कोहं जान मिच्छादसणसल्लं पचक्खामि जावजीवाए' सर्व क्रोधं यावन्मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि यावजीवम् , सर्वप्रकारकं क्रोधादिकं यागन्मिथ्यादर्शनरूपं शल्यं च जीवितावधि परित्यजामि, 'सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउचिहपि आहारं पञ्चश्वामि जावजीवाए' सर्वमशनं पानं खाद्यं स्वाधं चतुर्विधमपि आहारं प्रत्याख्यामि यावजीवम् । 'जइ णं एत्तो उवसग्गाओ सुचिस्सामि' यदि खलु एतस्मादुपसर्गान्मोक्ष्यामिअस्मान्मुद्गरपाणिरूपान्महोपसर्गाद् यदि मुक्तो भविष्यामि, 'तो मे' ततो मम एतत्सर्वं पूर्वप्रतिज्ञातं 'कप्पइ पारेत्तए' कल्पते पारयितुम् , 'अह णं एत्तो उवसग्गाओ न मुचिस्सामि' अथ खलु एतस्मादुपसर्गान मोक्ष्यामि यदि च एतस्माद् महोपसर्गान मुक्तो भविष्यामि, 'तओ मे तहा पञ्चक्खाए चेव' ततो मे तथा प्रत्याख्यातमेव सर्वं पूर्वोक्तम् 'त्ति कटु' इति कृत्वा इति मनसि निश्चित्य, 'सागारं पडिम' साकारां प्रतिमां-संस्तारकरूपां प्रतिज्ञा 'पडिवजई' प्रतिपद्यते स्वीकरोति || भृ० १३ ॥ अदत्तादान मैथुन, परिग्रह का जीवन भरके लिये पचवखाण करता है और क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापों का यावजीवन के लिये प्रत्याख्यान करता है। इसके अतिरिक्त सर्वथा चार प्रकार के आहार का यावज्जीव प्रत्याख्यान करता हूँ।
___ यदि मैं इस उपसर्ग से बचूंगा तो मेरे आगार है और यदि नहीं बच सका तो सभी प्रकार का प्रत्याख्यान मैंने कर ही लिया है सो जावजीव रहेगा ही। ऐसा मनमें निश्चय कर सुदर्शन सेठ सागारी अनशन धारण करके कायोत्सर्ग कर बैठ गये ॥ सू० १३ ॥ કરું છું, અને ક્રોધ, માન, માયા, લોભ, યાવત્ મિથ્યાદર્શનશલ્ય સુધીનાં અઢાર પાપના ચાવજીવન પ્રત્યાયાન કરું છું. આ ઉપરાંત સર્વથા ચાર પ્રકારના આહારને ચાવજજીવ પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું.
જે હું આ ઉપસર્ગથી બચું તે માટે આગાર છે, અને જો હું ન બચી શકું
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, यक्षकृतोऽर्जुनशरीर परित्यागः
॥ मूलम् ॥
तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे तं पलसहस्सणिष्पन्नं अयोमयं मोग्गरं उल्लालेमाणे २ जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नो चेव णं संचापति सुदंसणं समोवासयं तेयसा समभिपडित्तए । तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं सवओ समंताओ परिघोलेमाणे २ जाहे नो चेव णं संचाएइ सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तए, ताहे सुदंसणस्स समणोवासयस्स पुरओ सपक्खं सपडिदिसिं ठिच्चा सुदंसणं समणोंवासयं अणिमिसाए दिट्टीए सुचिरं णिरिक्खड़, णिरिक्खित्ता, अज्जुणयस्स मालागारस्स सरीरं विप्पजहाइ, विप्पजहित्ता तं पलसहस्सणिष्पन्नं अयोमयं मोग्गरं गहाय जामेव दिसं पाउभूए तामेव दिसं पडिगए ॥ सू० १४ ॥ ॥ टीका ॥
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'ar णं' इत्यादि । 'तर णं से मोग्गरपाणी जक्खे तं पलसहस्सनिष्पन्न' ततः खलु स मुद्गरपाणिर्यक्षः तं पलसहस्र निष्पन्नम् ' अयोमयं मोग्गरं' अयोमयं मुद्गरम् 'उल्लालेमाणे' २ उल्लालयन् २ = पुनः पुनरुच्छालयन् 'जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव' यत्रैव सुदर्शनः श्रमणोपासकस्तत्रैव 'उवागच्छ ' उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता नो चेत्र णं संचाएई' उपागत्य नो चैव खलु शक्नोति 'मुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तए' सुदर्शनं श्रमणोपासकं तेजसा समभिपतितुं = समाक्रमितुम् । 'तए णं से मुग्गरपाणी
उसके बाद वह मुद्गरपाणि यक्ष एक हजार पलका भारी लोहे का मुद्गर घुमाता हुआ जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक थे वहां आया, आकर वह सुदर्शन सेठ को किसी भी प्रकार अपने पराતા સ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન મેં કરીજ લીધા છે તે જાવજીવ રહેશેજ. એમ મનમાં નિશ્ચય કરીને સુદર્શન શેઠ સાગારી અનશન ધારણ કરી કાર્યોત્સર્ગ કરીને એસી गया ( सू० १३ )
ત્યારપછી તે મુદ્દગરપાણિયક્ષ એક હજાર પલના ભારી લાઢાનું મુગર ફેરવતે થકે જ્યાં સુદર્શન શ્રમણોપાસક હતા ત્યાં આવ્યે આવીને તે સુદર્શન શેઠને કાઇપણુ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे जक्खे सुदंसणं समणोवासयं' ततः खलु स मुद्गरपाणियक्षः सुदर्शनं श्रमणोपासकं 'सव्वओ' सर्वतः= सर्वप्रकारेण 'समंता' समन्तात् सर्वदिक्षु 'परिघोलेमाणे २' परिघूर्णन् २ = परिभ्राम्यन् २ , 'जाहे' यदा, 'नो चेव णं संचाएइ सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तए' नो चैव खलु शक्नोति सुदर्शनं श्रमणोपासकं तेजसा समभिपतितुम् , 'ताहे' तदा 'सुदंसणस्स समणोवासयस्स' सुदर्शनस्य श्रमणोपासकस्य 'पुरओ' पुरतः = अग्रे, 'सपक्खिं' सपक्ष-समानौ पक्षौ वामदक्षिणपाश्चौं यस्य आगमनस्य तत्सपक्षम् 'सपडिदिर्सि' समतिदिक्समानाः प्रतिदिशो यस्य तत् सप्रतिदिक् – अभिमुखं यथा स्यात्तथा 'ठिचा' स्थित्वा 'सुदंसणं समणोवासयं' सुदर्शनं श्रमणोपासकम् 'अणिमिसाए दिट्ठीए' अनिमिषया दृष्टया, 'सुचिरं णिरिक्खइ' मुचिरं निरीक्षते = बहुकालपर्यन्तं पश्यति, 'णिरिक्खित्ता' निरीक्ष्य 'अज्जुणयस्स मालागारस्स' अर्जुनकस्य मालाकारस्य 'सरीरं' शरीरं 'विप्पजहाई' विमजहाति = मुञ्चति, 'विपनहित्ता' विप्रहाय = मुक्त्या, 'तं पलसहस्सणिप्फण्णं अयोमयं मोग्गरं तं पलसहस्रनिष्पन्नमयोमयं मुद्गरं 'गहाय' गृहीत्वा 'जामेव दिसं पाउन्भूए' यस्या दिशः प्रादुर्भूतः 'तामेव दिसं पडिगए' तामेव दिशं प्रतिगतः ॥ भू० १४॥ क्रम से कष्ट नहीं पहुँचा सका। वह मुद्गरपाणि यक्ष सुदर्शन श्रमणोपासक के चारों ओर घूमता हुआ जब किसी भी प्रकार उनके ऊपर अपना बल नहीं चला सका तब वह यक्ष सुदर्शन श्रमणोपासक के आगे आकर खडा होगया और अनिमेष दृष्टि से उनकी ओर बहुत देर तक देखता रहा। इसके बाद वह यक्ष अर्जुनमाली के शरीर को छोडकर हजार पलका लोहमय मुद्गर को लेकर जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया ॥ सू० १४ ॥ પ્રકારે પિતાના પરાક્રમથી કષ્ટ આપી શકે નહિ. તે મુદગરપાણિયક્ષ સુદર્શન શ્રમણોપાસકની ચારે બાજુ ફરતો થકે જ્યારે કેઈપણ પ્રકારે તેના ઉપર પિતાનું બળ ચલાવી ન શક્ય ત્યારે તે યક્ષ સુદર્શન શ્રમણોપાસકની પાસે આવીને ઉભું રહી ગયું અને અનિમેષ દૃષ્ટિથી તેની સામે ઘણા વખત સુધી જોઈ રહ્યો. ત્યારપછી તે યક્ષ અર્જુનમાલીના શરીરને છેડી હજાર પલના સેઢાના મુગરને લઈ જે દિશામાંથી તે આવ્યું હતું તે દિશામાં ચાલ્યા ગયે (સૂ) ૧૪)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुदर्शनार्जुनयोः परिचयः
॥ मूलम् ॥
तणं से अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं विपमुक्के समाणे धसत्ति धरणितलंसि सवंगेहिं निवडिए । तए णं से सुदंसणे समणोवासए निरुवसग्गमिति कटु पडिमं पारे । तए णं से अज्जुणए मालागारे तओ मुहुत्तंतरेणं आसत्थे समाणे उट्ठेइ, उट्टित्ता सुदंसणं समणोवासयं एवं वयासी - तुब्भेणं देवाशुप्पिया ! के ? कहिं वा संपत्थिया ? तए णं से सुदंसणे समणोवासए अज्जुणयं मालागारं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सुदंसणे णामं समणोवासए अभिगयजीवाजीवे गुणसिलए चेइए समणं भगवं महावीरं वंदिउं संपत्थिए ॥ सू० १५ ॥
॥ टीका ॥
१९७
'तए णं ' इत्यादि । 'तए णं से अज्जुणए मालागारे' ततः खलु सोऽर्जुनको मालाकारः 'मोग्गरपाणिणा जक्खेणं' मुद्गरपाणिना यक्षेण 'farara समाणे' विमुक्तः सन्, 'धसत्ति' धस - इति शब्देन सह ' धरणितलंसि' धरणितले 'सन्बंगे हिं' सर्वाङ्गैः 'निवडिए' निपतितः । 'तए णं से सुदंसणे समणोवासए' ततः खलु स सुदर्शनः श्रमणोपासकः, 'णिरुवसग्गं' निरुपसर्गम् = उपसर्गाभाव: ' इति कट्टु' इति कृत्वा = इति ज्ञात्वा, 'पडिमं पारेइ' प्रतिमां पारयति = पालयति । 'तर णं' ततः खलु 'से अज्जुणए मालागारे' सोऽर्जुनको मालाकारः 'तओ मुहुत्तंतरेण' ततः मुहूर्त्तान्तरेण = स्तोक
अर्जुनमाली उस यक्ष के उपसर्ग से मुक्त होते ही 'धस्' इस प्रकार के शब्द के साथ पृथ्वी के ऊपर गिर पडा । उस समय सुदर्शन सेठने अपने को उपसर्गरहित जानकर अपनी प्रतिज्ञा को पाला और उस पडे हुए अर्जुनमाली को सचेष्ट करने के लिये प्रयत्नशील हुए, जिससे वह अर्जुनमाली कुछ समय के बाद स्वस्थ
અર્જુનમાલીએ ચક્ષના ઉપસર્ગથી મુકત થતાં જ ‘ધસ્’ એવા અવાજની સાથે પૃથ્વી ઉપર પડી ગયે. તે સમયે સુદર્શન શેઠે પેાતાને ઉપસ રહિત જાણીને પેતાની પ્રતિજ્ઞાને પાળી અને તે પડેલા અર્જુનમાલીને સચેષ્ટ કરવા માટે પ્રયત્નશીલ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे कालेन 'आसत्थे समाणे' आस्वस्थः सचेष्टः सन् 'उठेइ' उत्तिष्ठति, 'उहित्ता' उत्थाय 'सुदंसणं समणोवासयं एवं वयासी' सुदर्शनं श्रमणोपासकम् एवमवदन'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! के ?' यूयं खलु देवानुमियाः ! के ? 'कहि वा संपत्थिया' क वा संपस्थिताः ? =कुत्र गन्तुमुद्यताः? 'तए णं' ततः खलु ‘से सुदंसणे समणोवासए अजुणयं मालागारं एवं वयासी' स सुदर्शनः श्रमणोपासकः अर्जुनकं मालाकारम् एवमवदत् - 'एवं खलु देवाणुप्पिया!' एवं खलु हे देवानुप्रिय ! 'अहं सुदंसणे णामं समणोवासए अभिगयजीवाजीवे' अहं सुदर्शनो नाम श्रमणोपासकोऽभिगतजीवाजीवः 'गुणसिलए चेइए' गुणशिलके चैत्ये 'समणं भगवं महावीर' श्रमणं भगवन्तं महावीरं 'वंदिउं' वन्दितुं 'संपढिए' संपस्थितः = प्रचलितः ॥ मू० १५ ॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से अज्जुणए मालागारे सुदंसणं समणोवासयं एवं वयासी-तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया! अहमवि तुमए सद्धि समणं भगवं महावीरं वंदित्तए जाव पज्जुवासित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया!। तए णं से सुदंसणे समणोवासए अज्जुणएणं मालागारेणं सद्धिं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जुणएणं मालागारेणं सद्धिं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव होकर खडा हुआ और सुदर्शन श्रमणोपासक से इस प्रकार बोलाहे देवानुप्रिय ! आप कौन हैं ? और कहाँ जा रहे हैं ? यह सुनकर सुदर्शन श्रमणोपासक ने अर्जुनमाली से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! मैं जीवादि नौ तत्त्वों को जाननेवाला सुदर्शन-नामक श्रमणोपासक है और मैं गुणशिलक उद्यान में पधारे हुए श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करने के लिये जा रहा
થયા, જેથી તે અજુનમાલી ડા સમય પછી સ્વસ્થ થઈને ઉભે થયે અને સુદર્શન શ્રમણોપાસકને આ પ્રમાણે કહ્યું હે દેવાનુપ્રિય! આપ કેણ છે? અને ક્યાં જઈ રહ્યા છે? આ ાંભળી સુદર્શન શ્રમણોપાસકે અનમાલીને કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિય ! જીવાદિ નવ તને જાણવાવાળો સુદર્શન નામે શ્રમણોપાસક છું, અને હું ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં પધારેલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદના નમસ્કાર કરવા જઈ રહ્યો છું. (સૂ) ૧૫).
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुदर्शनार्जुनयोर्भगवदर्शनार्थ गमनम् १९९ पज्जुवासइ। तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स समणोवासयस्स. अज्जुयणस्स मालागारस्स तीसे थ० धम्मकहा। सुदंसणे पडिगए ॥ सू० १६ ॥
॥टीका ॥ . 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से अज्जुणए मालागारे सुइसणं समणोवासयं एवं वयासी' ततः खलु सोऽर्जुनको मालाकारः सुदर्शनं श्रमणोपासकम् एवमवादीत् - 'तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया!' तदिच्छामि खलु हे देवानुप्रिय ! 'अहमवि' अहमपि 'तुमए सद्धि' त्वया साई 'समणं भगवं महावीरं' श्रमणं भगवन्तं महावीरं 'वंदित्तए जाव पज्जुवासित्तए' वन्दितुं यावत्पर्युपासितुं-सेगं कर्तुम् । ततः स सुदर्शनः प्राह - 'अहासुहं देवाणुप्पिया' यथासुखं देवानुप्रिय! हे देवानुप्रिय ! यथा ते सुखकरं भवेत् तथा कुरु । 'तए णं से सुदंसणे समणोवासए' ततः खलु स सुदर्शनः श्रमणोपासकः 'अज्जुणएणं मालागारेणं सद्धि' अर्जुन केन मालाकारेण साई 'जेणेव' यत्रैव 'गुणसिलए चेइए' गुणशिलकं चैत्यं 'जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैव उपागच्छति, 'उवाच्छित्ता अज्जुणएणं मालागारेणं सद्धिं' उपागत्य अर्जुनकेन मालाकारेण साई 'समणं भगवं महावीरे' श्रमणं भगवन्तं महावीरं तिक्खुलो जाव पज्जुवासइ' त्रिकृत्वो यावत्पर्युपास्ते-त्रिकृत्व - यह सुनकर वह अर्जुनमाली, सुदर्शन श्रमणोपासक से इस प्रकार बोला-हे देवालुप्रिय ! मैं भी तुम्हारे साथ श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार' और उनकी सेवा करने के लिये आना चाहता हूँ। सुदर्शनने कहा-हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। उसके बाद वह सुदर्शन श्रमणोपासक अर्जुनमाली के साथ गुणशिलक उझान में श्रमण भगवान महावीर के पास आये और तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वन्दन-नमस्कार कर सेवा करने लगे। भगवान महावीर ने उन दोनों को धर्मकथा
આ સાંભળીને તે અર્જુનમાલીએ સુદર્શન શ્રમણોપાસકને આ પ્રકારે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! હું પણ તમારી સાથે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદન-નમસ્કાર કરવા માટે આવવા ચાહું છું. સુદર્શને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય ! જેમ તમને સુખ હોય તેમ કરે. ત્યારપછી તે સુદર્શન શ્રમણોપાસક અજુનમાલીની સાથે ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં શ્રમણ . ભગવાન મહાવીરની પાસે આવ્યા, અને ત્રણ વાર આદક્ષિણપ્રદક્ષિણપૂર્વક વંદન-નમ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा वन्दित्वा नमस्यित्वा भगवतः पर्युपासनां करोति । 'तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः 'मुदंसणस्स समणोवासयस्स अज्जुणयस्स मालागारस्स य' सुदर्शनाय श्रमणोपासकाय अर्जुनकाय मालाकाराय च 'तीसे य० धम्मकहा' तस्यां च० धर्मकथा =तस्यां च महातिमहत्याम् =अतिविशालायां परिपदि भगवान् उभाभ्यामपि धर्मकथामवोचत् । धर्मकथाश्रवणानन्तरं 'सुदंसणे पडिगए' मुदर्शनः प्रतिगतः ॥मू० १६॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से अज्जुणए मालागारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हटतुट्र० एवं वयासीसदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव अभुटेमि। अहासुहं देवाणुप्पिया!। तए णं से अज्जुणए मालागारे उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए अवकमइ, अवकमित्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ. करित्ता जाव अणगारे जाए, जाव विहरइ । तए णं से अज्जुणए अणगारे जं चेव दिवसं मुंडे जाव पवइए, तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता इम एयारूवं अभिग्गहं उग्गिण्हइ-कप्पइ मे जावजीवाए छठें छेट्रेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स विहरितएत्ति कट्ठ अयमेयारूवं अभिग्गहं ओगिण्हइ, ओगिमिहत्ता जावजीवाए जाव विहरइ ॥ सू० १७ ॥
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि। 'तए णं से अज्जुणए मालागारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म' ततः खलु सोऽर्जुनको सुनायी। धर्मकथा सुनकर सुदर्शन श्रमणोपासक अपने घर चले गये ॥ सू० १६ ॥
उसके बाद वह अर्जुनमाली श्रमण भगवान महावीर के સ્કાર કરી સેવા કરવા લાગ્યા. ભગવાન મહાવીરે તે બંનેને ધર્મકથા સંભળાવી. ધર્મકથા સાંભળીને સુદર્શન શ્રમણોપાસક પિતાને ઘેર ચાલ્યા ગયા. (સૂ૦ ૧૬)
ત્યારપછી તે અજુનમાલીએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસે ધર્મકથા સાંભળીને
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अर्जुनस्य दीक्षाग्रहणम् अभिग्रहग्रहणं च
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मालाकारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य 'हago ' हृष्टतुष्ट ० = हृष्टतुष्टहृदय ' एवं वयासी' एवमवदत् - 'सदहामि णं भंते ! निग्रग्रंथ पात्रयणं जान अडेमि' श्रदधामि खलु भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनं यावदभ्युतिष्ठामि हे भदन्त ! भवत्प्रोक्तं नैर्ग्रन्थं प्रवचनं श्रुत्वा मम तत्र श्रद्धा समुत्पम्ना, अतो यावत् संयमं ग्रहीतुमुद्यतोऽस्मीत्यर्थः । भगवानाह - 'अहासुहं देवाणुप्पिया !' यथासुखं देवानुप्रिय ! हे देवानुप्रिय ! यथा ते सुखावहं तथा कुरु । ' तए से अज्जुणए मालागारे' ततः खलु सोऽर्जुनको मालाकार : 'उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए अवक्कम' उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्राम्यति = गच्छति, 'अवक्कमित्ता' अपक्रम्य 'सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ' स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, 'करिता जाव अणगारे जाए, जाव विहर' कृत्वा यावदनगारो जातः, यावद् विहरति । 'तर णं से अज्जुणए अणगारे' ततः खलु सोऽर्जुनकोऽनगारः 'जं चैव दिवस मुंडे जाव पव्वइए' यस्मिन्नेव दिवसे मुण्डो यावत् प्रत्रजितः 'तं चैव दिवस समणं भगवं महावीरं तस्मिन्नेव दिवसे श्रमणं भगवन्तं महावीरं 'बंदइ णमंसइ' वन्दते नमस्यति 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा ‘इमं एयारूवं अभिग्गहं’ इममेतद्रूपमभिग्रहम् 'उग्गिन्ह' अवगृह्णाति = स्वीकरोति निकट धर्मकथा सुनकर और उसे अच्छी तरह हृदयङ्गम कर हृष्टतुष्ट - हृदय से इस प्रकार बोले - हे भदन्त ! आपके द्वारा उपदिष्ट धर्मकथा को सुनकर मुझे उसमें श्रद्धा उत्पन्न होगयी है, इसलिये मैं आपके समीप संयम ग्रहण करना चाहता हूँ । भगवानने कहाहे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो। भगवान का ऐसा वचन सुनकर वह अर्जुनमाली ईशान कोण में गये और स्वयमेव पंचमुष्टिक लुञ्श्चन करके अनगार बन गये । वे अर्जुन अनगार जिसदिन प्रव्रजित हुए उसी दिन से श्रमण भगवान महावीर को चन्दन नमस्कार कर इस प्रकार का उन्होंने अभिग्रह અને તેને સારી રીતે હૃદયંગમ કરી હૃષ્ટતુ હૃદયથી આ પ્રકારે ખેલ્યા હે ભદન્ત ! આપ દ્વારા ઉપર્દિષ્ટ ધર્મ કથા સાંભળીને મને તેમાં શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઇ છે. માટે હુ આપની પાસે સયમ ગ્રહણ કરવા ચાહુ છું. ભગવાને કહ્યું-હું દેવાનુપ્રિય ! જે પ્રકારે તમને સુખ થાય તેમ કરી. ભગવાનનાં એવાં વચન સાંભળી તે અર્જુનમાલી ઇશાન કેણુમાં ગયા અને પેાતાની મેળે પાંચમુષ્ટિક લંચન કરી અનગાર થઇ ગયા. તે અર્જુન અનગાર જે દિવસે પ્રવ્રુજિત થયા તેજ દિવસથી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વંદન નમસ્કાર
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे यत् 'कप्पइ मे' कल्पते मम 'जावजीवाए' यावज्जीव 'छटुंछटेणं पष्ठपष्ठेन 'अणिक्खित्तेन' अनिक्षिप्तेन अन्तररहितेन 'तबोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए' तपाकर्मणा आत्मानं भावयतो विहर्तुम् 'त्ति कटु' इति कृत्वा = इति मनसि कृत्वा 'अयमेयास्वं अभिग्गहं ओगिण्हइ' इममेतद्रूपमभिग्रहमत्रगृह्णाति, 'ओगिण्हित्ता जावजीवाए जाव विहरइ' अवगृह्य यावजीवं यावद् विहरति = जीवनपर्यन्तं प्रतिज्ञाक्रमेण विहरति ॥ मू० १७॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से अज्जुणए अणगारे छट्रक्खमणपारणयंसि पढमपोरिसीए सज्झायं करेइ, जहा गोयमसामी जाव अडइ । तए णं तं अज्जुणयं अणगारं रायगिहे णयरे उच्च जाव अडमाणं बहवे इत्थीओ य पुरिसा य डहरा महल्ला य जुवाणा य एवं वयासी-इमेणं मे पिया मारिए, इमेणं मे माया मारिया, भाया मारिए, भगिणी मारिया, भज्जा मारिया, पुत्ते मारिए, धूया मारिया, सुण्हा मारिया, इमेणं मे अण्णयरे सयणसंबंधिपरियणे मारिए त्ति कटु अप्पेगइया अकोसंति, अप्पेगइया हीलंति, निदति, खिंसंति, गरिहंति, तज्जेति, तालेति ॥ सू० १८ ॥
॥ टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से अज्जुणए अणगारे छट्टक्खमणपारणयंसि पढमपोरिसीए सज्झायं करेइ' ततः खलु सोऽर्जुनकोऽनगारः पठक्षपणपारणके प्रथमपौरुष्यां स्वाध्यायं करोति, 'जहा गोयमसामी' यथा गौतमस्वामी = लिया कि-मैं यावज्जीव अन्तररहित वेले २ पारणारूप तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरूँगा, ऐसा अभिग्रह लेकर विचरने लगे ॥ सू० १७ ॥
उसके बाद अर्जुन अनगारने वेले के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और गौतमस्वामी के समान गोचरी કરી આ પ્રકારનું તેમણે અભિગ્રહ લીધું કે હું માવજજીવ અન્તરહિત છ છર્ક પારણ રૂપ તપસ્યાથી મારી આત્માને ભાવિત કરતો વિચરીશ. એમ અભિગ્ર લઈને वियपा साया (सू० १७)
- ત્યારપછી અર્જુન અનગારે છક્ના પારણાને દિવસે પહેલા પહોરમાં સ્વાધ્યાય કર્યો અને ગૌતમ સ્વામીની પેઠે ગોચરી ગયા. રાજગૃહ નગરના ઊચ, નીચ, મધ્યમ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अर्जुनानगारस्य लोककृत आक्रोशादिका २०३ गौतमस्वामिवत्सवी क्रियां करोतीत्यर्थः, 'जाव अडइ' यावदटति = स्वाध्यायानन्तरं गौतमस्वामिवद्भिक्षार्थ परिभ्रमति । 'तए णं तं अज्जुणयं अणगारं रायगिहे णयरे' ततः खलु तमर्जुनकमनगारं राजगृहे नगरे 'उच्च जाव अडमाणं' उच्चयावदटन्तम् = उच्चनीचमध्यमकुलानि भिक्षार्थ परिभ्रमन्तं 'बहवे इत्थीओ य पुरिसा य' वहवः स्त्रियश्च, पुरुषाश्च 'डहरा य दहराश्च-दहरा बालाः, 'महल्ला य'
महान्तश्च-महान्तः = वृद्धाः, 'जुवाणा य' युवानश्च ‘एवं वयासी' एवमवदन्.. 'इमेणं मे पिया मारिए' अनेन मम पिता मारितः, 'इमेणं मे माया मारिया'
अनेन मम माता मारिता, 'भाया मारिए' भ्राता मारितः, 'भगिणी मारिया' भगिनी मारिता, 'भज्जा मारिया' भार्या मारिता, 'पुत्ते मारिए' पुत्रो मारितः, 'धूया मारिया' दुहिता मारिता, 'मुण्डा मारिया' स्नुषा मारिता, स्नुषापुत्रवधूः; 'इमेणं मे अण्णयरे सयणसंबंधिपरियणे मारिए' अनेन मेऽन्यतरः स्वजनसंवन्धिपरिजनो मारितः, 'त्ति कटु' इति कृत्वा 'अप्पेगइया अक्कोसंति' अप्येकके आक्रोशन्ति = कटुवचनैर्भसयन्ति, 'अप्पेगइया हीलंति निंदति खिसंति गरिहंति तज्जति तालेति' अप्येकके हेलयन्ति निन्दन्ति विसन्ति गर्हन्ते तर्जयन्ति ताडयन्ति; हेलयन्ति = अनादरं कुर्वन्ति; निन्दन्ति = निन्दां कुर्वन्ति; गये । राजगृह नगर के उच्च-नीच-मध्यम कुलों में गृह सामुदानिक भिक्षा के लिये फिरते हुए उन अर्जुन अनगार को देखा तो स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढे, और जवान सभी इस प्रकार कहने लगे-इसने मेरे पिता को मारा, इसने मेरी माता को मारा, इसने मेरे भाई को मारा, इसने मेरी बहिन को मारा, इसने मेरी पत्नी को मारा, इसने मेरे पुत्र को मारा, इसने मेरी पुत्री को मारा, इसने मेरी पुत्रवधू को मारा, इसने मेरे दूसरे स्वजन सम्बन्धी परिजनों को मार डाला। ऐसा कह कर कोई कटुवचनों से उनकी भत्सना (तिरस्कार) करने लगे, कोई अनादर करने लगे, कोई निन्दा करने કુળોમાં ગૃહસામુદાનિક ભિક્ષા માટે ફરતા ફરતા તે અર્જુન અનગારને જોઈને સ્ત્રી, પુરુષ, બાળકે, વૃદ્ધો, તથા જુવાને બધા એમ કહેવા લાગ્યા કે એણે મારા બાપને માર્યો, એણે મારી માતાને મારી, એણે મારા ભાઈને માર્યો, એણે મારી બહેનને મારી, એણે મારી પત્નીને મારી, એણે મારા પુત્રને માર્યો, એણે મારી પુત્રીને મારી, એણે મારી પુત્રવધૂને મારી, એણે મારા બીજા સ્વજન સંબંધી પરિજનેને મારી નાખ્યા. એવું કહી કેઈ કટુ વચનથી તેની ભટ્સન (તિરસ્કાર) કરવા લાગ્યા, કેઈ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे खिसंति-दुर्वचनैः कृत्वा तस्मिन् क्रोधमावेशयितुं प्रयतन्ते, गर्हन्ते दोपमाविष्कुर्वन्ति, तर्नयन्ति–तर्जनां कुर्वन्ति-तर्जनीप्रभृत्यगुल्यादिभिर्भीतिमुत्पादयितुं प्रयतन्ते, ताडयन्ति यष्ट्यादिना ताडनां कुर्वन्ति ॥ ० १८ ।।
॥ मूलम् ॥ तए णं से अज्जुणए अणगारे तेहिं बहूर्हि इत्थीहि य पुरिसेहि य डहरेहि य महल्लेहि य जुवाणएहि य आओसेजमाणे जाव तालेजमाणे तेसिं मणसा वि अप्पउस्समाणे सम्मं सहइ, सम्म खमइ, सम्म तितिक्खइ, सम्म अहियासेइ, सम्म सहमाणे खममाणे तितिक्खमाणे अहियासमाणे रायगिहे णयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाइं अडमाणे जइ भत्तं लभइ तो पाणं ण लभइ, जइ पाणं लभइ तो भत्तं न लभइ । तए णं से अज्जुणए अणगारे अदीणे अविमणे अकलुसे अणाइले अविसाई अपरितंतजोगी अडइ, अडित्ता रायगिहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे जहा गोयमसामी जाव पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए अमुच्छिए बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं आहारेइ ॥ सू० १९ ॥
॥टीका ॥ _ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से अज्जुणए अणगारे' ततः खलु लगे, कोई उनको खिजाने की कोशिश करने लगे, कोई उनके दोषों का उद्घाटन करने लगे, कोई तर्जना करने लगे और कोई उन्हें लाठी ईटे आदिसे मारने लगे ॥ सू० १८ ॥ . उन बहुत सी स्त्रियों से, पुरुषों से, बच्चों से, वृद्धों से, અનાદર કરવા લાગ્યા, કેઈ નિદા કરવા લાગ્યા કે તેમને ખીજવવાની કેશિશ કરવા લાગ્યા, કે તેમના દેનું ઉદ્દઘાટન કરવા લાગ્યા, કેઈ તર્જના કરવા લાગ્યા અને કેઈ લાકડી ઇંટ આદિથી મારવા લાગ્યા. (સૂ) ૧૮ )
અનેક સ્ત્રીએથી, પુરુષોથી, બાળકેથી, વૃદ્ધોથી અને યુવકેથી તિરસ્કૃત અને '
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अर्जुनानगारस्य परकृताक्रोशादिसहनम् . २०५ सोऽर्जुनकोऽनगारः 'तेहिं बहूहिं' तैर्बहुभिः 'इत्थीहि य पुरिसेहि य डहरेहि य महल्लेहि य जुवाणएहि य' स्त्रीभिश्च पुरुषैश्च दहरैश्च महद्भिश्च युवभिश्च 'आओसेज्जमाणे जाव तालिज्जमाणे आक्रुश्यमानो यावत् तायमानः 'तेसिं मणसा वि' तेभ्यो मनसाऽपि 'अप्पउस्समाणे' अप्रद्विषन् = द्वेषभावमकुर्वन् 'सम्मं सहइ' सम्यक् सहते-मुखाद्यविकारकरणेन मर्पति, 'सम्म खमइ' सम्यक् क्षमतेक्रोधाभावेन, 'सम्मं तितिक्खइ' सम्यक् तितिक्षते - अदीनभावेन, 'सम्म अहियासेइ' सम्यक् अधिसहते = निर्जराभावनया शुद्धान्तःकरणेन सहते, इत्थं 'सम्म सहमाणे खममाणे तितिक्खमाणे अहियासेमाणे' सम्यक् सहमानः क्षममाणः तितिक्षमाणः अधिसहमानः 'रायगिहे णयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई' राजगृहे नगरे उच्चनीचमध्यमकुलानि 'अडमाणे' अटन्- भिक्षाथै परिभ्रमन् 'जइ भने लभइ तो पाणं ण लभइ' यदि भक्तं लभते तदा पानं न लभते. पानं-पानीयम् , 'जइ पाणं लभइ तो भत्तं ण लभइ' यदि पानं लभते तदा
और तरुणों से तिरस्कृत यावत् ताडित वे अर्जुन अनगार उन लोगों के ऊपर मन से भी द्वेष नहीं करते, परन्तु उनके दिये हुए आक्रोश आदि परिषहों को समभावसे सहन करने लगे! अर्थात् वे उन परिषह उपसर्ग देनेवालों के प्रति जरा भी क्रोध नहीं करके क्षमाभाव को धारण कर एवं दीनभावसे रहित मध्यस्थ भावना में विचरने लगे। तथा निर्जरा की भावना से पवित्र अन्तःकरण होने के कारण सभी परीषहों को अनायास ही सहन करने लगे। इस प्रकार सभी प्रकार के परीषहों को सहन करते हुए उच्चनीचमध्यम कुलों में गृहसामुदानिक भिक्षा के लिये विचरते हुए उन अर्जुन अनगार को यदि कहीं आहार मिलता था तो पानी नहीं, તાડિત થતા તે અર્જુન અનગાર તે લોકેના ઉપર મનથી પણ દ્વેષ નહી કરતા, પરંતુ તેઓના આપેલા આક્રોશ આદિ પરીષહેને સમભાવે સહન કરવા લાગ્યા, અર્થાત તે પરીષહ-ઉપસર્ગ દેવાવાળા પ્રત્યે જરા પણ ક્રોધ લાવ્યા વગર ક્ષમાભાવને ધારણ કરી અને દીનભાવથી રહિત મધ્યસ્થ ભાવનામાં વિચરવા લાગ્યા, તથા નિર્જરાની ભાવનાથી પવિત્ર અંતઃકરણ હોવાને કારણે બધા પરીષહાને અનાયાસે જ સહન કરવા લાગ્યા. આ પ્રકારે બધા પ્રકારના પરીષહાને સહન કરતા થકા ઉચ્ચ, નીચ, મધ્યમ કુલેમાં ગૃહસામુદાનિક ભિક્ષાને માટે વિચરતા તે અર્જુન અનગારને જે ક્યાંક આહાર મળતે તે પાણું ન મળતું, પાછું મળતું તે આહાર ન મળતા.
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२०६
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे भक्तं न लभते । 'तए णं' ततः खलु-तदनन्तरम् एतादृशे घोरपरीपहे समुपस्थितेऽपि 'स अज्जुणए अगगारे' सोऽर्जुनकोऽनगारः 'अदीणे' अदीना-दीनतामप्राप्तः, 'अविमणे' अविमनाः वैमनस्यममाप्तः, 'अकलुसे' अकलुपःकलुषभावरहितः 'अणाइले' अनाविला स्वच्छान्तःकरणः 'अविसाई' अविपादी विपादरहितः, पुनः 'अपरितंतजोगी' अपरितान्तयोगी-अपरितान्तश्चासौ योगश्च अपरितान्तयोगः सोऽस्यास्तीति तथाभूतश्च सन् 'अडइ' अटति, 'अडित्ता' अटित्वा 'रायगिहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ' राजगृहान्नगरात् प्रतिनिष्क्राम्यति, 'पडिनिक्खमित्ता जेणेव' प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव 'गुणसिलयं चेइयं' गुणशिलकं चैत्यं 'जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान महावीरः 'जहा गोयमसामी जाव पडिदंसेइ' यथा गौतमस्वामी यावत् प्रतिदर्शयति सोऽर्जुनकोऽनगारो राजगृहनगरानिष्क्रम्य भगवत्समीपे समागत्य गौतमस्वामिवद् भगवन्तं भिक्षायां प्राप्तमशनादिकं प्रतिदर्शयति, 'पडिदंसित्ता' प्रतिदश्य 'समणेणं भगवया महावीरेणं' श्रमणेन भगवता महावीरेण 'अभणुण्णाए' अभ्यनुज्ञातः सन् 'अमुच्छिए' अमूच्छितः आहारासक्तिरहितो 'विलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं' विलमित्र पन्नगभूतेन आत्मना 'तमाहारं आहारेइ' तमाहारमाहारयति-यथा भुजङ्गो विलस्य पार्श्वभागद्वयमसंस्पृशन् मध्यभागत एवात्मानं विले प्रवेशयति तथा मुखस्य पार्श्वद्वयस्पर्शरहितमाहारं कण्ठनालाभिमुखं भवेश्याऽऽहारयतीति भावः ॥ मू० १९ ॥ यदि पानी मिलता था तो आहार नहीं। इस प्रकार समय पर रूखा-सूखा जैसा-तैसा भी भोजन मिल जाता, उसे ही अदीन, अविमना, अकलुष, अक्षोभित, अविषादी, तनतनाट आदि विक्षेप भावों से बिलकुल असङ्ग रह कर ले लेते। फिर राजगृह से निकल कर वे गुणशिलक उद्यान में आते और लाये हुए भोजन को श्रद्धापूर्वक भगवान को दिखलाते। बाद में उनकी आज्ञा प्राप्त कर गृद्धि से रहित अर्थात् जिस प्रकार साप बिलमें प्रवेश करता है उसी प्रकार આ પ્રકારે સમય પર સૂકું લખું એવું તેવું પણ ભેજન મળી જતું તેને અદીન, અવિના, અકલુષ, અક્ષેતિ, અવિષાદી, તનમનાટ આદિ વિક્ષેપ ભાવેથી તદ્દન અસંગ રહીને લઈ લેતા. પછી રાજગૃહથી નીકળી તેઓ ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં આવતા અને લઈ આવેલ ભેજનને શ્રદ્ધાપૂર્વક ભગવાનને દેખાડતા. બાદમાં તેમની આજ્ઞા મેળવી મૃદ્ધિથી રહિત, એટલે જેમ સાપ દરમાં પ્રવેશ કરે તેમ રાગદ્વેષથી રહિત થઈને
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका अर्जुनानगारस्य सिद्धपदमाप्तिः
॥ मूलम् ॥
तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाई रायगिहाओ णयराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिं जणवयविहारं विहरs । तए णं से अज्जुणए अणगारे तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणs, अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसे, तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सट्टाए कीरइ जाव सिद्धे ॥ सू० २० ॥
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॥ टीका ॥
:
'त णं इत्यादि । 'तर णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाई रायगिहाओ णयराओ पडिनिक्खमड़, पडिनिक्खमित्ता वहिं जणवयविहारं विहरई ' ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः अन्यदा कदाचिद् राजगृहान्नगरात् प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य वहिर्जनपदविहारं विहरति । 'तए णं से अज्जुणए अणगारे' ततः खलु सोऽर्जुनकोऽनगारः 'तेणं तेन प्रसिद्धेन 'ओरालेणं' उदारेण = पधानेन 'विउलेणं' विपुलेन = विशालेन, 'पयत्तेणं' प्रदत्तेन = भगवता दत्तेन 'पग्णहिएणं' प्रगृहीतेन = उत्कृष्टभावतः स्वीकृतेन 'महाणुभागेणं' महानुभागेन = महान् अनुभागः = प्रभावो यस्य तत्तेन, 'तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे' रागद्वेष से रहित हो उस भोजन का सेवन कर संयम - निर्वाह करने में लगे रहते ॥ सू० १९ ॥
अनन्तर किसी समय भगवान महावीर राजगृह नगर से बाहर निकल कर जनपद में विचर रहे थे । उस अवधि में उन महाभागी अर्जुन अनगारने भगवान के द्वारा दिये हुए, तथा उत्कृष्ट भावना से स्वीकृत, अत्यन्त प्रभावशाली उस उदार विपुल तपःकर्म से आत्मा को भावित करते हुए छ मास तक चारित्रતે ભેજનનુ સેવન કરી સયમ–નિર્વાહ કરવામાં તત્પર રહેતા ( સૂ૦ ૧૯ )
પછી કોઇ સમયે ભગવાન મહાવીર રાજગૃહનગરથી બહાર નીકળી જનપદમાં वियरी रह्या हता, ये अवधिभां ते महाभागी सर्जुन अनगारे ते उहार, वियुस, ભગવાને આપેલ તથા ઉત્કૃષ્ટ ભાવનાથી સ્વીકારેલ અત્યંત પ્રભાવશાલી તપથી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
तपःकर्मणा आत्मानं भावयन्, 'बहुपुणे' वहुपूर्णान् 'छम्मासे' पण्मासान् 'सामष्णपरियागं' श्रामण्यपर्यायम् = चारित्रपर्यायम् 'पाउणई' पालयति, तथा 'अद्धमासियाए' अर्धमासिक्या 'संलेहणाए' संलेखनया 'अप्पाणं झूसेड़' आत्मानं जोपयति, 'तीसं भत्ताई' त्रिंशतं भक्तानि 'अणसणाए छेदेड़, छेदित्ता जस्सट्टा ए कीरs जाव सिद्धे' अनशनेन छिनत्ति छिन्वा यस्यार्थाय क्रियते यावत् सिद्ध:= यदर्थं स्वीक्रियते नग्गभावः तमर्थमधिगम्य यावत् सिद्धिं प्राप्तः ॥ म्रु० २० ॥ ॥ इति तृतीयमध्ययनम् ॥ ॥ मूलम् ॥
उक्खेवओ उत्थस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, तत्थ णं सेणिए राया, कासवे णामं गाहावई पडिवसड़, जहा मंकाई, सोलस वासा परियाओ विपुले सिद्धे ॥ ४ ॥ एवं खेमए विगाहावई, णवरं कागंदी णयरी, सोलस वासा परियाओ, विपुले पव्व सिद्धे ॥५॥ एवं धितिहरे वि गाहावई, कागंदी णयरी, सोलस वासा परियाओ, जाव विपुले सिद्धे ॥ ६ ॥ एवं केलासे विगाहावई, णवरं सागेए णयरे, बारस वासाई परियाओ, विपुले सिद्धे ॥७॥ एवं हरिचंद विगाहावई, सागेए णयरे, बारस वासा परियाओ, विपुले सिद्धे ॥ ८ ॥ एवं वारतए वि गाहावई, णवरं रायगिहे
यरे, बारस वासा परियाओ, विपुले सिद्धे ॥९॥ एवं पर्याय का पालन किया, तथा अर्धमासिकी संलेखना से आत्मा को सेवित कर तथा तीस भक्त को अनशन से छेदित कर अपने सभी घनघाती कर्मों को क्षय कर सिद्ध होगये || सू० २० ॥ इति तृतीय अध्ययन संपूर्ण
ม
આત્માને ભાવિત કરતાં, છ માસ સુધી ચારિત્રપર્યાયનું પાલન કર્યું, તથા અર્ધ માસિકી સલેખનાથી આત્માને સેવિત કરી તથા ત્રીસ ભકતાનું અનશનથી છેદિત કરીને પેાતાનાં સ ઘનઘાતી કર્યાંના નાશ કરીને સિદ્ધ થઇ ગયા ( સૂ॰ ૨૦ )
કૃતિ તૃતીય અધ્યયન સંપૂર્ણ.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, मङ्काईप्रभृतिचरितम् .
२०९ सुदंसणे वि गाहावई, णवरं वाणियगामे णयरे, दुइपलासए चेइए, पंच वासा परियाओ, विपुले सिद्धे ॥१०॥ एवं पुण्णभद्दे वि गाहावई, वाणियगामे णयरे, पंच वासा परियाओ, विपुले सिद्धे ॥ ११॥ एवं सुमणभहे वि गाहावई, सावत्थी णयरी, बहुवासा परियाओ, विपुले सिद्धे ॥ १२ ॥ एवं सुपइटे वि गाहावई, सावत्थी णयरी, सत्तावीसं वासा परियाओ, विपुले सिद्धे ॥१३॥ एवं मेहे वि गाहावई, रायगिहे णयरे, बहूइं वासाइं परियाओ, विपुले सिद्धे ॥१४॥ ॥ सू० २१ ॥
॥ टीका ॥ 'उक्खेवओ' इत्यादि । 'उक्खेवओ चउत्थस्स अज्झयणस्स' उत्क्षेपकश्चतुर्थस्य अध्ययनस्य, चतुर्थस्याध्ययनस्य प्रारम्भवाक्यं 'यदि खलु भदन्त !" . इत्यादिरूपं पूर्ववदेव विज्ञेयम् । सुधर्मा स्वामी प्राह - ‘एवं खलु जंबू ! तेणं
कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे' एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम्, तत्र 'गुणसिलए चेइए' गुणशिलकं चैत्यमासीत्, 'तत्थ णं सेणिए राया' तत्र खलु श्रेणिको राजा राज्यं करोति स्म । तत्रैव ... अब चतुर्थ अध्ययन का प्रारम्भ इस प्रकार करते हैं
जम्बूस्वामीने श्रीसुधर्मा से इस प्रकार पूछा-हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीरने छठे वर्ग के तृतीय अध्ययन में जो भाव बताया है वह मैंने सुना, अब उसके बाद चतुर्थ अध्ययन के भावों को सुनना चाहता हूँ।
श्री सुधर्मास्वामीने कहा-हे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस नगर में गुणशिलक नामक चैत्य था। उस नगर के राजा श्रेणिक थे। उस नगर में काश्यप
હવે ચતુર્થ અધ્યનને પ્રારંભ આ પ્રકારે કરીએ છીએ
જંબુસ્વામીએ શ્રી સુધર્માસ્વામીને આ પ્રકારે પૂછયું–હે ભદન્ત ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે છઠ્ઠા વર્ગને તૃતીય અધ્યયનમાં જે ભાવ બતાવ્યા છે તે મેં સાંભળ્યા. હવે ત્યારપછી ચતુર્થ વર્ગના ભાવે સાંભળવા ઈચ્છું છું. - શ્રીસુધર્માસ્વામીએ કહ્યું – હે જંબૂ ! તે કાલ તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે નગરમાં ગુણશિલક નામે ચૈત્ય હતા. તે નગરના રાજા શ્રેણિક હતા. તે નગરમાં
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.२१०
अन्तकृतदशाङ्गमत्रे नगरे ‘कासवे णामं गाहावई पडिवसइ' काश्यपो नाम गाथापतिः प्रतिवसति, 'जहा मंकाई' यथा मङ्काई: मङ्काईनामा गाथापतिः, तथैव 'सोलस वासा' षोडश वर्षाणि 'परियाओ' पर्यायः षोडशवर्षावधिश्चारित्रपर्यायः, अनन्तरं मासिक्या संलेखनया 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः विपुलगिरौ सिद्धः ॥४॥ 'एवं खेमए वि गाहावई' एवं क्षेमकोऽपि गाथापतिः, 'णवरं' अयं विशेषः, 'कागंदी णयरी' काकन्दी नगरी, 'सोलस वासा परियाओ' पोडश वर्षाणि पर्यायः, यावद् विपुले सिद्धे' विपुले पर्वते सिद्धः ॥५॥ ‘एवं घितिहरे वि गाहावई' एवं धृतिधरोऽपि गाथापतिः, 'कागंदी णयरी' काकन्दी नगरी, तस्य धृतिधरस्य गाथापतेर्निवासः काकन्दयां नगऱ्यांमासीत् । एपोऽपि भगवत्समीपे प्रत्रजितः, अस्य 'सोलस वासा परियाओ' पोडश वर्षाणि पर्यायः-पोडशवर्षपर्यन्तं चारित्रपर्यायोऽभूत् , 'जाव विपुले सिद्धे' यावद् विपुले सिद्धः ॥६॥ 'एवं केलासे वि गाहावई' एवं कैलासोऽपि गाथापतिः, ‘णवरं विशेषः, नामक एक गाथापति रहते थे, उस गाथापतिने मकाई के समान भगवान महावीर प्रभु के समीप प्रव्रज्या ग्रहण की और बाद में सोलह वर्ष तक चारित्र पर्याय पाला और अन्त में वे विपुलगिरि पर सिद्ध होगये, इस प्रकार चौथा अध्ययन समाप्त हुआ ॥ ४ ॥ इसी प्रकार क्षेमक गाथापति का भी चरित्र जानना। ये काकन्दी नगरी के रहने वाले थे। इन्होंने सोलह वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला और विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥ ५॥ इसी प्रकार धृतिधर गाथापति का भी वर्णन है। ये काकन्दी नगरी के रहने वाले थे। इनका भी चारित्रपर्याय सोलह वर्ष का था। अन्त में यह भी विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥ ६॥ इसी प्रकार कैलास गाथापति કાશ્યપ નામે એક ગાથાપતિ રહેતા હતા. તે ગાથાપતિએ મકાઈની જેમ ભગવાન મહાવીર પ્રભુની પાસે પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરી, અને સોળ વર્ષ સુધી ચારિત્રપર્યાય પા, તથા અંતમાં વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ થઈ ગયા. આ પ્રકારે ચોથું અધ્યયન સમાપ્ત થયું (૪). એવી જ રીતે ક્ષેમક ગાથા પતિનું પણ ચરિત જાણવું, તે કાકેદી નગરીના રહેવાસી હતા. તેમણે સેળ વર્ષ સુધી ચારિત્રપર્યાય પાળે અને વિપુલ ગિરિ પર સિદ્ધ થઈ ગયા (૫). એ જ પ્રકારે ધૃતિધર ગાથા પતિનું પણું વર્ણન છે.
એ કકદી નગરીના રહેવાસી હતા, તેમનું પણ ચારિત્રપર્યાય સોળ વર્ષને હતેા. .અંતમાં એ પણ વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ થઈ ગયા (૬). એજ પ્રકારે કૈલાસ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, मङ्काईप्रभृचरितम्
२११ 'सागेए णयरे' साकेत नगरम् अयोध्या नगरी, 'वारस वासाइं परियाओ' द्वादश वर्षाणि पर्यायः, 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः ॥७॥ ‘एवं हरिचंदणे वि. गाहावई' एवं हरिचन्दनोऽपि गाथापतिः, 'सागेए णयरे' साकेत नगरम् , 'वारस वासा परियाओ' द्वादश वर्षाणि पर्यायः, 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः । ‘एवं वारत्तए विगाहावई' एवं वारत्तकोऽपि गाथापतिः, ‘णवरं' विशेषः, 'रायगिहे णयरे'- राजगृहं नगरम् , 'वारस वासा परियाओ' द्वादश वर्षाणि पर्यायः, 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः ॥९॥ 'एवं सुदंसणे वि गाहावई' एवं सुदर्शनोऽपि गाथापतिः, 'णवर' विशेषः 'वाणियगामे गयरे' वाणिजकग्रामो नगरम् , 'दुइपलासए चेइए' तिपलाशकं चैत्यम् , 'पंच वासा परियाओ' पञ्च वर्षाणि पर्यायः 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः ॥ १० ॥ ‘एवं का भी चरित्र जानना। ये साकेत (अयोध्या) नगरी के रहने वाले थे। इन्होंने बारह वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला और विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥७॥ हरिचन्दन गाथापति भी इसी प्रकार अनगार होगये, वे भी साकेत नगरी के रहने वाले थे, उन्होंने बारह वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला और अन्त में वे विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥ ८॥
इसी प्रकार वारत्तक गाथापति का भी चरित्र है। ये राजगृह नगर के रहने वाले थे। बारह वर्ष तक श्रामण्यपर्याय पालकर ये विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥९॥
सुदर्शन गाथापति भी भगवान के समीप प्रव्रजित हुए। ये वाणिज ग्राम के रहने वाले थे। उस गाम में दूतिपलाश नामक ગાથાપતિનું પણ ચરિત જાણવું. એ સાકેત (અધ્યા) નગરીના રહેવાસી હતા. તેમણે બાર વર્ષ સુધી ચારિત્રપર્યાય પાળે અને વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ થઈ ગયા. (૭) હરિચંદન ગાથાપતિ પણ એ જ રીતે અનગાર થઈ ગયા. તે પણ સાકેત નગરીના રહેવાશી હતા. તેમણે બાર વર્ષ સુધી ચારિત્રપર્યાય યા અને અંતમાં વિપુલગિરિ ५२ सिद्ध ४ गया. (८) - આ પ્રકારે વારતક. ગાથાપતિનું ચરિત્ર છે. તે રાજગૃહ નગરના રહેવાસી હતા. બાર વર્ષ સુધી શામણ્યપર્યાય પાળે અને વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ થઈ ગયા. (૯)
સુદર્શન ગાથાપતિ પણ ભગવાનની પાસે પ્રવૃજિત થયા છે. વાણિજ ગામના રહેવાશી હતા. તેમણે પાંચ વર્ષ સુધી શ્રમણ્યયયય પાળે અને વિપુલગિરિ પર
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२१२
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे पुण्णभद्दे वि गाहावई, वाणियगामे णयरे' एवं पूर्णभद्रोऽपि गाथापतिः, वाणिजग्रामो नगरम् , 'पंच वासा परियाओ' पञ्च वर्षाणि पर्यायः, 'विपुले सिन्द्रे विपुले सिद्धः ॥ ११ ॥ ‘एवं सुमणभद्दे ,वि गाहावई' एवं सुमनोभद्रोऽपि गाथापतिः, 'सावत्थी णयरी' श्रावस्ती नगरी, 'वहुवासा परियाओ' बहुवर्पाणि पर्यायः 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः ॥ १२ ॥ “एवं सुपइठे वि गाहावई' एवं सुप्रतिष्ठोऽपि गाथापतिः 'सावत्थी णयरी' श्रावस्ती नगरी, 'सत्तावीसं वासाइं परियाओ' सप्तविंशति वर्षाणि पर्यायः, 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः ॥ १३ ॥ ‘एवं मेहे वि गाहावई' एवं मेघोऽपि गाथापतिः, 'रायगिहे णयरे' उद्यान था। इनका चारित्रपर्याय पाच वर्ष का था और ये विपुल पर्वत पर सिद्ध हुये ॥ १०॥
इसी प्रकार पूर्णभद्र गाथापति का भी चरित्र जानना चाहिये। ये वाणिजग्राम के रहने वाले थे। इन्होंने पाच वर्ष तक श्रामण्य पर्याय पाला और विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥ ११ ॥
सुमनभद्र गाथापति का चरित्र भी इसी प्रकार समझना चाहिये । ये श्रावस्ती नगरी के रहने वाले थे। इन्होंने बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाला और विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ।। १२ ।।
इसी प्रकार सुप्रतिष्ठ गाथापति का भी चरित्र जानना । ये श्रावस्ती नगरी के रहने वाले थे। इन्होंने सत्ताइस वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला अन्तमें विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥ १३ ॥
इसी प्रकार मेघगाथापति का भी चरित्र जानना। ये राजसिद्ध थप गया. (१०)
એજ પ્રકારે પૂર્ણભદ્ર ગાથાપતિનું પણ ચરિત્ર જાણવું જોઈએ. તે વાણિજ ગામના રહેવાશી હતા. તેમણે પાંચ વર્ષ સુધી શામધ્યપર્યાય પાળે અને વિપુલગિરિ પર सिद्ध ४ गया. (११) ,
સુમનભદ્ર ગાથાપતિનું ચરિત્ર પણ એજ પ્રકારનું સમજવું જોઈએ. તે શ્રાવસ્તી નગરીના રહેવાસી હતા. તેમણે બહુ વર્ષો સુધી શામયપર્યાય પાળે અને વિપુલગિરિ ५२ सिद्ध थ६ गया. (१२)
એજ પ્રકારે સુપ્રતિષ ગાથાપતિનું ચરિત્ર જાણવું. તે શ્રાવસ્તી નગરીના રહેવાશી હતા. તેમણે સત્તાવીશ વર્ષ સુધી ચારિત્રપર્યાય પાળે. અંતમાં વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ था गया (13)
તેવી જ રીતે મેઘ ગાથાપતિનું પણ ચરિત્ર જાણવું. તે રાજગૃહ નગરના રહેવાશી
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२१३
मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तानगारचरितम् . राजगृहं नगरम् , 'वहूई वासाई परियाओ' वहूनि वर्षाणि पर्यायः; 'विपुले सिद्धे' विपुले सिद्धः ॥ १४ ॥ सू० २१ ॥
मूलम् ॥ उक्खेवओ पन्नरसमस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं पोलासपुरे नयरे, सिरीवणे उजाणे, तत्थ णं पोलासपुरे पयरे विजए णामं राया होत्था । तस्स णं विजयस्स रन्नो सिरी नामं देवी होत्था, वणओ०। तस्स णं विजयस्त रन्नो पुत्ते सिरीए देवीए अत्तए अइमुत्ते नामं कुमारे होत्था, सुकुमाले। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव सिरीवणे विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेहे अंतेवासी इंदभूई जहा पण्णत्तीए जाव पोलासपुरे नयरे उच्च जाव अडइ ॥ सू० २२ ॥
॥टीका ॥ 'उक्खेवओ' इत्यादि । 'उक्खेवओ पन्नरसमस्स अज्झयणस्स' उत्क्षेपकः पञ्चदशस्याध्ययनस्य पञ्चदशस्याध्ययनस्य-'यदि खलु भदन्त ! इत्यादि रूपं प्रारम्भवाक्यं पूर्ववदेव विज्ञेयम् । जम्बूप्रश्नानन्तरं सुधर्मा स्वामी प्राह-एवं गृह नगर के रहने वाले थे। बहुत वर्षों का इन्होंने श्रामण्यपर्याय पाला और विपुलगिरि पर सिद्ध होगये ॥ १४ ॥ सू० २१॥
.. ॥ चौदहवा अध्ययन समाप्त ॥
श्री जम्बूस्वामीने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा-हे भदन्त ! भगवान महावीर के द्वारा प्ररूपित चौदहवें अध्ययन का भाव मैंने आपके मुख से सुना अब उसके बाद पन्द्रहवें अध्ययन के હતા. ઘણાં વર્ષો સુધી તેમણે શ્રમણ્યપર્યાય પાળે અને વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ थ गया. (१४) (सू० २१).
ચૌદમું અધ્યયન સમાપ્ત. શ્રી જંબુસ્વામીએ શ્રી સુધમાં સ્વામીને પૂછ્યું- હે ભદન્ત! ભગવાન મહાવીર દ્વારા પ્રરૂપિત ચૌદમા અધ્યયનને ભાવ મેં આપના મુખેથી સાંભળે. હવે ત્યારપછી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
२१४
खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं पोलासपुरे नयरे' एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये पोलासपुरं नगरम् ; तत्र 'सिरीवणे उज्जाणे' श्रीवनमुद्यानम् आसीत्, 'तत्थ णं पोलासपुरे णयरे' तत्र खलु पोलासपुरे नगरे 'विजए णामं राया होत्था' विजयो नाम राजाऽऽसीत् । 'तस्स णं विजयस्य रन्नो सिरी नामं देवी होत्था' तस्य खलु विजयस्य राज्ञः श्रीर्नाम देवी आसीत् । 'बष्णओ०' वर्णकः श्रियो देव्या वर्णनम् अन्यदेवीवद्विज्ञेयम् । 'तस्स णं विजयस्स रण्णो पुत्ते' तस्य खलु विजयस्य राज्ञः पुत्रः, 'सिरीए देवीए अत्तर' श्रियो देव्या आत्मज: 'अइमुते नामं कुमारे होत्था' अतिमुक्तो नाम कुमार आसीत्, 'सुकुमाले' सुकुमारः = यो हि मुकुमारवयव आसीत् । ' तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे' तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो 'जात्र सिरीवणे fares' यावच्छ्रीने विहरति । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स' तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य भाव कृपा करके सुनाइये | श्री सुधर्मा स्वामीने कहा - हे जम्बू ! उस काल उस समय में पोलासपुर नामक नगर था । उस नगर में श्रीवन नामक उद्यान था । उस पोलासपुर नगर में विजय नामक राजा थे । उस विजय राजा की रानी का नाम श्रीदेवी था । वह रानी प्रथम वर्णित महारानियों के समान शोभायुक्त थी । उन विजय राजा के पुत्र तथा श्रीदेवी रानी के आत्मज अतिमुक्तक ( एवंता ) नामक कुमार थे । जो अत्यन्त सुकुमार थे ।
उसकाल उस समय में श्रमण भगवान महावीर श्रीवन उद्यान में पधारे । उस समय भगवान महावीर प्रभु के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति, भगवान को पूछकर व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) के પંદરમા અધ્યયનના ભાવ કૃપા કરીને સંભળાવેા. સુધર્માં સ્વામીએ કહ્યું હે જમ્મૂ ! તે કાલ તે સમયે પેાલાસપુર નામનું નગર હતું. તે નગરમાં શ્રીવન નામનું ઉદ્યાન હતું. તે પેાલાસપુર નગરમાં વિજય નામે રાજા હતા. તે વિજયરાજાની રાણીનું નામ શ્રીદેવી હતું. તે રાણી પ્રથમવર્ણિત મહારાણીએને સમાન શાભાયુક્ત હતી. શ્રીદેવી રાણીના આત્મજ અતિમુકતક (એવતા) નામે કુમાર હતા, જે અત્યંત સુકુમાર હતા.
તે કાલ તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર શ્રીવન ઉદ્યાનમાં પધાર્યાં. તે સમયે ભગવાન મહાવીર પ્રભુના જ્યેષ્ઠ શિષ્ય ઈંદ્રભૂતિ, ભગવાનને પૂછીને વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિનાં
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तकुमारचरितम्
२१५ 'जेडे अंतेवासी इंदभूई' ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिः, 'जहा पणत्तीए' यथा प्रज्ञप्त्याम् यथा व्याख्याप्रज्ञप्त्यां-भगवतीसूत्रे तथा 'जाव पोलासपुरे नयरे उच्च जाव अडई' यावत् पोलासपुरे नगरे उच्च यावद् अटति-उच्चनीचमध्यमानि कुलानि भिक्षार्थ भ्रमति ॥ मू० २२ ॥
॥ मूलम् ॥. इमं च णं अइमुत्ते कुमारे पहाए जाव विभूसिए वहूहि दारएहि य दारियाहि य डिभएहि य डिभियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिखुडे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव इंदटाणे तेणेव उवागए, तेहिं वहहिं दारएहि य दारियाहि य डिभएहि य डिभियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिबुडे अभिरममाणे २ विहरइ । तए णं भगवं गोयमे पोलासपुरे णयरे उच्चनीय जाव अडमाणे इंदट्टाणस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ । तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागए, भगवं गोयमं एवं वयासी-के णं भंते ! तुन्भे! किं वा अडह ? ॥ सू० २३ ॥
॥ टीका ॥ 'इमं च णं' इत्यादि । इमं च ण' अस्मिंश्च खलु समये 'अइमुत्ते कुमारे पहाए जाव विभूसिए' अतिमुक्तः कुमारः स्नातो यावद् विभूपितः 'वहूहिं दारएहि य दारियाहि य डिभएहि य डिभियाहि वर्णन के अनुसार पोलासपुर नगर के उच्चनीच मध्यम कुलों में गृहसामुदानिक भिक्षा के लिये भ्रमण करने लगे ॥ २२ ॥ ..इसी समय अतिमुक्तक, कुमार स्नान कर अलकारों से
अलंकृत हो बहुत से लडके लडकियों और बालक बालिकाओं (ભગવતી)નાં વર્ણન પ્રમાણે પિલાસપુર નગરના ઉચ્ચ નીચ મધ્યમ કુલેમાં ગૃહસામુદાનિક ભિક્ષાને માટે બ્રમણ કરવા લાગ્યા. (સૂ) ૨૨)
એ સમયે અતિમુકતક કુમાર સ્નાન કરી અલંકારથી વિભૂષિત થઈ ઘણા છોકરાછેકરીઓ અને બાળક બાળકીઓ તથા કુમાર-કુમારિકાઓની સાથે પિતાના ઘરથી નિકળી
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२१६
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
य कुमार हिय कुमारियाहि य' बहुभिर्दारकै दारिकाभित्र डिम्भकैश्च डिम्भकाभि कुमारकै कुमारिकाभिथ; तत्र दारकैः = बहुकालिकैः; डिम्भैः= अल्पकालिकैः कुमारः=बहुतरकालिकै: ' सद्धि' सार्द्ध 'संपरिपुढे ' सम्परितः, 'सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ' स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्क्राम्यति, ' पडिणिक्खमित्ता जेणेत्र ' प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव ' इंदाणे ' इन्द्रस्थानं = बालक्रीडास्थानं ' तेणेव उवागए' तत्रैव उपागतः, ' तेहि बहूहि दारएहि य दारियाहि य डिंभएहि य डिंभियाहि य कुमारेहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुढे अभिरममाणेर विहर' तैर्बहुभिर्दारकैश्व दारिकाभिश्च डिम्भकैश्च डिम्भकाभिश्च कुमारकैश्च कुमारिकाभिश्च सार्द्धं सम्परितः अभिरममाणः २ विहरति । ' तए णं भगवं गोयमे पोलासपुरे णयरे उच्चनीय जात्र अडमाणे ' ततः खलु भगवान् गौतमः पोलासपुरे नगरे उच्चनीच यावदटन = पोलासपुरनगरे उच्चनीचमध्यमकुलानि भिक्षार्थं परिभ्रमन् 'इंदद्वाणस्स अदरसामंतेणं वीईवयइ ' इन्द्रस्थानस्य अदूरसामन्तेन व्यतित्रजति, इन्द्रस्थानस्य = बालक्रीडास्थानस्य समीपस्थमार्गेण गच्छति । ' तए णं से अइमुत्ते कुमारे' ततः खलु सोऽतिमुक्तः कुमारी ' भगवं गोयमं भगवन्तं गौतमम् ' अदूरसामंतेणं' अदूरसामन्ते= समीपमार्गेण 'वीईवयमाणं' व्यतित्रजन्तं गच्छन्तं 'पास' पश्यति 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागए भगवं गोयमं एवं बयासी' यत्रैत्र भगवान् गौतमः तत्रैव उपागतो भगवन्तं गौतममेवमवदत् - 'के णं भंते! तुभे ?, किंवा अडह ?' के खलु हे भदन्त ! यूयम् ? किंवा अटथ = केन कारणेन भ्राम्यथ ? || मू० २३ ॥
।
एवं कुमार कुमारिकाओं के साथ अपने घर से निकल कर जहां इन्द्रस्थान - बालकों के खेलने का स्थान था वहां आये और सभी के साथ खेलने लगे । उसी समय भगवान गौतम पोलासपुर नगर के उच्चनीच मध्यम कुलों में गृहसामुदानिक भिक्षा के लिये पर्यटन करते हुए उस कुमार के इन्द्रस्थान के समीप से निकले । उसके चाद वह अतिमुक्तक कुमार भगवान गौतम को आते हुए देखकर જ્યાં ઇન્દ્રસ્થાન-બાળકાને રમવાના સ્થાન હતું ત્યાં આવ્યા અને સહુની સાથે રમવા લાગ્યા તેજ સમયમાં ભગવાન ગૌતમ પેાલાસપુર નગરના ઉચ્ચનીચ મધ્યમ કુળામાં ગૃહ સામુદાનિક ભિક્ષાને માટે પર્યટન કરતા કરતા, તે કુમારના ઈંદ્રસ્થાનની પાસેથી નીકળ્યા. ત્યારપછી તે અતિમુકતક કુમાર ભગવાન ગૌતમને આવતા જોઈને તેમની પાસે ગયા અને
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तकुमारचतिम्
॥ मूलम् ॥
तए भगवं गोयमे अइमुक्तं कुमारं एवं वयासी- अम्हे णं देवाणुपिया ! समणा णिग्गंथा इरियासमिया जाव बंभयारी उच्चनीय जाव अडामो । तए णं अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं एवं वयासी - एह णं भंते ! तुब्भे जपणं अहं तुब्भं भिक्खं दवावेमित्ति कद्दु भगवं गोयमं अंगुलीए गेues, गेव्हित्ता, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए । तए णं सा सिरी देवी भगवं गोयमं एज्जमानं पासइ, पासित्ता हट्टुतुट्टु जाव आसणाओ अभुट्ठेs, अव्भुट्टिता जेणेव भगवं गोयसे तेणेव उवागया, भगवं गोयमं तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता वंदइ णमंसइ, वंदिता णमंसित्ता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाइ जाव पडिविसज्जेइ ॥ सू० २४ ॥ ॥ टीका ॥
२१७
' तर णं' इत्यादि । ' तए णं भगवं गोयमे अइमुत्तं कुमारं एवं वयासी' ततः खलु भगवान् गौतमः अतिसुक्कं कुमारमेवमवदत् - 'अम्हे णं देवाणुपिया ! समणा णिग्गंथा इरियासमिया जाव भयारी' वयं खलु हे देवानुप्रिय ! श्रमणा निर्ग्रन्था ईर्यासमिता यावद् ब्रह्मचारिणः = वयम् इर्यासमित्यादिपञ्चसमितियुक्ता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणः 'उच्चनीय जाव अडामो' उनके पास गये और इस प्रकार बोले - हे हैं ? और किस कारण से घूम रहे हैं ? ॥
भदन्त ! आप कौन सू० २३ ॥
अतिमुक्तक कुमार का इस प्रकार प्रश्न सुनकर भगवान गौतम अतिमुक्तक कुमार से इस प्रकार बोले- हे देवानुप्रिय ! हम भ्रमण निर्ग्रन्थ हैं, हम लोग ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों से युक्त यावद् गुप्तब्रह्मचारी होते हैं । तथा हमलोग उच्चनीच मध्यम या प्रकारे मोट्या-डे महन्त ! आप अणु हो ? भने शुं अरणुश्री इरी रह्या छ। ? (सू० २३) અતિમુકતક કુમારના આ જાતના પ્રશ્ન સાંભળી ભગવાન ગૌતમે અતિમુકતક કુમારને આ પ્રમાણે કહ્યું હે દેવાનુપ્રિય! હું શ્રમણ નિન્ય છું. અમે લેકે ઇર્યાદિ પાંચ સમિતિએથી યુક્ત એવા જુસબ્રહ્મચારી છીએ તથા અમે ગોચરીને માટે ઉચ્ચ
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२१८
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
खलु अतिमुक्तः कुमारो
= आगच्छत
उच्चनीच यावदामः = भिक्षार्थमुच्चनीचमध्यमकुलेषु परिभ्रमामः । ' तए णं अमुचे कुमारे भगवं गोयमं एवं वयासी' ततः भगवन्तं गौतममेवमवादीत् - ' एह णं भंते !" एत खलु भदन्त ! खलु भदन्त ! 'तुब्भे' यूयम् ' जणं' यत्खलु 'अहं तु भिक्खं ' अहम् तुभ्यं भिक्षां 'दवावेमि' दापयामि, 'त्ति कडु' इति कृत्वा 'भगवं गोयमं अंगुलीए ' भगवन्तं गौतमम् अङ्गुल्यां = स्वहस्तेन गौतमस्याङ्गुलिं 'गेहड़' गृहाति, 'गेहिता' गृहीत्वा 'जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए' यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैत्र उपागतः । 'तए णं सा सिरी देवी' ततः खलु सा श्रीदेवी = अतिमुक्तमाता 'भगवं गोयमं एज्जमानं ' भगवन्तं गौतममेजमानम् = आगच्छन्तं 'पास' पश्यति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'हट्ट जाव आसणाओ अन्भुट्ठेई' हृष्टतुष्ट यावत् असिनादभ्युतिष्ठति, 'अटित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेत्र' अभ्युत्थाय यत्रैव भगवान् गौतमः तत्रैव 'उवागया' उपागता 'भगवं गोयमं' भगवन्तं गौतमं 'तिक्खुत्तो' त्रिकृत्वः = वारत्रयम् 'आयाहिणपयाहिणं करेइ' आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, 'करिता वंदइ णमंस ' कृत्वा वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्थित्वा 'विउलेणं असण - पाण- खाइम - साइमेणं पडिला भेइ' विपुलेन अशनपान-खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलम्भयति = मचुराशन - पान - खाद्य-स्वाद्यानि भगवते गौतमस्वामिने ददाति 'जाव पडिविसज्जेइ' यावत् प्रतिविसर्जयति ॥ सु० २४ ॥ कुलों में गोचरी के लिये जाते हैं । यह सुनकर अतिमुक्तक कुमारने भगवान गौतम से इस प्रकार कहा - हे भदन्त ! आप मेरे साथ पधारें। मैं आपको भिक्षा दिलाता हूँ । ऐसा कह कर गौतम स्वामी की अंगुली पकड़ ली और उन्हें अपने महल में ले गये । उन्हें आते देखकर श्रीदेवी रानी अत्यन्त हृष्टतुष्ट हो आसन से उठी, उठ कर जहाँ भगवान गौतम थे वहाँ आयी और भगवान गौतम को तीनचार विधिसहित वन्दन - नमस्कार किया । और फिर उच्चभाव से विपुल अशनपान खाद्यस्वाद्य चारों ही प्रकार का
નીચ મધ્યમ કુલેમાં જઇએ છીએ. આ સાંભળીને અતિમુકતક કુમારે ભગવાન ગૌતમને આમ કહ્યું - હે ભદન્ત! આપ મારી સાથે પધારે. હું આપને ભિક્ષા અપાવુ છું. એમ કહી ગૌતમસ્વામીની આંગળી પકડી લીધી અને તેમને પેાતાના મહેલમાં લઇ ગયા. તેમને આવતા જોઇને શ્રીદેવી અત્યંત હેતુષ્ટ થઇ આસનથી ઉઠીને જ્યાં ભગવાન ગૌતમ હતા
ત્યાં આવ્યાં. અને ભગવાન ગૌતમને ત્રણવાર વિધિસહિત વંદન નકાર કર્યાં. ત્યાર પછી ઉચ્ચ ભાવથી વિપુલ અશનપાન ખાદ્ય સ્વાધ ચારેય પ્રકારના આહાર તેમને વહેારાવ્યા,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तकुमारचरितम् .
॥ मूलम् ॥ तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयम एवं वयासीकर्हि णं भंते ! तुन्भे परिवसह ? तए णं भगवं गोयमे अइमुत्तं कुमारं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम धम्मायरिए धम्मोवदेसए भगवं महावीरे आइगरे जाव संपाविउकामे, इहेव पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया सिरिवणे उज्जाणे अहापडिग्गहं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तत्थ णं अम्हे परिवसामो। तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं एवं वयासी-गच्छामि णं भंते! अहं तुब्भेहिं सद्धिं समणं भगवं महावीरं पायदए। अहासुहं देवाणुप्पिया! ॥ सू० २५ ॥
॥टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं एवं वयासी' ततः खलु सोऽतिमुक्तः कुमारो भगवन्तं गौतममेवमवदत्-'कहिं गं भंते ! तुम्भे परिवसह' क्व खलु भदन्त ! कस्मिन् स्थाने हे भगवन् ! यूयं परिवसथ ? 'तए णं भगवं गोयमे अइमुत्तं कुमारं एवं वयासी' ततः खलु भगवान् गौतमोऽतिमुन कुमारमेवमवदत्-‘एवं खलु देवाणुप्पिया !' एवं खलु हे देवानुप्रिय ! 'मम धम्मायरिए धम्मोवदेसए भगवं महावीरे आइगरे जाव संपाविउकामे' मम धर्माचार्यों धर्मोपदेशको भगवान् महावीर आदिकरो आहार उनको बहराया तथा विसर्जित किया, अर्थात् भवनद्वारतक श्रीदेवी रानी पहुँचाने गई ।। सू० २४ ॥
..उसके बाद वह अतिमुक्तक कुमार भगवान गौतम से इस प्रकार बोले-हे भदन्त ! आप कहाँ रहते हैं ! गौतम स्वामी ने उनसे कहा-हे देवानुप्रिय ! मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक धर्म के અને વિસર્જન કર્યું, અર્થાત્ ભવનદ્વાર સુધી શ્રીદેવી રાણી તેમને પહુંચાડવા ગયાં (સૂ૨૪) . ત્યારપછી તે અતિમુકતક કુમારે ભગવાન ગૌતમને આ પ્રકારે કહ્યું- હે ભદન્ત! આપ કયાં રહે છે ? ગૌતમ સ્વામીએ તેને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! મારા ધર્માચાર્ય ધર્મોપદેશક ધર્મના આદિકર મેક્ષગામી ભગવાન મહાવીર પ્રભુ આ પિલાસપુર નગરની
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
.२२०
यावत् संप्राप्तुकामः, यो हि 'इहेव पोलासपुरस्स यरस्स वहिया सिरिवणे उज्जाणे अहापडिग्गहं उग्गहुँ' इहैव पोलासपुराद् नगराद् बहिः श्रीवने उद्याने यथामतिग्रहम्=यथाकल्पम् अवग्रहम् = वसतिवासार्थं वनपालस्याज्ञाम् 'उग्गिहिना' अवगृह्य= स्वीकृत्य ' संजमेणं जाव अप्पाणं भावेमाणे ' संयमेन यावदात्मानं भावयन् ' विहरइ' विहरति । ' तत्थ णं अम्हे परिवसामो ' तत्र खलु वयं परिवसामः, भगवत्समीपे वयं निवसाम इति भावः । ' तए णं से अइमुचे कुमारे भगवं गोयस एवं वयासी - गच्छामि णं भंते ! अहं तु भेहिं सद्धिं समणं भगवं महावीरं पायबंदए' ततः खलु सोऽविमुक्तः कुमारो भगवन्तं गौतममेवमवदत् - गच्छामि खलु भदन्त ! अहम् युष्माभिः सार्द्धं श्रमणं भगवन्तं महावीरं पादवन्दक:- हे भदन्त । भवद्भिः सह गत्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चरणवन्दको भवितुमहमिच्छामि । गौतमस्वामी प्राह'अहासु देवाणुपिया !' यथासुखं हे देवानुप्रिय ! इति ॥ सू० २५ ॥ ॥ मूलम् ॥
4
तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवया गोयमेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता वंदइ जाव पज्जुवासइ । तए णं भगवं गोयमे आदिकर यावत् मोक्षगामी भगवान महावीर प्रभु इस पोलासपुर नगर के बाहर श्रीवन उद्यान में यथाकल्प अवग्रह लेकर विराजते हुए तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे हैं, हम वहीं पर रहते हैं । उसके बाद अतिमुक्तक कुमारने भगवान गौतम से इस प्रकार कहा - हे भदन्त ! मैं भी आपके साथ भगवान के दर्शन के लिये चलूँ | भगवान गौतमने कहा- हे देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो वैसा करो, परन्तु धर्मकार्य में प्रमाद
मत करो || सू० २५ ॥
મહાર શ્રીવન ઉદ્યાનમાં યથાકલ્પ અવગ્રહ લઇને મિરાજે છે અને તપસયમથી આત્માને ભાવિત કરતા વિચરે છે, ત્યાં હું રહું છું. ત્યારપછી અતિમુકતક કુમારે ભગવાન ગૌતમને કહ્યું-હે ભદન્ત ! હું આપની સાથે ભગવાનનાં દર્શન માટે ચાલુ છું. ભગવાન ગૌતમે કહ્યું-હે દેવાનુપ્રિય! જેમ તમને સુખ થાય તેમ કરે, પરન્તુ ધર્મકાર્યમાં પ્રમાદ ન ४२. (सू० २५)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तकुमारचरितम् जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागए जाव पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे अइमुत्तस्स कुमारस्स धम्मकहा। तए णं से अइमुत्ते कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हटतुट्र० ज णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि। तए णं अहं देवाणुपियाणं अंतिए जाव पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया ? मा पडिबंधं करेह ॥ सू० २६ ॥
॥ टीका ॥ . 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवया गोयमेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ' ततः खलु सोऽतिमुक्तः कुमारो भगवता गौतमेन साई यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ,' श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति 'करित्ता बंदइ जाव पज्जुवासइ' कृत्वा वन्दते यावत् पर्युपास्ते । 'तए णं भगवं गोयमे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागए' ततः खलु भगवान् गौतमो यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैव उपागतो 'जाव पडिदंसेइ' यावत् प्रतिदर्शयति अहारं दर्शयति, 'पडिदंसित्ता' प्रतिदर्य असौ
तब वे अतिमुक्तक कुमार गौतमस्वामी के साथ जहाँ भगवान महावीर प्रभु थे वहाँ गये। वहाँ जाकर श्रमण भगवान महावीर को तीनबार विधिपूर्वक वन्दन नमस्कार किया और उपासना करने लगे। उस समय भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर के पास आये और आहार को दिखाया, दिखा कर आहारपानी कर लेने के बाद यावत् वे गौतमस्वामी संयम और तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उधर
ત્યારે તે અતિમુકતક કુમાર ગૌતમસ્વામીની સાથે જ્યાં ભગવાન મહાવીર પ્રભુ હતા ત્યાં ગયા. ત્યાં જઈને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ત્રણવાર વિધિપૂર્વક વંદન નમસ્કાર કર્યા અને ઉપાસના કરવા લાગ્યા. તે સમયે ભગવાન ગૌતમ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસે આવ્યા અને આહાર દેખાડી દેખાડી આહાર પણ કરી લીધા પછી યાવત્ તે ગૌતમસ્વામી સંયમ તથા તપસ્યાથી આત્માને ભાવિત કરતા વિચરવા લાગ્યા. તે બાજુ
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अन्तकृतदशाङ्गमुत्रे गौतमः 'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' संयमेन तपसाऽत्मानं भावयन् विहरति 'तए णं समणे भगवं महावीरे अइमुत्तस्स कुमारस्स' ततः खल श्रमणो भगवान महावीरोऽतिमुक्ताय कुमाराय 'धम्मकहा' धर्मकथा धर्मकथां कथितवानित्यर्थः । अतिमु कुमारमुद्दिश्य भगवता धर्मोपदेशः कृत इति भावः । 'तए णं से अइमुत्ते कुमारे' ततः खलु सोऽतिमुक्तः कुमारः 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म' अन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य 'हट्टतुट्ट०' हृष्टतुष्ट० एवमवादीत्हे भदन्त ! भवदन्तिके प्रत्रजितुमिच्छामि । 'जं णवर' यो विशेपः सोऽयम्; 'देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि' हे देवानुप्रियाः ! अम्बापितरौ आपृच्छामि 'तए णं' ततः खलु मातापित्रोरनुमतिप्राप्त्यनन्तरं खलु 'अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वयामि' अहं देवानुप्रियाणामन्तिके यावत् प्रवजामि । ' अहासुहं देवाणुप्पिया! 'यथासुखं देवानुप्रिय! हे देवानुप्रिय ! यथा ते सुखकरं तथा कुरु । अस्मिन् कार्ये 'मा पडिवंधं करेह' . मा प्रतिवन्धं कुरु= प्रमादं मा कुरु ॥ मू० २६ ॥
॥ मूलम् ॥ तए णं से अइमुत्ते कुमारे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागए जाव पवइत्तए, अइमुत्तं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-बाले सि ताव तुमं पुत्ता ! असंबुद्धेसि तुमं पुत्ता ! किपणं तुमं जाणासि धम्मं ? तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-एवं खल अहं अम्मयाओ! जं श्रमण भगवान महावीर ने अतिमुक्तक कुमार को उद्देश करके उनके योग्य धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर वे अतिमुक्तक कुमार अत्यन्त हृष्टतुष्ट हो इस प्रकार बोले-हे भदन्त ! मैं अपने मातापिता की आज्ञा लेकर आपके समीप प्रत्रजित होना चाहता हूँ। भगवानने कहा-हे देवानुप्रिय ! जो तुम्हारे लिये सुखकर हो वैसा करो, प्रमाद मत करना ॥ सू० २६ ॥ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે અતિમુકતક કુમારને ઉદ્દેશીને તેનાં યોગ્ય ધર્મકથા કહી. ધર્મકથા સાંભળીને અતિમુકતક કુમાર હતુષ્ટ થયા અને કહ્યું–હે ભદન્ત! હું મારાં માતાપિતાની આજ્ઞા લઈને આપની પાસે પ્રવ્રજિત થવા ચાહું છું. ભગવાને કહ્યું–હે દેવાનુપ્રિય! જેમ તમને સુખકર થાય તેમ કરે, પ્રમાદ ન કરે (સૂ) ૨૬)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तकुमार चरितम्
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चैव जाणामि तं चैव न जाणामि, जं चेव न जाणामि तं चैव जाणामि । तए णं तं अइमुत्तं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी कहं णं तुमं पुत्ता ! जं चैव जाणासि तं चैव न जाणासि, जं चैव न जाणासि तं चैव जाणासि ॥सू० २७॥
॥ टीका ॥
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're णं' इत्यादि । 'तर णं से अइमुत्ते कुमारे जेणेत्र अम्मापियरो तेणेव उवागए जाव पचइत्तए' ततः खलु सोऽतियुक्तः कुमारो यत्रैव अम्बा पितरौ तत्रैव उपागतो यावत्मत्रजितुम् = मातापित्रोरन्तिके समुपागत एवमत्रादीत् - यदहं हे अम्वापितरौ ! भगवतो महावीरस्य समीपे मत्रजितुमिच्छामि । इति तद्वचो निशम्य तम् 'अइमुत्तं कुमारं अस्मापियरो एवं वयासी' अतिमुक्तं कुमारम् अम्वापितरौ एवमवादिष्टाम् - 'वाले सि ताव तुमं पुत्ता !" बालोऽसि तावत्वं पुत्र ? “ असंबुद्धेसि तुमं पुत्ता ! असंबुद्धोऽसिं त्वं पुत्र ! - असंबुद्धोऽसि = अज्ञाततत्त्वोऽसि 'किंण्णं तुमं जाणासि धम्मं ' किं खलु त्वं जानासि धर्मम् ? 'तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापियरो एवं वयासी' ततः खलु सोऽतिमुक्तः कुमारोऽम्वापितरौ एवमवादीत् - ' एवं खलु अहं अम्मयाओ ! एवं खलु अहं हे अम्वातातौ ! 'जं चेत्र जाणामि तं चेत्र न जाणामि, जं चेव न जाणामि तं चेत्र जाणामि' यदेव जानामि तदेव न जानामि यदेव न जानामि तदेव जानामि = हे मातापितरौ ! अहं किं जानामि
उसके बाद वह अतिमुक्तक कुमार जहां मातापिता थे वहाँ आये और उन्होंने मातापिता से प्रव्रज्या के लिये आज्ञा माँगी, अपने पुत्र की यह बात सुनकर मातापिता को हंसी आई और इस प्रकार बोले हे पुत्र ! तुम अभी बच्चे हो, अभीतक तुमने तत्वों को नहीं जाना है । हे पुत्र ! क्या तुम धर्म के ज्ञाता हो ? यह सुनकर अतिमुक्तक कुमार ने कहा हे मातापिता ! मैं 'जो जानता हूँ उसको नहीं जानता, जिसको नहीं जानता उसको जानता ત્યારપછી તે અતિમુકતક કુમાર જ્યાં માતાપિતા હતાં ત્યાં આવ્યા અને તેમણે માતાપિતા પાસેથી પ્રવ્રજ્યા માટે આજ્ઞા માગી. પેાતાના પુત્રની આ વાત સાંભળી માતાપિતાને હસવું આવ્યું અને કહ્યું હે પુત્ર! તું હજી બાળક છે, હજી તે તત્ત્વાને જાણ્યાં નથી. હે પુત્ર! તુ શુ ધર્મ સમજે છે? આ સાંભળી અતિસુકતક કુમારે કહ્યું હું માતાપિતા ! ‘હું જે જાણું છું તે નથી જાણુતા, જે નથી જાણતા તે જાણું છું. માતાપિતા અતિમુકતક
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
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किं न जानामि इति वक्तुमसमर्थः, यतोऽहं यद् जानामि तदेव नो जानामि यन्न जानामि तदेव जानामि । 'तए णं' ततः खलु 'तं अमुत्तं कुमारं अम्मापय एवं वयासी कहं णं तुमं पुत्ता ! जं चैव जाणासि तं चैव न जाणासि, जं चैव न जाणासि तं चैव जाणासि ?' तमतिमुक्तं कुमारम् अम्बापितरौ एवमत्रादिष्टाम् - कथं खलु त्वं पुत्र ! यदेव जानासि यावत् तदेव न जानासि यदेव न जानासि तदेव जानासि ॥ सू० २७ ॥ ॥ मूलम् ॥
तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापियरो एवं वयासीजाणामि अहं अम्मताओ ! जहा जाएणं अवस्सं मरियव्वं न जाणाम अहं अम्मताओ ! काहे वा कहिं वा कहं वा केच्चिरेण वा ? न जाणामि अहं अम्मताओ ! केहिं कम्मा
यहि जीवा नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेसु उववज्जंति, जाणामि णं अम्मताओं ! जहा सएहिं कम्माययणेहिं जीवा नेरइय जाव उववति । एवं खलु अहं अम्मताओं ! जं चैव जाणामि तं चैव न जाणामि, जं चेव न जाणामि तं चैव जाणामि । इच्छामि णं अम्मताओं ! तुभेहिं अम्भणुपणाए जाव पवइत्तए । तए णं तं अइमुतं कुमारं अम्मापियरों जाहे नो संचाएंति बहूहिं आघवणाहिं जाव तं इच्छामि ते जाया एगदिवसमपि राजसिरिं पासेत्तए । तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापिउवयणमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, अभिसेओं जहा महाबलस्स निक्खमणं जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ, बहूई वासाई सामण्णपरियाओ, गुणरयणं जाव विपुले सिद्धे ॥ सू० २८ ॥
हूँ' । मातापिता अतिमुक्तक कुमार के इस प्रकार के वचन सुनकर बोले - हे पुत्र ! यह क्या कह रहे हो-जो जानता हूँ उसको नहीं जानता, जिसको नहीं जनता हूँ उसको जानता हूँ
सू० २७ ॥ કૂમારનાં આ પ્રકારનાં વચન સાંભળીને ખેલ્યાં હે પુત્ર! આ શું કહે છે કે જે જાણું છુ તે નથી જાણુતા, જે નથી જાણતા તે જાણુ છુ (સ્૦ ૨૭).
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तकुमार चरितम्
॥ टीका ॥
'तए णं' इत्यादि । ' तर णं ' ततः = मातापित्रोः प्रश्नानन्तरं खलु ' से अमुत्ते कुमारे अम्मापियरी एवं वयासी, सोऽतिमुक्तः कुमारः अम्बा - पितरौ ! एवमवादीत् - ' जाणामि अहं अम्मताओ' जानामि अहं हे अम्बातातौं ! सामान्येन, 'जहा जाएणं अत्रस्सं मरियव्वं' यथा जातेन अवश्यं मर्तव्यम् = यो जायते सोऽवश्यं म्रियते इतिः किन्तु विशेषेण 'न जाणामि अहं अम्मताओ ! ' न जानामि अहं हे अम्वातातौ ! 'काहे ' कदा = कस्मिन् काले, वा, 'कहिं' =कुत्र स्थाने वा, 'क' कथं केन प्रकारेण वा, 'केच्चिरेण ' कियचिरेण = कियता कालेन वा प्राणी मरिष्यतीति । पुनश्च 'न जाणामि अहं अम्मताओ !' न जानामि अहं हे अम्वातातौ ! ' केहिं ' कै: 'कम्माययणेहिं' कर्मायतनैः=कर्मबन्धस्थान हेतुभिः 'जीवा नेरइय-तिरिक्खजोणिय - मणुस्स - देवेसु' Satara तिर्यग्योनिक मनुष्य- देवेषु 'उववज्र्ज्जति' उपपद्यन्ते । परन्तु 'जाणामिणं' जानामि खलु 'अम्मताओ !' हे अम्बातातौ ! 'जहा सएहिं ' यथा स्वकैः 'कम्माययणेहिं' कर्मायतनैः = कर्मबन्धकारणैः 'जीवा नेरइय जाव' जीवा 'नैरयिक यावत् 'उववज्जंति' उपपद्यन्ते । हे मातापितरौ ! जानामि यदुत्पन्नस्य अवश्यमेव प्राणवियोगः, परमेतम्न जानामि कस्मिन् समये, कस्मिन् स्थाने,
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मातापिता के ऐसे वचन सुनकर अतिमुक्तक कुमार इस प्रकार बोले- हे मातापिता ! मैं इतना जानता हूँ, जिसने जन्म लिया वह अवश्य मरेगा | परन्तु यह नहीं जानता कि वह किस काल में, किस स्थान में, किस प्रकार और कितने समय के बाद मरेगा । इसी प्रकार हे मातापिता ! यह नहीं जानता कि किन कर्मों द्वारा जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवयोनि में उत्पन्न होते हैं, परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि जीव अपने ही कर्मद्वारा इन योनियों में उत्पन्न होते हैं । हे मातापिता ! मैंने इसीलिये कहा कि जिसको नहीं जानता हूँ उसको जानता हूँ, जिसको जानता हूँ
ँ
માતાપિતાનાં એવાં વચન સાંભળીને અતિમુકતક કુમારે આ પ્રમાણે કહ્યુ હે માતાપિતા ! હું એટલું જાણું છું-જેણે જન્મ લીધે તે અવશ્ય મરશે. પણ તે નથી જાણતા તે કયા કાલમાં, કયા સ્થાનમાં, કયા પ્રકારે અને કેટલા સમય પછી મરશે. તેવીજ રીતે હું માતાપિતા ! એ નથી જાણતા કે કયાં ક`દ્વારા જીવ નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવચેાનિમાં ઉત્પન્ન થાય છે, પણ એટલું અવશ્ય જાણું છું કે જીવ પેતાનાંજ ક દ્વારા એ યેનિયામાં ઉત્પન્ન થાય છે. હું માતાપિતા! મેં એટલા માટેજ કહ્યું કે જેને નથી
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे केन प्रकारेण, कियता कालेन वा एप प्राणंवियोगः प्राणिनां भवति । तथा इदमपि न जानामि केन कर्मवन्धकारणेन जीवा नरकगामिनस्तियञ्चो मनुष्या देवाश्च भवन्ति, परमेतज्जानामि यत् स्वकृतकर्मणैव एतासु योनिषु उत्पद्यन्ते इति भावः । 'एवं खलु अहं अम्मताओ !' एवं खलु अहम् हे अम्बातातौ != अस्मादेव कारणात् हे मातापितरौ ! अहं कथयामि 'जं चेव जाणामि तं चेव न जाणामि' यदेव जानामि तदेव नो जानामि, 'जं चेव न जाणामि तं
चेव जाणामि' यदेव न जानामि तदेव जानामि । 'इच्छामि णं अम्मताओं!' इच्छामि खलु हे अम्बातातौ ! 'तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए जाव पव्वइत्तए' युवाभ्यामभ्यनुज्ञातो यावत्मवजितुम्-युवाभ्यां प्राप्तानुमतिरहं भगवत्समीपे प्रवजितुमिच्छामीति । 'तए णं तं अइमुन कुमारं' ततः खलु तमतिमुक्तं कुमारम् , 'अम्मापियरो' अम्बापितरौ, 'जाहे' यदा ‘नो संचाएंति' नो शक्नुतः 'वहूहिं आघवणाहिं जाव' बहुभिराख्यापनाभिर्यावत् यदा अम्बापितरौ तमतिमुक्तं कुमारं वहुभिराख्यापनादिभिगृहे स्थापयितुं नाशक्नुताम् , तदा तौ अनिच्छयैत्र तद्वचः स्वीकृत्य एवमुक्तवन्तौ 'तं' तद् यदि ते प्रव्रज्येच्छा वर्तते तर्हि 'इच्छामो ते जाया !' इच्छावस्ते जात ! हे पुत्र ! 'एगदिवसमपि राजसिरि पासित्तए' एकदिवसमपि राज्यश्रियं द्रष्टुम् । 'तए णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापिउवयणमणुवत्तमाणे' ततः खलु सोऽतिमुक्तः कुमारोऽम्वापितृवचनमनुवर्तमानः मन्यमानः 'तुसिणीए' तुष्णीका समौनः 'संचिट्टइ' संतिष्ठते । उसको नहीं जानता हूँ । इसलिये मेरी इच्छा है कि आप दोनों की आज्ञा लेकर भगवान महावीर प्रभु के समीप प्रव्रजित होजाऊ । उसके बाद मातापिता अतिमुक्तक कुमार को अनेक प्रकार की युक्तिप्रयुक्तियों के द्वारा संयमके दृढभाव से नहीं हटा सके तब उन्होंने इस प्रकार कहा - हे पुत्र ! हम लोग एक दिन के लिये भी तुम्हारी राज्यश्री को देखना चाहते हैं अर्थात् एक दिन के लिये ही तुम राजा बनो ऐसा चाहते हैं। यह सुनकर अतिमुक्तक कुमार मौन જાણો તે જાણું છું, જે જાણું છું તેને નથી જાણતે, એથી મારી ઇચ્છા છે કે આપ બેઉની આજ્ઞા લઈને ભગવાન મહાવીર પ્રભુની પાસે પ્રત્રજિત થઈ જાઉં. ત્યારપછી માતાપિતાએ તે અતિમુક્તક કુમારને અનેક પ્રકારની યુકિતપ્રયુકિતથી સમજાવ્યા, પણ સંયમના દઢભાવથી તેને ચલિત ન કરી શક્યા. ત્યારે તેમણે કહ્યું- હે પુત્ર! અમે લાકે એક દિવસમાત્રજ તમાર રાજ્યશ્રીને જેવા ચાહીએ છીએ, અર્થાત ફકત એક દિવસ પુરતા તમે રાજા બને એમ ઈચ્છીએ છીએ. આ સાંભળી અતિમુકતક કુમાર મૌન થઈ.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अतिमुक्तकुमारचरितम्
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अनन्तरमस्य कुमारस्य 'अभिसेओ' अभिषेक : 'जहा महव्वलस्स' यथा महावलस्य = महावलदेव अतिमुक्तकुमारस्य अभिषेको ज्ञातव्यः, 'निक्खमणं जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ' निष्क्रमणं यावत् सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, महावलस्येव अस्यापि दीक्षाग्रहणं यावत् सामायिकायेकादशाङ्गाध्ययनं विज्ञेयम् । तथा तस्य ' बहूई वासाई सामण्णपरियाओ' बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायः, तथा स ' गुणरयणं जाव विपुले सिद्धे ' गुणरत्नं यावद विपुले सिद्ध:- गुणरत्ननामकं तपः कृतवान् यावद विपुले गिरौ सिद्धिं गतः ॥ भ्रू० २८ ॥
॥ इति पञ्चदशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ ॥ मूलम् ॥
उक्खेवओ सोलसमस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसीए णयरीए काममहावणे ase, तत्थ णं वाणारसीए अलक्खे णामं राया होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरs । परिसा णिग्गया । तए णं अलक्खे राया इमीसे कहाए लखट्टे समाणे हतुट्ट जहा कूणिए जाव पज्जुवास, धम्मका । तए णं से अलक्खे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए जहां उदायणे तहा णिक्खंते, णवरं जेट्ठ होगये । तब मातापिता ने उनका राज्याभिषेक महाबल के समान किया और फिर वे अतिमुक्तक कुमार भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण कर सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किये तथा बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्यायका पालन किये और गुणरत्न संवत्सर आदि तपश्चर्यायें करते हुए अन्त में वे विपुलगिरि पर सिद्ध हो गये || सू० २८ ||
॥ पन्द्रहवाँ अध्ययन समाप्त हुआ ||
ગયા. ત્યારે માતાપિતાએ તેમનો રાજ્યાભિષેક મહાખલની પેઠે કર્યાં. પછી તે અતિમુકતક કુમારે ભગવાનની પાસે દીક્ષા લીધી અને સામાયિક આદિ અગીયાર અંગે ભણ્યા તથા ઘણાં વર્ષાં સુધી શ્રામણ્યપર્યાંયનું પાલન કર્યું અને ગુણરત્ન સંવત્સર આદિ તપસ્યા કરતા થકા અંતમાં વિપુલગિરિપર સિદ્ધ થઇ ગયા. (સ્૦ ૨૮)
પંદરમું અધ્યયન સમાપ્ત થયુ
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे पुत्ते रज्जे अहिसिंचइ, एक्कारस अंगाई, बहुवासा परियाओ जाव विपुले सिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव छ?मस्स वग्गस्स अयमट्टे पण्णत्ते ॥ सू० २९ ॥
॥ टीका ॥ 'उक्खेवओ' इत्यादि । 'उक्खेवओ सोलसमस्स अज्झयणस्स' उत्क्षेपकः पोडशस्य अध्ययनस्य-पोडशस्य अध्ययनस्य प्रारम्भवाक्यं 'जइ णं भंते !' 'यदि खलु भदन्त !' इत्यादिरूपं पूर्ववदेव वोध्यम् । सुधर्मा स्वामी पाह'एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं' एवं खलु हे जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये, 'वाणारसीए णयरीए' वाराणस्यां नगयों 'काममहावणे चेइए' काममहावनं चैत्यम् आसीत् । 'तत्थ णं वाणारसीए अलक्खे णाम राया होत्था' तत्र खलु वाराणस्याम् अलक्षो नाम राजाऽऽसीत । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ' तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो यावद् विहरति । भगवद्दर्शनार्थ
____अव सोलहवाँ अध्ययन प्रारम्भ करते हैं । जिसका प्रारम्भ इस प्रकार होता है। जम्बूस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं-हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीर प्रभु के द्वारा प्ररूपित छठे वर्ग के पन्द्रहवें अध्ययन का भाव मैंने आपके मुंह से सुना। अब कृपा करके सोलहवें अध्ययन का भाव सुनाइये। सुधर्मा स्वामीने कहा-हे जम्बू ! उसकाल उस समय वाराणसी नामकी नगरी थी। उस नगरी में काममहावन नामक एक चैत्य था। उस नगरी के राजा अलक्ष्य थे। उस काल उस समयमें श्रमण भगवान महावीर प्रभु वाराणसी नगरी के काममहावन उद्यान 1 હવે સોળમા અધ્યયનનો પ્રારંભ કરીએ છીએ. જેનો પ્રારંભ આ પ્રકારે થાય છે. જંબુસ્વામી સુધર્માસ્વામીને પૂછે છે-હે ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ દ્વારા પ્રરૂપિત છઠ્ઠા વર્ગને પંદરમા અધ્યયનને ભાવ મેં આપના મુખેથી સાંભળ્યું હવે કૃપા કરીને સેળમાં અધ્યયનનો ભાવ સંભળાવે. સુધર્માસ્વામી કહે છે-હે જંબૂ! તે કાલ તે સમયે વારાણસી નામની નગરી હતી. તે નગરીમાં કામમહાવન નામે એક ચૈત્ય હતું. તે નગરીના રાજા અલક્ષ્ય હતા. તે કાલ તે સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ વારાણસી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अलक्ष्य राजचरितम्.
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'परिसा णिग्गया' परिषन्निर्गता । ' तए णं अलक्खे राया इमीसे कहाए लद्धट्टे समाणे' ततः खलु अलक्षो राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन्, 'हडतुड० ' हृष्टतुष्ट ० = हृष्टतुष्ट यावदुहृदयो 'जहा कूणिए जाव पज्जुवासर' यथा कूणिको यावत्पर्युपास्ते, ज्ञातभगवदागमनवृत्तान्तोऽलक्षो राजा हृष्टतुष्टयावद्धृदयः कूणिकवद् भगवदन्तिके गतः तं पर्युपास्ते चेति समुदितोऽर्थः । भगवता अलक्षमुद्दिश्य 'धम्मका धर्मकथा कथिता । 'तर णं से अलक्खे 'राया' ततः खलु सोऽलक्षो राजा ' समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके 'जहा उदायणे' यथा उदायनः = उदायनभूपः, 'तहा णिक्खते' तथा निष्क्रान्तः = मत्रजितः, 'णवरं' विशेषः, 'जे पुतं रज्जे अभिसिंच' ज्येष्ठं पुत्रं राज्ये अभिषिञ्चति, 'एकारस अंगाई' में पधारे । परिषद् उनके दर्शन के लिये निकली | भगवान के आनेका वृत्तान्त सुन महाराज कूणिक के समान महाराजा अलक्ष्य अत्यन्त हर्ष के साथ भगवान महावीर प्रभु के दर्शन के लिये गये । वहाँ जाकर वन्दन नमस्कार कर भगवानकी सेवा करने लगे | भगवानने धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर महाराजा अलक्ष्य के हृदय में वैराग्यभाव उत्पन्न हुआ । अनन्तर वे अलक्ष्य राजा, भगवान महावीर के समीप उदायन के समान प्रत्रजित होगये । उदायन की प्रव्रज्या से इनकी प्रव्रज्या में विशेषता इतनी ही है कि इन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देकर प्रव्रज्या ली । प्रव्रज्या लेने के बाद इन्होंने ग्यारह अंगों का નગરીના કામમહાવન ઉદ્યાનમાં પધાર્યાં. પરિષદ્ તેમનાં દર્શન માટે નીકળી. ભગવાનના આવવાના વૃત્તાન્ત સાંભળીને મહારાજ કૃણિકની પેઠે મહારાજા અલક્ષ્ય અત્યંત હર્ષની સાથે ભગવાન મહાવીર પ્રભુનાં દર્શન માટે ગયા. ત્યાં જઈને વંદનનમસ્કાર કરી ભગવાનની સેવા કરવા લાગ્યા. ભગવાને ધકથા કહી. ધર્માંકથા સાંભળીને મહારાજ અલક્ષ્યના હૃદયમાં વૈરાગ્યભાવ પ્રગટ થયા પછી તે અલક્ષ્ય રાજા, ભગવાન મહાવીરની પાસે દાયનની પેઠે પ્રત્રજિત થઇ ગયા.
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ઉદાયનની પ્રજ્યાથી એમની પ્રવ્રજયામાં વિશેષતા એટલીજ છે કે તેમણે પેાતાના જ્યેષ્ઠ પુત્રને રાજ્ય આપીને પ્રત્રજ્યા લીધી. પ્રત્રયા લીધા પછી એમણે અગીયાર
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
एकादश अङ्गानि अधीते, 'वहुवासा परियाओ' वहुवर्षाणि पर्यायः, 'जाव विपुले सिद्धे' यावद् विपुले सिद्ध: । ' एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव छट्टमस्स वग्गस्स ' एवं खलु हे जम्बू ! श्रमणेन यावत्षष्ठस्य वर्गस्य= श्रमणेन भगवता महावीरेण मोक्षं संप्राप्तेन पष्ठस्य वर्गस्य 'अयमट्ठे ' अयमर्थः=पूर्वोक्तरूपोऽर्थः ‘पण्णत्ते प्रज्ञप्तः = प्रतिपादितः ॥ ०२९ ॥ ॥ इति अलक्षनामकं पोडशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥
इति श्रीविश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलितललितकलापाऽऽलापक-मविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मायक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त -‘जैनशास्त्राचार्य ' - पदभूषित - कोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मंदिवाकर - पूज्यश्री-घासीलाल- प्रतिविरचितायाम् निकुमुदचन्द्रिकायां टीकायां षष्ठो वर्गः संपूर्णः॥ ६ ॥
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य
अध्ययन किया तथा बहुत वर्षों तक चारित्रपर्याय पाला । अन्त में विपुलगिरि पर सिद्ध होगये । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीरने छठे वर्ग के भावों को निरूपित किया है ।। सू० २९ ॥
|| सोलहवाँ अध्ययन समाप्त ॥
॥ छठा वर्ग समाप्त ॥
અંગાનું અધ્યયન કર્યું તથા ઘણાં વર્ષોં સુધી ચારિત્રપર્યાયનું પાલન કર્યું. અંતમાં વિપુલગિરિ પર સિદ્ધ થઈ ગયા.
હે જ ખૂ! આ પ્રકારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે છઠ્ઠા વર્ગના ભાવેાને નિરૂપણુ र्या छे (सू० २८)
સેાળમું અધ્યયન સમાપ્ત છઠ્ઠો વર્ગ સમાપ્ત
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, नन्दाचरितम्
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॥ अथ सप्तमो वर्गः ॥
॥ मूलम् ॥ जइ णं भंते! सत्तमस्स वगस्स उक्खेवओ जाव तेरस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
नंदा तह नंदवइ नंदोत्तर नंदसेणिया चेव ।
मरुया सुमरुया महमरुया मरुद्देवा य अट्टमा ॥ १ ॥ भद्दा य सुभद्दा य, सुजाया सुमणातिया । भूयदिन्ना य बोडवा, सेणियभजाण नामाई ॥ २॥
जइ णं भंते ! तेरस अज्झयणा पण्णत्ता, पढम्स्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटू पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, वण्णओ० । तस्स णं सेणियस्स रण्णो नंदा नामं देवी होत्था, वण्णओ० । सामी समोसढे । परिसा निग्गया । तए णं सा नंदा देवी इमीसे कहाए लखट्टा समाणी जाव हट्टतुट्टा कोटुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता जाणं जहा पउमावई जाव एक्कारस अंगाई अहिजित्ता वीसं घासाइं परियाओ जाब सिद्धा । एवं तेरस वि णंदागमेण यद्वाओ। णिक्खेवओ ॥ सू० १ ॥
॥ टीका ॥
'जइ णं भंते' इत्यादि । 'जइ णं भंते !' यदि खलु भदन्त ! - ॥ सातवाँ वर्ग ॥
हे भूदन्त ! श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृत के छठे वर्ग के भावों का जो निरूपण किया है, वह आपके मुख से सुना, अब इसके बाद सातवें वर्ग का कौनसा भाव भगवानने कहा ?
સાતમા વ
હે ભદન્ત ! શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે અન્તકૃતના છઠ્ઠા વર્ગના ભાવેાનું જે નિરૂપણ કર્યુ છે તે આપના મુખેથી સાંભળ્યું. હવે ત્યારપછી સાતમા વર્ગમાં કયા लाव लगवाने ह्या छे ?
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे इत्यादि 'सत्तमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ जाव' सप्तमस्य वर्गस्य उत्क्षेपकाप्रारम्भवाक्यं यावत् , 'तेरस अज्झयणा पण्णत्ता' त्रयोदश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानिइत्यन्तं विज्ञेयम् । 'तं जहा' तद्यथा तेषामध्ययनानां नामानि अधोनिर्दिष्टप्रकारेण बोद्धव्यानि
'नंदा तह नंदवइ नंदोत्तर नंदसेणिया चेव । मरुया सुमरुया महमरुया मरुदेवा य अट्ठमा ॥ १ ॥ भदा य सुभदा य 'सुजाया सुमणातिया । भूयदिना य वोद्धव्वा सेणियभज्जाण नामाइं ॥ २ ॥' नन्दा तथा नन्दवती नन्दोत्तरा नन्दश्रेणिका चैव । मरुता सुमस्ता महामरुता मरुदेवा च अष्टमी ॥ १ ॥ भद्रा च सुभद्रा च सुजाता सुमनातिका ।।
भूतदत्ता च बोद्धव्या श्रेणिकभार्याणां नामानि ॥ २ ॥ इति ।
जम्बूस्वामी पृच्छति-'जइ णं भंते !' यदि खल भदन्त ! अस्मिन् सप्तमे वर्ग 'तेरस अज्झयणा' त्रयोदश अध्ययनानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?' प्रथमस्य
सुधर्मा स्वामीने कहा-हे जम्बू ! भगवान ने अन्तकृत के सातवें वर्ग में तेरह अध्ययनों का निरूपण किया है, उनके नाम ये हैं(१) नन्दा (२) नन्दवती (३) नन्दोत्तरा (४) नन्दश्रेणिका (५) मरुता (६) सुमरुता (७) महामरुता (८) मरुद्देवा (९) भद्रा (१०) सुभद्रा (११) सुजाता (१२) सुमनातिका और (१३) भूतदत्ता । ये जो तेरह नाम है वे श्रेणिक महाराज की रानियों के हैं। सातवें वर्ग के अध्ययन इन्हीं के नाम के हैं।
जम्बू स्वामीने फिर पूछा-हे भदन्त ! भगवान महावीर प्रभुने सातवें वर्ग के तेरहों अध्ययनों में प्रथम अध्ययन के भाव का
સુધર્મા સ્વામીએ કહ્યું- હે જંબૂ! ભગવાને અંતકૃતના સાતમાં વર્ગમાં તેર અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેનાં નામ આ પ્રમાણે છે: (૧) નન્દા (૨) નન્દવતી (3) नन्हेत्त। (४) नन्हडि । (५) मरुता (6) सुभरता (७) महाभरता (८) भरा (6) सदा (१०) सुभद्रा (११) सुनता (१२) सुभनातिमन (13) सूतहत्ता. २॥ २ તેર નામ છે તે શ્રેણિક મહારાજની રાણીઓનાં છે. સાતમા વર્ગનાં અધ્યયન એમનાં नामना छ ?
જંબુસ્વામીએ ફરીને પૂછ્યું :- હે ભદન્તભગવાન મહાવીર પ્રભુએ સાતમાં
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, नन्दाचरितम्
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खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? सुधर्मा स्वामी माह - ' एवं खलु जंबू !' एवं खलु हे जम्बू : ! 'तेगं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'रायगिहे णयरे' राजगृहे नगरे 'गुणसिलए चेइए' गुणशिलकं चैत्यम् आसीत् । तस्मिन्नगरे 'सेणिए राया' श्रेणिक राजा प्रतिवसति स्म । 'वण्णओ' वर्णक: = राज्ञो वर्णनं पूर्ववद्विज्ञेयम् । 'तस्स णं सेणियस्स रण्णो नंदा नामं देवी होत्था' तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञो नन्दा नाम देवी आसीत् । ' बण्णओ' वर्णकः = देवीवर्णनं पूर्ववत् । तत्र नगरे 'सामी समोसढे ' स्वामी समवसृतः = भगवान् महावीरस्वामी समुपागतः । भगवद्दर्शनार्थ 'परिसा निग्गया' परिपन्निर्गता । ' तए णं सा नंदा देवी इमीसे कहाए लड्डा समाणी' ततः खलु सानन्दा देवी अस्याः कथाया लव्धार्थी सती 'जाव हट्टा' यावद् हृष्टतुष्टा = ज्ञातभगवदागमनवृत्तान्ता सती यावत्संजातहर्षप्रकर्षा 'कोडुंबिय पुरिसे' कौटुम्बिकपुरुषान 'सहावेइ' शब्दयति, 'सद्दाविचा' शब्दयित्वा 'जाणं किस प्रकार निरूपण किया है ?
सुधर्मा स्वामी ने कहा- हे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस नगर में गुणशिलक नामक चैत्य था । उस नगर के राजा श्रेणिक थे । उनकी रानी का नाम नन्दा था । किसी एक समय भगवान महावीर प्रभु उस नगरी में पधारे । परिषद् उनके दर्शन के लिये निकली | भगवान के आनेका वृत्तान्त सुनकर महारानी नन्दा ने अत्यन्त हृष्टतुष्टचित्त से अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया, और अपने धार्मिक यान को सजाकर लाने की आज्ञा दी ।
વના તેર અધ્યયનામાં પ્રથમ અધ્યયનના ભાવનું કયા પ્રકારે નિરૂપણ કર્યું છે ?
સુધર્માં સ્વામીએ કહ્યું:-હું જખ્! તે કાલ તે સમયે રાજગૃહ નામનું નગર હતું. તે નગરમાં ગુણુશિલક નામે ચૈત્ય હતું. તે નગરના રાજા શ્રેણિક હતા. તેમની રાણીનુ નામ નન્દા હતું. કાઇએક સમયે ભગવાન મહાવીર પ્રભુ તે નગરીમાં પધાર્યાં. પરિષદ તેમના દર્શન માટે નીકળી. ભગવાનના આવવાના વૃત્તાન્ત સાંભળી મહારાણી નન્દાએ અત્યંત હતુષ્ટ ચિત્તથી પાતાના કૌટુમિક પુરુષાને ખેાલાવ્યા અને પેાતાના ધાર્મિક यान (रथ) ने समय पूरी सह भाववानी भाज्ञा माथी
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे जहा पउमावई जाव एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता' यानं यथा पद्मावती यावत् एकादश अङ्गानि अधीत्य 'वीसं वासाइं परियाओ जाव सिद्धा' विंशति वर्षाणि पर्यायो यावत्सिद्धा-तदाज्ञया कौटुम्बिकपुरुपा यानं समुपस्थायन्ति, यथा पद्मावती तथैव भगवत्समीपे प्रव्रज्य एकादशाङ्गानि अधीते, विंशति वर्षाणि दीक्षापर्यायं पालयति, अन्ते पद्मावतीवत् सिद्धा । ‘एवं तेरस वि णंदागमेणं णेयव्याओ' एवं त्रयोदशापि देव्यो नन्दागमेन नेतव्याः= यथा नन्दाध्ययनं तथैव सर्वाण्यध्ययनानि विज्ञेयानि । “णिक्खेवओ' निक्षेपका= सप्तमस्य वर्गस्य समाप्तिवाक्यम् ‘एवं खलु जम्बूः ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन अन्तकृतदशानां सप्तमस्य वर्गस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः' इत्यादिरूपं विज्ञेयम् ।। मू० १ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापाऽऽलापक-मविशुद्धगद्यपधनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-व्रतिविरचितायाम् अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य
मुनिकुमुदचन्द्रिकायां टीकायां
___ सप्तमो वर्गः संपूर्णः ॥ ७ ॥ ____ महारानी नन्दा की आज्ञानुसार वे कौटुम्विक पुरुष अत्यन्त शीघ्रता से धार्मिक रथ सजित करके ले आये । महारानी नन्दा उसपर चढकर पद्मावती के समान भगवान के दर्शन करने के लिये गयी । वहा भगवान के मुख से धर्मकथा सुनकर संसारत्याग की भावना से भावित होगयी और महाराजा श्रेणिक की आज्ञा से भगवान महावीर प्रभु के समीप दीक्षा लेकर प्रवजित होगयी । तथा ग्यारह अंगोंका अध्ययन कर बीस वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला और सिद्ध होगयी ॥ १ ॥ इसी प्रकार नन्दवती आदि
મહારાણું નન્દાની આજ્ઞાનુસાર તે કૌટુંબિક પુરુષે અત્યંત શીદતાથી ધાર્મિક રથને સજિત કરીને લઈ આવ્યા. મહારાણું નન્દા તેના ઉપર ચડીને પદ્માવતીની પેઠે ભગવાનના દર્શન કરવા માટે ગઈ. ત્યાં ભગવાનના મુખથી ધર્મકથા સાંભળી સંસારત્યાગની ભાવનાથી ભાવિત થઈ ગઈ, અને મહારાજા શ્રેણિકની આજ્ઞા લઈ ભગવાન મહાવીર પ્રભુની પાસે દીક્ષા લઈ પ્રત્રજિત થઈ ગઈ. તથા અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કરી વીશ વર્ષ સુધી ચારિત્રપર્યાયનું પાલન કરી સિદ્ધ થઈ ગઈ (૧). આ પ્રકારે નન્દવતી આદિ
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- मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, अष्टमवर्गी पक्रमः
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अष्टमो वर्गः
॥ मूलम् ॥
जइ णं भंते! समणेणं जाव संपतेणं अट्टमस्स अंगस्स : अंतगडदसाणं सत्तमस्स वग्गस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, अट्टमस्स णं भंते! वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेर्ण के अटे पण्णत्ते ? | एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपतेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठमस्स वग्गस्स दस : अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा - काली सुकाली महाकाली कवहा • सुकण्हा महाकण्हा वीरकण्हा य बोद्धवा रामकण्हा सहेव य । f पिउसे कण्हा नवमी, दसमी महासेणकण्हा य ॥ १ ॥ जड़ पणं भंते! अट्टमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते!- अज्झयणस्स. समणेणं जाव संपतेणं के अडे पण्णते ? ॥ सू० १ ॥
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'॥ टीका' ॥
'जणं भंते ' इत्यादि । 'जइ णं ते! समणेणं जाव संपतेणं अट्टमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं सत्तमस्स अंगस्स अयम पण्णत्ते' यदि खलु ● अध्ययनों को जानना चाहिये ।। सू० १३ ॥
हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृतदशा के सातवें वर्ग के भाव को इस प्रकार निरूपण किया है ।। ॥ सातवाँ वर्ग समाप्त ॥ ॥ आठवाँ वर्ग
जम्बूस्वामीने पूछा- हे भदन्त ! श्रमण भगवान महावीर अध्ययनाने लगुवां लेभेो (13)
હું જ બૂ ! શ્રમણુ ભગવાન મહાંવીરે મૃતકૃતદશાના સાતમા વર્ગના ભાવને એ प्रमाणे. निश्च यु छे. (सू० १)
सात वर्ग सभाप्त. साठभी वर्ग
स्वाभीमे पूछयु-डे लहन्तं ! श्रभ्णु भगवान भडोवीरे "अन्तङ्कृतदृशा
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"-- : अन्तकृतदशासूत्रे भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानां सप्तमस्य वर्गस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः, पुनः ‘अट्ठमस्स णं भंते ! वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? ' अष्टमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य अन्तकृतदशानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? इति जम्बूस्वामिनः प्रश्नः, अनन्तरं सुधर्मास्वामी प्राह -' एवं खलु जंवू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठमस्स वग्गस दस अज्झयणा पण्णत्ता' एवं खलु हे जम्बूः ? श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन अष्टमस्य अङ्गस्य अन्तकृतदशानाम् अष्टमस्य वर्गस्य दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि,
'तं जहा-काली मुकाली महाकाली कण्हा सुकण्हा महाकण्हा वीरकण्हा तहेव य । पिउसेणकण्हा नवमी, दसमी महासेणकण्हा य ॥ १ ॥
तद्यथा-काली सुकाली महाकाली कृष्णा सुकृष्णा महाकृष्णा वीरकृष्णा च बोद्धव्या रामकृष्णा तथैव च । पितृसेनकृष्णा नवमी दशमी महासेनकृष्णा च ॥ १ ॥ इति ।
अस्मिन् वगै कालीप्रभृतीनि दश अध्यययनानि विज्ञेयानि । 'जइ णं भंते ! अट्ठमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, ने अन्तकृतदशा-नामक आठवें अंग के सातवें वर्ग में जो कहा उसे मैंने आपके मुखसे सुना, अब इसके बाद भगवान ने अन्तकृतदशा के आठवें वर्ग में किन भावों कहा है ?
सुधर्मा स्वामीने कहा-हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृतदशा के आठवें वर्ग में दस अध्ययनों का निरूपण किया है। उनके नाम ये हैं-(१) काली (२) सुकाली (३) महाकाली (४) कृष्णा (५) सुकृष्णा (६) महाकृष्णा (७) वीरकृष्णा (८) रामकृष्णा (९) पितृसेनकृष्णा और (१०) महासेनकृष्णा ।
जम्बूस्वामीने फिर पूछा-हे भदन्त ! भगवान महावीर प्रभु નામના આઠમા અંગના સાતમા વર્ગમાં જે કહ્યું તે મેં આપના મુખેથી સાંભળ્યું. હવે ત્યારપછી ભગવાને અન્નકૃતદશાના આઠમા વર્ગમાં કયા ભાવને કહ્યા છે ? .....
સુધર્મ સ્વામીએ કહ્યું- હે જંબુ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે અન્નકૃતદશના આઠમા વર્ગમાં દશ અધ્યયનનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેમના નામે આ પ્રમાણે છે-(૧) seी (२) सुदी (3) el (४) ! (५) सु ! (6) भाgug (७) वी२४० (८) राभा (6) पितृसेन भने (१०) महासेनकृष्णा.
જંબુસ્વામીએ ફરીથી પૂછ્યું- ભદન્ત! ભગવાન મહાવીર પ્રભુએ આઠમાં
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कालीचरितम् पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पणते ?' यदि खलु भदन्त ! अष्टमस्य वर्गस्य दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्यः खलु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत् संपाप्नेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ?॥ भू० १ ॥
एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था, पुष्णभद्दे चेइए। तत्थ णं चंपाए णयरीए कोगिए राया, वण्णओ०। तत्थ णं चंपाए णयरीए सेणियस्स रणो भज्जा, कोणियस्स रणो चुल्लमाउया काली नाम देवी होत्था, वण्णओ० । जहा नंदा जाव सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहि चउत्थछट्ठट्ठमेहि जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरइ ॥ सू० २ ॥
॥टीका॥ 'एवं खलु' इत्यादि । ‘एवं खलु जंबू ? तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णाम णयरी होत्था, पुण्णभदे चेइए' एवं खलु हे जम्बूः ! तम्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत् , तस्यां नगर्या पूर्णभद्रं चैत्यमासीत् । 'तत्थ णं चंपाए णयरीए कोणिए राया' तत्र खलु चम्पायां नगर्या कोणिको राजा आसीत्, ‘वण्णओ' वर्णका-कोणिकराजवर्णनमन्यत्रोक्तराजवर्णनवद विज्ञेयम् । 'तत्थ णं चंपाए णयरीए सेणियस्स रण्णो भज्जा, कोणियस्स रण्णो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था' तत्र खलु चम्पायां नगर्या श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कूणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता = लघुमातेत्यर्थः; ने आठवें वर्ग के दस अध्ययनों में प्रथम अध्ययन के भावका निरूपण किस प्रकार किया है ? ॥ सू० १ ॥
.: सुधर्मा स्वामी ने कहा-हे जम्बू ! उस काल उस समय में चम्पा नामकी नगरी थी। उस नगरी में पूर्णभद्र नामक उद्यान था। उस चम्पानगरी का राजा कूणिक था । उस चम्पानगरी में महाराजा श्रेणिक की भार्या और राजा कूणिक की लघुमाता વર્ગના દશ અધ્યયનમાં પ્રથમ અધ્યયનના ભાવનું નિરૂપણ કયા પ્રકારે કર્યું છે? (સૂ૦૧)
સુધમ સ્વામીએ કહ્યું- હે જંબૂ! તે કાલ તે સમયે ચમ્પા નામે નગરી હતી. તે નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામનું ઉદ્યાન હતું. તે ચમ્પાનગરીને રાજા કૃણિક હતું. તે ચંપા નગરીમાં મહારાજ શ્રેણિકની ભાર્યા તથા રાજા કૃણિકની લઘુમતાં કાલીદેવી હતી. તે
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7 अन्तकृतदशास्त्रे काली नाम देवी आसीत् , 'वण्णओ' वर्णकः, अस्या वर्णनमन्यदेवीवद् विज्ञेयम् । 'जहा नंदा जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस' अंगाई अहिज्जइ' : यथा नन्दा यावत् सामायिकादीनि: एकादश अङ्गानि अधीते यथा नन्दा तथैवेयमपि ज्ञातभगवदागमनवृत्तान्ता भगवत्समीपे गत्वा धर्म श्रुत्वा धर्मश्रवणसंजातवैराग्या भगवत्समीपे प्रजिता । अनन्तरं सामायिकादीनि एकादश अङ्गानि अधीतवती । तथा च 'बहहिं चउत्थछट्टमेहिं जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरइ' बहुभिश्वतुर्थषष्ठाष्टमर्यावदात्मानं भावयन्ती विहरति ॥ मू०. २ ॥
॥ मूलम्॥ तए णं सा काली अजा अप्रणया कयाइं जेणेव अज्जचंदणा अजा- तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता एवं वयासीइच्छामि 'णं - अजाओ! . तुब्भेहि अब्भणुण्णाया समाणी रयणावलि तवं उवसंपजित्ता.णं, विहरित्तए । अहासुहं देवाणुपिया ! मा. पडिबंधं करेह । तए णं : ‘सा : काली · अज्जा अजचंदणाए : अब्भणुपणाया समाणी . रयणालितवोकम्म उवसंपज्जित्ता. णं विहरइ ॥ सू०३::॥.
| टीका ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं सा काली अजा अण्णया कयाई जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता एवं वयासी' ततः खलु सा- काली आर्या ,अन्यदा कदाचिद् यत्रैव ।आर्यचन्दना आर्या तत्रैव उपागता, कालीदेवी. थी । वह कालीदेवी नन्दा के समान भगवान महावीर : प्रभु के समीप में प्रव्रजित हो सामायिक आदि ग्यारहः अंगों का अध्ययन करने लगी और बहुत सी चतुर्थ-षष्ठ-अष्टमादि तपस्या से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी ।। सू०२२ ॥ ,
एक दिन वह काली आर्या आर्थचन्दनबाला आर्या के समीप गयी और हाथ जोड वन्दन कर विनय के साथ इस • કાલીદેવી નન્દાની પેઠે ભગવાન મહાવીર પ્રભુની પાસે પ્રજિત થઈ સામાયિક આદિ અગીયાર, અંગેનું અધ્યયન કરવા લાગી અને ઘણું ચતુર્થ ષષ્ઠ અષ્ટમભક્ત આદિ तपस्याथी मामाने मावित. ४२ती वियरवा दाणा (सू०. २) ।
એક દિવસ તે કાલી આર્ય આર્યચન્દનબાલા આની પાસે ગઈ અને હાથ જડી, વંદન નમસ્કાર, કરી વિનયપૂર્વક આ પ્રકારે બલી-હે મહાભાગા! આપની આજ્ઞા
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका कालीचरितम्
२३९ उपागत्य एवमवदत्-'इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्भेहिं अभणुण्णाया समाणी रयणावलिं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए' इच्छामि खलु हे आर्याः । युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती रत्नावली तपा-रत्नावलीनामकं तप उपसंपद्य विहम्। चन्दनवालाऽऽर्या प्राह-'अहामुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह' यथासुखं हे देवानुपिये ! मा प्रतिबन्धं कुरुष्व । 'तए णं सा काली अज्जा अज्जचंदणाए अभणुण्णाया समाणी रयणावलितवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ' ततः खलु सा काली आर्याऽऽर्यचन्दनयाऽभ्यनुज्ञाता सती रत्नावलीतप:कर्मापसंपद्य खलु विहरति ॥ मू० ३॥
॥ मूलम् ॥ - तं जहा - चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारे। पारिता छद्रं करेइ, करिता सबकामयुणियं पारेइ, पारिता अट्ठमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टछटाई करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता छठं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करि । सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता प्रकार बोली - हे महाभागा ! आपकी आज्ञा लेकर रत्नावली तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करती हुई विचरना चाहती हूँ। तव आर्या चन्दनबाला ने उत्तर दिया-हे देवानुप्रिये ! जो तुम्हारे लिये सुखकर हो सो करो, किसी भी प्रकार का प्रमाद मत करो। आर्या चन्दनबाला की आज्ञा पाकर काली आर्या रत्नावली तपस्या करती हुई विचरने लगी ॥ सू० ३ ॥ લઈને રત્નાવલી તપસ્યા દ્વારા આત્માને ભાવિત કરતી થકી વિચરવા ચાહું છું ત્યારે આર્યા ચન્દનબાળાએ ઉત્તર આપે – હે દેવાનુપ્રિયે! જેમ તમને સુખ થાય તેમ કરો, કોઈ પ્રકારે પ્રમાદ ન કરે. આર્યા ચંદનબાળાની આજ્ઞા મેળવીને કાલી આર્યા રત્નાવલી તપસ્યા કરતી થકી વિચારવા લાગી (સૂ૦ ૩) "
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे सोलसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अटारसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता वीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता वावीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउवीसइमं करेइ, करित्ता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता छवीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्ठावीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता तीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता वत्तीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चोत्तीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणिय पारेइ, पारिता चोत्तीसं छटाई करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चोत्तीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता वत्तीसइमं करेड़, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता तीसं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अट्ठावीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता छवीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चउवीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता वावीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता वीसइमं करेइ, · करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अद्वारसमं करेइ, करिता
सबकामगुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारित्ता वारसमं करेइ, करित्ता सबकानगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कालीचरितम्
२४१ छठं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अटुछटाई करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्रसं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता छर्ट करेइ, करित्ता सबकासगुणियं पारेइ, पारित्ता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ । एवं खलु एसा रयणावलीए तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी, एगेणं संवच्छरेणं तिहिं मासेहिं बावीसाए य अहोरत्तेहिं अहासुत्तं जाव आराहिया भवद ॥ सू०४॥
॥ टीका ॥ ....'तं जहा' इत्यादि । तं जहा' तद्यथा-रत्नावलीतपःप्रकारमाह'चउत्थं करेई' चतुर्थं करोति, 'करित्ता' कृत्वा, 'सबकामगुणिय' सर्वकामगुणितं-सर्वे च ते कामगुणाः सर्वकामगुणा: अमिलापविषयीभूता दधिदुग्धघृततैलमधुरलक्षणा रसाः, ते संजाता यत्र तत्तथा 'पारेइ' पारयति-दधिदुग्धादिना पारणां करोतित्यर्थः, 'पारिता छठं करेइ' पारयित्वा पष्टं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्ठमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्टछटाई करेइ' पारयित्वा अष्टपष्ठानि करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छर्ट करेइ. पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्ठमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, ‘करित्ता
वह रत्नावली तप उन्होंने इस प्रकार किया, पहले काली आर्याने उपवास किया और पारणा किया। पारणा करके वेला किया। पारणा करके तेला किया। पारणा करके आठ वेले किये। पारणा करके उपवास किया। पारणा करके वेला किया। पारणा
તે રત્નાવલી તપ તેમણે આ પ્રકારે કર્ય—પહેલાં કાલી આર્યાએ ઉપવાસ કર્યો અને પારણું કર્યું. પારણું કરી છઠ કર્યો, પારણું કરી અઠેમ કર્યો. પારણું કરી આઠ છઠ - કર્યા. પારણું કરી ઉપવાસ કર્યો. પારણું. કરી છઠે કર્યો. પારણું કરી અઠમ કર્યો. આવી
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अन्तकृतदशासूत्रे सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणियं पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दुवालसमं करेइ पारयित्वा द्वादशं करोति. 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता' पारयित्वा 'चोदसमं करेइ' चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिना सोलसमं करेइ' पारयित्वा पोडश करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'सव्यकामगुणियं पारेइ' सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठारसमं करेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता वीसइमं करेइ' पारयित्वा विंशतितमं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता' पारयित्वा 'वावीसइमं करेइ' द्वाविंशतितमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउवीसइमं करेइ' पारयित्वा चतुर्विंशतितमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता छव्वीसइमं करेइ' पारयित्वा पड्विंशतितमं करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'सव्वकामगुणियं पारेइ, सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठावीसइमं करेइ' पारयित्वा अष्टाविंशतितमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता तीसइमं करेइ' पारयित्वा त्रिंशत्तमं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता वत्तीसइमं करेइ' पारयित्वा द्वात्रिंशत्तमं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चोत्तीसइमं करेइ पारयित्वा चतुस्त्रिंशत्तमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणित पारयति, ‘पारित्ता चोत्तीसं छटाई करेइ' पारयित्वा चतुस्त्रिंशत्पष्ठानि करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति' पारित्ता करके तेला किया, यो अन्तररहित चोला किया, पाच किये, छह किये, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह चौदह, पन्द्रह, सोलह किये। फिर चौंतीस वेले किये। पारणा करके सोलह दिन की तपश्चर्या की। पारणा करके पन्द्रह दिनकी की तपश्चर्या की। शते मत२२त या२ ४ा, पांय ४ा, ७ ४ा, सात, मा, नव, इस, माया२, બાર, તેર, ચૌદ પંદર, સેળ કર્યા. પછી ચૈત્રીસ છઠ કર્યા. પારણું કરી સેળ દિવસની તપશ્ચર્યા કરી. પારણું કરી પંદર દિવસની તપશ્ચર્યા કરી એવી રીતે ચૌદ, તેર, બાર,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कालीचरितम्
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बत्तीसइम करेइ' पारयित्वा द्वात्रिंशत्तमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता तीसइमं करेइ पारयित्वा त्रिंशत्तमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड' कृत्वा सर्वकामगुणित पारयति, 'पारिता अट्ठावीसइमं करेइ' पारयित्वा अष्टाविंशतितमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता छन्त्रीसsi करेइ' पारयित्वा पविंशतितमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं 'पारेह' 'कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चडवीसहमं करेड' पारयित्वा चतुर्विंशतितमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता वावीसह करेइ' पारयित्वा द्वाविंशतितमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता बीसइमं करेइ ' पारयित्वा विंशतितमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारे' कृत्वा सर्वकामगुणियं पारयति, 'पारिता अहारसमं करेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिना' पारयित्वा 'सोलसमं करेइ' षोडशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चोदसमं करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता वारसमं करेई' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं करेइ पारयित्वा दशमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्टम करेई' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं 'पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'परित्ता छ करेई' पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेs' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थी करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अछट्टाई करेइ' पारयित्वा इस प्रकार क्रमसे पारणा करती हुई चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दस, नौ, आठ, सात, छ, पाँच, चार, तीन, दो, और एक उपवास किये । पारणा करके फिर आठ वेले किये । पारणा करके तेला किया। पारणा करके बेला किया। पारणा करके उपवास किया, रमणीयार, हश, नव, आई, सात, छ, यांग यार, त्र, मे भने : उपवास પારણું કરી આઠે છઠે કર્યાં, પારણુ કરી અઠમ કર્યાં, પારણુ કરી ઉપવાસ કર્યાં, પછી
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• अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे अष्टपष्ठानि करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छद्रं करेइ' पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करिता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामंगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, ‘एवं खलु एसा रयणावलीए तबोकम्मस्स पढमा परिवाडी' एवं खलु एपा रत्नावल्यास्तपःकर्मणः प्रथमा परिपाटी='लडी'-इति भापापसिद्धा, 'एगेणं , संवच्छरेणं तिहिं मासेहि वावीसाए य अहोरत्तेहिं अहामुत्तं जाव आराहिया भवइ' एकेन संवत्सरेण त्रिभिर्मासैः द्वाविंशत्याहोरात्रैर्यथासूत्रं यावदाराधिता भवति । एपा रत्नावल्याः प्रथमा परिपाटी द्वाविंशत्यहोरात्रसहितमासत्रयानुगतेनैकेन वर्पण मूत्रोक्तानुसारेण समाराधिता भवति ॥ मू० ४ ॥
॥ मूलम् ॥ तयाणंतरं च णं दोच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेइ, करित्ता विगइवजं पारेइ, पारिता छई करेइ, करित्ता विगइवज्जं पारेइ, पारिता, एवं जहा पढमाए वि, णवरं सवपारणए विगइवज्ज पारेइ जाव आराहिया भवइ । तयाणंतरं च णं तच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेइ, करित्ता अलेवाडं पारेइ, सेसं तहेव । फिर पारणा किया। इस प्रकार उन्होंने 'रत्नावली तप' की एक परिपाटी (लडी) की आराधना की। रत्नावली की यह एक परिपाटी (लडी) एक वर्ष तीन महिना बाईस अहोरात्र में पूर्ण होती है।
इस एक परिपाटी में तीन सौ चौरासी दिन तपस्या के और • अठासी दिन पारणा के होते हैं, इस प्रकार सब चार सौ बहत्तर दिन होते हैं ॥ सू० ४ ॥ પારણું કર્યું. એ પ્રકારે તેમણે “રત્નાવલી તપની એક પરિપાટી (લડી)ની આરાધના કરી. રત્નાવલીની આ એક પરિપાટી (લડી) એક વર્ષ ત્રણ માસ અને બાવીસ રાત્રિદિવસમાં પૂર્ણ થાય છે. આવી એક પરિપાટીમાં ત્રણ ચેર્યાસી દિવસ તપસ્યાના અને અઠયાસી દિવસ પારણના થાય છે. એ પ્રકારે બધા મળીને ચારસે બઉતેર हिवस थाय छे. (सू०.४:)
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कालीचरितम्
२४५ एवं चउत्था परिवाडी, नवरं सव्वपारणए आयंबिलं पारेइ, सेसं तंचेव।
पढमम्मि सव्वकामपारणयं बिइयए विगइवजं । तइयंमि अलेवाडं, आयंबिलओ चउत्थम्मि॥
तए णं सा काली अजा रयणावलीतवोकम्मं पंचहिं सवच्छरेहिं दोहि . य मासेहि, अट्ठावीसाए य दिवसेहिं अहासुत्तं जाव आराहेत्ता, जेणेव अज्जचंदणा अजा तेणेव उवागया, उवागच्छित्ता अजचंदणं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता बहूहि चउत्थछट्टहमदसमदुवालसेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणी विहरइ ॥ सू० ५॥
॥ टीका ॥ 'तयाणंतरं' इत्यादि । 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरं च खलु -प्रथमपरिपाटीसमाप्त्यनन्तरमित्यर्थः, 'दोचाए परिवाडीए चउत्थं करेइ, करित्ता विगइवजं पारेइ, पारित्ता छटुं करेइ, करित्ता विगइवज्जं पारेइ' द्वितीयस्यां परिपाट्यां चतुर्थ करोति, कृत्वा विकृतिवर्जे पारयति, पारयित्वा षष्ठं करोति कृत्वा
तदनन्तर उस काली आर्या ने 'रत्नावली-तपस्या की दूसरी परिपाटी (लडी) प्रारम्भ की। उन्होंने पहले उपवास किया। उपवास के पारणे में विगय-दूध, दही, घी, तेल, मीठा इन पाच वस्तुओं का लेना एकदम बन्द कर दिया। इस प्रकार उपवास' का पारणा कर उनने वेला किया। पारणा में विगय छोड दिया। इसी तरह तेला किया। पारणा करके आठ वेले किये। पारणा करके उपवास किया। वेला किया, तेला किया, यो सोलह उपवास तक किये। फिर चौतीस बेले किये । पारणा करके सोलह किये। फिर
ત્યારપછી તે કાલી આર્યાએ “રત્નાવલી-તપસ્યાની બીજી પરિપાટી (લડી) ને પ્રારંભ કર્યો. તેમણે પહેલાં ઉપવાસ કર્યો. ઉપવાસના પારણામાં વિષય-દૂધ, દહીં, ઘી, તેલ અને મિષ્ટાન્ન એ પાંચ વસ્તુઓનું લેવું એકદમ બંધ કરી દીધું. એ પ્રકારે ઉપવાસ પારણું કરી તેમણે છઠ કર્યું. પારણામાં વિગય છેડી દીધું. તેજ રીતે અઠમ કર્યો. પારણું કરીને આઠ છઠ કર્યા. પારાનું કરી ઉપવાસ કર્યો, છઠ કર્યો, અઠમ કર્યો, मेम सो वास सुधी ४ा. पछी यात्रीस .७४ ४ा. पाणु ४शन सण ४ा.
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अन्तकृत दशासूत्रे
विकृतिवर्ज पारयति, 'पारिता' पारयित्वा 'एवं जहा पढमाए वि' एवं यथा प्रथमायामपि वरं सव्वपारणए बिगड़वज्जं पारे 'नवरं सर्वपारणायां विकृतिवर्ज पारयति= द्वितीयपरिपाट्यामपि प्रथमपरिपाटीवदेव सर्व करोति, विशेषस्तु द्वितीयस्यां परिपाट्यां विकृतिवर्जी पारणां करोति, 'जाव आराहिया भवड़ यावद् द्वितीया परिपाटी आराधिता भवति । 'तयाणंतरं च णं तदनन्तरं द्वितीय परिपाट्यनन्तरं च खलु 'तचाए परिवाडीए चउत्थं करेड़' तृतीयायां परिषाट्यां चतुर्थ करोति, 'करिता अलेवार्ड पारे' कृत्वा अलेपकृतं पारयति = विकृतिले परहितं पारयति, पारणके विकृतेर्लेपमात्रमपि वर्जयतीत्यर्थः । 'सेसं तहेव' शेषं तथैव । ' एवं चउत्था परिवाडी' एवं चतुर्थ्यपि परिपाटी, 'नवरं ' विशेषस्वयं यत् 'सव्वपारणए आयंबिलं पारे ' सर्वपारणके आचामाम्लं पारयति = सर्वेषु पारणादिवसेषु आचामाम्लं करोतीत्यर्थः, ' सेसं तं चैव शेषं तदेव = अवशिष्टं पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् । अत्र गाथा ।
'पढमम्मि सव्वकामपारणयं, विड़यए विगड़वजं । तइयम्मि अलेवार्ड, आयंबिलओ चउत्थम्मि ॥ ' प्रथमायां सर्वकामपारणकं, द्वितीयायां विकृतिवर्जम् । तृतीयायामले पकृतम्, आचामाम्लं च चतुर्थ्याम् ॥ इति ।
पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दस, नौ, आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो और एक उपवास किया । पारणा करके आठ वेले किये । पारणा करके तेला किया, वेला किया और उपवास किया। सभी पारणों में विगय छोड दिया । जिस प्रकार प्रथम परिपाटी की, उसी प्रकार दूसरी परिपाटी भी की। परन्तु इसमें सभी विगयवर्जित पारणे किये। इसी प्रकार तीसरी लडी पूरी की, इसमें पारणे के दिन विगय का लेप मात्र भी छोड दिया । चौथी लडी भी इसी प्रकार से की; परन्तु इसके पारणे में आम्बिल पछी पंधर, औौह, तेर, जार, भगीयार, हरा, नत्र, आई, सात, छ, पांय, यार, બે અને એક ઉપવાસ કર્યાં. પારણું કરીને આઠ છઠે કર્યાં. પારણું કરીને અઠમ કર્યાં, છઠે કર્યાં અને ઉપવાસ કર્યાં. અંધાં પારણામાં વિગય છેડી દીધો. જે પ્રકારે પ્રથમ પરિપાટી' કરી તેજ પ્રકારે બીજી પરિપાટી પણ કરી. પરન્તુ આમાં સ–વિંગય–વર્જિત પારણાં કર્યાં. એજ રીતે ત્રીજી પરિપાટી પૂર્ણ કરી, એમાં પારણાંને દિવસે વિગયને લેપમાત્ર પણ છોડી દીધા. ચેથી પરિપાટી પણ એજ પ્રકારે કરી, પરંતુ તેના
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कालीचरितम्
२४७ सा काली आर्या परिपाटीचतुष्टयसहितं रत्नावलीनामकं तपः कृतवतीत्यर्थः। 'तए णं सा काली अज्जा' ततः खलु सा काली आर्या 'रयणावलीतवोकम्म' रत्नावलीतपःकर्म- चतुःपरिपाटीयुक्तं रत्नावलीनामकं तपः, 'पंचहिं संवच्छरेहिं दोहि य मासेहिं' पञ्चभिः संवत्सरैभ्यां च मासाभ्याम् 'अट्ठावीसाए य दिवसेहि' अष्टाविंशत्या च दिवसैः, 'अहामुत्तं जाव आराहित्ता' यथासूत्रं यावदाराध्य-मूत्रानुसारेण यावदाराधनां कृत्वा 'जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागया' यत्रैव आर्यचन्दना आर्या तत्रैव उपागता, 'उवागच्छिता अजचंदणं वंदइ णमंसइ' उपागत्य आर्यचन्दनां वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा 'वहूहिं चउत्थछट्टमदसमदुवालसेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावमाणी विहरइ' बहुभिश्चतुर्थपढाष्टमदशमद्वादशभिस्तपःकर्मभिरात्मानं भावयन्ती विहरति ॥ मू० ५॥
॥ मूलम् ॥ तए णं सा काली अजा तेणं ओरालेणं जाव धमणिसंतया जाया यावि होत्था, से जहा इंगालसगडी वा जाव सुयहुयासणे इव भासरासिपलिच्छण्णा, तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव उवसोभेमाणी चिट्टइ ॥ सू० ६॥
॥ टीका ॥ - 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं सा काली अजा तेणं ओरालेणं जाव धमणिसंतया जाया यावि होत्था' ततः खलु सा काली आर्या तेन उदारेण किया। इस प्रकार काली आर्या रत्नावली की चारों परिपाटी को पाँच वर्ष छह मास और अट्ठावीस दिन में समाप्त कर जहाँ चन्दनबाला आर्या थी, वहाँ गयी और उन्हें वन्दन नमस्कार किया। बाद' में बहुत सी चतुर्थभक्त आदि तपस्याओं से आत्मा को भावित करती हुई 'विचरने लगी ॥ सू० ५ ॥
उसके बाद उस काली आर्या का शरीर इस प्रकार की પારણામાં આંબિલ કર્યા. આ પ્રકારે કાલી આર્યા રત્નાવલીની ચારેય પરિપાટી પાંચ વર્ષ છ માસ અને અઠ્ઠાવીશ દિવસમાં સમાપ્ત કરી જ્યાં ચંદનબાલા આર્યા હતી ત્યાં ગઈ અને તેમને વંદન નમસ્કાર કર્યા પછી ઘણાં ચતુર્થભકત આદિ તપસ્યાઓથી આત્માને ભાવિત કરતી વિચરવા લાગી. (સૂ૦ ૫)
ત્યારપછી તે કાલી આર્યાનું શરીર આ પ્રકારની પ્રધાન તપસ્યા કરવાથી એકદમ
रत्नावली क्रममाप्त कर जारी किया
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२४८
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
यावद् धमनिसंतता जाता चाऽऽप्यभवत्=महोग्रेण तेन रत्नावलीतपःकर्मणा सा काली आर्या शुष्कमांसशोणिततया शिरासंलक्षिताङ्गोपाङ्गाऽभवत् , 'तं जहा' तद्यथा 'इंगालसगडी वा' अङ्गारशकटी वा, अङ्गाराः='कोयला' इति प्रसिद्धाः, तैर्भूना शकटी गन्त्री अङ्गारशकटी तद्वत् 'जाव सुहुयहुयासणे इव' यावत्सुहुतहुताशन इव, 'भासरासिपलिच्छण्णा' भस्मराशिप्रतिच्छन्ना, यथा अङ्गारशकटिका शुष्कपत्रशकटिका एरण्डकाष्ठशकटिका गमनकाले 'किट्किट' शब्दं करोति, तथैव अस्याः काल्या आर्यायाः शरीरम् उत्थानादिक्रियायामस्थिसंघर्षवशात् 'किटकिट' शब्दं करोति, पुनः सा काली आर्या भस्मसमूहान्तहितो घृतादितर्पितवह्निरिव 'तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव उवसोभेमाणी चिटई तपसा तेजसा तपस्तेजःश्रिया च अतीव उपशोभमाना तिष्ठति ॥ सू० ६ ॥
तए णं तीसे कालीए अज्जाए अण्णया कयाई पुवरत्तावरत्तकाले अयमज्झस्थिए जहा खंदयस्स चिंता जाव प्रधान तपस्या करने से प्रायः मांस और लोही (खून) से रहित होगया। उनके शरीर की धमनिया प्रत्यक्ष दिखाई दे रही थीं। वह सूखकर अस्थिपंजरमात्र से अवशिष्ट होगयी थी। उठतेबैठते चलते-फिरते उसके शरीर की हड्डियों से कड-कड आवाज होती थी, जिस प्रकार सूखे काष्ठ, सूखे पत्ते या कोयले से भरी हुई चलती गाडीसे आवाज होती है। यद्यपि काली आर्या का शरीर मांस-लोही के सूख जाने के कारण रूक्ष होगया था, तथापि भस्म से आच्छादित अग्नि के समान तपतेज की शोभा से अत्यन्त शोभित होरहा था ॥ सू० ६ ॥ લેહી-માંસ વગરનું થઈ ગયું. તેમના શરીરની ધમનિઓ (ના) પ્રત્યક્ષ દેખાતી હતી. તેમનું શરીર સૂકાઈને માત્ર હાડકાનું પાંજરું બાકી રહી ગયું હતું. ઉઠતાં, બેસતાં, ચાલતાં, ફરતાં તેમના શરીરનાં હાડકાંને કડ-કડ અવાજ થતો હતો. તે અવાજ સૂકો લાકડાં, સૂકા પાંદડાં અથવા કેયલાથી ભરેલી ગાડી ચાલતી હોય ત્યારે જેમ અવાજ થાય તે હતે. જો કે કાલી આર્યાનું શરીર લેહી માંસ સુકાઈ જવાથી (
દુલ) રૂક્ષ થઈ ગયું હતું, છતાં ભમથી ઢંકાએલ અગ્નિની પેઠે તપના તેજની શોભાથી અત્યંત शाली रहुं तु. (सू० ६.):
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कालीचरितम्
२४९ अस्थि उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे सद्धा धिई संवेगे वा ताव मे सेयं कल्लं जाव जलंते अज्जचंदणं अजं आपुच्छित्ता अज्जचंदणाए अज्जाए अब्मणुन्नायाए समाणीए संलेहणाझूसणाझुसियाए भत्तपाणपडियाइक्खियाए कालं अणवकंखमाणीए. विहरेत्तएत्ति कटु एवं संहिता कल्लं जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जचंदणं अज्जं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी-इच्छामि णं अज्जाओ तुब्भेहि अब्भणुण्णायाए समाणीए संलेहणा जाव विहरेत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह । तओ काली अज्जा अज्जचंदणाए अब्भणुण्णाया समाणी संलेहणाझूसणाझूसिया जाव विहरइ । सा काली अज्जा अज्जचंदणाए अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुन्नाई अट्ठ संवच्छराई सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झसेत्ता सट्रि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता जस्सहाए कीरइ नग्गभावे जाव चरिमुस्सासनीसासेहिं सिद्धा ॥ सू० ७॥ [कालीणामं पढमज्झयणं समतं]
॥टीका ॥ . .. 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तीसे कालीए अजाए अण्णया कयाई ततः खलु तस्याः काल्या आर्याया अन्यदा कदाचित् 'पुबरत्तावरत्ताकाले' पूर्वरात्रापररात्रकाले-रात्रेः पश्चिमे भागे 'अयमज्झथिए' अयमाध्यात्मिको वक्ष्यमाणपकारक आत्मिकसंकल्पः संजातः, 'जहा खंदयस्स' यथा स्कन्दकस्य स्कन्दकऋषिवत् , 'चिंता' चिन्ता-चिन्तन; चिन्तास्वरूपमाह-'जाव अत्थि
तदनन्तर उन काली आर्या के हृदय में एकदिन पीछली रात को खन्दक के समान इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ कि मेरा
પછી તે કાલી આર્યાના હદયમાં એક દિવસ પાછલી રાત્રે નંદકની પેઠે એ વિચાર ઉત્પન્ન થયે કે-મારું શરીર તપસ્યાને કારણથી અત્યંત સૂકાઈ ગયું છે, છતાં
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे उट्टा कम्मे वले वीरिए पुरिसकारपरक मे सद्धा धिई संवेगे' यावदस्ति उत्थानं कर्म वलं वीर्ये पुरुषकारपराक्रमः श्रद्धा धृतिः संवेगः=यावत्कालपर्यन्तं मयि उत्थानादिशक्तिरस्तीति भावः, 'ताव मे सेयं' तावन्मे श्रेयः = तावदेव ममैतदुचितं यत् 'कलं जाव जलते' कल्ये यावज्ज्वलति = आगामिनि दिवसे यावज्ज्वलति = सूर्योदये सति 'अज्जचंदणं अज्जं आपुच्छिता' आर्यचन्दनामार्यामापृच्छ्य, 'अज्जचंदणाए अज्जाए अन्भुणुन्नायाए समाणीए संलेहणाझसणाझूसियाए' आर्यचन्दनया आर्यया अभ्यनुझातायाः सत्याः संलेखनाजोषणाजुष्टायाः 'भत्तपाणपडियाइक्विइयाए कालं अणवकखमाणीए विहरेत्तए' भक्तपानप्रत्याख्यातायाः कालमनत्रकाङ्क्षन्त्या विहर्त्तुम्, 'त्ति कटु' इति कृत्वा 'एवं संपेहेइ ' एवं संप्रेक्षते-उक्तरूपेण विचारयति, 'संपेडित्ता' संप्रेक्ष्य = विचार्य 'कल्लं' कल्ये द्वितीयदिवसे 'जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागच्छ' यत्रैवार्यचन्दनाऽऽर्या तत्रैव उपागच्छति, 'उनागच्छित्ता अजचंदणं अज्जं बंदर णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी' उपागत्याऽऽर्यचन्दनामार्यौ वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवदत् - 'इच्छामि णं अज्जाओ ! तुन्भेहिं अब्भणुष्णाए समाणीए संलेहणा जाव विहरेत्तए' इच्छामि खलु हे आर्याः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती संलेखना यावद् विहत्तुम् । आर्यचन्दनाय प्राह - 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! शरीर तपस्या के कारण अत्यन्त कृश होगया, तो भी मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पौरुष, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग आदि विद्यमान है । इसलिये मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही आर्यचन्दनबाला आर्या को पूछकर उनकी आज्ञा से संलेखना - जोषणा को सेवित करती हुई, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर, मृत्यु को न चाहती हुई विचरण करूँ । ऐसा विचार कर सूर्योदय होते ही आर्यचन्द्रनवाला आर्या के समीप आयी और वन्दन - नमस्कार कर हाथ जोड़ इस प्रकार बोली- हे आयें ! आपकी आज्ञा प्राप्त कर 1. संलेखना आदि करती हुई विचरना चाहती हूँ ! आर्यचन्दनवाला भाराभां उत्थान, अर्भ', जस, वीर्य, पौष, पराम, श्रद्धा, धृति मने संवेग माहि વિદ્યમાન છે. તેથી મારે માટે એ ઉચિત છે કે કાલે સૂર્યોદય થતાંજ આ ચંદનખાળા આર્યાંને પૂછીને તેમની આજ્ઞાથી સલેખના જોષણાનું સેવન કરતી, ભકતપાનનું પ્રત્યાખ્યાન કરી, મૃત્યુની ચાહના વગર વિચરણ કરૂં. એવા વિચાર કરી સૂર્યદિય થતાંજ આ ચન્દનમાળા આર્યાની પાસે આવી અને વંદન-નમસ્કાર કરી હાથ જોડી આ પ્રકારે ખેલી-હૈ આયે ! આપની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને સલેખના આદિ કરતી થકી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कालीचरितम्
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मा पडिवधं करेह' यथासुखं हे देवानुमिये ! मा प्रतिबन्धं कुरु । ' तओ काली अज्जा अज्जचंदणाए अन्भणुष्णाया समाणी' ततः काली आर्या आर्यचन्दनया अभ्यनुज्ञाता सती = आज्ञप्ता सती, 'संलेहणासणासिया जाव विहरह' संलेखनाजोषणा जुष्टा यावद् विहरति । 'सा काली अज्जा अज्जचंदणाए अंतिए' सा काली आर्या आर्यचन्दनाया अन्तिके ' सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजित्ता वहुपडि पुन्नाई अट संच्छराई' सामायिकादीनि एकादश अङ्गानि अधीत्य बहुप्रतिपूर्णान् अष्ट संवत्सरान् 'सामण्णपरियागं पाउणित्ता' श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा 'मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेत्ता' मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा 'सहि भत्ताई अणसणाएं छेदेत्ता जस्साए कीर' पष्टि भक्तानि अनशनया छित्त्वा यस्यार्थाय क्रियते ' नग्गभावे' नग्नभावः = ननभाव इति स्वविकल्पित्वं, 'जाब चरिमुस्सासणीसासेहिं सिद्धा' यावच्चरमोच्छ्वासनि:श्वासैः सिद्धा ॥ स्रु० ७ ॥
[ कालीनामकं प्रथममध्ययनं संपूर्णम् ]
आर्या ने इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रिये ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो | आर्यचन्दनबाला आर्या से आज्ञा पायी हुई वह काली आर्या अपने पूर्वोक्त विचार के अनुसार विचरने लगी । काली आर्याने आर्यचन्दनवाला आर्या के समीप सामायिकादिक ग्यारह अंगों का अध्ययन कर पूरे आठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया । अन्त में मासिक संलेखना से आत्मा को सेवित कर साठ भक्तों को अनशन से छेदित कर जिसलिये संयम ग्रहण किया उस अर्थ को अपने अन्तिम उच्छ्वास - निःश्वासों के द्वारा प्राप्त कर सिद्ध होगयी || सू० ७ ॥
[ प्रथम अध्ययन समाप्त ]
વિચરણુ કરવા ચાહું છું. આ ચંદનબાળા આય્યએ આ પ્રકારે કહ્યું-હુ દેવાનુપ્રિયે ! જેમ તમને સુખ થાય તેમ કરી. આ ચંદનબાળા આર્યાની આજ્ઞા મેળવી તે કાલી આર્યાં પેાતાના પૂવેકિત વિચાર પ્રમાણે વિચરવા લાગી. કાલી આર્યએ આ ચંદનખાળા આર્યાં પાસે સામાયિકાકિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કરી પૂરાં આઠ વર્ષ સુધી શ્રામણ્યપર્યાયનું પાલન કર્યું. અંતમાં માસિક સલેમનાથી આત્માને સેવિત કરી સાઠ ભકતાને અનશનથી છેદિત કરી જે માટે સચમ ગ્રહણ કર્યાં હતા તે અને પેાતાના અંતિમ ઉચ્છ્વાસનિ:શ્વાસા દ્વારા પ્રાપ્ત કરી સિદ્ધ થઇ ગઇ. (સ્૦ ૭)
[ प्रथम अध्ययन समाप्त ]
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
॥ सूलम् ॥ raar atree अज्झयणस्स । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी, पुण्णभद्दे चेइए, कोणि राया । तत्थ णं सेणियस्स रण्णो भज्जा कोणियस्स रण्णो माउया सुकाली नामं देवी होत्था । जहा काली हा सुकाली वणिक्खता जाव बहूहिं चउत्थ जाव अप्पाणं भावेाणी विहरs । तए णं सा सुकाली अज्जा अण्णया कयाई जेणेव अज्जचंदणा अजा जाव इच्छामि णं अजाओ ! तुम्भेहिं अब्भुणुष्णाया समाणी कणगावलीतवोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरित । एवं जहा रयणावली तहा कणगावलीवि, णवरं तिसु ठाणेसु अट्टमाई करेइ, जहा रयणावलीए छट्टाई, एक्काए परिवाडीए संवच्छरो पंच मासा अट्ठारस दिवसा, सेसं तहेव । नव वासा परियाओ जाव सिद्धा ॥ सू० ८ ॥ [ सुकालीणामं बीयमज्झयणं समत्तं ]
॥ टीका ॥
'उक्खेवओ' इत्यादि । 'उक्खेवओ वीयस्स अज्झयणस्स' उत्क्षेपको द्वितीयस्य अध्ययनस्य, उत्क्षेपकः = प्रारम्भवाक्यं, 'यदि खलु भदन्त !" [द्वितीय अध्ययन]
द्वितीय अध्ययन का आरम्भ करते हैं- जम्बू स्वामीने सुधर्मा स्वामी से पूछा - हे भदन्त ! भगवान महावीर के द्वारा प्ररूपित अन्तकृत के आठवें वर्ग के प्रथम अध्ययन का भाव मैंने आपके मुख से सुना, अब इसके बाद भगवानने द्वितीय अध्ययन में किस भावका निरूपण किया है ?
[ द्वितीय अध्ययन ]
દ્વિતીય અધ્યયનના પ્રારંભ કરીએ છીએ. જંબૂ સ્વામીએ સુધર્માં સ્વામીને પૂછ્યુંભદન્ત ! ભગવાન મહાવીર દ્વારા પ્રરૂપિત અન્તકૃતના આર્ટમા વર્ગના પ્રથમ અધ્યયનના ભાવ મેં આપના મુખથી સાંભળ્યેા. હવે તે પછી ભગવાને દ્વિતીય અધ્યયનમાં કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે?
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुकालीचरितम्
२५३ इत्यादि बोध्यम् । सुधर्मा स्वामी प्राह- 'एवं खलु - जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णाम णयरी, पुण्णभदें चेइए, कोणिए राया' एवं खलु हे जम्बूः! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी, तत्र पूर्णभद्रं चैत्यं, कूणिको राजाऽऽसीत् । 'तत्थ णं सेणियस्स रण्णो भज्जा' तत्र खलु श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या 'कोणियस्स रण्णो चुल्लमाउया कोणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता, क्षुल्लमातालघुमाता; 'सुकाली नामं देवी होत्था' सुकाली नाम देवी आसीत् । 'जहा काली तहा सुकाली वि णिक्वंता' यथा काली तथा सुकाल्यपि निष्क्रान्ता कालीवत् सुकाली देव्यपि परिव्रजिता 'जाव वहूहि चउत्थ जाव' यावद् वहुभिश्चतुर्थं यावत् = चतुर्थभक्तादिभिः 'अप्पाणं भावेमाणी विहरइ' आत्मानं भावयन्ती विहरति । 'तए णं सा सुकाली अजा' ततः खलु सा सुकाली आर्या 'अण्णया कयाइं जेणेव अजचंदणा अजा जाव' अन्यदा कदाचिद् यत्रैव आर्यचन्दना आर्या यावत् = यत्र आर्यचन्दनाऽऽर्याऽऽसीत् तत्र गत्वा तामवदत-'इच्छामि णं अजाओ!' इच्छामि खलु हे आर्याः ! 'तुब्भेहिं अभगुण्णाया समाणी कणगावलीतवोकम्मं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए' युष्माभिर- सुधर्मा स्वामीने कहा-हे जम्बू ! उस काल उस समय में चम्पा नामकी नगरी थी। उसमें पूर्णभद्र नालक चैत्य था। उस नगरी के राजा कोणिक थे। वहा पर राजा श्रेणिक की मायाँ एवं राजा कूणिक की छोटी माता सुकाली नामकी देवी (रानी) थी। जिस प्रकार काली देवी प्रवजित हुई, उसी प्रकार सुकाली देवी भी प्रव्रजित हुई और बहुत सी चतुर्थभक्त आदि तपस्या करती हुई विचरने लगी।
उसके बाद एक समय सुकाली आर्या जहाँ आर्यचन्दनवाला आर्या थी वहाँ गयी और वन्दन नमस्कार कर हाथ जोड इस · प्रकार बोली-हे महाभागा! आपकी आज्ञा प्राप्त कर कनकावली
સુધમાં સ્વામીએ કહ્યું - હે જંબૂ! તે કાલ તે સમયે ચમ્પા નામે નગરી હતી, તેમાં પૂર્ણભદ્ર નામનું ચૈત્ય હતું. તે નગરીના રાજા કેણિક હતા. ત્યાં રાજા શ્રેણિકની ભાર્યા અને રાજા કૃણિકની નાની માતા સુકાલી નામની દેવી (રાણી) હતી. જેમ કાલી દેવી પ્રવ્રજિત થઈ તેજ પ્રકારે સુકલી દેવી પણ પ્રવ્રજિત થઈ, અને ચતુર્થભક્ત આદિ ઘણાં પ્રકારની તપસ્યા કરતી વિચરવા લાગી. - ત્યારપછી એક સમય સુકાલી આર્યા જ્યાં આર્યચંદનબાળ આય હતી ત્યાં | ગઈ, અને વંદન નમસ્કાર કરી હાથ જોડી બેલી – હે મહાભાગા ! આપની આજ્ઞા પ્રાપ્ત
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२५४
अन्तकृतदशासूत्रे
भ्यनुज्ञाता सती कनकावलीतपःकर्म उपसंपद्य विहर्तुम् | 'एवं जहा रयणावली वहा कणगावली वि' एवं यथा रत्नावली तथा कनकावल्यपि = रत्नावलीतपःसदृशं कनकावलीतपोऽपि विज्ञेयम् । रत्नावलीतः 'णवरं' अयं विशेष:, यत कनकावल्यां 'ति ठाणेसु' त्रिपु स्थानेषु 'अट्टमाई करेई' अनुमानि करोति, 'जहा रयणावलीए छट्टाई' यथा रत्नावल्यां पष्ठानि = यथा रत्नावलीतपसि पठानि क्रियन्ते तथैवाऽत्राष्टमानीति भावः । 'एकाए परिवाडीए संवच्छरो पंच मासा अहारस दिवसा' एकस्यां परिपाट्यां संवत्सरः पञ्च मासाः अष्टादश दिवसाः । ' सेसं तहेव' शेषं तथैव = उक्तादन्यत्सर्वं रत्नावलीतपोवद् विज्ञेयम् | 'नव वासा परियाओ जाव सिद्धो' नव वर्षाणि पर्यायो यावत् सिद्धा = अस्याः सुकाल्या आर्यांया दीक्षापर्यायो नव वर्षाणि, अनन्तरं कालीवदेव सिद्धिं गता || सु० ८ ॥
[ सुकालीनामकं द्वितीयमध्ययनं सम्पूर्णम् ]
तपस्या करती हुई विचरना चाहती हूँ । उत्तर में उन्होंने कहाजैसे तुम्हें सुख हो वैसे करो । तदनन्तर उन सुकाली आर्याने जिस प्रकार काली आर्या ने 'रत्नावली' तपस्या की आराधना की थी उसी प्रकार 'कनकावली' तपस्या की आराधना की । रत्नावली से कनकावली में विशेषता यह है कि जहाँ रत्नावली में बेला किया जाता है वहाँ कनकावली में तेला किया जाता है। एक परिपाटी में एक वर्ष पाँच मास अठारह दिन लगते हैं । अवशिष्ट प्रथम अध्ययन के समान जानना । इनका चारित्रपर्याय नौ वर्ष का था और उसके बाद उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया || सू० ८ ॥ [ द्वितीय अध्ययन समाप्त ]
કરી કનકાવલી તપસ્યા કરતી વિચરવા ચાહુ છું. જવાબમાં તેમણે કહ્યું-જેમ તમને સુખકર પ્રતીત થાય (લાગે) તેમ કરેા. પછી તે સુકાલી આ†એ જેવી રીતે કાલી આર્યાએ ‘રત્નાવલી' તપસ્યાની આરાધના કરી હતી તેજ રીતે કનકાવલી' તપસ્યાની આરાધના કરી. રત્નાવલીથી કનકાવલીમાં વિશેષતા એ છે કે જ્યાં રત્નાવલીમાં છડે કરાય છે ત્યાં કનકાવલીમાં અટ્ટમ કરાય છે. એક પરિપાટીમાં એક વર્ષે પાંચ માસ અઢાર દિવસ લાગે છે. ખાકીનું પ્રથમ અધ્યયનના પ્રમાણેજ જાણવું. એમનું ચારિત્રપર્યાય નવ વર્ષના હતા, અને ત્યારપછી તેમણે મેક્ષ પ્રાપ્ત કર્યાં (સ્૦ ૮)
[ द्वितीय अध्ययन समाप्त ]
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मुंनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महाकालीचरितम्.
॥ मूलम् ॥.. . - एवं महाकाली वि; णवरं खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा-चउत्थं करेइ करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता छठं करेइ करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामयुणियं पारेइ, पारिता अहमं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता छद्रं करेइ, करित्ता सव्वकागगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करिता सव्वकामयुणियं पारेइ, पारिता अटलं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता चउद्दसं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता बारसमं करेइ, करित्ता सबकामगुयियं पारेइ, पारित्ता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामणियं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अटारसमं करेइ, करिता सबकामयुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता वीसइमं करेइ, करित्ता सबकामयुणियं पारेइ, पारिता अट्रारसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता वीसइमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता अटारसमं करेइ, करित्ता सबकामणिगुयं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ,करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता. बारसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
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चोदसमं करे, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारित्ता वारसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता छ करेइ, करित्ता सवकामगुणियं पारेड़, पारिता अट्टमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता उत्थं करे, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता छहं करेs, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करे, करिता naaraaणयं पारेइ, पारिता तहेव चत्तारि परिवाडीओ, एक्काए परिवाडीए छम्मासा सत्त य दिवसा, चउन्हं दो वरिसा अट्ठावीसा य दिवसा जाव सिद्धा ।
[ महाकालीणामं तइयं अज्झयणं समत्तं ]
एवं कण्हावि, णवरं महालयं सोहणिक्कीलियं तवकम्मं जहेव खुड्डागं, णवरं चोत्तीसइमं जाव णेयव्वं, तहेव ऊसारेयव्वं, एक्काए वरिसं छम्मासा अहारस य दिवसा, चउन्हं छ वरिसा दो मासा बारस य अहोरता, सेसं जहा कालीए जाव सिद्धा ॥ ४ ॥ सू० ९ ॥
[ कण्हाणामं चउत्थं अज्झयणं समत्तं ] ॥ टीका ॥
"
एवं ' इत्यादि । ' एवं महाकाली वि' एवं महाकाल्यपि = यथा सुकाली प्रवजिता तथैव महाकाल्यपि प्रत्रजिता । अनन्तरं सुकालीवदेव एषाऽपि
अब तीसरा अध्ययन कहते हैं -
जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा - हे भदन्त ! भगवान महावीर प्रभु के द्वारा प्ररूपित अन्तकृतनामक आठवें अंग के
હવે ત્રીજું અધ્યયન કહીએ છીએ :–
જ ખૂસ્વામીએ સુધર્મા સ્વામીને પૂછ્યું- ભદ્રંન્ત ! ભગવાન મહાવીર પ્રભુ દ્વારા પ્રરૂપિત
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महाकालीचरितम्
२५७ आर्यचन्दनामापृच्छ्य, तदाज्ञया तपः करोति ‘णवरं' पूर्वस्मादयं विशेषो यद् महाकाली 'खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्म उवसंपजित्ताणं विहरइ' क्षुल्लकं सिंहनिष्क्रीडितं तपःकर्म उपसम्पद्य विहरति । क्षुल्लकसिंहनिष्क्रीडिततपःप्रकारमाह-'तं जहा' तद्यथा-'चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' चतुर्थ करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छटं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छटुं करेइ' पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा दशमं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठमं करेइ, करित्ता संव्यकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दसमं द्वितीय अध्ययन संबन्धी भावों को आपके मुख से सुना, अब उसके बाद भगवान महावीर के द्वारा प्ररूपित तृतीय अध्ययन के भावों को सुनना चाहता हूं। सुधर्मा स्वामीने कहा - हे जम्बू ! इस वर्ग के तृतीय अध्ययन में महाकाली देवी के चरित का वर्णन है। यह राजा श्रेणिक की पत्नी एवं कूणिक की छोटी माता थीं। इन्होंने भी सुकाली के समान दीक्षा धारण की और 'लघुसिंहनिष्क्रीडित' नामक तप किया। वह इस प्रकार - सर्व प्रथम उपवास किया। पारणा करके बेला किया। पारणा करके उपवास किया। पारणा करके तेला किया, यों वेला, चौला, तेला, चौला, पचौला, અંતકૃત નામના અઠમા અંગના દ્વિતીય અધ્યયન સંબંધી ભાનું આપના મુખેથી . શ્રવણ કર્યું, હવે ત્યારપછી ભગવાન મહાવીર દ્વારા પ્રરૂપિત તૃતીય અધ્યયનના ભાવેને સાંભળવાની મારી ઈચ્છા છે. સુધર્મા સ્વામીએ કહ્યું- હે જંબૂ! આ વર્ગને ત્રીજા અધ્યયનમાં મહાકાલી દેવીના ચરિતનું વર્ણન છે. એ રાજા શ્રેણિકની પત્ની અને કૃણિકની નાની માતા હતી. તેમણે પણ સુકાલીની પેઠેજ દીક્ષા ધારણ કરી અને લઘુસિહનિષ્ક્રીડિત” નામનું તપ કર્યું. તે આ પ્રકારે – સર્વથી પહેલાં ઉપવાસ કર્યો, પારણું કરીને છઠું કર્યું, પારણું કરી ઉપવાસ કર્યો, પારણું કરી અટ્ટમ કર્યું, એમ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पायति, 'पारित्ता चउदसूमं करेइ, करित्ता मनकामगुणियं पारेई' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता वारसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ पारयित्वा द्वादशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता सोलसमं करेइ, करित्ता सधकामगुणिय पारेइ पारयित्वा पोडशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चोदसम करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अहारसमं करेइ, करिता सम्बकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता सोलसमं करेइ, करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता वीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा विशतितमं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्ठारसमं करेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता वीसइमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा विंशतितमं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठारसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ पारयित्वा अष्टादशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणियं पारयति, 'पारित्ता चउद्दसमं करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ पारयित्वा पोडशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता वारसमं करेइ, करिता सबकामगुणिय पारेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चोदसमं करेइ, करिता सबकामगुणिय पारेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता वारसमं करेइ, करिता सव्यकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता छ, पाच, सात, छ, आठ, सात, नौ, आठ, नौ, सात, आठ, छ, सात, पाँच, छ, चौला, पचौला, तेला, चौला, वेला, तेला, उपवास, छ, योता, मम पयासा, यौला, छ, पाय, सात, छ, माठ, सात, नव, माठ, नव, सात, माd, छ, सात, पाय, छ, यीला, पयासा, 8भ, श्रोता, छ, मठभ, Buवास,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महाकालीचरितम्
२५९ अट्ठमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणिय पारेइ' पायित्वा दशमं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छठं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्टमं करेइ पारयित्वा अष्टमं करोति, ‘करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता छठं करेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करिता सव्यकामगुणियं पारेई' कृत्वा, सर्वकामगुणितं पारयति, ‘पारिता' पारयित्वा, 'तहेव चत्तारि परिवाडीओ' तथव चतस्त्रः परिपाट्यः, यथा प्रथमा परिपाटी, तथव अन्या अपि तिस्रो बोद्धव्याः, 'एकाए परिवाडीए' एकस्यां परिपाट्यां कालः 'छम्मासा सत्त य दिवसा' षण्मासाः सप्त च दिवसा भवन्ति । 'चउण्हं' चतसृणां परिपाटीनां काल: 'दो वरिसा अट्ठावीसा य दिवसा' द्वे वर्षे अष्टाविंशतिश्च दिवसा भवन्ति, 'जाव सिद्धा' यावत् सिद्धा-चतुःपरिपाट्यनन्तरम् आर्यचन्दनार्याज्ञया संलेखनादिकं कृत्वा सिद्धिं गता।
[महाकालीनामकं तृतीयमध्ययनं समासम्] वेला और उपवास किया। इस प्रकार लघुसिंहनिष्क्रीडित तपकी एक परिपाटी की। जिसमें तेतीस दिन तो पारणे किये और पूरे पाँच महीने एवं चार दिन की तपस्या हुई। यों चार परिपाटी इलने की। जिसमें दो वर्ष अट्ठाईस दिन लगे।
इस प्रकार लघुसिंहनिष्क्रीडित तप की उन महाकाली आर्या ने सूत्रोक्त विधि से आराधना की। तत्पश्चात् फिर भी उन आर्याजी ने फुटकर कई तपस्यायें की। अन्तिम समय में सन्थारा करके कर्मों का सम्पूर्ण नाश होजाने पर वे मोक्ष में पहुंची। છઠ અને ઉપવાસ કર્યા. આ પ્રકારે “લઘુસિહનિષ્ક્રીડિત તપની એક પરિપાટી કરી. જેમાં તેત્રીસ દિવસ તો પારણા કર્યા અને પૂરા પાંચ મહિના અને ચાર દિવસની તપસ્યા થઈ. એવી ચાર પરિપાટી એમણે કરી જેમાં બે વર્ષ અઠ્ઠાવીસ દિવસ લાગ્યા.
આ પ્રકારે લઘુસિંહનિષ્ક્રીડિત તપની તે મહાકાલી આર્યાએ સૂત્રોકતવિધિથી આરાધના કરી. ત્યારપછી ફરી પણ તે આર્યાજીએ પરચુરણ કેટલીક તપસ્યા કરી. અંત સમયમાં સંથારે કરીને કમેને સંપૂર્ણ નાશ થઈ જતાં તે મેક્ષમાં પહોંચી.
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अन्तकृतदशाङ्गमत्रे ___ 'एवं कण्डा वि' एवं कृष्णापि-पूर्ववदेव कृष्णापि परिव्रजिता, 'णवरं' अयं विशेपः; एपा 'महालयं सीहणिकी लियं तवोकम्म' महत् सिंहनिष्क्रीडितं तपःकर्म करोति; 'जहेव खुड्डागं' यथैव क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडितं तथैवेदमपि बोध्यम् , 'णवरं' अयं विशेपः; 'चोत्तीसइमं जाव णेयव्वं' चतुस्त्रिंशं यावन्नेतव्यम्, 'तहेव' तथैव 'ऊसारेयव्वं' उत्सारयितव्यं पश्चानुपूर्व्याऽवतारयितव्यम् । अत्र महासिंहनिष्क्रीडिते तपाकर्मणि चतुर्थादारभ्य क्रमेण चतुस्त्रिंशं यावद्
इसी प्रकार कृष्णा का भी चरित जानना चाहिये । यह महाराजा श्रेणिक की पत्नी एवं महाराजा कूणिक की छोटी माता थी।
इन्होंने भी भगवान के समीप दीक्षा ली और आर्य चन्दनवाला आर्या के समीप आकर हाथ जोड इस प्रकार बोली- हे आर्य ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर 'महासिंहनिष्क्रीडित तप' करना चाहती हूँ। चन्दनवाला आर्या ने कहा-जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो, किसी प्रकार का प्रमाद मत करना। इसके बाद वह कृष्णा आर्या 'महासिंहनिष्क्रीडित तप' उसी प्रकार करने लगी, जिस प्रकार महाकाली आर्या ने 'लघुसिंहनिष्क्रीडित' तपस्या की थी। इन्होंने 'महासिंहनिष्क्रीडित तप' इस प्रकार किया, सर्व प्रथम उपवास किया। पारणा करके बेला किया। पारणा करके उपवास किया। : यों तेला किया। बेला, चौला, तेला, पचोला, चौला, छ, पाच, सात, छ, आठ, सात, नौ, आठ, दस, नौ, ग्यारह, दस, वारह, ग्यारह,
આ પ્રકારે કૃણાનું પણ ચરિત જાણવું જોઈએ. એ મહારાજા શ્રેણિકની પત્ની અને મહારાજા કૃણિકની નાની માતા હતી. તેમણે પણ ભગવાનની પાસે દીક્ષા લીધી અને આર્ય ચંદનબાલા આર્યાની પાસે આવીને હાથ જોડી આ પ્રકારે બેલી – હે આર્યું! હું આપની આજ્ઞા મેળવીને “મહાસિહનિષ્ક્રીડિત તપ” કરવા ચાહું છું. ચંદનબાળા આર્યાએ કહ્યું – જેવી તમારી ઇચ્છા હોય તેમ કરે, કઈ પ્રકારે પ્રમાદ ન કરશે. - ત્યારપછી તે કૃષ્ણ આર્યા “મહાસિંહનિષ્ક્રીડિત તપ” તેજ પ્રકારે કરવા લાગી કે જે પ્રકારે મહાકાલી આર્યાએ “લઘુસિહનિષ્ક્રીડિત તપસ્યા કરી હતી. એમણે ‘મહાસિંહનિષ્ક્રીડિત તપ” આ પ્રકારે કર્યું. સર્વ પહેલાં ઉપવાસ કર્યો. પારણું કરીને ७४ ४यु, पाराशुं ४ वास यो. मेवा Na मम . छ, यौसा, मभ, पयोता, योal, छ, पाय, सात, छ, माd, सात, नव, मा8, श, नव, माया२, ६१, मार, २ilया२, २, मार, योह, ते२, ५४२, यौह, सण, ५४२, सण, यो, ५६२,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, कृष्णाचरितम्
२६१ गन्तव्यम् , पुनः पश्चानुपूर्ध्या ततश्चतुर्थे आगत्य पारणीयमिति भावः । अस्य तपसः एकस्या पारिपाट्याः कालः 'वरिसं छम्मासा अट्ठारस य अहोरत्ता' वर्षे षण्मासा अष्टादश च अहोरात्राणि, वर्षम्-एकवर्षम् ; 'चउण्हं' चतसृणां परिपाटीनां कालः 'छ वरिसा दो मासा बारस य अहोरत्ता' षड्वर्षाणि द्वौ मासौ द्वादश च दिवसाः। 'सेस'. शेषम् अवशिष्टं 'जहा कालीए जाच सिद्धा' यथा काल्या यावत् सिद्धा। अस्याः कृष्णाया आर्याया वर्णनं कालीवर्णनवदेव विज्ञेयम् । यथा सा सिद्धा तथैवेयमपि ॥ मू० ९ ॥
[कृष्णानामकं चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ] तेरह, बारह, चौदह, तेरह, पन्द्रह, चौदह, सोलह, पन्द्रह, सोलह, चौदह, पन्द्रह, तेरह, चौदह, बारह, तेरह, ग्यारह, बारह, दस, ग्यारह, नौ, दस, आठ, नौ, सात, आठ, छ, सात, पाच, छ, चौला, पाच, तेला, चौला, बेला, तेला, उपवास, वेला, और फिर पारणा करके उपवास किया। इस प्रकार एक परिपाटी की। जिसमें उन
सतीजीने इकसठ पारणे किये और पूरे २ एक वर्ष चार महीने . तथा सत्रह दिन अर्थात् चार सौ सतानवे दिन तपस्या की। ऐसी एक परिपाटी करके साथ ही साथ दूसरी, तीसरी और चौथी परिपाटी भी की। जिसमें छ वर्ष दो महिने और बारह दिन लगे। इस प्रकार कृष्णा आर्याजीने 'महासिंहनिष्क्रीडित' तपस्या विधिपूर्वक करके फिर भी कई फुटकर तपस्यायें की। अन्तिम समय में सन्धारा करके काली आर्या के समान ये भी मोक्ष में पहुँची ॥ सू० ९॥ तर, यो, भा२, ते२, मशीयार, मा२, ४श, मशीयार, नव, श, मा8, नव, सात, माd, ७, सात, पाय, छ, न्यार, पाय, मठम, २२, ७४, मामि, वास, ७४ मने પછી પારાણું કરી ઉપવાસ કર્યો. આ પ્રકારે એક પરિપાટી કરી, જેમાં તે સતીજીએ એકસઠ પારણાં કર્યા, અને પૂરેપૂરાં એક વર્ષ ચાર મહિના તથા સત્તર દિવસ અથત ચારસે સતાણું દિવસ તપસ્યા કરી. એવી એક પરિપાટી કરી તેની સાથે સાથે જ બીજી ત્રીજી અને ચોથી પરિપાટી પણ કરી. જેમાં છ વર્ષ બે મહિના અને બાર દિવસ લાગ્યા. આ પ્રકારે કૃષ્ણ આર્યાજીએ “મહાસિનિષ્ક્રીડિત’ તપસ્યા વિધિપૂર્વક કરીને ફરી પણ કેટલીક પરચુરણ તપસ્યા કરી. અંતિમ સમયે સંથારો કરી કાલી આની પેઠે તે पशु भाक्षम (सू०८)
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
॥ मूलम् ॥ एवं सुकण्हा वि, णवरं सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरइ, पढमे सत्तए एक्केक्कं भोयणस्स दति पडिगाहेइ एस्केकं पाणगस्त, दोचे सत्तए-दो दो भोयणस्स दो दो पाणगस्स पडिगाहेइ, तच्चे सत्तए-तिणि भोयणस्स तिषिण पाणगस्स, चउत्थे चउ, पंचमे-पंच, छठे-छ, सत्तमे सत्तए-सत्त दत्तीओ भोयणस्स पडिग्गाहेइ, सत पाणगस्स। एवं खलु सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं एगणपण्णाए राइंदिएहिं एगेण य छन्नउएणं भिक्खासएणं अहासुतं जाव आराहेत्ता जेणेव अज्जचंदणा अजा तेणेव उवागया, अज्जचंदणं अज्जं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी- इच्छामि णं अज्जाओ! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी अट्ठमियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेह ॥ सू० १०॥
॥ टीका ॥ एवं इत्यादि । 'एवं सुकण्हा वि' एवम् = अनेन प्रकारेण-पूर्वोक्तप्रकारेण सुकृष्णाऽपि ज्ञातव्या । सुकृष्णाऽपि कालीवदेव प्रवजितेति भावः ।
हे जम्बू ! इसी प्रकार सुकृष्णा का भी चरित जानना चाहिए। यह भी राजा श्रेणिक रानी और महाराजा कूणिक की छोटी माता थी। यह भी भगवान् के समीप धर्मकथा सुनकर प्रव्रजित होगयी और आर्या चन्दनवाला के समीप आकर हाथ जोडकर बोली- हे आर्ये ! मैं 'सप्तसप्तमिका भिक्षुप्रतिमा' तप करना चाहती हूँ। आर्या चन्दनवाला ने कहा- हे देवानुप्रिये !
હે જંબૂ એજ પ્રકારે સુકૃષ્ણનું પણ ચરિત જાણવું જોઈએ. તે પણ રાજા શ્રેણિકની રાણુ અને મહારાજા કૃણિકની નાની માતા હતી. તે પણ ભગવાનની પાસે ધર્મકથા સાંભળીને પ્રજિત થઈ ગઈ અને આર્યા ચંદનબાળાની પાસે આવીને હાથ જેઠી બેલી –હે આયે! હું “સપ્તસપ્તમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા તપ કરવા ચાહું છું. આર્યા ચંદનબાળાએ કહ્યું - હે દેવાનુપ્રિયે! જેવી તમારી ઈચ્છા હોય તેમ કરે, કોઈ પ્રકારને
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुकृष्णाचरितम्
'पावर' अयं विशेष:- यदेषा 'सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजिचाणं विहरइ ' सप्तसप्तमिकां भिक्षुप्रतिमाम् उपसंपद्य विहरति । 'पढमे, सत्तए' प्रथमे सप्तके = सप्तदिवस परिमिते काले 'एक्केकं भोयणस्स दत्तिं पडिगाहे एक्केकं पाणrea' एकैsi भोजनस्य दर्ति प्रतिगृह्णाति = स्वीकरोति तथा एकैकां पानकस्य दक्षिं प्रतिगृह्णाति, 'दोच्चे सत्तर' द्वितीये सप्तके - 'दो दो भोयणस्स, दो दो पाणगस्स पडिगाहेइ' द्वे द्वे भोजनस्य, द्वे द्वे पानकस्य दत्ती प्रतिगृह्णाति । 'तच्चे सत्तए' तृतीये सप्तके 'तिष्णि भोयणस्स, तिणि पाणगस्स' तिस्रो भोजनस्य, तिस्रः पानकस्य दत्तीः प्रतिगृह्णाति । एवं 'चउत्थे चउ' चतुर्थे चतस्रः, 'पंचमे पंच' पञ्चमे पञ्च, 'छट्ठे छ' पष्ठे पट्, 'सत्तमे सत्तर सत्त दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेइ' सप्तमे सप्तके सप्त दत्तीर्भोजनस्य प्रतिगृह्णाति, 'सत्त पाण 'गस्स' सप्त पानकस्य प्रतिगृह्णाति । ' एवं खलु सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं एगूणपण्णाए राईदिएहिं' एवं खलु सप्तसप्तमिकां भिक्षुप्रतिमामेकोनपञ्चाशता रात्रिन्दिवैः, 'एगेण स छष्णउगं भिक्खासणं' एकेन च पण्णवत्यधिकेन भिक्षाशतेन भोजनपानरूपाया भिक्षायाः पण्णवत्यधिकेन एकेन शतेन, 'अहासुतं जाव जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा ही करो, किसी प्रकार का प्रमाद् मत करना । अनन्तर वह सुकृष्णा आर्या 'सप्तसप्तमिका भिक्षुप्रतिमा' तप करने लगीं। वह इस प्रकार है- वह कृष्णा आर्या प्रथम सप्ताह के प्रत्येक दिन में गृहस्थों के द्वारा दी हुई एक दात अन्नकी और एक दात पानी की ली । इसी प्रकार द्वितीय सप्ताह के प्रत्येक दिनमें दो दात अन्न की और दो दात पानी की, तीसरे सप्ताह में तीन दात, चौथे सप्ताह में चार दात, पांचवें में पांच, छठे में छह एवं सातवें सप्ताह में सात दात अन्नकी और सान दात पानी की ली । इस प्रकार उन्होंने 'सप्तसप्तमिका भिक्षुप्रतिमा' तप की उनचास रातदिन में एक सौ छियानवे भिक्षा પ્રમાદ ન કરી. પછી તે સુકૃષ્ણા આર્યાં ‘સપ્તસપ્તમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા તપ કરવા લાગી. તે આ પ્રકારે – તે સુકૃષ્ણા આર્યાએ પ્રથમ સપ્તાહમાં પ્રત્યેક દિવસે ગૃહસ્થા દ્વારા આપવામાં આવેલ એક દાત અન્નની એક દાત પાણીની લીધી. એજ પ્રકારે બીજા સપ્તાહના પ્રત્યેક દિવસમાં બે દાત અન્નની અને મે દાત પાણીની, તથા ત્રીજા સપ્તાહમાં ત્રણ દાત, ચેાથા સપ્તાહમાં ચાર દાત, પાંચમામાં પાંચ, છઠ્ઠામાં છ અને સાતમા સપ્તાહમાં સાત દાત અન્નની સાત દાત પાણીની લીધી. આ પ્રકારે તેમણે ‘સપ્તસપ્તમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા’ તપની આગણપચાસ રાતદિવસમાં એકસે છનું ભિક્ષા
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
२६४
क्रमेण
आराहिता' यथासूत्रं यावत् आराध्य = पूर्वोक्तक्रमेण एकोनपञ्चाशतां रात्रिन्दिवैः षण्णवत्यधिकेन भिक्षाशतेन एपा सप्तसप्तमिका भिक्षुप्रतिमा सूत्रानुसारेण प्रज्ञप्ता, अशनपानयोराहाररूपेणैकत्वात्प्रथमे सप्तके सप्त दत्तयः, द्वितीये चतुर्दश, तृतीये एकविंशतिर्दत्तयः - इत्येवं सप्तसप्तमिकायां संमेलनेन दतीनां षण्णवत्यधिकमेकशतं संख्या भवति । एतां सप्तसप्तमिकां भिक्षुप्रतिमां समाराव्य ' जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागया' यत्रैत्र आर्यचन्दनार्या तत्रैवोपागता, 'अज्जचंदणं अज्जं वंदइ णमंसर वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' आर्य चन्दनामा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवदत् - 'इच्छामि णं अजाओ ! तुभेहिं अम्भणुष्णाया समाणी' इच्छामि खलु हे आर्याः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती, 'अहमियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं' अष्टाष्टमिकां भिक्षुप्रतिमाम् उपसंपद्य खलु 'विहरेत्तए' विहर्तुम् । चन्दनबालाss प्राह'अहासु देवाप्पिए ! मा पडिबंध करेह' यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिवन्धं कुरु || सू० १० ॥
(दात ) के आधार पर सूत्रानुसार आराधना की । अशनपान की अभेदविवक्षा से प्रथम सप्ताह में सात दातें हुई, दूसरे में चौदह, तीसरे में इक्कीस, चौथे में अट्ठाईस, पाँचवें में पैंतीस, छठे में व्यालीस, सातवें में उनचास; इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ छियानवे भिक्षायें होती हैं ।
अनन्तर सुकृष्णा आर्या आर्यचन्दनवाला आर्या के पास आयी और वन्दन नमस्कार किया बाद में इस प्रकार बोली- हे आर्ये ! आपकी आज्ञा प्राप्त कर, 'अष्टअष्टमिका भिक्षुप्रतिमा' करना चाहती हूँ | आर्य चन्दनबाला आर्या ने कहा- हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, किसी प्रकार का प्रमाद मत करना || सू० १० ॥ (દાત)ના આધાર પર સૂત્રપ્રમાણે આરાધના કરી. અશનપાનની અભેદ્ય વિવક્ષાથી પ્રથમ સપ્તાહમાં સાત દાતા થઇ, ખીજામાં ચૌદ, ત્રીજામાં એકવીશ, ચેાથામાં અઠ્ઠાવીશ, પાંચમામાં પાંત્રીશ, છઠ્ઠીમાં ખેતાલીશ, સાતમમાં એગણપચાશ. એ પ્રકારે અધી મળીને એકસેા છન્દુ ભિક્ષા થાય છે.
તે પછી સુકૃષ્ણા આર્યાં આ ચંદનમાલા આર્યાં પાસે આવી અને વંદન-નમસ્કાર કર્યા પછી આ પ્રકારે ખાલી – હું આર્ચે ! આપની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને અષ્ટઅમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા’ તપ કરવા ચાહુ છું. આ ચંદનમાલા આર્યાએ કહ્યું-ડે દેવાનુપ્રિયે! જેમ તને સુખ થાય તેમ કરા, કાઇ પ્રકારે પ્રમાદ ન કરશેા. (સૂ॰ ૧૦ )
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुकृष्णाचरितम्
२६५ ॥ मूलम् ॥ तए णं सा सुकण्हा अजा अजचंदणाए अब्भणुण्णाया समाणी अटअट्टमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरइ, पढमे अट्टए एक्केक्कं भोयणस्स दत्तिं पडिगाहेइ, एक्केकं पाणगस्स दतिं जाव अट्टमे अट्ठए अट्ट भोयणस्स दत्ति पडिगाहेइ, अट्ट पाणगस्त । एवं खलु अट्टमियं भिक्खुप्पडिमं चउसट्रोए राइंदिएहिं दोहि य अट्टासीएहिं भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव आराहिता नवनवमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरइ । पढमे नवए एक्केकं भोयणस्स दतिं पडिगाहेइ एक्केकं पाणगस्त, जाव नवमे नवए नव नव दत्ति भोयणस्स पडिगाहेइ नव नव पाणगस्स, एवं खल्लु नवनवमियं भिक्खुपडिम एकासीईराइंदिएहिं चउहिं पंचोत्तरेहि भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव आराहित्ता दसदसमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरइ । पढमे दसए एक्केवं भोयणस्स दत्तिं पडिगाहेइ एक्के पाणगस्स जाव दसमे दसए दस दस भोयणस्स, दस दस पाणगस्स, एवं खलु एयं दसदसमियं भिक्खुपडिमं एक्केणं राइंदियसएणं अद्धछटेहि भिक्खासएहिं अहासुतं जाव आराहेइ, आराहिता बहूहिं चउत्थ जाव मासद्धमासविविहतवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। तए णं सा सुकण्हा अजा तेणं
ओरालेणं जाव सिद्धा ॥ सू० ११ ॥ . - [सुकण्हानामं पंचमं अज्झयणं समत्तं]
.. ॥ टीका ॥ .... ...'तए थे' इत्यादि । 'तए णं सा सुकण्हा अज्जा अजचंदणाए अभ
गुण्णाया समाणी' ततः खलु सा सुकृष्णा आर्या आर्यचन्दनया अभ्यनुज्ञाता ....:उसके बाद सुकृष्णा आर्या अष्टअष्टमिका भिक्षुप्रतिमा स्वीकार
ત્યારપછી સુકૃષ્ણ આ “અણઅષ્ટમિકા ભિક્ષુપ્રતિમાને સ્વીકાર કરી વિચારવા
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे सती 'अहमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरइ' अष्टाष्टमिकां भिक्षुपतिमाम् उपसम्पद्य खलु विहरति । 'पढमे अट्ठए एक्केक्कं भोयणस्स दत्तिं पडिगाहेइ एक्केक्कं पाणगस्स दत्तिं जाव अट्ठमे अट्ठए अट भोयणस्स दतिं पडिगाहेइ, अढ पाणगस्स' प्रथमेऽष्टक एकैकां भोजनस्य दत्तिं प्रतिगृह्णाति एकैकां पानकस्य दत्तिम् , यावदष्टमेऽष्टके अष्टाष्ट भोजनस्य दत्तीः प्रतिगृह्णाति तथा अष्टाष्ट पानकस्य च दत्तीः स्वीकरोति । 'एवं खलु अहमियं भिक्खुपडिमं चउसठ्ठीए राईदिएहिं दोहि य अट्ठासीएहिं भिक्खासएहि एवं खलु अष्टाष्टमिकां भिक्षुप्रतिमां चतुष्पष्ट्या रात्रिन्दिवैः द्वाभ्याम् अष्टाशीत्यधिकाभ्यां भिक्षाशताभ्याम् 'अहामुत्तं जाव आराहित्ता' यथासूत्रं यावदाराध्य = पूर्वोक्तप्रकारेण अष्टाष्टमिकां भिक्षुपतिमां चतुष्पष्ट्याऽहोरात्रैरष्टाशीत्यधिकाभ्यां द्वाभ्यां भिक्षाशताभ्यामाराध्य, अत्रापि दत्तीनां गणना पूर्ववत् , एवमग्रेऽपि; "नवनवमियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ' नवनवमिकां भिक्षुप्रतिमामुपसंपद्य विहरति । 'पढमे नवए कर विचरने लगीं। उन्होंने प्रथम अष्टक में एक दात अन्नकी और एक दात पानी की ली। दूसरे अष्टक में दो दात अन्न की और दो दात पानी की ली। और इसी प्रकार क्रम से आठवें में आठ दात अन्न की और आठ दात पानी की ग्रहण कर उनने संयमयात्रा का निर्वाह किया। इस प्रकार अष्टअष्टमिका भिक्षप्रतिमारूप तपस्या की चौसठ दिनरात में दो सौ अठासी भिक्षाद्वारा सूत्रोक्तविधि से आराधना की। भिक्षा की गणना पूर्वोक्त समान ही जानना। इसके बाद वह सुकृष्णा आर्या, आर्यचन्दनवाला आर्या के पास आकर इस प्रकार बोली- हे आयें ! अब मेरी इच्छा है कि आपकी आज्ञा लेकर 'नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा' स्वीकार कर લાગી. તેમણે પ્રથમ અષ્ટકમાં એક દાત અનની અને એક દાત પાણીની લીધી. બીજા અષ્ટકમાં બે દાત અન્નની અને બે દાત પાણીની લીધી, અને એજ રીતે કમથી આઠમા અષ્ટમાં આઠ દાત અન્નની અને આઠ દાત પાણીની ગ્રહણ કરી તેઓએ સંયમ યાત્રાને નિર્વાહ કર્યો. આ પ્રકારે અષ્ટઅષ્ટમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા રૂપ તપસ્યા ચેસઠ દિન-રાતમાં બસે અઠયાસી ભિક્ષા દ્વારા સૂકત વિધિથી આરાધના કરી. ભિક્ષાની ગણના પૂર્વોકત જેમ જાણવી. ત્યારપછી તે સુકૃષ્ણ આર્યા આર્યચંદનબાળા આર્યાની પાસે આવીને આ પ્રકારે બેલી- આ ! હવે મારી ઈચ્છા છે કે આપની આજ્ઞા લઈને “નવનવમિક ભિક્ષુપ્રતિમા સ્વીકાર કરી વિચરૂં. પછી આર્ય ચંદનબાળા આર્યાની આજ્ઞાથી તે આય નવનવમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા સ્વીકાર કરી વિચારવા લાગી. પ્રથમ નવકમાં એક દાંત અન્નની અને એક
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, सुकृष्णाचरितम् एक्केक्कं भोयणस्स दत्तिं पडिगाहेइ एक्केक्कं पाणगस्स' प्रथमे नवके एकैकां भोजनस्य दत्तिं प्रतिगृह्णाति एकैकां पानकस्य, 'जाव नवमे नवए नव नव दत्तिं भोयणस्स पडिगाहेइ नव नव पाणगस्स' यावत् नवमे नवके नव नव दत्ती जनस्य प्रतिगृह्णाति नव नब पानकस्य, 'एवं खलु नवनवमियं भिक्खुपडिम' एवं खलु नवनवमिकां भिक्षुप्रतिमाम् 'एकासीईराइंदिएहिं चउहिं पंचोत्तरेहि भिक्खासएहि एकाशीत्या रात्रिन्दिवैश्चतुर्भिः पञ्चोत्तरैर्भिक्षाशतैः= पश्चाधिकैः चतुश्शतैरित्यर्थः, 'अहामुत्तं जाव आराहित्ता दसदसमियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जिताणं विहरइ' यथासूत्रं यावद् आराध्य दशदशमिकां भिक्षुप्रतिमामुपसंपद्य विहरति। 'पढमे दसए एक्केक्कं भोयणस्स दत्ति' प्रथमे दशके एकैकां भोजनस्य दत्तिं 'पडिगाहेइ' प्रतिगृह्णाति-स्वीकरोति, 'एक्केक्कं पाणगस्स' एकैकां पानकस्य दत्तिं स्वीकरोति, 'जाव दसमे दसए दस दस भोयणस्स' यावद् दशमे दशके दश दश भोजनस्य दत्तीः प्रतिगृह्णाति, 'दस दस पाणगस्स' दश दश पानकस्य दत्तीः प्रतिगृह्णाति। 'एवं खलु एयं दसदसमियं भिक्खुपडियं एक्केणं विचरूँ। अनन्तर की चन्दनबाला आज्ञा से वह आर्या नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा को स्वीकार कर विचरने लगी। प्रथम नवक में एक दात अन्न की और एक दात पानी की ली, एवं क्रमसे नवमें नवक में नौ दात अन्न की और नौ दात पानी की ली। यह नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा इक्यासी अहोरात्र में पूरी होती है। इसमें भिक्षाओं की संख्या चार सौ पाच होती है । इस नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा को समाप्त कर आर्य चन्दनबाला आर्या की आज्ञा से वह सुकृष्णा आर्या 'दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा' स्वीकार कर विचरने लगी। वह दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा इस प्रकार है-उन्होंने दशदशमिका के प्रथम दशक में एक दात अन्न की और एक दात पानी की ली। इसी प्रकार दशम दशक में उन्होंने दस दात अन्न की और दस दात पानी દાત પાણીની લીધી. એ પ્રમાણે કમથી નવમી નવકમાં નવ દાત અનની અને નવ દત પાણીની લીધી. આ નવનવમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા એકયાસી દિવસરાતમાં પૂરી થાય છે. આમાં ભિક્ષાઓની સંખ્યા ચાર પાંચ થાય છે. આ નવનવમિકા ભિક્ષુપ્રતિમાને સમાપ્ત કરી આર્ય ચંદનબાળા આર્યાની આજ્ઞાથી તે સુકૃષ્ણ આર્યા દશદશમિકા ભિક્ષુપ્રતિમાનો સ્વીકાર કરી વિચરવા લાગી. તે દશદશમિકા ભિક્ષુપ્રતિમાં આ પ્રકારે છે–તેમણે દશદશમિકાના પ્રથમ દશકમાં એક દાંત અન્નની અને એક દાત પાણીની લીધી. એ પ્રકારે દશમ દશકમાં તેમણે દશ દાત અનની અને દશ દાત પાણીની ગ્રહણ કરી. આ પ્રકારે
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२६८
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे राइंदियसएणं' एवं खलु एतां दशदशमिकां भिक्षुपतिमाम् एकेन रात्रिन्दिवशतेन= एकशतरात्रिन्दिवसैः 'अद्धछटेहिं भिक्खासएहिं' अर्धपष्टैमिक्षाशनैः सार्धपञ्चसंख्यकैभिक्षाशतैरित्यर्थः, 'अहामुत्तं जाव आराहेइ' यथासूत्र यावदाराधयतिसूत्रानुसारेण भिक्षुप्रतिमामाराधयतीत्यर्थः; 'आराहित्ता बहुहिं चउत्थ जाव मासद्धमासविविहतवोकम्मेहिं आराध्य बहुभिश्चतुर्थ यावन्मासार्द्रमासविविधनपःकर्मभिः अनेकसंख्यकैश्चतुर्थभक्तपभृतिमासार्द्रमासस्पैविविधस्तपःकर्मभिः 'अप्पाणं भावेमाणी विहरइ' आत्मानं भावयन्ती विहरति । 'तए णं सा मृकण्हा अज्जा तेणं ओरालेणं जाव सिद्धा' ततः खलु सा मुकृष्णा आर्या तेन उदारेण यावत् सिद्धा = उदारेण पूर्वोक्तेन तपःकर्मणा शुष्कमांसशोणिततयाऽतिदुर्वलाङ्गी संलेखनादिना सकलकर्मक्षयं कृत्वा सिद्धि प्राप्ता ॥ मू० ११ ॥ । सुकृष्णानामकं पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ]
॥ सूलम् ॥ एवं महाकण्हा वि, णवरं खुड्डागं सबओभदं पडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं जहा--चउत्थं करेइ, करिता सबकी ग्रहण की। इस प्रकार यह दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा एक सौ दिनरात में पूरी होती है और इसमें भिक्षा की संख्या सय मिलकर साढे पाँच सौ होती है। इस प्रकार पडिमा का आराधन कर बहुत प्रकार के चतुर्थ यावत् मास, आईमास-स्प विविध तपों से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। इन उदार और घोर तपस्या के कारण सुकृष्णा आर्या अत्यधिक दुर्वल होगयी और अन्तिम समय में सन्थारा करके, सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके मोक्षगति को प्रात हुई ॥ सू० ११ ॥
[सुकृष्णानामक पंचम अध्ययन संपूर्ण] આ દેશદશમિકા ભિક્ષુપ્રતિમા એકસે દિવસરાતમાં પૂરી થાય છે, અને આમાં ભિક્ષાની સંખ્યા બધી મળીને સાડા પાંચસો થાય છે. આ પ્રકારે ડિમાનું આરાધન કરી બહું પ્રકારના ચતુર્થ અને માસ, અર્ધમાસરૂપ વિવિધ તપથી આત્માને ભાવિત કરતી કરતી વિચારવા લાગી. આ ઉદાર.અને ઉગ્ર તપસ્યાના કારણે સુકૃષ્ણ આર્યા અત્યંત દુર્બલ થઈ ગઈ અને અતિમ સમયે સંથારો કરી સંપૂર્ણ કર્મોનો નાશ કરી મોક્ષગતિને પ્રાપ્ત થઈ (સૂ૦ ૧૧)
[સુકૃષ્ણાનામક પંચમ અધ્યયન સંપૂર્ણ ]
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महाकृष्णाचरितम्
२६९ कामगुणियं पारेइ, पारिता छटुं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अट्टमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता छठं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दुवालसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ,
पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता . छठें करेइ, करित्ता सहकामगुणियं पारेइ, पारिता अहमं
करेइ, करिता सुबकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता छटुं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ; करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करित्ता सबकामयुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करित्ता सद्यकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता छठें करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्रमं करेइ, करिता सबकामणियं
पारेइ। एवं खलु एयं खुड्डागसबओभदस्स तवोकम्मस्स पढमं . परिवाडि तिहिं मासेहि दसहि दिवसेहिं अहासुन्तं जाव
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२७०
अन्तकृतदशागसूत्रे आराहेत्ता, दोच्चाए पडिवाडीए चउत्थं करेइ, करित्ता, विगइवज्ज पारेइ, पारिता जहा रयणावलीए तहा एत्थ वि चत्तारि परिवाडीओ, पारणा तहेव । चउण्हं कालो संवच्छरो मासो दस या दिवसा, सेसं तहेव जाव सिद्धा ॥ सू० १२ ॥ [महाकण्हानामगं छ; अज्झयणं समत्तं ]
॥ टीका ।। ‘एवं ' इत्यादि । एवं महाकण्हा वि' एवं महाकृष्णाऽपि = महाकृष्णायाश्चरितं पूर्ववद् बोध्यम् । 'णवरं' अयं विशेषः, एपा 'खुड्डागं सबओभदं पडिमं उपसंपजिनाणं विहरइ' क्षुल्लका सर्वतोभद्रां प्रतिमाम् उपसंपद्य विहरति, 'तं जहा' तद्यथा-'चउत्थं करेइ' चतुर्थ करोति, 'करित्ता सबकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छठें करेई पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अहम करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेड' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करिना
इसी प्रकार राजा श्रेणिक की रानी और राजा कूणिक की छोटी माता महाकृष्णा रानी भी भगवान महावीर के समीप प्रव्रजित हुई । अनन्तर वह महाकृष्णा आर्या चन्दनबाला की आज्ञा से 'लघुसर्वतोभद्र' तप करने लगी। वह इस प्रकार है-सर्वप्रथम उन्होंने उपवास किया। पारणा करके वेला किया। पारणा करके तेला किया। इसी प्रकार चोला, पचोला, तेला, चोला, पचोला, उपवास, वेला, पांच, चोला, उपवास, वेला, तेला, चोला, वेला, तेला, चोला,
. તે જ પ્રમાણે રાજા શ્રેણિકની રાણું અને કણિકની નાની માતા મહાકૃષ્ણ રાણી પણ ભગવાન મહાવીરની પાસે પ્રત્રજિત થઈ પછી તે મહાક આર્ય આર્યચંદનબાળાની આજ્ઞા લઈને “લઘુસર્વતોભદ્ર તપ કરવા લાગી. તે આ પ્રકારે છે. સર્વથી પહેલાં તેમણે ઉપવાસ કર્યો. પારણું કરીને છઠ્ઠ કર્યું, પારણું કરીને અહમ કર્યું, એવી રીતે ચાર पांय, भ, या२, पाय, उपवास, ७४, पाय, ७४, पांय, ७४, म४म, या२, ७४,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महाकृष्णाचरितम्
२७१ सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करिचा सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता- सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छटुं करेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छटुं करेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेई', कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'परित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छठं करेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्टमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पचोला, उपवास, चोला, पचोला, उपवास, बेला और तेला किया। इस प्रकार उन महाकृष्णा आर्या ने 'लघुसर्वतोभद्र' नामक तपकी एक परिपाटी पूरी की। इसमें पचहत्तर दिन तपस्या के और पच्चीस दिन पारणे के होते हैं। इस परिपाटी को समाप्त कर द्वितीय परिपाटी प्रारम्भ की। पर इसबार पारणा में विगय का . भट्टम, यार, पाय, Suqास, या२, पाय, Bास, ७४ मन मम ४ा. २॥ प्रभारी .
તે મહાકૃષ્ણ આર્યાએ “લઘુસવતંભદ્ર નામના તપની એક પરિપાટી પૂરી કરી, જેમાં પિત્તર દિવસ તપસ્યાના અને પચીશ દિવસ પારણના થાય છે. આ પરિપાટીને સમાપ્ત કરીને દ્વિતીય પરિપાટી પ્રારંભ કરી, પણ એ સમયે પારણામાં વિનયને ત્યાગ કરી દીધે, એવી રીતે ત્રીજી પરિપાટી કરી. આના પારણામાં વિગય લેપમાત્ર પણ
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२७२
... ......: अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेई' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता : सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छठं करेइ' पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्ठमं करेइ. पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ! कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । ‘एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण खल. 'एयं खुड्डागसव्वओभदस्स तवोकम्मस्स पढमं परिवाडिं' एतां क्षुल्लकसर्वतोभद्रस्य तपःकर्मणः प्रथमां परिपाटी 'तिहिं मासेहिं दसहि दिवसेहिं अहासुतं' त्रिभिर्मासैदशभिर्दिवसैर्यथासूत्रं सूत्रोक्तविधिना 'जाव आराहित्ता' यावदाराध्य पुनः 'दोचाए परिवाडीए चउत्थं करेइ, करित्ता विगइवज्जं पारेई' द्वितीयस्यां परिपाट्यां चतुर्थ करोति, कृत्वा विकृतिवर्ज पारयति-घृतादिरहितं पारयति, 'पारित्ता जहा रयणावलीए तहा एत्थ वि चचारि परिवाडीओ' पारयित्वा यथा रत्नावल्यां तथा अत्राऽपि चतस्रः परिपाट्यः, 'पारणा तहेव' पारणा तथैव-रत्नावलीवदेव पारणा ज्ञातव्या । 'चउण्हं कालो संवच्छरो मासो दस य दिवसा' चतसृणां कालः संवत्सरो मासो दश च दिवसा: दशदिवसाधिकैकमाससहित एकः संवत्सरः चतसृणामपि परिपाटीनां कालो विज्ञेयः। 'सेसं तहेव' शेषं तथैव-पूर्ववदेवेत्यर्थः । 'जाव सिद्धा' यावत्सिद्धा = सुकृष्णावत्सिद्धिं गता ।। मू० १२ ॥.
[ महाकृष्णानामकं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ]... त्याग कर दिया। इसी तरह तीसरी परिपाटी की। इसके पारणे में विगय का लेप मात्र भी छोड दिया। इसके बाद चौथी परिपाटी की। इसमें पारणे के दिन आयम्बिल किया। इस प्रकार उन्होंने 'लघुसर्वतोभद्र' की चारों परिपाटी की। इस तप में एक वर्ष एक मास' दस दिन लगते हैं। इस प्रकार तप की आराधना करके अन्त में कर्म खपा कर सिद्ध हो गयी ॥ सू०१२ ॥
[महाकृष्णानामका सातवाँ अध्ययन समाप्त ] છેડી દીધું. ત્યારપછી ચેથી પરિપાટી કરી. આમાં પારણાને દિવસે આયંબિલ કર્યા. આ પ્રકારે તેમણે “લઘુસર્વ ભદ્રની ચારેય પરિપાટી કરી. આ તપમાં એક વર્ષ એક માસ દશ દિવસ લાગે છે. આ પ્રકારે તપની આરાધના કરીને અંતમાં કર્મ ખપાવીને સિદ્ધ २४ ग. (सू० १२)
- [भ&tag!-मतुं सातभु मध्ययन सभास]
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महाकालीचरितम्
॥ मूलम् ॥ एवं वीरकण्हा वि, णवरं महालयं सबओभदं तवोकम्म उवसंपजित्ताणं विहरइ, तं जहा-चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता छटुं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करित्ता सबकामणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउदसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पढमा लया ॥ १ ॥
दसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चउदसमं करेइ, करिता सबकामणियं पारेइ, पारिता सोलसं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता छठं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, बीया लया ॥२॥
सोलसं करेइ, करित्ता सबकामयुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता छहं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अट्टमं करेइ, करित्ता सबकामयुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दुवालसमं करेइ, करित्ता सबकामकणियं पारेइ, पारित्ता चउद्दसं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, तइया लया ॥३॥
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२७४
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे अटुमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता इसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिचा सोलसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता छर्ट करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारे।। चउत्थी लया ॥४॥
चोदसमं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता सोलससं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारित्ता छटं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दुवालसमं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ । पंचमी लया ॥५॥ __छटुं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अट्टमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चोदसमं करेइ, करित्ता सबकामणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारे। छट्टी लया ॥६॥
दुवालसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चोदसमं करेइ, करिता सबकामयुणियं पारेइ, पारित्ता सोलसमं ।
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, वीरकृष्णाचरितम्
२७५
करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता उत्थं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता छ करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्टमं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता दसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ । सत्तमी लया ॥ ७ ॥
एक्काए कालो अटु मासा पंच य दिवसा, चउन्हं दो वासा अटु मासा वीस दिवसा । सेसं तहेव जाव सिद्धा ॥ सू० १३ ॥
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[ वीरकण्हानामगं सत्तमं अज्झयणं समत्तं ] ॥ टीका ॥
'ए' इत्यादि । ' एवं वीरकण्हा वि' एवं वीरकृष्णाऽपि = वीरकृष्णाया अपि वर्णनमेवमेव विज्ञेयम्, 'णवर' अयं विशेषः, एषा 'महालयं सव्वओभ अब सातवाँ अध्ययन कहते हैं
जम्बूस्वामी ने सुधर्मास्वामी से पूछा- हे भदन्त ! भगवान महावीर के द्वारा प्ररूपित अन्तकृत के छठे अध्ययन का भाव आपके मुख से सुना, अब इसके बाद सातवें अध्ययन में भगवान ने किस भाव का निरूपण किया है ?
9
सुधर्मा स्वामीने कहा- हे जम्बू ! सातवें अध्ययन में वीरकृष्णा देवी का चरित है । यह अणिक राजा की रानी तथा कूणिक राजा की छोटी माता थीं । इन्होंने भी भगवान महावीर के समीप धर्मकथा सुनकर प्रव्रज्या ली । प्रव्रज्या लेने के बाद वह वीरकृष्णा
હવે સાતમું અધ્યયન કહે છે.
જમ્મૂ સ્વામીએ સુધર્મા સ્વામીને પૂછ્યું-હે ભદ્દન્ત ! ભગવાન મહાવીર દ્વારા પ્રરૂપિત અન્તકૃતના છઠ્ઠા અધ્યયનના ભાવ આપના સુખથી સાંભળ્યેા. હવે પછી સાતમા અધ્યયનમાં ભગવાને કયા ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે?
સુધર્માં સ્વામીએ કહ્યું હે જમ્મૂ ! સાતમા અધ્યયનમાં વીરકૃષ્ણા દેવીનું ચરિત છે. એ શ્રેણિક રાજાની રાણી તથા કૂણિક રાજાની નાની માતા હતી. તેમણે પણ ભગવાન મહાવીરની પાસે ધમ કથા સાંભળી પ્રવ્રજ્યા લીધી. પ્રવ્રજ્યા લીધા પછી તે વીરકૃચ્છ્વા
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... अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ' महत् सर्वतोभद्रं तपःकर्म उपसंपद्य विहरति । 'तं जहा-चउत्थं करेइ' तद्यथा-चतुर्थं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेई' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छ8 करेई' पारयित्वा षष्ठं करोति, 'करिना सबकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेई' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करिता सन्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउद्दसमं करेइ 'पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणितं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'पढमा लया' प्रथमा लता ॥१॥
. 'दसमं करेइ' दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउद्दसमं करेई' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ' पारयित्वा षोडशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करित्ता सचकामगुणियं आर्या आर्य चन्दनवाला आर्या के पास आयी और हाथ जोड कर बोली-हे आर्य ! मैं आपसे आज्ञा प्राप्त कर 'महासचेतोभद्र' तप करना चाहती हूँ। अनन्तर चन्दनबाला से आज्ञा प्राप्त कर. उन्होंने 'महासर्वतोभद्र' तपस्या प्रारंभ की। सबसे पहले उपवास किया, पारणा करके वेला किया, पारणा करके तेला किया, यों चोला, पोला, छ, सात किये, यह प्रथम लता हुई। दूसरी लता में उन्होंने चोला, पचोला, छ, सात, उपवास, बेला और तेला किया, यह આર્ય આર્ય ચંદનબાળા આર્યાની પાસે આવી અને હાથ જોડીને બોલી- આર્ય! હું આપની આજ્ઞા મેળવીને “મહાસર્વતોભદ્ર” તપ કરવા ચાહું છું. પછી ચંદનબાળાની આજ્ઞા મેળવી તેમણે “મહાસર્વતોભદ્ર” તપસ્યા પ્રારંભ કરી. સૌથી પહેલાં ઉપવાસ ४, पारा ४ीन ४ ध्यु, पारा ४ीन मभ यु', मेम या२, पांय, छ, सात, કર્યા આ પ્રથમ લતા થઈ, બીજી લતામાં તેમણે ચાર, પાંચ, છ, સાત, ઉપવાસ,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, वीरकृष्णाचरितम् ..
२७७ पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छद्रं करेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठमं करेई' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'बीया लया' द्वितीया लता ॥२॥
. अनन्तरं 'सोलसं करेइ' पोडशं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेई' पारयित्वा चतुर्थे करोति, 'करिता सम्बकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता छटुं करेइ पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्ठमं करेइ पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं करेइ . पारयित्वा दशभं करोति, 'करित्ता सबकामगुणिय पारेइ कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, ‘पारित्ता दुवालसमं करेइ पारयित्वा द्वादशं करोति, “करिना सबकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउद्दस करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति तइया लया' तृतीया लता ।। ३ ।।
"अट्ठमं करेइ - अष्टमं करोति, ' करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं. करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारे। कृत्वा सर्वकामशुणितं पारयति, 'पारित्ता चोदसमं करेइ ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता सोलसमं करेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्व कामगुणित पारयति, पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा दूसरी लता हुई। तीसरी लता में सात किये, सात का पारणा कर उपवास किया, फिर बेला, तेला, चोला, पचोला, छ किया, यह तीसरी लता हुई। फिर चौथी लता में तेला, चोला, पचोला, छ, सात किये, सातके पारणे उपवास, और उपवास के पारणे वेला करके . છઠ્ઠ અને અહંમ કર્યા. આ બીજી લતા થઈ, ત્રીજી લતામાં સાત કર્યા. સાતનું પારણું पुरी लपवास. ४ये, पछी ७४, महम, यार, पांच, छ, उपवास ध्या. मात्री सता थ७. याथी सतभा महम, या२, पांय, , सात या, सातने पारणे पास, 64
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२७८
• अन्तकृतदशाङ्गमत्र चतुर्थ करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता छटुं करेइ' पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति. 'चउत्थी लया' चतुर्थी लता ॥ ४ ॥
___'चोदसमं करेइ' चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छटुं करेइ' पारयित्वा षष्ठं करोति, ‘करित्ता सबकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं . पारयति, 'पारिता अट्टमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दसमं करेइ' पारयित्वा दशम करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'पंचमी लया' पञ्चमी लता ॥५॥
. 'छठं करेइ' षष्ठं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्टमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं करेइ' पारयित्वा दशमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चोइसमं करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सकामगुणियं पारणा किया, यह चौथी लता हुई। पाँचवी लता छ, किया छ के पारणे सात किया, सात के पारणे उपवास किया, उपवास के पारणे वेला किया, इसी तरह तेला, चोला और पचोला करके पारणा किया, यह पाँचवीं लता हुई। इसके बाद छठी लता में बेला किया, बेला के पारणे तेला, तेला के पारणे चोला, चोला के पारणे पाँच, इसी तरह छह किया, सात किया, और सात के पारणे के बाद વાસને પારણે છઠ્ઠ કરી પારણું કર્યું. આ ચેથી લતા થઈ. પાંચમી લતામાં છ કર્યા, . સાત કર્યો, સાતના પારણે ઉપવાસ કર્યો, ઉપવાસના પારણે છઠ્ઠ કર્યો, એવી રીતે અદમ, ચેલા અને પચેલા કરી પારણા કર્યા. આ પાંચમી લતા થઈ. ત્યારપછી છઠ્ઠી લતામાં છઠ્ઠ કર્યો, છઠના પારણે અટ્ટમ, અમન પારણે ચૌલા, ચીલાના પારણે પાંચ,
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, वीरकृष्णाचरितम्
२७९
- पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ' पारयित्वा षोडशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति ' पारिता चउत्थं करेइ पारयित्वा चतुर्थी करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'छट्टी लया' षष्ठी लता ॥ ६ ॥
'
'दुवालसमं करेइ' द्वादशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारे ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चोदसमं करेइ पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करिता सवकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, ' पारिता सोलसमं करेड' पारयित्वा पोडशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेड़ पारयित्वा चतुर्थी करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता छ करेड़' पारयित्वा पष्ठं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड़' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता अट्टमं करेइ पारयित्वा अष्टमं करोति, ' करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं करेइ ? पारयित्वा दशमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'सत्तमी लया' सप्तमी लता ॥ ७ ॥
,
,
'एक्क्काए' एकैकस्याः परिपाट्याः 'कालो अट्ठ मासा पंच य दिवसा ' कालोऽष्टमासाः पञ्च च दिवसाः, 'चउण्डं' चतसृणां परिपाटीनां कालो 'दो वासा अह मासा वीस दिवसा' द्वे वर्षे अष्ट मासा विंशतिदिवसाः । उपवास करके पारणा किया, यह छटी लता हुई। फिर सातवीं लता में पाँच किया, पाँच के पारणे छ किया, छ के पारणे सात, सात के पारणे उपवास, उपवास के पारणे बेला, एवं तेला, चोला करके पारणा किया, यह सातवीं लता हुई । इस प्रकार सात लता की एक परिपाटी हुई । इसमें आठ मास पांच दिन लगते है । इस तरह इन्होंने चारों परिपाटी की। जिसमें दो वर्ष आठ मास बीस
એવી રીતે છ કર્યા, સાત કર્યાં અને સાતના પારણે ઉપવાસ કરીને પારણા કર્યાં. આ છઠ્ઠી લતા થઇ. ફરી સાતમી લતામાં પાંચ કર્યાં, પાંચને પારણે છ કર્યાં, છનાં પારણે સાત, સાતનાં પારણે ઉપવાસ, ઉપવાસને પારણે છ‰, તેમજ અટ્ટમ, ચૌલા કરીને પારણા કર્યાં. આ સાતમી લતા પૂરી થઈ. આવી રીતે સાત લતાની પરિપાટી થઇ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
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'सेसं तहेव जाव सिद्धा' शेषं तथैव यावत् सिद्धा । व्रतानन्तरं सिद्धिप्राप्तिपर्यन्तमस्या अपि वर्णनं कालीवदेव विज्ञेयम् ॥ सू० १३ ॥ [वीरकृष्णानामकं सप्तममध्ययनं समाप्तम् ] ॥ मूलम् ॥
अथाष्टममाह
एवं रामकण्हा वि णवरं भदोत्तरपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरइ, तं जहा - दुवालसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेs, पारिता चोइसमें करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेड़, पारिता सोलसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेड़, पारिता अट्ठारसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता वीसइमं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ । पढमा लया ॥ १ ॥
सोलसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेs, पारिता अट्टारसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेड़, पारिता वीसइमं करे, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करे, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेड । बीया लया ॥ २ ॥
वीसइमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता दुवालसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं
दिन लगे । उसके बाद वह वीरकृष्णा आर्या काली आर्या के समान सभी कर्मों को पाकर मोक्ष पद को प्राप्त हुई || सू० १३ ॥ [ वीरकृष्णा-नामक सातवाँ अध्ययन समाप्त ]
આમાં આઠ માસ પાંચ દિવસ લાગે છે. આ રીતે તેમણે ચારેય પરિપાટી કરી, જેમાં બે વર્ષ આઠ માસ વીશ દિવસ લાગ્યા, તે પછી તે વીરા આર્યાં કાલી આર્યાંની પેઠે સર્વાં કર્માંને ખપાવી પરમપદ મેાક્ષને પ્રાપ્ત થઇ ( સૂ૦ ૧૩ )
[ વીરકૃષ્ણા નામનું સાતમું અધ્યયન સમાસ.
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, रामकृष्णाचरितम्
. . २८१ . करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अटारसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारे । तइया लया ॥३॥
चोदसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्ठार- समं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता वीसइमं
- करेइ, करित्ता सबकामयुणियं पारेइ, पारित्ता दुवालसमं - करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ। चउत्थी लया ॥४॥
अद्वारसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता ... वीसइमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दुवा
लसमं करेइ, करिता सबकामणियं पारेइ, पारित्ता चोदसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ । पंचमी लया ॥५॥
एकाए कालो छम्मासा वीस य दिवसा, चउण्हं कालो दो वरिसा दो मासा वीस य दिवसा सेसं तहेव, जहा
काली जाव सिद्धा ॥ सू० १४ ॥ .... [रामकण्हानामगं अट्ठमं अज्झयणं समत्तं ] . .. ....
॥टीका ॥ .. 'एवं' इत्यादि । 'एवं रामकण्णा वि' एवं रामकृष्णाऽपि-रामकृष्णाया अपि निष्क्रमणं पूर्वोक्तप्रकारेण विज्ञेयम् । परं 'णवरं' अयं विशेषः, एषा - अब आठवाँ अध्ययन कहते हैं
जम्बूस्वामीने सुधर्मास्वामी से पूछा-हे आर्य ! अन्तकृत के अष्टम वर्ग के सातवें अध्ययन का भाव आपके मुख से सुना, 'अब मैं आठवा अध्ययन का भाव सुनना चाहता हूँ।
हुवे माभुमध्ययन ४९ छ-भूस्वाभाय सुधास्वामीन :पूछ्यु:-3 माय ! અન્તકૃતના આઠમા વર્ગના સાતમા અધ્યયનને ભાવ આપના મુખેથી સાંભળે, હવે હું આઠમા અધ્યયનને ભાવ સાંભળવા ચાહું છું.
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे रामकृष्णा 'भद्दोत्तरपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ' भद्रोत्तरप्रतिमाम् उपसंपद्य विहरति, 'तं जहा' तद्यथा-'दुवालसमं करेइ' द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृता सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चोदसमं करेइ' पारयिखा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, 'करित्ता सचकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं. पारयति, 'पारित्ता अट्ठारसमं करेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करित्ता सयकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता वीसइमं - करेइ' पारयित्वा विंशतितमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'पढमा लया' प्रथमा लता ॥ १ ॥
'सोलसमं करेइ' पोडसं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं. पारयति, 'पारित्ता अट्ठारसमं करेई' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं. पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता बोसइमं करेइ' पारयित्वा विंशतितमं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, “पारित्ता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति,
सुधर्मास्वामीने कहा-हे जम्बू ! आठवें अध्ययन में रामकृष्णा देवी का चरित वर्णित है। वे राजा श्रेणिक की रानी और महाराजा कूणिक की छोटी माता थीं। उन्होंने 'भद्रोत्तरप्रतिमा' नामक तपस्या की, उस तपस्या का वर्णन इस प्रकार है-सर्वप्रथम उन्होंने पचाला करके पारणा किया, पारणा करके छ किया, पारणा करके सात किया। इस प्रकार पारणासहित आठ और नौ किया। यह प्रथम लता हुई। . द्वितीय लता में उन्होंने पारणासहित सात, आठ, नौ,
- સુધર્મા સ્વામીએ કહ્યું - હે જંબૂ! આઠમાં અધ્યયનમાં રામકૃષ્ણાદેવીનું ચરિત્ર વણિત છે. તે રાજા શ્રેણિકની રાણી અને કૃણિક મહારાજાની નાની માતા હતી. તેમણે “ભદ્રોત્તરપ્રતિમા નામની તપસ્યા કરી. તે તપસ્યાનું વર્ણન આવી રીતે છે - સર્વપ્રથમ તેમણે પાંચ કરી પારણું કર્યું. પારણું કરી છ કર્યા, પારણું કરી સાત કર્યા, એવી રીતે પારણા સહિત અઠ અને નવ કર્યા. આ પ્રથમ લતા થઈ.
બીજી લતામાં તેમણે પારણસહિત, સાત, આઠ, નવ, પાંચ અને છ કર્યા. આ
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, रामकृष्णाचरितम् 'पारित्ता चोदसमं करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'वीया लया' द्वितीया लता ॥२॥
'वीसइमं करेइ' विंशतितमं करोति 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चोदसमं करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता सोलसं करेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, 'करिना सबकामगुणियं पारेई' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्ठारसमं करेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'तइया लया' तृतीया लता ।।३।।
'चोदसमं करेइ' चतुर्दशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ' पारयित्वा षोडशं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अट्टारसमं करेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता वीसइमं करेइ' पारयित्वा विंशतितमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'चउत्थी लया' चतुर्थी लता ॥ ४ ॥ .'अट्ठारसमं करेइ, करित्ता सम्बकामगुणियं पारेइ' अष्टादशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता वीसइमं करेइ' पारयित्वा विंशतितम करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणित पारयति, 'पारित्ता दुवालसमं करेइ' पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चोदसमं करेइ' पारयित्वा चतुर्दशं पांच, और छ किया। इति द्वितीय लता।
. तृतीय लता में पारणासहित नौ, पाच, छ, सात और आठ किया। चतुर्थलता में छ, सात, आठ, नौ और पांच किया। इसी प्रकार पांचवी लता में भी उन्होंने पारणासहित आठ, नौ, બીજી લતા થઈ.
ત્રીજી લતામાં પારણુ સહિત નવ, પાંચ, છ, સાત અને આઠ કર્યા. ચોથી લતામાં છ, સાત, આઠ, નવ અને પાંચ કર્યા. એજ રીતે પાંચમી લતામાં પણ તેમણે પારણા
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेंइ' पारयित्वा षोडशं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेई कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । इति 'पंचमी लया' पञ्चमी लता ॥५॥
'एक्काए' एकस्या पञ्चलतात्मिकायाः परिपाट्याः 'कालो' कालः 'छम्मासा वीस य दिवसा' पण्मासा विंशतिदिवसाः, 'चउण्हं कालो दो वरिसा दो मासा वीस य दिवसा' चतसृणां कालो द्वे वर्षे द्वौ मासौ विंशतिदिवसाः । 'सेसं तहेव' शेषं तथैव, 'जहा काली जाव सिद्धा' यथा काली यावत् सिद्धा ।। सू० १४ ॥
रामकृष्णानामकमष्टममध्ययनं समाप्तम् ]
॥ मूलम् ॥ एवं पिउसेणकण्हा वि, णवरं मुत्तावलीतवोकम्मं उवसंपजित्ता विहरइ, तं जहा--चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणिय पारेइ, पारिता छद्रं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता अहमं करेइ, करितां सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दसमं पाच, छ और सात किया। इस प्रकार यह एक परिपाटी हुई। इस एक परिपाटी में उनको छ मास वीस दिन लगे, और इस प्रकार चार परिपाटी में दो वर्ष दो मास और बीस दिन लगे। अन्त में रामकृष्णा आर्या भी काली आर्या के समान सभी कर्मों को खपाकर सिद्ध पदको प्राप्त हुई ॥१४॥
[ आठवा अध्ययन समाप्त ] सहित मा8, नप, पांय, छ भने सात .. '- આવી રીતે આ એક પરિપાટી થઈ. આ એક પરિપાટીમાં તેઓને છ મહિના -ધીસ દિવસ લાગ્યા અને આવી રીતે ચાર પરિપાટીમાં બે વર્ષ બે માસ અને વીસ દિવસ લાગ્યા. અંતમાં રામકૃષ્ણ આય પણ કાલી આર્યાની પેઠે સર્વ કર્મોને ખપાવી सिद्धपटनाप्रति सूट १४.)..si ...
ch Finnisध्ययन सभा ].
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२८५ करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता दुवालसमं करेइ, करिता सवकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता चोदसमं करेइ, करिता सबकासगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामयुणियं पारेइ, पारिता सोलसमं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता अटारसमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारित्ता वीसइम करेइ, करित्ता सहकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करे। करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता बावीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकास: गुणियं पारेइ, पारिता चउवीसइमं करेइ, करिता सबकाम गुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता छव्वीसइभं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेड्, पारित्ता चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता अट्रावीसइमं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता तीसइमं करेइ, करिता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेई, करिती सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता बत्तीसइभं करेंइ. करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारित्ता चउत्थं करेइ, करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ, पारिता चोत्तीसइमं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करिता सर्वकामणियं
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অবকুলসুম पारेइ, पारिता चउत्थं करेइ, करित्ता सबकामगुणियं पारेइ, पारिता बत्तीसइमं करेइ, करिता एवं तहेव ओसारेइ जाव चउत्थं करेइ, करिता सबकामगुणियं पारेइ । एक्काए कालो एक्कारस मासा पनरस या दिवसा। चउण्हं तिणि वरिसा दस य मासा । सेसं तहेव जाव सिद्धा ॥ सू० १५ ॥ [पिउसेणकण्हानामगं नवमं अज्झयणं समत्तं ]
॥ टीका ॥ ‘एवं' इत्यादि । ‘एवं पिउसेणकण्हा वि' एवं पितृसेनकृष्णाऽपि पितृसेनकृष्णाया अपि वर्णनं पूर्ववदेवावसेयम् । ‘णवरं' अयं विशेषः, एषा 'मुत्तावलीतवोकम्मं उपसंपज्जित्ता' मुक्तावलीतपःकर्म उपसंपद्य 'विहरई' विहरति, 'तं जहा' तद्यथा-'चउत्थं करेइ' चतुर्थ करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छठं करेइ पारयित्वा षष्ठं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकाम
___जम्बूस्वामी ने सुधर्मास्वामी से पूछा-हे भदन्त ! अन्तगड सूत्र के आठवें अध्ययन का भाव आपके मुख से सुना, अब इसके बाद नवमें अध्ययन का भाव सुनना चाहता हूं, कृपाकर उसे सुनावें। सुधर्मा स्वामीने कहा-हे जम्बू ! नवमें अध्ययनमें पितृसेनकृष्णा का वर्णन है। वह राजा श्रेणिक की रानी और महाराज कूणिक की छोटी माता थीं। इन्होंने भगवान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण कर के मुक्तावली तपस्या की। वह इस प्रकार है-सर्व प्रथम इन्हों ने उपवास किया,
જબૂસ્વામીએ સુધર્માસ્વામીને પૂછયું- હે ભદન્ત! અન્તગડ-સૂત્રના આઠમા વર્ગના આઠમાં અધ્યયનના ભાવ આપના મુખેથી સાંભળ્યા, હવે તે પછી નવમા અધ્યયનના ભાવ સાંભળવા ઇચ્છું છું, કૃપા કરી સંભળાવે. સુધર્માસ્વામીએ કહ્યું- હે જ બૂ! નવમા અધ્યયનમાં પિતૃસેનકૃષ્ણનું વર્ણન છે, તે રાજા શ્રેણિકની રાણુ અને મહારાજ કૃણિકની નાની માતા હતી. તેમણે ભગવાન મહાવીર સમીપે પ્રવજ્યા લઈ મુક્તાવલી તપસ્યા કરી. તે આ પ્રકારે-સર્વથી પહેલાં તેમણે ઉપવાસ કર્યો, ઉપવાસને પારણે છઠ કર્યો, છઠને પારણે ઉપવાસ કર્યો, ઉપવાસને પારણે અઠેમ કર્યો, એમ એક-એક
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गुणितं पारयति, 'पारिता अट्टमं करेइ' पारयित्वा अष्टमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड़' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेइ ? वारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दसमं कुरेइ पारयित्वा दशमं करोति, 'करिता सन्वकामगुणियं पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेइ पारयित्वा चतुर्थे करोति, 'करिता सव्वकामगुणिय पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता दुबालसमं करेइ पारयित्वा द्वादशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता उत्थं करेइ पारयित्वा चतुर्थी करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउदसमं करेइ पारयित्वा चतुर्दशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, ' पारिता चउत्थं करेइ पारयित्वा चतुर्थी करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता सोलसमं करेइ करिता सर्वकामगुणियं पारेइ' पारयित्वा पोडशं करोति, कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेड' कृत्वा सर्वकामराणितं पारयति, 'पारिता अट्ठारसमं करेइ' पारयित्वा अष्टादशं करोति, 'करिता सव्वकामगुणिय पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति 'पारिता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थी करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारे' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता वीस करेइ' पारयित्वा विंशतितमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करे ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता बावीस में करे ? पारयित्वा द्वाविंशं करोति, 'करिता सन्च कामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिचा चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थी करोति, 'करिता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चोवीसइमं करेइ पारयित्वा चतुर्विंशतितमं करोति, 'करिता सव्वकामगुणियं पारेs' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करे ' उपवास के पारणे वेला किया, बेला के पारणे उपवास किया, उपवास के पारणे तेला किया, यों एक-एक उपवास बीच २ में करती ઉપવાસ વચ–વચમાં કરતી થકી ક્રમથી પિતૃસેનકૃષ્ણા આર્ચાએ સેળ ઉપવાસ સુધી કર્યાં. ફરી એ પ્રકારે પદ્મ નુપૂર્વી થી વચ–વચમાં ઉપવાસ કરતાં તે જે પ્રકારે ચડી હતી
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अन्तकृतदशासूत्रे पारयित्या चतुर्थं करोति, 'करित्ता सव्यकामगुणियं पारेइ कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता छब्बीसइमं करेइ' पारयित्वा पइविंशतितमं करोति, 'करिता सव्यकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता अहावीसइमं करेइ' पारयित्वा अष्टाविंशतितमं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ पारयित्वा चतुर्थं करोति, करित्ता सच्चकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता तीसइमं करेइ पारयित्वा त्रिंशत्तमं करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता सम्बकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता वत्तीसइमं करेई' पारयित्वा द्वात्रिंशत्तमं करोति, 'करित्ता सन्चकामगुणियं पारेई' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेई' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चोत्तीसइमं करेइ' पारयित्वा चतुस्त्रिंशं करोति, 'करिता सबकामगुणियं पारेई' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारित्ता चउत्थं करेई' पारयित्वा चतुर्थं करोति, 'करित्ता सबकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता चउत्थं करेइ' पारयित्वा चतुर्थ करोति, 'करित्ता सव्वकामगुणियं पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति, 'पारिता बत्तीसइमं करेइ' पारयित्वा द्वात्रिंशं करोति, 'करिता एवं तहेव ओसारेई' कृत्वा एवं तथैव अवसारयति 'जाव चउत्थं करेइ' यावत् चतुर्थ करोति । सा पितृसेनकृष्णाऽऽर्या पूर्वोक्तक्रमेण चतुर्थसंपुटितं चतुस्त्रिंशत्तमपर्यन्तं तपः कृत्वा पुनः पश्चानुपूर्व्याऽवतारयति यावत् चतुर्थ करोतीति भावः । 'करित्ता सव्वकामगुणिय पारेइ' कृत्वा सर्वकामगुणितं पारयति । हुई यह पितृसेनकृष्णा आर्या क्रमसे सोलह उपवास तक बढी (किये)। फिर इसीप्रकार पश्चानुपूर्वी से बीच बीच में उपवास करती हुई वह, जिस प्रकार चढी थी उसी प्रकार सोलह उपवास से एक उपवास तक क्रमसे उतरी । इस प्रकार उसने एक परिपाटी समाप्त की। यों काली रानी की तरह चारों परिपाटियां उसने તેજ પ્રકારે સેળ ઉપવાસથી એક ઉપવાસ સુધી ક્રમથી ઉતરી. આ પ્રકારે એક પરિપાટી સમાપ્ત કરી એમ કાલી રાણીની પેઠે ચારેય પરિપાટીઓ તેણે સંપૂર્ણ કરી. આની એક
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, पितृ सेनकृष्णाचरितम् .
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अनेन प्रकारेण कृतस्य तपःकर्मण 'एकाए' एकस्याः परिपाट्याः 'कालो' काल: 'एक्कारश मासा पनरस य दिवसा' एकादश मासाः पञ्चदश च दिवसाः, 'चउन्हं तिष्णि वरिसा दस य मासा' चतसृणां कालस्त्रीणि वर्षाणि दश च मासा, 'सेसं तहेव जाव सिद्धा' शेषं तथव यावत् सिद्धाः = अस्याः सिद्धिपर्यन्तमवशिष्टं वर्णनं कालीवद विज्ञेयम् ।। सू० १५ ॥
[ पितृसेनकृष्णानामकं नवममध्ययनं समाप्तम् ] ॥ मूलम् ॥
एवं महासेणकण्हा वि, णवरं आयंबिलवड्ढमाणं तवोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरइ, तं जहा-आयंबिलं करेइ, करित्ता चउत्थं करेइ, करिता बे आयंबिलाई करेइ, करित्ता चउत्थं करेइ, करिता तिणि आयंबिलाई करेइ, करिता उत्थं करेइ, करिता चत्तारि आयंबिलाई करेइ, करिता चउत्थं करे, करिता पंच आयंबिलाई करेइ, करिता चउत्थं करे, .. करिता चउत्थं करेइ, करिता छ आयंबिलाई करेइ, करिता चउत्थं करेइ, करिता एकोत्तरियाए बुड्ढीए आयंबिलाई वड्ढति चउत्थंतरियाई, जाव आयंबिलसयं करेइ, करिता चउत्थं करेइ ॥ सू० १६ ॥
॥ टीका ॥
' एवं ' इत्यादि । 'एवं महासेणकण्हा वि' एवं महासेनकृष्णाऽपि सम्पूर्ण की। इसकी एक परिपाटी में ग्यारह महीना पन्द्रह दिन लगे, चारों परिपाटियों में कुल तीन वर्ष दस महीने लगे । इस प्रकार तप करके अन्तसमय सिद्धपद को प्राप्त हुई || सू० १५ ।। [ पितृसेनकृष्णानामक नवम अध्ययन समाप्त ]
दसवें अध्ययन में जम्बूस्वामी के प्रश्न करने पर सुधर्मा પરિપાટીમાં અગીયાર મહિના પંદર દિવસ લાગ્યા. ચારેય પરિપાટીએામાં કુલ ત્રણ વર્ષાં દશ મહિના લાગ્યા. આ પ્રકારે તપ કરીને અંતસમયે સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત થઇ (સૂ॰ ૧૫) [ પિતૃસેનકૃષ્ણાનામનું નવમ અધ્યયન સમાપ્ત ]
દશમા અધ્યયનમાં જ ખૂસ્વામીએ પ્રશ્ન કરવાથી સુધર્માવામીએ કહ્યું-ડે
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अन्तकृतदशाङ्गस्त्रे
यथा काल्यादयो निष्क्रान्तास्तथैवेयमपि । परमस्या वर्णने 'णवरं' विशेषः अयम्- यदियम् 'आयंबिलवडूमाणं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरई' आचामाम्लवर्द्धमानम् = आचामाम्लं वर्द्धमानं यस्मिन् तपःकर्मणि तद् आचामाम्लवर्द्धमानम्, तपःकर्म उपसंपद्य विहरति, 'तं जहा' तद्यथा तदेव दर्शयतिआयंबिलं ' इत्यादिना । 'आयंबिलं करेइ' आचामाम्लं करोति, 'करिता चउत्थं करेइ, करिता वे आयंबिलाई करेइ' कृत्वा चतुर्थं करोति, कृत्वा द्वे आचामामले करोति, 'करिता चउत्थं करे, करिता तिण्णि आयंबिलाई करेई' कृत्वा चतुर्थं करोति, कृत्वा त्रीणि आचामाम्लानि करोति, 'करिता चउत्थ करे' कृत्वा चतुर्थं करोति, 'करिता चत्तारि आयंविलाई 'करेड़' कृत्वा चत्वारि आचामाम्लानि करोति, 'करिता चउत्थं करेड' कृत्वा चतुर्थी करोति, 'करिता पंच आयंविलाई करेइ' कृत्वा पञ्च आचामाम्लानि करोति, 'करिता उत्थं करे' कृत्वा चतुर्थं करोति, 'करिता छ आयंविलाई करेड़' कृत्वा पडाचामांम्लानि करोति, 'करिता चउत्थं करेड' कृत्वा चतुर्थ करोति, 'करिता ' कृत्वा, अनेन प्रकारेण क्रमश 'एकोत्तरियाए बुडीए' एकोत्तरिकया हृद्धया 'आयंविलाई वğति चउत्थंतरियाई' आचामाम्लानि वर्द्धन्ते चतुर्थान्तरितानि । स्वामीने कहा- हे जम्बू ! इस अध्ययन में महासेनकृष्णा का वर्णन है । यह भी महाराज श्रेणिक की रानी और महाराज कूणिक की छोटी माता थी । यह भी भगवान महावीर के समीप उपदेश सुनकर प्रव्रजित हुई, और चन्दनबाला आर्या की आज्ञा से 'आयम्बिल - वर्द्धमान' नामक तप करने लगी । सर्वप्रथम इसने आयम्बिल किया। दूसरे दिन उपवास किया । फिर दो आयम्बिल किये, उपवास किया। तीन आयम्बिल किये, उपवास किया। चार आयम्बिल किये, उपवास किया। पांच आयम्बिल किये, उपवास किया । यों बीच २ में उपवास करती हुई एक सौ आयम्बिल तक किये और જમ્મૂ! આ અધ્યયનમાં મહાસેનકૃષ્ણાનું વર્ણન છે. આ પણ મહારાજ શ્રેણિકની રાણી અને મહારાજ કૃણિકની નાની માતા હતી. એ પણ ભગવાન મહાવીરની પાસે ઉપદેશ . સાંભળી પ્રત્રજિત થઈ અને ચંદનમાળા આય઼ની આજ્ઞાથી ‘આયખિલ વમાન” નામનું તપ કરવા લાગી. સૌથી પહેલાં તેમણે આયખિલ કર્યું, ખીજે દિવસે ઉપવાસ કર્યાં, પછી એ આયખિલ કર્યાં, ઉપવાસ કર્યાં, ત્રણ આયખિલ કર્યાં, ઉપવાસ કર્યાં, ચાર मायें जिस य, उपवास य; यांय आय मिस य, उपवास ये, मेभ वयवयभां
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महासेनकृष्णाचरितम्
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इयं महासेनकृष्णा आनुपूर्व्या एकैकदृद्धया 'जाव आयंबिलसर्य करेइ' यावदाचामाम्लशतं करोति, 'करिता चउत्थं करेड़' कृत्वा चतुर्थे करोति । सू० १६ ॥ ॥ मूलम् ॥
तए णं सा महासेणकण्हा अज्जा आयंबिलवड्ढमाणं तवोकम्मं चोदसहि वासेहि तिहि य मासेहिं वीसेहि य अहोरतेहिं अहासुतं जाव सम्मं कारणं फासेइ जाव आराहेत्ता जेणेव अज्जचंदणा अजा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अजचंदणं अजं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता बहूहिं उत्थेहिं जाव भावेमाणी विहरइ । तए णं सा महासेणकण्हा अज्जा तेणं ओरालेणं जाव उवसोमाणी चिट्ठइ ॥ सू० १७ ॥ ॥ टीका ॥
'तए णं' इत्यादि । 'तए णं सा महासेणकण्हा अज्जा आयंबिलवडूमाणं तत्रोकम्मं चोदसहिं वासेहिं तिहि य मासेहि वीसेहि य अहोर ते हिं' ततः खलु सा महासेनकृष्णा आर्या आचामाम्लवर्द्धमानं तपःकर्म चतुर्दशभिaar माविंशत्या च अहोरात्रै: 'अहामुतं जाव सम्मं कारण फासे ' यथासूत्रं यावत् सम्यक् कायेन स्पृशति, 'जाव आराहित्ता' यावदाराध्य = उपवास किया। इस प्रकार 'आयम्बिल - वर्द्धमान' नामक तप पूरा किया || सू० १६ ॥
इस प्रकार महासेनकृष्णा आर्या ने आयम्बिल - वर्द्धमान तपस्या का, चौदह वर्ष तीन मास और बीस दिनों में, सूत्रोक्तविधि से आराधन किया । इसमें आयम्बिल के दिन पाँच हजार पचास और उपवास के दिन एक सौ होते हैं, इसप्रकार सब मिला कर पाँच हजार एक सौ पचास दिन होते हैं । यहाँ पर ઉપવાસ કરતી થકી એક્સે આયખિલ કર્યાં અને ઉપવાસ કર્યાં. આ પ્રકારે આખિલ– વમાન નામનું તપ પૂરૂં કર્યુ (સ્૦ ૧૬)
એ રીતે મહાસેનકૃષ્ણા આર્યાએ આખિલવદ્ધમાન તપસ્યાનું, ચૌદ વર્ષ ત્રણ માસ અને વીસ દિવસેમાં સૂત્રાકત–વિધિથી આરાધન કર્યું. એમાં આયમિલના દિવસ પાંચ હજાર પંચાસ અને ઉપવાસના દિવસ એકસે થાય છે. એ પ્રકારે બધા મળીને પાંચહજાર એકસે પચાસ દિવસ થાય છે. અહીં એક વર્ષ ના ત્રણસે સાઠ દિવસ
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अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे
सूत्रानुसारेण सम्यगाराध्येति भावः, 'जेणेव अज्जचंदणा अज्जा' यत्रैव आर्यचन्दनाsse 'तेणेव उवागच्छन्' तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता अजचंदणं अनं बंदर णमंस' उपागत्य आर्यचन्दनामार्यां वन्दते नमस्यति, 'वंदना णमंसित्ता वहहिं चउत्थेहिं जाव भावेमाणी' वन्दित्वा नमस्यित्वा बहुभिश्चतुर्थैर्यावद् भावयन्ती = अनेकविधैश्चतुर्थादिमासार्धमासपर्यन्तैस्तपःकर्मभिरात्मानं भावयन्ती 'विहरइ' विहरति । 'तए णं सा महासेणकण्हा अज्जा' ततः खलु सा महासेनकृष्णाऽऽर्या 'तेणं ओरालेणं जाव उवसोभेमाणी २ चि' तेन उदारेण तपसा यावत् उपशोभमाना २ तिष्ठति ॥ म्रु० १७ ॥ ॥ मूलम् ॥
तए णं तीसे महासेणकण्हाए अज्जाए अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरन्तकाले चिंता, जहा खंदयस्स जाव अज्जचंदणं अजं आपुच्छर जाव संलेहणा, कालं अणवखमाणी विहरs | तणं सा महासेणकण्हा अज्जा अज्जचंदणाए अज्जाए अंतिए सामाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजित्ता, बहुपडिपुन्नाई सत्तरस वासाईं परियायं पालइत्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेत्ता, सट्ठि भाई अणसणाए छेदेत्ता, जस्सट्राए कीरइ जाव तम आराहेइ, चरिमउस्सासणीसासेहिं सिद्धा बुद्धा ॥ सू० १८ ॥ वर्ष तीन सौ साठ दिन का माना गया है । इस तप में चढना ही है उतरना नहीं है । बाद में वह आर्या जहाँ आर्यचन्दनबाला आर्या थी वहाँ आयी, और उन्हें वन्दन - नमस्कार किया । अनन्तर बहुत सी चतुर्थ आदि तपस्यायें करती हुई विचरने लगी । उन कठिन तपस्याओं के कारण वह आर्या अत्यन्त दुर्बल होगयी, तथापि आन्तरिक तेज के कारण अत्यन्त शोभायमान थी ॥ सू० १७ ॥ માનવામાં આવ્યા છે. આ તપમાં ચઢવું જ છે ઉતરવાનું નથી. પછી જયાં આ ચંદનખાલા આર્યાં હતી ત્યાં તે આર્યાં આવી અને તેમને વંદન નમસ્કાર કર્યાં. અનતેર ચતુર્થ આદિ ઘણી તપસ્યાએ કરતી થકી વિચરવા લાગી. એ કઠિણુ તપસ્યાને કારણે તે આર્યાં અત્યંત દુ લ થઇ ગઇ, તથાપિ આંતરિક તેજને કારણે અત્ય’ત शोलायमान हुती. (सू० १७ )
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, महासेनकृष्णाचरितम्
२९३ .. ॥ टीका ॥... । 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तीसे महासेणकण्हाए अजाए' ततः खलु तस्या महासेनकृष्णाया आर्यायाः 'अण्णया कयाई' अन्यदा कदाचित् . 'पुव्वरत्तावरत्तकाले" पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रेः पश्चिमभागे इत्यर्थः; 'चिंता' चिन्ता 'जहा खंदयस्स' यथा स्कन्दकस्य यथा स्कन्दकस्य चिन्तनं तथैवाऽस्या अपि, 'जाव अजचंदणं अजं आपुच्छइ' यावदार्यचन्दनामार्यामापृच्छति 'जाव । संलेहणा' यावत् संलेखना, तथा 'कालं अणवकंखमाणी विहरई' कालमनवका
क्षन्ती विहरति । 'तए णं सा महासेणकण्हा अन्जा' ततः खलु सा महासेनकृष्णाऽऽर्या 'अज्जचंदणाए अजाए अंतिए सामाइयाइं एकारस अंगाई अहिजित्ता' आर्यचन्दनाया आर्याया अन्तिके सामायिकादीनि एकादश अगानि अधीत्य 'वहुपडिपुन्नाई सत्तरस वासाइं परियायं पालइत्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेत्ता, सहि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, जस्सहाए कीरइ जाव तमढं आराहेइ' बहुमतिपूर्णानि सप्तदश वर्षाणि पर्यायं पालयित्वा, मासिक्या संले
उसके बाद एक समय पिछली रातमें उस महासेनकृष्णा 'आर्या ने हृदय में खन्धक के समान चिन्तन किया कि यह मेरा शरीर तपस्या से कृश हो गया है, तथापि मुझमें अभी उत्थान, बल, वीर्य आदि हैं। इसलिये सूर्योदय होते ही आर्यचन्दनबाला आर्या के समीप जाकर उनसे आज्ञा ले सन्थारा करूँ। तदनुसार उन्होंने चन्दनवाला आर्या के समीप जाकर हाथ जोड कर सविनय सन्थारा के लिये आज्ञा मागी। आज्ञा लेकर मृत्यु को नहीं चाहती हुई सन्थारा करके विचरने लगी । महासेनकृष्णा आर्या आयेंचन्दनबाला आर्या के समीप सामायिक आदि ग्यारह अङ्गों का अध्ययन किया, और पूरे · सत्रह वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला,
ત્યારપછી એક સમયે પાછલી રાતમાં તે મહાસેનષ્ણા આર્યાના હૃદયમાં અંધકની પેઠે એવું ચિન્તન થયું કે આ મારું શરીર તપસ્યાથી કૃશ થઈ ગયું છે, તથાપિ મારામાં હજી ઉત્થાન, બલ, વિર્ય આદિ છે. માટે સૂર્યોદય થતાં જ આર્ય ચંદનબાલાની પાસે જઈને તેમની આજ્ઞા લઈ સંથારો કરીશ. તે પ્રમાણે તેમણે ચંદનબાલા આર્યાની પાસે જઈ હાથ જોડી સવિનયે સંથારા માટે આજ્ઞા માંગી. આજ્ઞા લઈને મૃત્યુને નહી : ચાહતી તે સંથારે કરી વિચારવા લાગી. તે મહાસેનકૃષ્ણ આર્ય, ચંદનબાલા આર્યાની આ પાસે સામાયિક આદિ અગીયાર અંગેનું અધ્યયન કર્યું, અને પૂરા સત્તર વર્ષ સુધી
ચારિત્રપર્યાયનું પાલન કર્યું, તથા માસિકસંલેખનાથી આત્માને સેવિત કરતી થકી
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अन्तकृत दशाङ्गसूत्रे
खनया आत्मानं जोपयित्वा पष्टिं भक्तानि अनशनेन छत्वा यस्यार्थाय क्रियते : यावत्तमर्थमाराधयति यत्माप्त्यर्थं मुण्डभावः स्वीक्रियते तमर्थमाराधितवती । तथा 'चरिस्सासणीसासेहिं सिद्धा बुद्धा' चरमोच्छ्वासनिःश्वासैः सिद्धा बुद्धा मुक्तापरिनिर्माता सर्वदुःखानामन्तं करोति स्म ॥ ० १८ ॥
साम्प्रतं दशानामपि राज्ञीनां दीक्षापर्यायकालमेकगाथया कथयति -
॥ मूलम् ॥ अ य वासा आदी, एकोत्तरिया जाव सत्तरस । एसो खलु परियाओ, सेणियभज्जाण णायव्वो ॥ सू० १९ ॥
॥ टीका ॥
अष्ट च वर्षाणि आदिरेकोत्तरिकया यावत् सप्तदश ।
एष खलु पर्यायः श्रेणिकभार्याणां ज्ञातव्यः ॥ ०१६ || अयमर्थः - आदिः काली आर्या अष्ट वर्षाणि दीक्षापर्यायं पालितवती, इत इतरा नव सुकालीमारभ्य महासेनकृष्णपर्यन्ता आर्याः क्रमेण एकोत्तरिकया वृद्धया सप्तदश वर्षाणि यावद् दीक्षापर्यायं पालितवत्यः, अर्थाद् - द्वितीया नव वर्षाणि, तृतीया दश वर्षाणि, तुरीया एकादश वर्षाणि पञ्चमी द्वादश वर्षाणि, पष्टी त्रयोदश वर्षाणि सप्तमी चतुर्दश वर्षाणि, अष्टमी पञ्चदश वर्षाणि नवमी तथा मासिक संलेखना से आत्मा को सेवित करती हुई साठ. भक्तों को अनशन से छेदित कर अन्तिम श्वासोच्छ्वास में अपने सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर मुक्ति में पहुँची ॥ सृ० १८ ॥
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इन देशों आर्याओं में प्रथम काली आर्याने आठ वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला । दूसरी सुकाली आर्या ने नौ वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला। इस प्रकार क्रमशः उत्तरोत्तर एक एक रानी के સાઠ ભકતાનું અનશનથી છેદન કરી અંતિમ શ્વાસોચ્છ્વાસમાં પેાતાના સોંપૂર્ણ કને नष्टभोक्षमां गई. ( सू० १८ )
આ દશેય આર્યાએમાં પ્રથમ કાલી આર્યાએ આઠ વર્ષ સુધી ચારિત્રષચ પાન્યા. બીજી સુકાલી આર્યાએ નવ વર્ષ સુધી ચારિત્રપાઁય પાળ્યેા. એ પ્રકારે ક્રમશ: ઉત્તરાત્તર એક એક રાણીના ચારિત્રયમાં એક એક વર્ષના વધારા જાણવા. એ પ્રકારે છેલ્લી રાણી મહાસેનકૃષ્ણાએ સત્તર વર્ષ સુધી ચારિત્રપર્યાય પાળ્યા. આ બધી
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, शास्त्रोपसंहारः
२९५ पोडश वर्षाणि, दशमी सप्तदश वर्षाणि दीक्षापर्यायं पालितवती । एषः = पूर्वोक्तरूपः खलु = निश्चयेन पर्यायः = दीक्षापर्यायः, श्रेणिकभार्याणां काल्यादीनां दशानां महाराज्ञीनां ज्ञातव्यः = विज्ञेयः ॥ मू०. १९ ॥ .. [ महासेनकृष्णानामकं दशममध्ययनं समाप्तम् ] .
॥ मूलम् ॥ . एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं जाव संपत्तेणं अहमस्स अंगस्त अंतगडदसाणं अयमढे पाणतेत्ति बेमि । अंतगडदसाणं अंगस्स एगो सुयक्खंधो, अट्ट वग्गा, अटुसु चेव दिवसेसु उदिसिजति, तत्थ पढमबितियवग्गे दस दस उद्देसगा, तइयवग्गे तेरस उद्देसगा, चउत्थपंचमवग्गे दस दस उद्देसगा, छटुवग्गे सोलस उद्देसगा, अट्टमवग्गे दस उदेसगा। सेसं जहा नायाधम्मकहाणं ॥ सू० २० ॥
.. ॥ इय अंतगडदसांगसुत्तं समत्तं ॥ .. ..
॥ टीका ॥ . शास्त्रं समापयन् सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह-एवं खल जंबू !' इत्यादि । चारित्रपर्याय में एक एक वर्ष की वृद्धि जानना, इस प्रकार अंतिम रानी महासेनकृष्णा ने सत्रह वर्ष तक चारित्रपर्याय पाला। ये सभी महाराज कूणिक की रानिया थीं, और महाराज कूणिक की छोटी माताएँ थीं ॥ सू० १९ ॥
[ महासेनकृष्णानामक दशम अध्ययन संपूर्ण ] . हे जम्बू ! अपने शासन की अपेक्षा से धर्म के आदि करने वाले श्रमण भगवान महावीर जो मोक्ष में पधार गये उन्होंने "आठवें अङ्ग 'अन्तकृतसूत्र' का यह भाव प्ररूपित किया है। મહારાજ શ્રેણિકની રાણીઓ હતી અને મહારાજ કૃણિકની નાની માતાઓ डती. (सू० १८).
[महासेन नाम शभु मध्ययन संपूर्ण ] - હે જંબૂ! પોતાના શાસનની અપેક્ષાથી ધર્મના આદિ કરવાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર જે મોક્ષમાં પધારી ગયા તેમણે આઠમા અંગ “અન્નકૃતસૂત્રને આ ભાવ
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२९६
अन्तकृतदशाङ्गसूत्रे . 'एवं खलु जंबू!' एवं खलु जम्बूः !-हे जम्बूः ! एवम् = अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण खलु 'समणेणं भगवया. महावीरेणं आइगरेणं' श्रमणेन भगवता महावीरेण आदिकरेण 'जाव संपत्तेणं' यावत्संप्राप्तेन = यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं गतेन 'अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अयमढे पण्णत्ते' अष्टमस्याङ्गस्य अन्तकृतदशानाम् अयमर्थः प्रज्ञप्तः = अन्तकृतां मुनीनां जन्मप्रभृतिमोक्षपर्यन्तवर्णनरूपोऽर्थ उक्तः, 'त्ति चेमि' इति ब्रवीमि । हे जम्बूः ! यथा भगवत्समीपे मया श्रुतं तथैव त्वां प्रति ब्रवीमि । पुनः सुधर्मा स्वामी कथयति-हे जम्बूः ! 'अंतगडदसाणं अंगस्स एगो सुयक्खंधो' अन्तकृतदशानामङ्गस्य एकः श्रुतस्कन्धः, 'अट्ठ वग्गा' अष्ट वर्गाः, 'असु चेव दिवसेसु उदिसिज्जंति' अष्टसु एव दिवसेषु उद्दिश्यन्ते = उपदिश्यन्ते । 'तत्थ पढमवितियवग्गे दस दस उद्देसगा' तत्र प्रथमद्वितीयवर्गयोः दश दश उद्देशकाः, 'तइयवग्गे तेरस उद्देसगा' तृतीयवगै त्रयोदश उद्देशकाः, 'चउत्थपंचमवग्गे दस दस उदेसगा' चतुर्थपञ्चमवर्गयोर्दश दश उद्देशकाः, 'छट्टबग्गे सोलस उद्देसगा' पष्टवर्ग पोडश उद्देशकाः, 'सत्तमवग्गे तेरस उद्देसगा' सप्तमवर्गे त्रयो दश उद्देशकाः, 'अट्टमवग्गे दस उद्देसगा' अष्टमवर्गे दश उद्देशकाः, । 'सेसं जहा नायाधम्मकहाणं' शेषं यथा ज्ञाताधर्मकथानाम्-शेष संक्षिप्तोक्तिवशादवशिष्टं अगवान के समीप जैसा मैंने सुना उसी प्रकार तुम्हें कहा । इस अन्तकृत में एक श्रुतस्कन्ध और आठ वर्ग हैं। इसको पर्युषण के आठ दिनों में बाचा जाता है। इसके प्रथम और द्वितीय वर्ग में दस-दस उद्देश-अध्ययन हैं, तीसरे वर्ग में तेरह, चौथे और पाचवे वर्ग में फिर दस-दस अध्ययन हैं, छठे वर्ग में सोलह, सातवें और आठवें में क्रमशः तेरह और दस अध्ययन हैं। इस सूत्र में नगरादि का वर्णन संक्षेप में किया गया है। नगर आदि પ્રરૂપિત કર્યો છે. ભગવાનની પાસે જે પ્રમાણે સાંભળ્યું તે પ્રકારે મેં તમને સંભળાવ્યું.
આ અન્નકૃતમાં એક શ્રુતસ્કન્ધ અને આઠ વર્ગ છે. આ સૂત્ર પર્યુષણના આઠ દિવસેમાં વંચાય છે. એના પ્રથમ અને દ્વિતીય વર્ગમાં દશ દશ ઉદ્દેશ–અધ્યયન છે. ત્રિીજામાં તેર, ચેથા અને પાંચમાં વર્ગમાં દશ દશ અધ્યયન છે. છટ્ઠ વર્ગમાં સેળ, સાતમા અને આઠમામાં ક્રમશ: તેર અને દશ અધ્યયન છે. આ સૂત્રમાં નગર આદિનું
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मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका, शास्त्रप्रशस्तिः
२९७ नगरादिवर्णनादारभ्य बोधिलाभान्तक्रियादि सर्व सविस्तरं ज्ञाताधर्मकथावद् विज्ञेयम् ॥ मू० २० ॥
॥ इति श्रीमदन्तकृतदशाङ्गसूत्रं समाप्तम् ।।
अथ शास्त्रप्रशस्तिः . . पारेख-गोत्र-जातस्य, मोर्वीभूपादृतस्य च । श्रेष्ठिनिर्भयरामस्य, राजकोटस्थसद्मनि । ॥१॥ नामतः शान्तिसदने,नवम्यां कार्तिके सिते।
ज्यधिके द्विसहस्रेऽन्दे, टीकेयं पूर्णतां गता॥२॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्द्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त- जैनशास्त्राचार्य'-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलाल-व्रतिविरचिता अन्तकृतदशाङ्गसूत्रस्य मुनिकुमुदचन्द्रिका टीका समाप्ता ॥
॥ शुभं भूयात् ॥ .
से लेकर बोधिलाभ और अन्तक्रियादि का सविस्तर वर्णन ज्ञाताधर्मकथाङ्ग के समान जानना चाहिये ॥ सू० २० ॥
॥ इति अन्तकृतसूत्र संपूर्ण ॥
વર્ણન સંક્ષેપથી કરવામાં આવ્યું છે. નગર આદિથી માંડીને બેધિલાભ અને અંતક્રિયા આદિનું સવિસ્તાર વર્ણન જ્ઞાતાધર્મકથાંગની સમાન જાણવું જોઈએ. (સૂ૦ ૨૦)
ઇતિ અન્તકૃતસૂત્ર સંપૂર્ણ.
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លី
៩ លី
આજ સુધી પ્રસિદ્ધ થયેલાં સૂત્રો શાસ્ત્રોને ને. શાસ્ત્રનું નામ
ભાગ
કિંમત ઉપાસક દશાંગ દશવૈકાલિક
૧૦-૦-૦ ૨ જે
૭-૮-૦ આચારંગ
૧૨-૦-૦ ૧૦-૦-૦
૧૦-૦-૦ આવશ્યક
૭-૮-૦
૭-૮-૦ ૧૧ -
૧૨-૦-૦
૨૫-૦–૦ ઉપરનાં ૧૦ સૂત્રે નવા જુના દરેક મેમ્બરને મોકલી દીધાં છે. ૧૨
અન્તકૃત
៩
៩
૫ થી ૯ નીશ્યાવલીકા (પાંચ સૂત્ર સાથે)
નદી
વિપાક
* * *1૪
અનુત્તરપપાતીક
૧૦-૦-૦
૩-૮-૦
૭-૦-૦
* ૧૫ • •
દશાશ્રુત આ ચાર સૂત્રો જુના મેમ્બરોને મોકલી દીધાં છે, જ્યારે નવા મેમ્બરને, બીજી આવૃત્તિ બહાર પડયેથી તુરત મેકલવામાં આવશે.
. હાલમાં સુરતમાં બહાર પડે છે. . . , અન્નકૃત (બીજી આવૃત્તિ) તથા ઉજવાઈ સૂત્ર.
દિવાળી પછી બહાર બહાર પડશે. કલ્પ સૂત્ર (બીજો ભાગ), ઉત્તરાધ્યયન, વિપાક (બીજી આવૃત્તિ),
અનુત્તરપપાતીક (બીજી આવૃત્તિ), દશાશ્રુત સ્કંધ (બીજી આવૃત્તિ) રાજકોટ, તા. ૧-૯-૫૮.
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છે. દાનવીરોની નામાવલી |
શ્રી અખિલ ભારત વેતામ્બર સ્થાનકવાસી
જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ.
ગરેડીયા કુવા રેડ – ગ્રીન લેજ પાસે,
ર જ કે ટ.
શરૂઆત તા. ૧૮-૧–૪૪ થી તા. ૧૫-૮-૫૮ સુધીમાં
દાખલ થયેલ મેમ્બરેનાં મુબારક નામે
ગામવાર કકાવારી લિસ્ટ.
- (રૂ. ૨૫૦ થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં
સામેલ કરેલ નથી.)
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આઘમુરબ્બીશ્રીઓ-૫
(ઓછામાં ઓછી રૂા. ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર) - નંબર :
નામ
ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૦૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ વારીયા હા. શેઠ લાલચંદભાઈ.
જેચંદભાઈ, નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ તથા વલ્લભદાસભાઈ , ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કઠારી જેચંદભાઈ અજરામર હા. હરગોવીંદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકેટ પર૫૧ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ
સેલાપુર ૫૦૦૧ ૫ સ્વ. પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે હ. ભેગીલાલ છગનલાલ ભાવસાર
અમદાવાદ પર૫૧ મુરબ્બીશ્રીઓ-૨૧ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વર્ધમાન કઠારી હ. કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ
જેતપુર ૩૬૦૫ ૨ દેશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ
રાજકેટ ૩૬૦૪ ૩ મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ
રાજકેટ ૩૨૮ાાના ૪ મહેતા માણેકલાલ અમુલખરાય
ઘાટકોપર ૩૨૫૦ ૫ સંઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચંદ ' : જામનગર ૩૧૦૧ શેઠ શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણું
રાજકોટ ૨૫૦૦ નામદાર ઠાકોર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર
મેરબી ૨૦૦૦ ૮ શેઠ હેરચંદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચંદ લહેરચંદ સિંદ્ધપુર ૨૦૦૦ ૯ શાહ છગનલાલ હેમચંદ વસા હા. મેહનલાલભાઈ તથા મોતીલાલભાઈ
મુંબઈ ૨૦૦૦ ૧૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
મેરબી ૧૬૩ ૧૧ મહેતા સેમચંદ તુલસીદાસ તથા તેમનાં ધર્મપત્નિ અસી. મણીગૌરી મગનલાલ
રતલામ ૧૫૦૦ ૧૨ મહેતા પોપટલાલ માવજીભાઈ
જામજોધપુર ૧૩૦૧ ૧૩ દોશી કપુરચંદ અમરશી હા. દલપતરામભાઈ
જામજોધપુર ૧૦૦૨ ( ૧૪ બગડીઆ જગજીવનદાસ રતનશી • •
- દામનગર ૧૦૦૨ - ૧૫ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ . . . . .
અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૧૬ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ
પિરિબંદર ૧૦૦૧ , ૧૭ શ્રીમાન ચાંદ્રસિંહજી મહેતા (રેલ્વે મેનેજર સાહેબ) કલકત્તા ૧૦૦૧ - ૧૮ મહેતા સમચંદ નેણસીભાઈ (કરાંચીવાલા).. . મેરખી ૧૦૦૧
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૧૯ શાહ હરીલાલ અને ચંદભાઈ
ખંભાત ૧૦૦૧ ૨૦ કે ઠારી છબીલદાસ હરખચંદભાઈ
મુંબઈ ૧૦૦૦ ૨૧ કે ઠારી રંગીલદાસ હરખચંદભાઈ
શિહોર ૧૦૦૦ સહાયક મેમ્બરે-૪૧ (ઓછામાં ઓછી રૂા. પ૦૦ની રકમ આપનાર) ૧ શાહ રંગજીભાઈ મોહનલાલ
અમદાવાદ ૭૫૧ - ૨ કેદી કેશવલાલ હરીચંદ્ર
સાબરમતી ૭૫૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ હા. શેઠ ઝુંઝાભાઈ વેલસીભાઈ વઢવાણ શહેર ૭૫૦ * ૪ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ
શીવ ૭૦૦ ૫ શેઠ રતનશી હરજીભાઈ હા. ગોરધનદાસભાઈ
જામજોધપુર . પપપ ૬ બાટવીયા ગીરધર પ્રમાણંદ હા. અમીચંદભાઈ ખાખીજાળીઆ પર૭ ૭ મોરબીવાળા સંઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્નિ
અ. સ. મણીબાઈ તરફથી હું મુલચંદ દેવચંદ (કરાંચીવાલા) મલાડ ૫૧૧ ૮ વોરા મણીલાલ પિપટલાલ
અમદાવાદ ૫૦૨ ૯ ગોસલીયા હરીલાલ લાલચંદ તથા અ. સી. ચંપાબેન ગોસલીયા
અમદાવાદ ૧૦૨ ૧૦ શાહ પ્રેમચંદ માણેકચંદ તથા અ.સૌ. સમરતબેન (રાજસીતાપુર) અમદાવાદ ૧૦૨ ' ૧૧ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૨ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૩ શાહ શાન્તીલાલ માણેકલાલ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૪ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાંચીવાલા)
લીંમડી ૫૦૧ ૧૫ કામદાર તારાચંદ પોપટલાલ ધોરાજીવાળા
રાજકેટ ૫૦૧ ૧૬ મહેતા મેહનલાલ કપુરચંદ
રાજકોટ ૫૦૦ ૧૭ શેઠ ગોવીંદજી પોપટભાઈ
રાજકોટ ૫૦૦ ૧૮ શેઠ રામજી શામજી વીરાણ
રાજકેટ ૧૦૧ ૧૯ સ્વ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે - હા. વેણચંદ શાન્તીલાલ (જાબુવાળા)
મેઘનગર ૫૦૧ ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૨૧ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજજી
ઔરંગાબાદ ૫૦૦ ૨૨ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંધ
ઔરંગાબાદ ૫૦૦ ૧૫. શેઠ શેષમલજી જીવરાજજી + ૧૨૫ શેઠ અનરાજજી લાલચંદજી. . ૧૨૫ ધુકડચંદજી રૂપચંદજી . . . . .
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૧૦૦ દગડુમલજી ચાંદમલજી
શીવ
S
૫૦૦ ૨૩ મહેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૭૫૦. ૨૪ શેઠ હરખચંદ પુરુષોત્તમ હા. ઈન્દુકુમાર
એરવાડ ૫૦૦ ૨૫ શેઠ કેસરીમલજી વસતીમલજી ગુગલીયા
રાણાવાસ ૫૦૧ ૨૬ સ્થા. જૈનસંઘ હા. બાટવીઆ અમીચંદ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીઆ ૫૦૧ ર૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ હા. કુલચંદભાઈ, નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ
મુંબઈ ૫૦૧ ૨૮ શેઠ મણીલાલ મોહનલાલ ડગલી હા. મુળજીભાઈ મણીલાલ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૯ સ્વ. કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ બાલચંદ સાકચચંદ મુંબઈ ૫૦૧ ૩૦ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા)
મુંબઈ ૫૦૧ ૩૧ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ
શીવ ૫૦૧ ૩ર વેરા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ
૫૦૧ ૩૩ શેઠ ગુલાબચંદ ભુદરભાઈ
ખારોડ ૫૦૧ ૩૪ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા
ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૫ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૬ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ
રાજકેટ પ૦૧ ૩૭ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા એ. સી. નંદકુંવરબેન તરફથી જામનગર ૧૦૩ ૩૮ શેઠ દેવચંદ અમરશી (બેન ધીરજકુંવરની દિક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૯ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ (બેન ધીરજકુંવરની દિક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ પ૦૧ ૪૦ વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ
વીરમગામ ૫૦૧ ૪૧ મહેતા શાંતિલાલ મણીલાલ હા. કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ ૨૫૬
૩૫૪ મેમ્બરોનું ગામવાર લીસ્ટ
અમદાવાદ તથા પરાંઓ. ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ
૨૫૧ ૨ શેઠ છોટાલાલ વખતચંદ હા. ફકીરચંદભાઈ
૨૫૧ , ૩ શાહ કાન્તીલાલ ત્રીભવનદાસ
૨૫૧ ૪ શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ
૨૫૧ ૫ શાહ પોપટલાલ મેહનલાલ
૨૫૧ ૬ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ
૨૫૦ |૭ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ
૨૫૧ ૮ શેઠે લાલભાઈ મંગળદાસ
૨૫૧ ૯ સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા. કાનજીભાઈ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૧૦ ભાવસાર ભેગીલાલ જમનાદાસ (પાટણવાળા) .. . .
.
૨૫૧
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૨૫૧
૧૧ શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ
'
૨૫૧ - ૧૨ શાહ નરસિંહદાસ ત્રીભવનદાસ
૨૫૧ - ૧૩ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય - - હા. વહીવટ કર્તા શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ
૨૫૧ ૧૪ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠેકેટી સ્થા જૈનસંઘ હા. ચંદુલાલ અચરતલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ Cશાલ બાલાભાઈ મહાસુખરામભાઈ ૧૬ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી
૨૫૧ ૧૭ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. ડે. કુ. સરસ્વતીબહેન શેઠ
૨૫૧ ૧૮ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈનસંઘ હા. શાહ કાન્તીલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૯ માદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ
૨૫૧ , ૨૦ શાહ મેહનલાલ ત્રિકમદાસ
૨૫૧ ૨૧ શ્રી છોટી સ્થા. જૈનસંઘ હા. પિોચાલાલ પીતામ્બરદાસ
૨૫૧ ૨૨ શેઠ પોપટલાલ હંસરાજના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ ૨૫૧ ૨૩ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળાના સ્મરણાર્થે " હા. ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેશાઈ
૨૫૧ ર૪ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય
૨૫૧ ૨૫ શાહ મણીલાલ આશારામ ૨૬ શાહ ચીનુભાઈ સાકરચંદ
૨૫૧ ર૭ શાહ હરજીવનદાસ ઉમેદચંદ
૨૫૧ ૨૮ શાહ રજનીકાન્ત કસ્તુરચંદ
૨૫૧ ૨૯ સંઘવી જીવણલાલ છગનલાલ (સ્થા. જેન)
૨૫૧ - ૩૦ શાહ શાંતિલાલ મેહનલાલ ધ્રાંગધ્રાવાળા
૨૫૨ ૩૧ અ. સી. બેન રતનબાઈ નાદેચા હા. ધુલાજી ચંપાલાલજી ૨૫૧ ૩૨ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાલા
૨૫૧ ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠકેટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય ' હા. ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ
૨૫૧ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા
૨૫૧ ૩૫ શેઠ લાલચંદ મીશ્રીલાલ ૩૬ સ્વ. પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારમલજી બારડીયાના સ્મરણાર્થે હા. મૂળચંદ જવાહરલાલ
૨૫૧ ( ૩૭ સ્વ ભાવસાર બબાભાઈ (મંગળદાસ) પાનાચંદના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ પુરીબેન
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૭૮ સ્વ. પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ. માતુશ્રી મૂળીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. કલભાઈ કોઠારી
૩૦૧ ૧૯ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ
૨૫૧ ૪. શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા. પાર્વતીબેન
૨૫૧ ૪૧ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા (સાબરમતી) ૨૫૧ ૪૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ (સાબરમતી)
૨૫૦ ૪૩ બીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ મેપાણી (રાણપુરવાળા) ૩૦૧ ૪૪ ભાવસાર છોટાલાલ છગનલાલ
૨૫૧ ૪૫ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલ
૨૫૧ ૪૬ અ. સૌ, જીવીબેન રતીલાલ હા. ભાવસાર રતીલાલ હરગોવિંદદાસ ૨૫૧ - ૪૭ સંઘવી બાલુભાઈ કમળશી તથા તેમનાં ધર્મપત્નિઓ અ. સી. ચંપાબેન તથા વસંતબેન તરફથી
૨૫૧ ૪૮ અ.સૌ. વિદ્યાબેન વનેચંદ દેશાઈ હા. ભૂપેન્દ્રકુમાર વનેચંદ દેશાઈ ૨૫૧ ૪૯ સ્વ. પારેખ નાનચંદ ગેવિંદજી મેરબવાળાના સ્મરણાર્થે
હ. રતીલાલ નાનચંદ પારેખ ૩૦૧ ૫૦ શાહ નટવરલાલ કળદાસ
૨૫૧ ૫૧ શાહ શામળભાઈ અમરશી
૨૫૧ પર શાહ ત્રીભવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાર્થે હા. તેમના ધર્મપત્નિ શીવકુંવરબેન તરફથી
હા. રતીલાલ ત્રીવનદાસ ૪૦૨ પ૩ અ. સો. કંકુબેન (ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલના ધર્મપત્નિ) ૩૦૯ ૫૪ અ. સી. સવિતાબેન (જયંતીલાલ ભેગીલાલનાં ધર્મપત્નિ) પપ અ. સૌ શાંતાબેન (દીનુભાઈ ભેગીલાલનાં ધર્મપત્નિ)
‘૨૫૧ પ૬ અ. સી. સુનંદાબેન (રમણભાઈ ભેગીલાલનાં ધર્મપતિન) * ૨૫૧ ૫૭ શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના સ્મરણાર્થે હા. વાગમલજી રૂગનાથજી ૩૦૧ ૫૮ શેઠ મણીલાલ બઘાભાઈ
૨૫૧ ૫૯ પટવા સુમેરમલજી અનેપચંદજી જોધપુરવાળા
૩૦૧ ૬૦ સ્વ. માણેકલાલ વનમાળીદાસ શાહના સમર્ણાર્થે હા. રમણલાલ માણેકલાલ
૨૫૧ ૬૧ સ્વ. શાહ ધનરાજજી ક્ષેમરાજજીનાં સ્મરણાર્થે હા. શાહ કનૈયાલાલજી ધનરાજજી
૩૦૧ અમરેલી ૧ માસ્તર હકમીચંદ દીપચંદ શેઠ
૨૫૧
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રિપ૧ ૨૫૧
૨૫૧
?
૩૦૧
૨૫૧
}
૨૫૧
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અમલનેર - * ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ . . . . . . ' ૨ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હા. શાહ ગાંડાલાલ ભીખાલાલ :
આણંદ '', ૧ શેઠ રમણીકલાલ એ, કપાસી હું. મનસુખલાલભાઈ : "
' ' : સનસેલ * * . " ૧ બાવીસી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ ? મણીબાઈ તરફથી હા. રસીકલાલ, અનીલકત, વિનેદરાય
આટકેટ * ૧ શાહ ચુનીલાલ નારણજી
ઉદેપુર . ૧ શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડ - ૨ શેઠ મગનલાલજી બાગચા
૩ અ, સૌ. બહેન ચંદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહાતલાલજી નાહરનાં - C ધર્મપત્નિ હા. શેઠ રણજીતલાલજી હીંગડ
: ૪ સ્વ. શેઠ કબુલાલજી લોઢાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ દેલતસિંહજી લેઢા
૫ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે . હા. પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા ૬ પૂજ્ય પિતાશ્રી મેતીલાલજી મહેતાના સ્મરણાર્થે
હા. રણજીતલાલજી મોતીલાલજી મહેતા , : ૭. શેઠ છગનલાલ બાગચા . ૮ શેઠ ભીમરાજ થાવરચંદ બાફણ
‘ઉમરગાંવશેડ ૧ શાહ મેહનલાલ પિપટલાલ પાનેલીવાળા
ઉપલેટા * ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ
૨ સ્વ. બેન સંતોકબેન કચરા હા. આગમચંદભાઈ છોટાલાલભાઈ - તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા)
. . . ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા. શેઠ પ્રતાપભાઈ ૪ સંઘાણું મૂળશંકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે " હા. તેમના પુત્ર જયંતીલાલભાઈ તથા રમણીકલાલ ૫ દેશી વિઠ્ઠલજી હરખચંદ (આગળના રૂા. ૧૫૧ મળીને) - એડન કેમ્પ
, : ૧ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી,
પ
.
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
.
૨૫૧
- - ૨૫૧
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'
કલકત્તા
૧ શ્રી કલકત્તા જૈન વે. સ્થા. (ગુજરાતી) સંઘ.
હા. શાહે જયસુખલાલ પ્રભુલાલ
લાલ
૧ શેઠ મેહનલાલ જેઠાભાઇના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ આત્મરામ મેહનલાલ ૨ ડૉ. મયાચદ્ર મગનલાલ શેઠ હા. ડા. રતનચંદે માયા દ
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
3
સ્વ. નાથાલાલ ઊમેદચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહુ રતીલાલ નાથાલાલ ૪ શાહ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા, મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ ૨૫૧ ૫ સ્વસ્થ શ્રીયુત વાડીલાલ પરÀાત્તમદાસના સ્લરણાથે
હા. ઘેલાભાઇ તથા આત્મારામભાઇ
૬. શેઠ નાગરદાસ કેશવલાલ
કડી
૧ શ્રી સ્થા. દરીયાપુરી જૈન સંઘ હા. ભાવસાર દામેાદરદાસ ઇશ્વરભાઈ
ખાખીજાળીયા
૧ ખાટવીયા ગુલાબચંદ લીલાધર (આગળના શૃ. ૧૫૧ મળીને)
ખીચન
૧ શેઠે ક્રીશનલાલ પૃથ્વીરાજ
ખંભાત
૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ
૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. પટેલ કાન્તીલાલ અખાલાલ
શાહ સાકરચંદ મેાહનલાલ
૨૫૧
૩
૪ ચંદુલાલ હરીલાલ
કાનપુર
૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદ (આગળના રૂા. ૧૫૦ મળીને)
૨
શાહ હરકીશનદાસ ફુલચંદ
દણી:– (આટકાટ)
૧ દેશી રતીલાલ ટોકરશી
ફાલકી
૧ પટેલ ગાવી દલાલ ભગવાનજી
૫૧
૨૫ટેલ ખીમજી જેઠાભાઇ વાઘાણી:(તેમના સ્વ. સુપુત્ર રામજીભાઇના સ્મરણાર્થે) ૩૦૨
ગુદા
૧ સ્વ. મહેતા પુનમચંદ ભવાનભાઈના સ્મરણાર્થે હા, તેમનાં ધર્મપત્નિ દીવાળીબેન લીલાધર
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
३००
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ઉપર
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૩૦૧
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૩૦૦
ગેંડળ - ૧ સ્વ. બાખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપરિન કમળબાઈ તરફથી - હ. માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ' ૨ પીપળીઆ લીલાધર દામોદર તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ.
લીલાવતી સાકરચંદ કે ઠારીને બીજા વરસીતપની ખુશાલીમાં ૩ કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા. હરીલાલ જુઠાભાઈ ૪ સ્વ. કઠારી કૃપાશંકર માણેકચંદના સ્મરણાર્થે. " હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ પ્રભાકુંવરબેન
' ' ગોધરા ૧ શાહ ત્રીભોવનદાસ છગનલાલ
ઘટકણું ૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ
દેલવાડ (થાણા) ૧ મહેતા ગુલાબચંદજી ગંભીરમલજી
ચુડા (ઝાલાવાડ) ૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હ. રતીલાલ ગાંધી પ્રમુખ
જલેસર ( બાલાસર) ૧ સંઘવી નાનચંદ પેપટભાઈ થાનગઢવાળા
જામજોધપુર ૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ ૨ શાહ ત્રીજોવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા ૩ દેશી માણેકચંદ ભવાન (આગળના રૂા. ૧૫૧ મળીને) ૪ પટેલ લાલજી જુઠાભાઈ (આગળના રૂા. ૧૫૧ મળીને) ૫ શેઠ બાવનજી જેઠાભાઈ (આગળના રૂા. ૧૫૧ મળીને)
જામનગર . ૧ શેઠ છેટાલાલ કેશવજી ' ૨ વેરા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ
જામખંભાળીઆ ૧ શેઠ વસનજી નારણજી
૨ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હા. મહેતા રણછોડદાસ પરમાનંદ - ૩ સંઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ
. - જુનાગઢ - ૧ શાહ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા. હરીલાલભાઈ (હાટીના માળીઓવાળા)
નારદેવ (મધ્ય પ્રતા) ૧ ઘેલાણ ત્રીકમજી લાધાભાઈ
૨૫૧
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૧૦ *
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૨૫૦
જેતપુર ૧ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હ. નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા)
-૨૫૧ ૨ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ
૨૫૧ ૩ કઠારી ડિલરકુમાર વણલાલ
૨૫૧ ૪ અ. સી. બેન સુરજકુંવર વેણીલાલ કઠારી
૨૫૧ . જેતલસર ૧ શાહ લક્ષમીચંદ કપુરચંદ
૨૫૧ ૨ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ જબકબેન
૨૫૧ તરફથી હા. શાન્તીલાલભાઈ ગેડલવાળા
ડભાસ ૧ સ્વ. તુરખીઆ લહેરચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ જીવતીબાઈ તરફથી હા. જયંતીભાઈ
ડોંડાઈચા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ ચંપાલાલજી માર
: -થાનગઢ . . ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી
૨૫૧ ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભવનદાસ ' .
૨૫૧ ૩ શાહ ધારશી પાશવીર હા. સુખલાલભાઈ
ર૫૧ દહાણુ રેડ (થાણા) ૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખંધાર (કરાંચીવાળા)
૨૫૧ દિલ્હી : ૧ લાલા પૂર્ણચંદજી જેન (સેન્ટ્રલ બેંકવાળા)
૩૫૧ ૨ શ્રીયુત મહેતાબચંદ જૈન
૨૫૧ ધાર (મધ્યપ્રાંત) ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી
ધાંગધ્રા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સંઘ હ. શેઠ મંગળજીભાઈ જીવરાજ ૨૫૧ ૨ સંઘવી નરસીદાસ વખતચંદ
૩૦૧ ૩ ઠકકર નારણદાસ હરગોવીંદદાસ
રિ૫૧ ૪ ઠારી કપુરચંદ મંગળજી ,
• ૨૫૧
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૧.શ્વેતા પ્રભુદાસ મૂળજીભાઇ
સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઇના સ્મરણાર્થે હા. પટેલ દલીચંદે ભગવાનજી
૧૧
ધારાજી
૩ અ. સૌ. મચીબેન ખાભુભાઈ ૪ધી નવસૌરાષ્ટ્ર ઓઇલ સીલ પ્રા. લીમીટેડ
૫ સ્વ. રાયચંદ પાનાચંદ શાહના સ્મરણાર્થે હા. ચીમનલાલ રાયચંદ ૬ ગાંધી પેાપટલાલ જેચંદ
૭ દેશાઇ છગનલાલ ડાહ્યાભાઇ લાડવાળાનાં ધર્મપત્નિ દિવાળીબેન
તરફથી હા. કુમારી હસુમતી
ધંધુકા
ભાવસાર ખેાડીદાસ ગણેશભાઇ
૧
૨ શેઠ પેપટલાલ ધારશી
3
સ્વ. ગુલામચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા. વેારા પાપટલાલ નાનચંદ ૪ વસાણી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ
નંદુરબાર
૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સોંધ હા. શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ
પાણસણા
- ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ
૧
પાલણપુર લક્ષ્મીમેન હા. મ્હેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ શ્રી લેાકાગચ્છ સ્થાનકવાસી જૈન પુસ્તકાલય
પાલેજ
૧
સ્વ. મનસુખલાલ મેહનલાલ સંઘવીના સ્મરણાર્થ
હા. ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ
બરવાળા (ઘેલાશા)
સ્વ. મેહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મ પત્નિ સુરજબેન મારારજી
બગસરા (ભાયાણી)
૧ ́શેઠ પોપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હા. શેઠ માનસંગ પ્રેમચંદ
મેરાજા (કચ્છ)
૧ શેઠ ગાંગજી કેશવજી (જ્ઞાનભ ડાર માટે)
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૧૨
એગલાર
૧ બાટવીયા વનેચંદ અમીચંદ મહાવીર ટેક્ષટાઇલ સ્ટાર તરફથી ભાઈ ચંદ્રકાંતના લગ્નની ખુશાલીમાં
મેાટાદ
૧
સ્વ. વસાણી હરગોવીંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મ પત્નિ છખલખેન
૨ સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ (૨૫૦ ખાકી )
માડેલી
૧ શાહ પ્રવીણચંદ્ર નરસીદાસ (સાણંદવાળા)
ગ્
શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ
ભાણવડ
૧ શેઠ જેચંદભાઇ માણેકચંદ
૨
સંઘવી માણેકચંદ માધવજી
૩ શેઠ લાલજીભાઇ માણેકચંદ (લાલપુરવાળા)
૪ શેઠ રામજી જીણાભાઇ
૫ શેઠ પદમશી ભીમજી ફ્રાફી
૬ ફેશી
૭ વકીલ મણીલાલ ખેંગારભાઈ પૂનાતર
ગાંડાલાલ કાનજીભાઈ હા. અ. સૌ. શાંતામેન વસનજી
ભાજાય (કચ્છ)
૧ જ્ઞાન મંદિરના સેક્રેટરી શાહ કુંવરજી જીવરાજ
મદ્રાસ
૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી
મનાર (થાણા)
૧ શાહ શેરમલજી દૈનીચંદજી જસવંતગઢવાળા હા. પૂનમચંદજી શેરમલજી એલ્યા
માનકુવા (કચ્છ) સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાલાલના સ્મરણાર્થે હા, તેમનાં ધર્મપત્નિ કુંવરબાઇ હરખચંદ
( માનકુવા સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ માટે ) મુંબઈ તથા પરા
૧ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ
- ૨ શાહ હરજીવન કેશવજી .
પર
૨૫૧
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૫૧
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૨૫૧ રૂપા
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-
૩ ઘેલાણું પ્રભુલાલ ત્રિીકમજી (બેરીવલી).
૨૫૨ - ૪ શેઠ છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટેરીવાલા
૨૫૧ ૫ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન સંઘ .. હા. કેશરીમલજી અનોપચંદજી ગુગળીયા (મલાડ)
૨૫૧ ૬ શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વીસરીયા
૨૫૧ ૭ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ. સી. કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૮ શાહ હિંમતલાલ હરજીવનદાસ
૨૫૧ ૯ શાહ રતનશી મણશીની કંપની છે, ૧૦ શાહ શીવજી માણેક (કચ્છ બેરાજાવાળા) ૧૧ વેરા પાનાચંદ સંઘજીના સ્મરણાર્થે હા. નંબકલાલ પાનાચંદ એન્ડ બ્રધર્સ
૨૫૧ ૧૨ સ્વ. પૂ. પિતાશ્રી વીરચંદ જેસીંગભાઈ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ શેઠ
૨૫૧ ૧૩ શા. કુંવરજી હંસરાજ ,
૨૫૧ ૧૪ સ્વ. માતુશ્રી માણેકબેનના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ વલભદાસ નાનજી (પોરબંદરવાળા)
૩૦૧ ૧૫ એક સદગૃહસ્થ હ. શેઠ સુંદરલાલ માણેકચંદ
૨૫૧ ૧૬ અ. સ. પાનબાઈ હા. શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ (મલાડ)
૨૫૧ - ૧૭ શ્રીયુત અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા. દલીચંદ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૧૮ સ્વ. શાહ નાગશી સેજપાળ ગુંદાળાવાળાના સ્મરણાર્થે , હા. રામજી નાગશી (મલાડ)
૩૦૧ ૧૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા :
૨૫૧ ૨૦ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી વેરાવળવાળા
૨૫૧ ૨૧ શીવલાલ ગુલાબચંદ શેઠ મેવાવાળા -
૨૫૧ ૨૨ સ્વ. જટાશંકર દેવજી દેશીના સ્મરણાર્થે
હા. રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશંકર દેશી ૨૩ સ્વ. ગોડા વણરશી ત્રીભોવન સરસઈવાળાના સ્મરણાર્થે
હા. જગજીવન વણારશી ગડા (મલાડ) ૨૪ સ્વ. ત્રીભવનદાસ વ્રજપાળ વીંછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે ' 'હા. હરગોવિંદદાસ ત્રીભોવનદાસ અજમેરા ૨૫ સ્વ. કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના ૧૬
ઉપવાસના પારણા પ્રસંગે હા. જયંતીલાલ કાનજી કાળાવડવાળા(મલાડ) ૨૫૧ "૨૬ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઈ ર૭ શાહ પ્રેમજી માલશી ગંગર (મલાડ)
૨૫૧ ૨૮ સ્વ. પિતાશ્રી પન્નુભાઈ મનાભાઈના સ્મરણાર્થે. ' : હા. શાહ કાનજી પતુભાઈ (મલાડ) .
૨૫૧
૨૫૦
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૨૯
૩૦
૧૪
શાહ વેલજી જેશીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ, સ્વ. નાનખાઇના સ્મરણાર્થે સ્વ. પિતાશ્રી રામશી વેલજીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ દામજી રામશી (મલાડ)
૩૧ શેઠ ત્રકલાલ કસ્તુરચંદ લીંમડીવાળા તરફથી
શ્રી અજરામર શાસ્ત્રભંડાર લીમડી માટે (માટુંગા)
૩ર
સ્વ. પિતાશ્રી ભીમજી કારશી તથા માતુશ્રી પાલાખાઇના સ્મરણાર્થે
હા, શાહ ઉમરશીભાઈ ભીમશી કચ્છપતરીવાળા (મલાડ)
૩૩ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા
૩૪
શાહે ધૃજા’ગભાઇ શીવજી (મલાડ) ૩૫ રતીલાલ ભાઈચ ંદ મહેતા
૩૬
શાહ ખીમજી મૂળજી પૂજા (મલાડ)
૩૭ મેસર્સ સવાણી ટ્રાન્સપોર્ટ કંપની હા. શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ
૩૮ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ હા, નરસીભાઈ વલભજી
૪૩ દડીયા અમૃતલાલ મેાતીચંદ (ઘાટકોપર)
૪૪ શેઠે સરદારમલજી દેવીચંદજી કાવેડીયા (સાદડીવાળા)
૪૫ દેશી ચત્રભુજ સુંદરજી (ઘાટકે પર) ૪૬ દેશી જુગલકીશેાર ચત્રભુજ (ઘાટકેાપર)
૪૭ દેશી પ્રવીણું ચત્રભુજ (ઘાટકોપર)
૪૮
શાહુ ત્રીભુવનદાસ માનસિંગ દાઢીવાળાના સમરણાર્થ હા. શાહુ હરખચંદ ત્રીભાવનદાસ
૪૯ શાહ જેઠાલાલ ડામરશી ધાંગધ્રાવાળા હા. શાહુ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૫૦ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ
૫૧
સ્વ. પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગોંડલવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા, વૃજલાલ શામળજી આવીશી
પર. શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા
૫૩
૩૦૧
સ્વ પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચંદ જસાણીના સ્મરણાર્થે હા. લક્ષ્મીચંદ તથા કેશવલાલભાઇ
૩૦૧
૨૫૧
૩૯ અ. સો. સમતાબેન શાન્તીલાલ C/o. શાન્તીલાલ ઉજમશી શાહ(મલાડ) ૨૫૧ ૪૦ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચંદ
૨૫૧
૪૧ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ
૨૫૧
૪૨. સ્વ. કેશવલાલ વછરાજ કોઠારીના સ્મરણાર્થે
સુરજબેન તરફથી હા. તનસુખલાલભાઈ (મલાડ)
૩૧
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૫૪ સ્વ. પિતાશ્રી હંસરાજ હીરાના સ્મરણાર્થે : હા. દેવશી હંસરાજ કચ્છ બીડાલાવાળા (મલાડ)
૨૫૧ ૫૫ સ્વ. માતુશ્રી ગમતીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ પિપટલાલ પાનાચંદ ૨૫૧ ૫૬ શેઠ નેમચંદ સ્વરૂપચંદ ખંભાતવાળા હા ભાઈ જેઠાલાલ નેમચંદ
૨૫૧ ૫૭ સ્વ. પિતાશ્રી શાહ અંબાલાલ પરસોતમ પાણશણાવાળાના - સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા બાપાલાલભાઈ
૨૫૧ ૫૮ બેન કેશરબાઈ ચંદુલાલ જેસીંગલાલ શાહ
૨૫૧ ૫૯ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રિીકમજી
૨૫૧ ૬૦ શાહ કાન્તીલાલ મગનલાલ (ઘાટ પર)
૨૫૧ ૬૧ કઠારી સુખલાલજી પૂનમચંદજી (બાર).
૨૫૧ ૬૨ સ્વ. માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમના પૌત્ર - - હકમીચંદ તારાચંદ દેશી (કાંદીવલી)
૨૫૧ ૬૩ શેઠ સારાભાઈ ચીમનલાલ .
૨૫૧ ૬૪ શાહ કરશીભાઈ હીરજીભાઈ
૩૦૧ ૬૫ પિતાશ્રી કુંદનમલજી મોતીલાલજીના સ્મરણાર્થે હા. મેંતીલાલ જુબરમલ (અહમદનગરવાળા)
૨૫૧ દિ૬ શ્રી વર્ધમાન વેતામ્બર સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ રૂપચંદ શીવલાલ કામદાર (અંધેરી)
૨૫૧ ૬૭ અ. સી. કમળાબેન કામદાર હા. રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) - ૬૮ ધી મરીના મેડન હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા, શાહ મણીલાલ ઠાકરશી. ૨૫૧ ૬૯ સ્વ. માતુશ્રી જીવીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શામજી શીવજી કછ ગુંદાળાવાળા (ગોરેગાંવ)
૨૫૧ ૭૦ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કંપની (કાંદીવલી)
૨૫૧ ૭૧ અ. સૌ. લાબુબેન હા. રવજી શામજી (કાંદીવલી)
૨૫૧ ૭૨ અ. સી. બેન કુંદનગીરી મનહરલાલ સંઘવી (ખારોડ)
૨૫૧ ૭૩ શાહ કરશન લધુભાઈ (દાદર)
૩૦૧ ૭૪ અ. સૌ. રંજનગીરી ચંદુલાલ શાહ C/o. ચંદુલાલ લક્ષ્મીચંદ (માટુંગ) ૨૫૧ ૭૫ મહેતા મોટર સ્ટેસ હા. અનેપચંદ ડી. મહેતા (મુંબઈ)
૨૫૧ ૭૬ શેઠ મનુભાઈ માણેકચંદ હા. ઝાટકીયા નરભેરામ મેરારજી (ઘાટકેયર) ૨૫૧ ૭૭ ખેતાણી મણીલાલ કેશવજી (વડીયાવાળા) ઘાટકોપર ૭૮ સ્વ. કસ્તુરચંદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ * ઝવેરબેન મગનલાલની વતી-જયંતીલાલ કસ્તુરચંદ મસ્કારીયા
- (ચુડાવાળા) ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૨૫૧
,
*
૨૫૧
૭૯ સ્વ. પૂજ્ય માતુશ્રી જકલબાઈના સમરણાર્થે
હા. દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ (મલાડ) ૮૦ શાહ નટવરલાલ દીપચંદ તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ
અ સૌ. સુશીલાબેનના વષીતપની ખુશાલીમાં ૮૧ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાશંકર મેરબીવાળા તરફથી તેમનાં માતુશ્રી
મણીબેનના સ્મરણાર્થે
૩૦૧ ૮૨ કેટીચા જયંતીલાલ રણછોડદાસ સૌભાગ્યચંદ જુનાગઢવાળા
૨૫૧ ૮૩ મોદી અભેચંદ સુરચંદ રાજકેટવાળા હા. ડસાલાલ અભેચંદ '
૨૫૧ માંડવી (કચ્છ) ૧ શ્રી સ્થા. છ કેટી જૈન સંઘ હ. મહેતા ચુનીલાલ વેલજી
૨૭૭ મેસાણું ૧ શાહ પદમશી સુરચંદના સ્મરણાર્થે હા. શીવલાલ પદમણી વિરમગામવાળા ૨૫૧
માબાસા ૧ શાહ દેવરાજ પેથરાજ
૨૫૦ ૨ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી. મહેતા '
૨૫૧ યાદગીરી
' ' ૧ શેઠ બાદરમલજી સૂરજમલજી બેન્કર્સ
- રાણપુર (ઝાલાવાડ) ૧ શ્રીમતિ માતુશ્રી અમૃતભાઈના સ્મરણાર્થે * હા. ડે. નત્તમદાસ ચુનીલાલ
રાણુવાસ (મારવાડ) ' ' ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચંદજી હા. બાબુ રખબચંદજી :
૩૦૧ રાજકેટ ૧ ધી વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ૩ બાબુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) ૪ શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ (એજીનીઅર સાહેબ) ૫ શેઠ શાન્તીલાલ પ્રેમચંદ તેમનાં ધર્મપત્નિના વરસીતપ પ્રસંગે
૨૫૧
૨૫૧ ૬ ઉદાણી ન્યાલચંદ હાકેમચંદ વકીલ ૭ શેઠ પ્રજારામ વિઠ્ઠલજી
૨૫૧ ૮ બહેન સર્યબાળા નીત્તમલાલ જસાણી (વરસીતપની ખુશાલી),
૨૫૧ ૯ મેદી સૌભાગ્યચંદ મોતીચંદ
૨૫૧ ૨૫૧
-
૨૫૦
૪૦૦
૨૫૧
૨૫૦
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(
૧૦ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સી. સમરતબેનના વરસીતપની ખુશાલી
૨૫૧ ૧૧ દેશી મેતીચંદ ધારશીભાઈ (રીટાયર્ડ એજીનીઅર સાહેબ) . ૨૫૧ ૧૨ કામદાર ચંદુલાલ જીવરાજ
૨૫૦ ૧૩ હેમાણ ઘેલુભાઈ સવચંદ
૨૫૧ ૧૪ પ્રભુલાલ ન્યાલચંદ દફતરી
૨૫૧ રંગુન ૧ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મપત્નિ એ. સી. કમળાબેન ૨૫૧
લખતર * - ૧ શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હ. શાહ શાન્તીલાલ રાયચંદ ૨૫૧ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ
૨૫૧ ૩ શાહ તલકશી હીરાચંદના મરણાર્થે હા. ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી ૨૫૧ ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ
૨૫૧ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સાદવાળાના સ્મરણાર્થે હા. ભાઇ શાન્તીલાલ જાદવજી
૨૫૧ ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ સમરતબેન વૃજલાલ તરફથી હા. જયંતીલાલ ઠાકરશી
લાલપુર ૧ શેઠ નેમચંદ સવજીભાઈ મેદી હા. મગનલાલભાઈ
* ૨૫૧ ૨ શેઠ મુળચંદ પિપટલાલ હા. મણીલાલભાઈ તથા જેસીંગલાલભાઈ ૨૫૧
લાખેરી (રાજસ્થાન) ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા. મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ (સીવીલ એજીનીઅર સાહેબ)
૨૫૧ | લીમડી (પંચમહાલ) - ૧ શાહ કુંવરજી ગુલાબચંદ
૨પ૧ ૨ છાજેડ. ઘાસીરામ ગુલાબચંદ
૨૫૧e લાનાવાલા ૧ શેઠ ધનરાજજી મૂળચંદજી મૂળા
૨૫૧
-
૨૫૧
-
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૧૮
વઢવાણુ શહેર
શાહ દીલીપકુમાર સવાઈલાલ હા. સવાઈલાલ ત્રંબકલાલ શાહુ શાહ મગનલાલ ગેાકળદાસ હા. રતીલાલ મગનલાલ કામદાર સંઘવી મુળચંદ ખેચરભાઇ હા. ભાઇ જીવણલાલ ગલદાસ શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ
૩
૪
૫ શેઠે કાન્તીલાલ નાગરદાસ
૨
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૬ વારા ચત્રભુજ મગનલાલ
૨૫૧
૭ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઇ
૨૫૧ -
.
શાહ દેવશી દેવકરણ
૨૫૧
૯ વારા ડાસાભાઇ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હા. વારા નાનચંદ શીવલાલ ૨૫૧ ૧૦ વારા ધનજીભાઇ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હા. વેારા પાનાચંદ ગામરદાસ ૨૫૧ ૧૧ દેશી વીરચંદ સુરચંદ હા. દોશી નાનચંદ ઉજમશી
૨૫૧
૧૨
સ્વ. વારા મણીલાલ મગનલાલ હા. વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ
૨૫૧
વઢામણુ
૧ શ્રી વટામણુ સ્થા, જૈન સંઘ હા. શ્રી ડાહ્યાભાઈ હલુભાઈ પટેલ
વલસાડ
૧ શાહ ખીમચંદે મૂળજીભાઈ
વણી
૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મ પત્નિ સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા. ભાઇ મનહરલાલ નાનાલાલ
વડાદરા
૧ કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ પ્રેફેસર સાહેબ (ગોંડલવાળા) ૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ
વડીયા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૧ પંચમીયા ભવાનભાઈ કાળાભાઈ (જેતપુરવાળા)
વાંકાનેર
૧ માસ્તર કાન્તીલાલ ત્રંબકલાલ ખ ઢેરીયા
૨૫૧
૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ (રૂા. ૨૫૦ ખાકી)
૨૫૧
૩ દફ્તરી ચુનીલાલ પેપટભાઇ મેારખીવાળા હા. ભાઈ પ્રાણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧
૨૫૧
'
ど
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૧૯
વીંછીયા
૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. અજમેરા રાયચંદ વ્રજપાળ
વીરમગામ
શાહ વીઠ્ઠલભાઈ મેદી માસ્તર
૨ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ 3 શાહ મણીલાલ જીવણલાલ (શાહપુરવાળા)
૪
શાહ અમુલખ (ખચુભાઇ) નાગરદાસનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. મેન લીલાવતીના વરસીતપનાં પારણાની ખુશાલીમાં હા, ભાઈ કાન્તીલાલ નાગરદાસ
૫
સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્રો તરફથી હા. શેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ
સ્વ. શેઠ મણીલાલ લક્ષ્મીચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્રો તરફ્થી હા. ખીમચંદભાઈ (ખારાઘેાડાવાળા)
ર
૫૧.
૧૩
૧૪
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
७
સ્વ. શેઠ હીરાલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ અનુભાઇ હરીલાલ ૨૫૧ સંઘવી જેચંદભાઇ નારણદાસ
૨૫૧
૯ સ્વ. શાહ વેલશીભાઇ સાકરચંદભાઈના સ્મરણાર્થે
હા. ચીમનલાલ વેલશી (કત્રાસવાળા)
૨૫૧
૧૦ પારેખ મણીલાલ ટોકરશી લાતીવાળા તરફથી (મેટીએનના સ્મરણાર્થે) ૨૫૧ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઇના સુપુત્ર વાડીલાલભાઈનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. નારગીએનના વરસીતપ નિમીત્તે હા, શાન્તીભાઈ
૧૧
૨૫૧
સ્વ. છખીલદાસ ગાકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ
૧૮
૩૦૦
૨૫૧
૧૯ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ
કમળાબેન તરફથી હા. મંજુલાકુમારી
૨૫૧
શ્રી સ્થા. જૈન શ્રાવિકા સંઘ હા. પ્રમુખ અ. સૌ. રભામેન વાડીલાલ ૨૫૧ સ્વ. ત્રીભાવનદાસ દેવચંદું તથા સ્વ. અ. સૌ. ચંચળમેનના
૨૫૧
સ્મરણાથે હા. ડા. હિંમતલાલ સુખલાલ
૧૫
૨૫૧
શાહ મૂળચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા. શાહુ નાગરદાસ મેઘડભાઈ ૧૬ શેઠ મેહનલાલ પીતાંબરદાસ હા. ભાઇ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલભાઇ ૨૫૧
૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઇના વરસીતપ નિમિત્તે
હા, નથુભાઈ નાનચંદ શાહ
સ્વ. મણીયાર પરસોતમદાસ સુદરજીના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ સાકરચંદ પરસોતમદાસ
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
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૨૦
વેરાવલ
-૧ શાહ કેશવલાલ જેચંદભાઇ ૨ શાહ ખીમચ'દ સૌભાગ્યનૢ વસનજી
૩ સ્વ. શેઠ મનજી જેચંદભાઇ માંગરેાળવાળાના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ લાડકુંવરબાઇ તરફથી હા. ધીરજલાલ મદનજી
સરખેજ
૧
સ્વ. પિતાશ્રી શાહ કીરચંદ પુંજાભાઇના સ્મરણાર્થે હા. શાહુ રમણલાલ ફકીરચંદ
સતાણ
૧ સ્વ. મદનલાલજી કુંદનમલજી કાઠારીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ રાજકુંવરમાઇ મદનલાલજી
સાદડી
૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પૂનમીયા
સાલમની ( મંગાળ )
૧ દોશી ચુનીલાલ ફુલચંદ મારખીવાળા
૨૫૧
૨૫૧
સુરત
૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ છેટુભાઈ અભેચંદ
૨ શ્રીયુત કલ્યાણુચ માણેકચંદ હડાલાવાળા
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૦
સાણંદ
૧ શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હા. શાહુ ચીમનલાલ હીરાચંદ
૨
અ. સૌ. ચંપામેન હા. દેશી જીવરાજ લાલચંદ
૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડાસાભાઇ
૪ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઇ
૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણુજી સંઘવી લીંમડીવાળાના સ્મરણાર્થે
હા. વાડીલાલ માહનલાલ કાઠારી
૬ પારેખ નેમચંદ મેાતીચંદ મુળીવાળાના મરણાથે
હા. પારેખ ભીખાલાલ નેમચન્દ્વ
૨૫૧
૭ સ*ઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ જયંતીલાલ નારણુદાસ ૨૫૧
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
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૨૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
સુવઈ (કચ્છ) ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનંદી જેન મુનિશ્રી છોટાલાલ મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા. જૈન સંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ
સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ - ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૩ સ્વ. કેશવલાલ મૂળજીભાઈનાં ધર્મપત્નિ અમૃતબાઈના સમરણાર્થે
"હા. શાહ ભાઈલાલ કેશવલાલ (થાનગઢવાળા) ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ વાડીલાલ હરખચંદ
સંજેલી (પંચમહાલ) ૧ શાહ લુણાજી ગુલાબચંદ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ પ્રેમચંદ દલીચંદ
હાટીનામાળીયા ૧ શેઠ ગોપાલજી મીઠાભાઈ
હારીજ ૧ શાહ અમુલખભાઈ મુળજી હા. પ્રકાશચંદ અમુલખ ૨ સ્વ. બેન ચંદ્રકાન્તાના સ્મરણાર્થે હા. અમુલખ મુળજીભાઈ
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૦
૩૦૧ ૩૦૧
૨૫૧
| હુબલી
૧ હીરાચંદ વનેચંદજી કટારીઆ
તા. ૧૫–૮–૧૮ સુધી મેમ્બરાની સંખ્યા ૫ આદ્ય સુરીશ્રીઓ * ૪૧ સહાયક મેમ્બર ૨૧ મુરબીશ્રીઓ
૩૬૩ લાઈફ મેમ્બરે ૭૫ બીજા કલાસના મેમ્બરે
કુલ મેમ્બરે ૫૦૫
સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ
રાજકોટ તા. ૧૫-૮-૫૮
મંત્રી
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________________ રર શ્રી અખિલ ભારત તાબાર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની અગત્યની અપીલ સ્થાનકવાસી જૈન ભાઈઓ અને બહેને - * : : સ્થાનકવાસી સમાજને બે અવલંબન છે. તેમાં પહેલું સુનિવર્ગ અને બીજી શાસ્ત્રશ્રવણ છે. જ્યાં જ્યાં મુનિમહારાજેની ગેરહાજરી હોય છે અને ભવિષ્યમાં રહેવાની છે) તે સ્થળે આ શાસ્ત્રો સ્થાનકવાસી કેમને ટકાવી રાખવા મોટામાં મેટું સાધન છે. , ઓછામાં ઓછા રૂા. 5000 આપી આદ્ય મુરબ્બીપદ આપ દિપાવી શકે છે. * : ઓછામાં ઓછા રૂ. 1000 આપી મુરબ્બીપદ મેળવી શકે છે.' ઓછામાં ઓછા રૂ. 500 આપી સહાયક મેમ્બર બની શકે છે. અને ઓછામાં ઓછા રૂ. 250 આપી લાઈફ મેમ્બર તરીકે દરેક ભાઇ બેન દાખલ થઈ શકે છે. ઉપરના દરેક મેમ્બરને 32 સૂત્રે તથા તેના તમામ ભાગ મળી લગભગ 60 2થે જેની કિંમત લગભગ 60% ઉપર થાય છે તે ભેટ તરીકે મળી શકે છે. અને દરેક શાસ્ત્રમાં તેમનું નામ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવે છે. ' દરેક શાસ્ત્ર 4 ભાષામાં તૈયાર થાય છે. એટલે દરેક પાનામાં 4 ભાષા જેવામાં આવશે. ઉપરમાં અર્ધમાગધી, તેની નીચે સંસ્કૃત છાયા–ટીકા ત્યાર બાદ હીન્દી રાષ્ટ્રભાષા અને છેવટે ગુજરાતીમાં અનુવાદ લેવામાં આવશે. , શ્રમણ વર્ગ, શ્રાવક વર્ગને દરેક પ્રદેશમાં વસતા સમાજનાં દરેક અંગને એક સરખી રીતે ઉપયેગી થાય તેવી રીતે ખ્યાલ કરીને શાસ્ત્રની રચના કરવામાં આવે છે. બહાર દેશાવરમાં વસતા આપણું ભાઈઓને તેમજ ગામડામાં વસતા શ્રાવકેને તેમજ પુરસદે વાંચન કરનાર બેને તેમજ વિદ્યાર્થીઓને એક સરખું ઉપયેગી થઈ શકે તેવું સાહિત્ય બીજી કોઈ જગ્યાએ મળી શકે તેમ નથી.