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22 : विवेकविलास
गुरुदेव स्तुति:
जीववत्प्रतिभा यस्य वचो मधुरिमाञ्चितम् । देहं गेहं श्रियस्तं स्वं वन्दे सूरिवरं गुरुम् ॥ 3 ॥
जिनकी गुरुदेव की प्रज्ञा दैवगुरु बृहस्पति के समान, वचन अमृत तुल्य और शरीर तो लक्ष्मी का आश्रय स्थान ही है, ऐसे मेरे गुरु श्रीजीवदेव सूरीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ।
ग्रन्थोपलब्धिशुभाकाङ्क्षा:
ईप्सितार्थप्रदः सर्वव्यापत्तपघनाघनः ।
अयं जागर्तु विश्वस्य हृदि श्रीधरणक्रमः ॥ 4 ॥
जिससे अभीष्ट वस्तु की लब्धि होती है, जो समस्त संकटों का ताप निवारण करने में मेघ के समान है और जो लक्ष्मी की प्राप्ति में साधनभूत है, ऐसा यह ग्रन्थ (विवेकविलास) निखिल विश्व के हृदय में सदैव जीवन्त रहे ।
चञ्चलत्वकलङ्कं ये श्रियो ददति दुर्धियः ।
ते मुग्धाः स्वं न जानन्ति निर्विवेकमपुण्यकम् ॥ 5 ॥
ऐसे लोग जो कि दुर्बुद्धि होकर लक्ष्मी पर चञ्चल होने का आरोप लगाते हैं, वे भोले लोग अपनी विवेकहीनता और पुण्य विहीनता का मूल्याङ्कन नहीं करते हैं। लक्ष्मीकल्पलतायै यै वक्ष्यमाणोक्तिदोहदम् ।
यच्छन्ति सुधियोऽवश्यं तेषामेषा फलेग्रहिः ॥ 6 ॥
जो धीरधी व्यक्ति लक्ष्मी रूपी कल्पलता को इस ग्रन्थ में वर्णित वचन रूपी दोहद' या खाद प्रदान करते हैं अर्थात् जो लोग इस ग्रन्थ में प्रतिपादित युक्तियों से द्रव्योपार्जन का प्रयत्न करते हैं, उनको अवश्य यह कल्पलता - लक्ष्मी फलदायक सिद्ध होती है ।
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कालिदास के प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने कहा है कि दोहद से आशय ऐसा संस्कारमय द्रव्य है जो वृक्षों में प्रसव - कारण परिलक्षित होता है- दोहदं वृक्षादीनाम् प्रसवकारणं संस्कारद्रव्यम् (एम. आर. काले सम्पादित मेघदूत, उत्तरमेघ पृष्ठ 132 ) । इसी बात को नैषधीयचरितम् में श्रीहर्ष (1113 ई.) ने अभिव्यक्त किया है कि दोहद ऐसे द्रव या द्रव्य का फूँक स्वीकारना चाहिए जो वृक्ष, पौधों एवं लतादि में पुष्प प्रसवित करने का सामर्थ्य प्रदान करता है- महीरुहाः दोहदसेकशक्तिराकालिकं कोरकमुद्रिरन्ति (3, 21 ) । मल्लिनाथ टीका में तो इन विश्वासों को एक ही साथ दे दिया गया है कि कामिनी के स्पर्श से प्रियङ्गु विकसित होता है तथा बकुल वृक्ष मुखासवपान, अशोक पादाघात, तिलक दृष्टिपात, कुरबक (सदाबहार) आलिङ्गन, मन्दार मधुरवचन, चम्पक वृक्ष मृदु मुस्कान व हास्य तथा कनैल का वृक्ष नीचे नृत्य करने से पुष्पित होता है - स्त्रीणां स्पर्शत्प्रियङ्गर्विकसति बकुलः सीधुगण्डूषसेकात्पादाघातादशोकास्तिलककुरबकौ वीक्षणालिङ्गनाभ्यम् । मन्दारों नर्मवाक्यात्पटुमृदुहसनाच्चम्पको वक्त्रवाताच्चूतो गीतान्नमेरुर्विकसति च पुरो नर्तनात् कर्णिकारः ( मेघदूत 2, 18 ) ।