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॥ श्री गणेशायनमः॥ श्रीमद् जिनदत्तसूरीश्वरप्रणीतं विवेकविलास
अथ दिनचर्यायां प्रथमोल्लासः॥1॥
अथ मङ्गलाचरणमाह -
शाश्वतानन्दरूपाय तमस्तोमैक भास्वते। सर्वज्ञाय नमस्तस्मै कस्मै चित्परमात्मने॥1॥
शाश्वत आनन्द स्वरूप, अज्ञानरूप तिमिर का विनाश करने की दृष्टि से मध्याह्न के दैदिप्यमान सूर्य है, लोकालोक में विद्यमान सर्व वस्तुओं के पूर्णज्ञाता, किसी कथन से जिनका वर्णन सम्भव नहीं है, ऐसे अलौकिक परमात्मा को नमस्कार है।
सोमं स्वयम्भुवं बुद्धं नरकान्तकरं गुरुम्। भास्वन्तं शङ्करं श्रीदं प्रणौमि प्रयतो जिनम्॥2॥
सोम या चन्द्रमा, स्वयंभू या ब्रह्मा, बुद्ध, नरकासुर का अन्त करने वाले श्रीकृष्ण, बृहस्पति, स्वयं भासमान् सूर्य, शिव, सम्पदा प्रदाता कुबेर और जिनेश्वर को प्रणाम है। (ग्रन्थकार का यहाँ आशय यह भी है-पूर्णशान्ति के धारक एवं आह्लादकारी होने से जो साक्षात् सोम कहलाते हैं, बिना उपदेशक के स्वयं ज्ञान प्राप्ति से जो स्वयंभू (ब्रह्मा) कहे जाते हैं; केवल ज्ञानी होने से बुद्ध हैं; दूसरी कर्म-प्रकृतियों के साथ नरकगति का भी नाश करने वाले के लिए नरक नामक असुर को मार डालने वाले होने से जो साक्षात् विष्णु कहे जाते है, अलौकिक बुद्धिमान होने से बृहस्पति सम्भाषित होते है; केवल ज्ञान के लोकालोक को प्रकाशित करने के कारण सूर्य और आसन्न-भव्य को मुक्तिसुख प्रदान करने वाले होने से जो शिव तथा स्वर्ग, मोक्ष की लक्ष्मी के देने वाले होने से जो कुबेर कहलाते हैं-ऐसे जिनेश्वर की मैं मन-वचनकाया से पवित्र होकर स्तुति करता हूँ।)