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प्रस्तावना
समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना के समान नियत है, निरन्तर वाचना आदि देते रहने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है, गंगा सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीप लवण समुद्र आदि द्वीप समुद्रों के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है।
यह द्वादशांग वाणी गणि-पिटक के समान है अर्थात् गुणों के गण एवं साधुओं के गण को धारण करने से आचार्य को गणी कहते हैं। पिटक का अर्थ है - पेटी या पिटारी अथवा मंजूषा। आचार्य एवं उपाध्याय आदि सब साधु साध्वियों के सर्वस्व रूप श्रुत रत्नों की पेटी (मंजूषा) को 'गणि-पिटक' कहते हैं। . जिस प्रकार पुरुष के बारह अंग होते हैं। यथा - दो पैर, दो जंघा, दो उरू (साथल), दो पसवाड़े, दो हाथ, एक गर्दन और एक मस्तक। इसी प्रकार श्रुत रूपी परम पुरुष के भी आचारांग आदि बारह अंग होते हैं। ... बारह अंगों में सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो दो पाट तक ही चलता है इसलिये दृष्टिवाद का तो विच्छेद हो गया है। वर्तमान में ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उसमें विपाक सूत्र ग्यारहवांअंतिम अंग सूत्र है।
विपाक सूत्र का अर्थ है - वह सूत्र (शास्त्र) जिसमें विपाक - कर्मफल का वर्णन हो। कर्मफल भी दो प्रकार का होता है - सुखरूप और दुःखरूप। कर्मफल के इन दो भेदों के कारण : ही विपाक सूत्र के दो विभाग - श्रुतस्कंध हैं - १. दुःखविपाक और २. सुखविपाक। दुःख विपाक में दुःख रूप फल का और सुखविपाक में सुख रूप फल का वर्णन है। दुःख विपाक के दश अध्ययन हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं - १. मृगापुत्र २. उज्झितक ३. अभग्नसेन ४. शकट ५. बृहस्पति ६. नन्दिवर्धन ७. उम्बरदत्त ८. शौरिकदत्त ६. देवदत्ता और १०. अजू। इनमें दस ऐसे व्यक्तियों का जीवन वृत्तान्त है जिन्होंने पूर्वजन्म में अशुभ कर्मों का उपार्जन किया था। सुखविपाक के भी दश अध्ययन हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं - १. सुबाहु २ भद्रनन्दी ३. सुजात ४. सुवासव ५. जिनदास ६. धनपति ७. महाबल ८. भद्रनंदी ६. महचन्द्र और १०. वरदत्त। इनमें दश ऐसे व्यक्तियों का जीवन वृत्तान्त है जिन्होंने पूर्वजन्म में शुभ कर्मों का, उपार्जन किया था। दुःख विपाक और सुखविपाक के समुदाय का नाम विपाक सूत्र है।
विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध दुःखविपाक के दश अध्ययनों का वर्णन इस प्रकार है -
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