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अर्थात्-१ तीर्थकरोंका अद्भुतरूप-गन्धवाला देह होता है, रोग तथा पसीना भी नही होता, २ कमलकी सुगन्धी जैसा श्वास होता है, ३ रुधिर तथा आमिष गोके दुग्ध जैसा सफेद होता है और ४ आहार-नीहार कोई देखने नहीं पाता ।
ये ही चार अतिशय, समवायांगसूत्रके ४८-४९ (लिखी हुई प्रतिके ) पत्रनें, ३४ अतिशयोंके अन्तर्गत इसतरह लिखे हैं:
"निरामयनिरुवलेवा गायलट्ठी, गोखीरपंडरे मंससोणिते, पउ.. मुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे, पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्ते मंसचक्खुणा"
अर्थः-निरामय तथा निर्मलशरीरवाले, गोदुग्ध जैसे सफेद मांस-रुधिरवाले, कमल जैसे सुगंधित श्वासोच्छ्वासवाले, तथा जिनके आहार नीहार चर्मचक्षुसे न दीख पडें ।। .. अब बतलाइये, भीखमजीमें उपरकी बातें पाई जाती थीं ? । जब नहीं पाई जाती थी, तो फिर उसके 'जन्मकल्याणक' कहनेवाला महामृषावादी नहीं तो और क्या ? । अस्तु, अब आगे चलें ।
भीखमजीने ढूंढकसाधु रुगनाथजीके पास दीक्षा तो लेली, परन्तु उसको पीछे से बहुत पश्चाताप होने लगा। इसके मनमें अनेक प्रकारकी शंकाएं होने लगीं। उन साधुओंके आचार-विचारोंको देख करके इसके मनमें विचार हुआ कि.-' मैं शुद्ध मार्ग पकडं' क्योंकि दूसरी ढालके प्रथम दोहेमें कहा है: