________________
१४६
अर्थार्जनका विद्या विवादके लिये, धम मदके लिये, मौर शक्ति इसरोंके दुःख देनेके लिये होती है। किन्तु, साधु पुरुषकी इससे विपरीतवृत्ति होती है। अर्थात् साधु-सज्जनकी विद्या ज्ञानके लिये, धन दानके लिये और शक्ति दूसरोंकी रक्षा के लिये होती है ।
.
कैसा उत्तम सुभाषित ! यदि इस एक ही सुभाषित पर खयाल रक्खा जाय, तो मनुष्योंको मालूम हो सकता है किदान करना और जीवोंकी रक्षा करना, ये दोनों मनुष्यों के परम कर्तव्य ही हैं।
+
शास्त्रकारने तो आगे बढ करके यहाँतक कहा है कि:"वर्षन् क्षारार्णवेऽप्यन्दो मुक्तात्वं क्वापि जायते ।
सर्वेषां ददतो दातुः पात्रयोगोऽपि संभवेत् " ॥ १ ॥ अर्थात् - जो मनुष्य हमेशां देता ही रहता है- दान करता ही रहता है, उसको कभी न कभी पात्रका योग मिल ही जाता है, जैसे क्षारसमुद्र में भी वर्षते हुए मेघका जल, कभी न कभी मोती पनेको भी प्राप्त कर लेता है ।
इस लिये मनुष्योंको हमेशां दान देते ही रहना चाहिये । यों नहीं समझना चाहिये कि यह तो असंयमी है - यह तो अती है, इसकी क्या कर दिया जाय ? । नहीं, व्रती - अप्रतीका, पात्रअपात्रका विचार मोक्षार्थदानमें करनेका है, अनुकंपा दानमें नहीं । इसके लिये कहा भी है कि:
" इयं मोक्षफले दाने पात्रापाचविचारणा ।
दयादानं तु सर्वज्ञैर्न क्यापि प्रतिषिध्यते " ॥ १ ॥
अर्थात् यह पात्रापात्रका विचार मोक्षफल संबंधी दानमें करनेका है, परन्तु दया- दाम ( अनुकंपा ) का तो सर्वशप्रभुने कहीं