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हैं ? हे गौतम! प्राणकी अनुकंपासे, भूतकी अनुकंपासे, जीवकी अनुकंपासे, सरवकी अनुकंपासे, और बहुत प्राणीभूत - जीव- सरवोंको दुःख के नहीं देनेसे, दीनपनेके नहीं करानेसे, शोकके नहीं करानेसे, अश्रु आदि नहीं करानेसे, यष्ट्रयादिके ताडनके अभावसे, श
के तप्त करने के अभावसे, जीव शातावेदनीय कर्म उपार्जन करते हैं । इस प्रकार नारकी के जीवोंसे लेकर वैमानिक पर्यन्त समझ लेना ॥
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हे भगवन् ! जीवों को अशातावेदनीय कर्म उत्पन्न होते हैं ? होते हैं । हे भगवन् ! जीवों को अशातावेदनीय कर्म कैसे उत्पन्न होते हैं ?, हे गौतम! परको दुःसदेनेसे, परको दीनपना करानेसे, परको शोक कराने से, अश्रु आदिके गिरवानेले, यष्टवादिसे ताडन करनेसे, और शरीर को तत करनेसे तथा बहुत प्राणियों को पीडन करनेसे, यावत् शरीरको तप्त करनेसे जीव अशातावेदनीय कर्मको उपार्जन करता है । इस प्रकार नारकी के जीवोंसे लेकर वैमानिक पर्यन्त समझ लेना ॥
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अब विचारने की बात यह है कि - उपर्युक्त पाठ में चार प्रकार के कमोंके उत्पन्न होने में, कारण भी भिन्न भिन्न ही दिखलाए हैं । इससे स्पष्ट होता है कि - " जीवोंको नहीं मारना, ' इसीका नाम अनुकंपा' नहीं है किन्तु एक जीवोंकी रक्षा करना - दुःखोंसे मुक्त करना, इसी को भी कहते हैं। और इससे भी अनुकंपा करनी, यह जाहिर होता है ।
अब, आगमोंके प्रमाणोंसे अनुकंपाका विशेष स्पष्टीकरण करकी आवश्यकता नहीं है, तो भी यह कहना अनुचित न होगा कि-' निरनुकंपा ' यह अनार्य के लक्षणोंमे दिखलाई हुई है । जैसे सूयगडांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के पृ० २६२ में अनार्थके लक्षण दिखाते हुए कहा है कि: