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भी निषेध नहीं किया। क्योंकि- दीनाय देवव्या' यथाऽदात् कृपया प्रभुः" स्वयं परमात्माने भी अपना भाषादेवदुष्यवस्त्र, दीन ऐसे ब्राह्मणको अनुकंपासे दिया ही है। फिर इसका निषेध करना-इसमें प्रवृत्ति न करना, यह बडी भारी अज्ञानताका कही जा सकती है।
अगर बुद्धिमत्तासे विचार किया जाय, तो मालूम हो सकता है कि-धर्मके शोभित होनेमें करुणा-अनुकंपा ही एक कारण है। बल्कि योंही क्यों न कहा जाय कि धर्मका मूल ही दया-अनुकंपाकरुणा है । सिवाय अनुकंपाके सिवाय दयाके धर्मरूपी वृक्ष कभी खडा रहःही नहीं सकता है । इसी लिये एक कविने भी कहा है:" लक्ष्म्या गार्हस्थ्यमक्ष्णा मुखममृतरुचिः श्यामयाम्भोरुहाती
भ; न्यायेन राज्यं वितरणकलया श्रीनृपो विक्रमेण । नीरोगत्वेन कायः कुलममलतया निर्मदत्वेन विद्या निर्दम्भत्वेन मैत्री किमपि करुणया भाति धर्मोऽन्यथान"॥१॥
अर्थात्-गृहस्थीपना लक्ष्मीसे, मुख आंखसे, चन्द्र रात्रीसे, त्री पतिसे, राज्य न्यायसे, लक्ष्मी दान करनेसे, राजा विक्रमसे, शरीर निरोगत्वसे, कुल पवित्रतासे, विद्या निरभिमानतासे, मैत्री निष्कपटभावसे और धर्म करुणासे शोभित होता है। अन्यथा नहीं ।
कहाँ तक कहा जाय ? देव और दानकी महिमा शास्त्रोंमें स्थान स्थानमें पाई जाती है। बल्कि योंही अगर कह दें कि'संसारके समस्त शास्त्रोंका 'दान और दया परना' यही सार है, ' तो इसमें जरा सी भी अत्युक्ति नहीं कही जा सकती