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संघादिकके कार्यके लिये साधु लब्धि फोरवे तो, उसमें भगवान्की आज्ञा है।
___ इन सब बातों पर विचार करनेसे 'साधु लब्धि न फोरवे' ऐसा भीखमजीका कहना नितान्त झूठ ही मालूम होता है । यदि लब्धि फोरनेका एकान्त निषेध ही होता, तो आराधक-विराधकका प्रश्न ही क्यों उठता, और संघादिक कार्य के लिये भगवान आज्ञा ही क्यों देते ? । आराधक-विराधकका विचार तो साधुके लिये हरएक. बातमें रहा हुआ है । बहुत लंबा विचार क्यों करें । साधु, सौ कदमके आगे जाय, तो उसको 'इरियावहिया' करनेको कहा, यदि इरियावहिया न करे, और काल कर. जाय, तो विराधक कहा । अब बतलाईये, क्या हुआ ? । इससे कोई यह कह सकता है कि'साधुको, भगवान्ने सौ कदमसे आगे जानेको कहा ही नहीं ? ।' कभी नहीं । इसी प्रकार लब्धिके विषयमें भी समझ लेना चाहिये ।
इत्यादि बातोंके विचार करनेसे स्पष्ट मालूम होता है किभगवान् , गोशालेको बचानेमें किसी प्रकार चूके नहीं हैं। और एक यह भी बात है कि भगवान् अगर कहीं पर भी चूके होते, तो सूत्रोंमें किसी न किसी जगह उल्लेख जरूर होता । और है तो नहीं । बल्कि सूत्रमें तो स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि-'भगवान् , दीक्षित होनेके पश्चात् किञ्चित्मात्र भी पाप सेवन नहीं करते है, न कराते हैं, न करनेवालेकी अनुमोदना करते हैं। जैसे आचारांग सूत्रमें, प्रथम श्रुत्रस्कंधके, नववें अध्ययनके चतुर्थ उद्देशेमें पृष्ठ १५० में कहा है:
"गचा ग से महावीरे, जो चिय पावगं सयमकासी । अनेहिं वा ण कारिस्था, कीरतषि णाणुजाभिस्था ॥८॥"