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इन्द्रके, इस प्रकार कहनेपर, इस अर्थको सुन करके, नमिरायऋषिने, इन्द्रसे कहाः - " मैं सुखसे रहता हूँ। मेरी कुछ भी वस्तु नही है । मिथिला नगरीके जलनेसे मेरा कुछ नहीं जलता है । क्योंकि-जिसने पुत्र-कलत्रको छोड दिये हैं, ऐसे निर्व्यापार साधुको न तो कोई प्रिय है, और न कोई आप्रिय । " . - अब, इस प्रसंगको विचार लीजिये । तेरापंथी. यह कहते हैं कि-" इन्द्रने नमिऋषिसे यह कहा कि-'आप मिथिलाके सामने देखें तो वह जलती हुई शान्त हो जाय । ' लेकिन ऐसा इन्द्रने कहा ही कहाँ है ? । इन्द्रने तो यही कहा है कि-'आर सामने क्यों नहीं देखते ? । ' तब उन्होंने कहा है कि-'मेरा कुछ है ही नहीं, तो मैं क्यों सामने देखु ? । ' अब, यहाँ अनुकंपाकी बातही क्या है । इन्द्र, नमिरायऋषिके मोहकी परीक्षा करता था, नकि यहाँ अनुकंपाका कोई कारण था। और वास्तवमें देखा भी जाय तो, जब नमिरायऋषि, संसारके समस्त पदार्थोंपरसे मोहको हटा करके साधु हो गए, तो फिर उनके संबंधियोंके रुदनसे अथवा मोहजन्य और चेष्टाओंसे उन्हें सामने देखनेकी आवश्यकता ही क्या थी ? । नमिरायऋषिकी ही क्यों बात करनी चाहिये ? । आज कलके जमानेमें भी बहुतसे मनुष्य संसारसे निर्मोही होकर साधु हो जाते हैं, उस समय, उनके पीछे अनेकों मनुष्य अनुकूल उपसर्ग करते हैं, लेकिन उन उपसोंके सामने देखते ही नहीं हैं, तो क्या इससे अनुकंपाका निषेध हो गया ?। कभी नहीं, ऐसे प्रसंगोंमें अनुकंपाका कारण ही क्या है ?
तेरापंथियोंने जितने प्रसंगोंको आगे किये हैं, वे सब ऐसेके ऐसे ही हैं। बिचारे भोलेलोग, कि जिनको इन वृत्तान्तोंसे