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। ११२ बचाये ? । तब कहना होगा कि-' असंयतजीवन नहीं चाहना' इसका मतलब यह नहीं है कि-असंयती जीवोंको नहीं बचाना । क्योंकि, ' असंयतजीवनका नहीं चाहना ' और ' असंयती जीवोंको बचाना ' ये दोनों भिन्न २ चीजें हैं। अत एव यह सिद्ध नहीं हो सकता है कि-' मरते हुए जीवोंको नहीं बचाना ।'
इसी चोथी ढालमें भीखमजीने, अपने आपसे ही ऐसे २ कुविकल्प किये हैं कि-' अमुक प्रसंगमें साधु जीवको क्यों न बचावे ?'|' अमुक स्थानमें क्यों न बचावे ?' लेकिन यह सब झूठी ही कल्पनाएं है। जिनका हृदय दयासे परिपूर्ण है, जो लोग जीवोंको बचानेमें धर्म समझते हैं, वे किसी भी प्रसंगमें दुःखी जीवोंको अपनी आंखोंसे नहीं देखसकेंगे। द्रव्य या भाव दोनोंमेंसे एक प्रकारकी तो अनुकंपा अवश्य ही करेंगे।
तेरापंथियोंकी एक और फिलासोफीने तो कमाल कर दिया है। भीखमजी इसी चोथी ढालमें आगे जा करके कहते हैं:" साधु तो साधुने जीव वतावे, ते पोतारोपाप टालणरे काजे । श्रावक श्रावकने जीव नही वतावे, तो किसो पाप लागे किसो व्रत
भाजे" ॥ ४२ ॥ बस, हद आ चुकी। भीखमजीने अपने श्रावकोंको खूब ही उपदेश दिया । बस, श्रावक संसारमें कितने ही अनर्थ करें, तेरापंथीयोंके मन्तव्यानुसार, उनको पाप लगेंगे ही नहीं। हम तेरापंथियोंसे पूछते हैं कि-मेघरथ राजाने कबूतरको बचाया था, वह क्या साधु अवस्थामें बचाया था ? | पार्श्वनाथ प्रभुने सांपको निकलवाया था, वह क्या साधु अवस्थामें निकलवाया था ? | नेमनाथ प्रभुने जीवोंको बचाये थे, वे साधु अवस्थामें बचाये थे।