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पशु, अपने आयुष्यकी प्रबलतासे उस शिकारीके हाथमें नहीं आमा है । अब बतलाईये, उस शिकारीको क्या आप लोग उस समय दयालु कहेंगे ? । अगर भीषमजीके वचनको सत्य मानते हो, तो तुम्हें, उसको दयालु ही कहना पडेगा। क्योंकि - उसने पशुको मारा नहीं है। और भीखमजी तो यही कहते हैं कि-' मारे नहीं उसको दया कहो।' लेकिन नहीं, भीखमका कहना नितान्त झूठा है । यदि ऐसा ही सिद्धान्त जिनशासनका होता, तो 'परिणामसे बन्ध' ऐसा कहा ही न जाता । परमात्माके शासनका तो यही सिद्धान्त है कि-चाहे मनुष्य जीवको मारे चाहे न मारे, परन्तु जबसे उसके, हिंसाके परिणाम होते हैं, तबसे उसको पातक लगता ही है। . ... ___ तेरापंथियोंके सिद्धान्तसे तो एक यह भी बात निकलती है किजो लोग, स्वयं जीवको न मारकर, कसाई वगैरहके वहाँसे तय्यार मांसको ला करके पका खाते हैं, उनको पातक न लगने चाहियें । क्योंकि-तेरापंथियोंका तो सिद्धान्त यही कहता है कि-" जीवको मारे उसीको हिंसा लगती है, और तो सब दयालु ही है।" लेकिन, जब हम जैन और जैनतर शास्त्रोंको भी देखते हैं, तव तो यही दृष्टिगोचर होता है कि-मारनेवाला अकेला पातकी नहीं है, किन्तु उसके पीछे और भी मनुष्य पातकी बनते हैं। जैसे, हिन्दूओंके धर्म ग्रंथोंमें लिखा है:
" अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रायी। ____ संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः " ॥१॥
अर्थात्-मारनेमें सलाह देनेवाला, मरे हुए जीवोंको शस्त्रसे पृथक् २ करनेवाला मारनेवाला मोललेनेवाला, बेचनेवाला, संवारनेवाला, पकानेवाला और खानेवाला ये सब घातक ही कहलाते हैं।