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अब बतलाईयें, ' मारे नहीं उसको दया कहो, ' यह सिद्धान्त कैसे सिद्ध हो सकता है ? तब कहना ही होगा कि-'दया' इसीका नाम है कि-" दुःखितेषु दुःखप्रहाणेच्छा " अर्थात् दुःखी जीवोंको दुःखसे मुक्त करनेकी इच्छाको 'दया' कहते हैं। दया उसको नहीं कहते हैं कि-मूंहपर मुहपत्ती बांध करके किसी स्थानमें बैठ जाना । पहिले दयाके रहस्यको समझना चाहिये । 'दया दया' करनेसे दयाका गुण नहीं प्राप्त हो सकता, दया अन्तःकरणके आर्द्र परिणामको कहते हैं। और मनुज्यमें मनुष्यत्व भी यही है कि-' किसी दुःखी जीवको देख करके अपने अन्तःकरणमें दुःखी होना । और इस प्रकार हो करके, उसको दुःखसे मुक्त करनेके लिये प्रयत्न भी करना ।'
अब इस विषयमें भीखमजीके अनुकंपा रासकी विशेष आलोचना करके पाठकोंका अधिक समय लेना, व्यर्थ है । क्योंकि-जो मनुष्य, दयाके स्वरूपको समझ ही नहीं सका है, अथवा यों ही कहिये किदया किसका नाम है, यह भी नहीं जानने पाया है, वह मनुष्य अपने मनःकल्पित दृष्टान्तोंको देदे कर भद्रिकजीवोंके भावप्राणोंके लेनेका प्रयत्न करे तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। लेकिन धुद्धिमान् लोगोंको तो, एकाध बातसे ही, लिखनेवालेके ज्ञानसागरकी थाह अच्छी तरह मिल जाती है । बस, इसी नियमानुसार, भीख. मके उपर्युत वचनसे ही विज्ञ पाठकोंने, उसके झूठे दृष्टान्त-दलीलोंकी कल्पना कर ली होगी, तिसपर भी सन्तोषके लिये, उसके दिये हुए सात दृष्टान्तों पर कुछ विचार कर, अनुकंपा रासकी आलोचनाको खतम करेंगे । और पश्चात् अनुकंपा विषयक और भी दो एक पाठोंको देकर, इस पुस्तककी परिसमाप्ति की जायगी।