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रहा है, तो फिर मैं मेरे दया धर्मको (जो कि मनुष्यों के अन्तःक. रणमें स्वाभाविक ही रहा हुआ है ) कैसे छोडूं।
कहनेका मतलब यह है कि-चाहे साधु हो, चाहे गृहस्थ, अगर वह किसी आफतमें आ फँसा हो, तो उसको अवश्य छोडने-छोगनेका प्रयत्न करना ही चाहिये फिर चाहें वह (फंसा हुआ मनुष्य), अपने अन्तःकरणमें कैसी ही भावना रखता हो ।'
बहुतसे तेरापंथी, वंदितासूत्रकी --- " सुहिसु अ दुहिएसु अ जा मे असंएसु अणुकंपा
रागेण व दोषेण व निंदे तं च गरिहामि " ॥३१॥ इस गाथाको आगे करके कहते हैं कि-" देखो, इस गाथामें असंयतीमें अनुकंपा की हो, उ की निंदा-गर्दा की है।" लोकन यह समझना भूल है । इस गाथामें बडा भारी रहस्य रहा हुआ है। . पहिले इसका अर्थ समझ लेना चाहिये । इसका अर्थ यह है:
“ सुखी अथवा दुःखी, ऐसे असंयतीमें, राग या देषसे जो अनुकंपाको हो, उसकी मैं निंदा-गही करता हूँ। " __इस गाथामें, असंयतीकी अनुकंपा करनेमें दो कारण दिखला कर उन दो कारणोंकी निंदा की है । वे दो कारण है राग और देष । जैसे, कोई अपना स्वजनादिक असंयती हो, और उसपर प्रेम-रागसे जो अनुकंपा की हो, उसकी निंदा है, और 'द्वेष' से यह है कि जैसे किसी असंयतीको, 'देखो तुम तो हमारे शासनके द्रोही हो-प्रत्यनीक हो, तिसपर भी हम तुमको देते हैं । ऐसे द्वेषपूर्वक अनु. कंपा की जाय, उसकी निंदा है। __ अब, विशेष स्पष्ट करनेकी आवश्यकता ही नहीं है कि-पह निंदा अनुकंपा की नहीं, किन्तु राग-देष की है। लोकन, इस पग