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अच्छा, अभी एकाध बात और भी सुन लीजिये । तेरापंथयोंका एक यह भी सिद्धान्त है कि - " कोई मनुष्य आकरके साधुके गले में फांसी दे गया हो, और साधुजी बडे कष्ट पाते हों, तो भी साधुजीके गलेमेंसे फांसी नहीं खोलनी चाहिये । " खूब कहा । साधुजीकी फांसी खोलने में कौनसा पाप लग जाता है ? | यदि यह कहा जाय कि - ' साधुजी महाराज अपने कर्मों को भोग रहे हैं, उसमें अन्तराय नहीं करनी चाहिये ।' लेकिन, यह कहना बिलकुल असत्य है । क्योंकि - यदि ऐसा ही है तो फिर हम तेरापंथियोंसे पूछते हैं कि तुम अपने साधु साध्वियोंको आहारपानी क्यों देते हो ? उनको अपने कमोंको भोगने दीजिये । मालमसाले और पानी देकर के, कर्मोंको भोगने में अन्तराय क्यों करते हो ? | जब तुम्हारे साधु-साध्वी बीमार पडते हैं, तब डॉक्टर या वैद्यके लिये दौड़-धूप क्यों करते हो ? । उनको अपने कर्मों को अच्छी तरह भोगने दीजिये । तब कहना ही होगा कि- साधु मुनिराज इस बातको न चाहें कि-' मेरी फांसी कोई खोले ' । परन्तु गृहस्थोंका यह धर्म है कि फांसीको खोल करके साधुकोशाता पहुँचावे । जैसे, उत्तराध्ययनसूत्रके, ३५ अध्ययन, पृ० १०१२ में कहा है कि -
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" अचणं सेवणं चैव वंदणं पूयणं तहा ।
इडीसक्कारसम्प्राणं मणसावि न पत्थए " ॥ १८ ॥
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अर्थात् – साधु, अपना, अर्चन, सेवन, वंदन, पूजन तथा ऋद्धि, सत्कार-सम्मान, इनकी मनसे भी अभिलाषा ने करे । फिर वचन - काय की तो बातही क्या ? )
न चाहे, तिसपर भी
अब बतलाईये, साधु, वंदन - पूजनको उसको गृहस्थ लोग बंदन-पूजन करते हैं, उस समय निषेध नहीं