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१२७ २ अनर्थ कर बैठे हैं । जीव एकेन्द्रियसे ले करके पंचेन्द्रिय पर्यन्त होते हैं । और एक एक इन्द्रियके बढते जानेसे उनका पुण्य भी बढता जाता है । अर्थात् एकेन्द्रियसे बेइन्द्रियका. बेइन्द्रियसे ते इन्द्रियका, तेइन्द्रियसे चउरिन्द्रियका, और चउरिन्द्रियसे पंचन्द्रियका पुण्य कई गुना अधिक है । पंचेन्द्रियमें भी सबका समान नहीं । ज्यों २ अधिकार बढता जाता है, त्यों २ पुण्यमें भी आधिक्य माना जाता है । जैसे आचारांगनियुक्तिमे कहा है: - " सत्तविराहणपावं असंखगुणीयस्स एगभूयस्स।
भूयस्साणंतगुणं पावं इक्कस्स पाणस्स ॥ १॥ बेदिय तेइंदिय चउरिदिय तहेय चेव पंचिंदी।
लक्खसहस्सा तह सय गुणंतपावं मुणेयव्वं " ॥ २ ॥ अर्थात्-असंख्यातगुणे पृथ्वी-अप्-तेज-वाऊ कायके सत्त्वोंके हननेसे एक वनस्पति कायके भूतको हननेका पाप लगता है । और . अनन्तगुणे भूत वनस्पतिकायके हननेसे एक बेइंद्रिय प्राणके हननेका पाप लगता है । लक्ष बेइंद्रियके विनाशसे एक तेइन्द्रियके हननेका पाप लगता है । हजार तेइन्द्रियके विनाशसे एक चरिंद्रियका पाप लगता है । सौ चउ िद्रियके नाशसे एक पंचोंद्रियका पाप लगे।
कहनेका मतलब यह है कि इस प्रकार जीवाके भेदोंको समझ करके ही साधुको ऐसे कार्यों में प्रवृति करनेकी है । साथ ही साथ दूसरी बात यह भी है कि-साधुको लाभालाभ भी देखना चाहिये अमुक कार्यके करनेसे कितना लाभ है ? और कितना नुकशान ? इसको भी अवश्य सोचना चाहिये । यदि इन बातोंको विना सोचे, विना समझे, सभी विषयोंमें समभावकी ही माला जपने लग जाय,