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दिखलाई होती, तो कोलुणपडियाए ' पाठ न होता, किन्तु 'अणुकंपवणहार' ऐसा पाठ होता, और ऐसा है तो नहीं । तब कहना होगा कि-यह प्रायश्चित्त इसी लिये दिखलाया है किसाधुको भिक्षाके लिये किसी प्रकारकी मूर्छा रखनेका निषेध होनेपर मूर्छा की और दूसरे अपने भिक्षाके स्वार्थके लिये गृहस्थका काम किया । - इस लिये निशीथके उपर्युक्त पाठको ले करके तेरापंथी अनुकंपाका निषेध करते हैं, यह भी उनका भ्रमप्रदर्शक ही है ।
अच्छा एक और पाठको भी देख लीजिये । भगवतीसूत्रके श० ८, उ० ६, पत्र ६१० से ६१२ में इस प्रकारके तीन पाठ हैं:
" समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभे माणस्स किं कजइ ? गोयमा ! एगंतसो से निजरा कजइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ ।" ___“समणोवासगस्स णं भंते ! तहा रूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभे माणस्स किं कजइ ? गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कजइ,
अप्पतराए से पावे कम्मे कजइ।" ___“ समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं असंजयअविरयअप. डिहयपञ्चक्खायपारकम्मे फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा अणेमणिज्जेण वा असणपाणनाव किं कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जा, नथि से काइ निम्जरा कज्जइ।" ... उपर्युक्त पाठोंके अर्थ ये हैं।