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पहिलेके दो पाठोंमें, दान देनेवालेका नाम श्रमणोपासक रक्खा है, वैसे ही तीसरे पाठमें भी श्रमणोपासक ही दिखलाया है । इसी प्रकार, जैसे प्रथमके दो पाठोंमें 'पडिलाभेमाणे किं कजई ? ' यह प्रश्न किया गया है, वैसे ही तीसरे पाठमें भी पडिलाभेमाणे किं कजई ? ' यही प्रश्न किया गया है। . अब विचारनेकी बात है कि-'पडिलाभे माणे' यह शब्दप्रयोग वहाँ ही होता है,जहाँ पूज्यबुद्धिसे-गुरुबुद्धिसे दान दिया जाता है । और जहाँ अनुकंपाकी बुद्धि होती है, वहाँ ' पंडिलाभेमाणे' यह शब्द कहा ही नहीं जाता है । सूत्रोंमें जहाँ २ दानशालाओं वगैरहके कार्य दिखलाए हुए हैं, जोकि खास अनुकंपाकी बुद्धिसे किये जाते हैं, वहाँ 'पडिलाभेमाणे ' यह शब्द मिलता ही नहीं है।
प्रचलित व्यवहारपर ख्याल करनेसे भी मालूम हो सकता है कि. जैसे साधु-मुनिराजको यह कहा जाता है कि-महाराज ' लाभ दीजिये' वैसे किसी रंक-दुर्बल-दुःखी मनुष्यको कुछ देनेकी इच्छा होती है, तब यह कहा नहीं जाता है कि आप लाभ दीजिये' । क्योंकि, यहाँ ' अनुकंपा ' का प्रसंग है, और साधु-मुनिराजको, देनेके समय गुरुत्वबुद्धिका--सुपात्रदानका प्रसंग है।
तब कहना होगा-मानना पडेगा कि-तीसरे पाठमें भी प्रसंग तो मोक्षार्थदान ही है, परन्तु, असंयती-अव्रती होनेपर भी उसमें गुरुत्वबुद्धि-पात्रबुद्धि रख करके देनेसे एकान्त पाप दिखलाया है। और अनुकंपा दानके लिये तो पात्रापात्रके विचार ही करनेकी आवश्यकता नहीं दिखलाई है, तो फिर निषेध करनेकी तो बात ही क्या ? जिसकी पुष्टि हम पहिले अच्छी तरह कर आए हैं, इस लिये पुनः लिखनेकी आवश्यकता ही क्या है ?