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"हे भगवन् ! तथारूप श्रमण माहणको फासुएषणीय, अशनपानखादिम-स्वादिम देनेले श्रमणोपासकको क्या होता है ? , हे गौतम! एकान्त निर्जरा होती है, पाप कर्म नहीं होता है।"
"हे भगवन् तथारूप श्रमण--माहगको अफासु, अनेषणीय अशन-पान-खादिम--स्वादिम देनेसे श्रमणोपालकको क्या होता है ?, हे गौतम ! बहुत निर्जरा होती है और अल्पतर पापकर्म होता है।" ___" हे भगवन् ! तथारूप असंयती-अविरती तथा जिसने प्रत्या. ख्यान करके पापकर्मको दूर नहीं किया है, ऐसेको, अर्थात् अप्रत्याख्यानीको, फासु या अफासु, एषीय या अनेषणीय, अशनपान-खादिम-स्वादिम देनेसे, श्रमणोपासकको क्या होता है ? हे गौतम ! एकान्त पाप कर्म होता है, निर्जरा बिलकुल नहीं होती है।" _ अब तेरापंथीलोग, इन तीनों प.ठों में से प्रथमके दो पाठोंको छिपा करके तीसरे पाठको आगे करते हैं । और कहते हैं कि' देखो भगवतीसूत्रमें भी असंयती-अविरतीको दान देनेसे एकान्त पाप दिखलाया है । ' परन्तु इन तीनों पाठोंमें, जोकि एक साथ दिये हुए हैं, बडा भारी रहस्य रहा हुआ है। वह यह है उपयुक्त तीनों पाठ मोक्षफलकी विवक्षासे दिये हुए हैं। क्योंकि यहाँ सुपात्रदानकी बात चली है। और जो सुपात्र दान होता है, उसका फल मोक्ष दिखलाया है । और यही बात भगवान् टीकाकारने भी यों लिखी है:__“ सूत्रत्रयेणापि चानेन मोक्षार्थमेव यदानं तच्चिन्तितं, यत्पु. नरनुकम्पादानमौचित्यदानं वा तन्नचिन्तितम् ” (प० ६१२) ___ अर्थात्-उपर्युक्त तीनों सूत्रोंसे मोक्षार्थ दानका ही विचार किया गया है । और अनुकम्पा और उचितदान की यहांपर चिन्ता नही