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अर्थात्-कृपण, अनाथ, दरिद्र, दु ख प्राप्त और रोग-शोकसे हनाये हुको दया से जो दिया जाता है, वह अनुकंपादान है ।
अब बालाईये, ऐसे अनुकंपा दानका क्योंकर निषेध हो । सकता है ? फिर आगे चलीये ।
उत्तरध्ययन सूत्रके २१ वे अध्ययनमें कहा है कि:
" सव्वेहिं भूएहि दयाणुकंपी खंतीखमे संजयवंभयारी । सावज्जजोगं परिवज्जयंतो चरिज्ज भिक्खू सुसमाहि इंदिए॥१३॥
. (पृ० ६४५ ) अर्थात्-समस्त भूतोंमें हितोपदेशरूप दया करके, अनुकंपा करनेका स्वभावबाला, तत्त्वींचतवनरूप क्षान्ति करके दुर्वचनताडनादि रूप उपसर्गोको सहन करनेवाला, संयमी, ब्रह्मचारी, सावद्ययोगोंका परित्याग करनेवाला और वशीकृत है इन्द्रियाँ जिसकी ऐसा होके साधु विचरे । ___ अब देखिये, इस गाथामें समस्त जीवोंकी अनुकंपा करनेका
और हित वांछनेका कहा । फिर भी अनुकंपाका निषेध हो, यह बडे आश्चर्य की बात है। ___ कदाचित् कोई यह कहे कि-" उपर्युक्त गाथामें तो अनुकंपा करनेको कहा, परन्तु दुःखी जीवोंको दुःखसे मुक्त करनेका और शाता उपजानेको तो नहीं कहा ? । '' लेकिन नहीं, यह भूल है । जीवको नहीं मारना, उसीका नाम अनुकंपा-दया नहीं। है, किन्तु जीवकी रक्षा करना-बचाना--दुःखमेंसे मुक्त करना इसका नाम अनुकंपा-दया है । अगर ऐसा न होता तो, भगवान् भगवतीसूत्रके सातवें शतकके छठवें उद्देशे में, प्राणातिपात, प्राणातिपातविरमण, प्राणानुकंपा और परपीड़न इन चार प्रकारके कारणोंसे चार प्रकारके कर्म रूप कार्य कभी न दिखलाते । क्यों-.