________________
१३२ द्वेषकी निंदासे, यह कभी नहीं निकल सकता है कि-करुणा बुद्धिसे असंयती जीवोंपर अनुकंपा नहीं करनी चाहिये । .. उपर्युक्त गाथाके, 'वंदारुवृति ' 'श्राद्धप्रतिक्रमणवृति, धर्मसंग्रहवृत्ति' वगैरह ग्रंथों में तीन प्रकारके अर्थ किये हैं, परन्तु उन तीनों प्रकारके अर्थोमें ' राग-द्वेषकी ही निंदा-गर्दा' होनेसे ती. . नों से एक ही अर्थ यहाँ पर दिया गया है । विशेष जाननेकी इ. छछा होवे, वे उन ग्रन्थोंको देख सकते हैं ।
जब मनुष्यका, येन केन प्रकारेण अपनी बातके रखनेका हो इरादा होता है, तब यह शब्दार्थ वा प्रकरणके ऊपर खयाल नहीं रखता है । यही हाल तेरापंथियों का भी है । तेरापंथी कहते हैं कि___ "भगवतीसूत्रके आठवें शतकके पांचवें उद्देशे में असंयतिके पोष. णका निषेध किया है । " लेकिन यह बिलकुल असत्य बात है । सेरापंथी उस प्रसंगको समझे ही नहीं है | बात यह है:
भगवतीसूत्रके आठवें शतकके पांचवें उद्देशेमें, पनरह कर्मादानोंका प्रसंग चला है। उन पनरहकर्मादानोंमें 'असईपोसणया' ऐसा भी नाम है । देखिये वह पाठः__ "ईगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे ,भाडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे केसवाणिज्जे रसवाणिज्जे विसवाणिज्ने जंतपीलकम्मे निलंछण कम्मे दवगिदावणिया सरदहतलावपरिसोसणया असईपोसणया " (पत्र ६०९)
इन पनरह कर्मादारोंमें, पनरहवाँ 'असईयोसणया' दिखलाया है। इसका अर्थ 'असंयतीका पोषग' नहीं होता है, किन्तु 'अ. सतीका पोषण ' होता है। और इस असतीके पोषण करने के लिये भगवान्ने निषेध फरमाया. है । अर्थात् जैसे चौदह प्रकारोंके व्या-.
TT ON