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पारोंका भगवान्ने निषेध फरमाया, वैसे ' असती' के व्यापारका भी निषेध दिखलाया । जैसे कोई मनुष्य, अनेक दासियोंको रक्खे, और उनको किराये पर दूसरों को दे कर पैसा पैदा करे, इस व्यापारका निषेध किया है । और टीकाकार भगवान्ने भी ' असबपोस णया' का यही अर्थ किया है कि:
" दास्यास्तद्भाटीग्रहणाय, जनेन च कुक्कुटमार्जारादिशुद्ध जीवपोषणमप्याक्षितं दृश्यमिति "
टीका कार भगवान्ने दासी के उपरान्त कुक्कुटमार्जारादि क्षुद्रजीवोंके पोषणका भी ग्रहण कर लिया है । ठीक है, यह व्यापार भी निंदनीय ही है । अब यहाँपर असंयतीके पोषणका प्रसंग हो क्या है ?
विचारने की बात है कि-उपर्युक, पनरहकर्मादान, श्रावकके सातवें व्रत भेोगोपभोग के अतिचारमें गिनाए हैं। और 'अईपोसणया' का अर्थ कदावित् 'असंयतीका पोषण' किया जाय, तो आनन्दादि जिन २ श्रावकोंने बारहवत अंगीकार किये थे,. उनकी करणीमें असंयतीका पोषण होगा ही नहीं चाहिये । लेकिन . 'हम जब उनकी करगीको देखों हैं, तब तो हमें मालूम होता है कि-उन व्रतधारी श्रावकोंने भी गाय-भेस-बैल वगैरह पशुओंका रक्षण किया है और दास-दासियोंका भी पोषण किया है अब बतलाईये कि, बारह व्रतधारी होनेपर- उन्होंने, उन असंयतीयोंका पोषण क्यों किया ? । लेकिन, नहीं, कहना होगा कि, यहाँपर ' असईपोसणया ' का अर्थ, 'असंयतीका पोषण' नहीं हैं, किन्सु · असतीका पोषण' है। और असतीपोषण' व्यापार निमित्त किया जाय, तब ही वह पनाह कर्मादानों के अन्दर