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किया जाता है, बस, इसी प्रकार साधु, यद्यपि फांसी खुलवाने की भावना न करे, तो भी गृहस्थोंका धर्म है कि साधुकी फांसी खोलें ।
संसार में देखतेसे मालुम होता है कि मनुष्य ही नहीं, बल्कि प्राणि मात्र अपने २ प्राकृतिक स्वाभाविक धर्मोको पालन करते ही हैं । इसकी दृढताके लिये, पाठक, एक छोटेसे दृष्टान्तको यहाँ सुन ले 1
" एक समयकी बात है । एक बिछू, अत्यन्त उष्ण रेतीमें पडा हुआ बहुत कष्ट पा रहा था । एक छोटे लडकेने उसको देखा । और लडके का बचपन से यह शिक्षा मिली हुई थी कि कोई भी जीव यदि कष्ट पा रहा हो, तो उसको कष्टसे मुक्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये । लडकेने झटसे बिछूको पकडा, और छायामें रख दिया । कहने की आवश्यक्ता नहीं है कि बिछूका क्या स्वभाव होता है ? । लडकेने ज्योंही बिछूको पकडा, त्योंही उसके हाथमें डंक मारा । थोडी देर के बाद वही बिछू फिर उष्ण रेतीमें आ गया और दुःखी होने लगा । दूसही दफे भी लडकेने उठा कर छाया में रख दिया, और बिछूने काटा भी । ऐसे तीन बार लडकेने बिछूको उठाया, और तीनों बार बिछूने काटा। उस समय वहाँ एक मनुष्य खडा था, उसने उस लडके से कहा- अरे ! यह क्या तेरेको सूझा है ? | तीनोंदफे तुझको बिछूने काट खाया, लेकिन फिर भी तू उसको उठा उठा कर अलग रखता है ? । तब उस लडकेने यही जवाब दिया, कि' देखिये बिछू जैसा प्राणी भी अपने स्वाभाविक धर्मको नहीं छोड़ता है,' तो भला, मैं मनुष्य हो करके, अपने स्वाभाविक धर्मको कैसे छोड़ सकता । अर्थात् बिछू, अपने काटनेके धर्मको पालन कर