SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२९ 1 अच्छा, अभी एकाध बात और भी सुन लीजिये । तेरापंथयोंका एक यह भी सिद्धान्त है कि - " कोई मनुष्य आकरके साधुके गले में फांसी दे गया हो, और साधुजी बडे कष्ट पाते हों, तो भी साधुजीके गलेमेंसे फांसी नहीं खोलनी चाहिये । " खूब कहा । साधुजीकी फांसी खोलने में कौनसा पाप लग जाता है ? | यदि यह कहा जाय कि - ' साधुजी महाराज अपने कर्मों को भोग रहे हैं, उसमें अन्तराय नहीं करनी चाहिये ।' लेकिन, यह कहना बिलकुल असत्य है । क्योंकि - यदि ऐसा ही है तो फिर हम तेरापंथियोंसे पूछते हैं कि तुम अपने साधु साध्वियोंको आहारपानी क्यों देते हो ? उनको अपने कमोंको भोगने दीजिये । मालमसाले और पानी देकर के, कर्मोंको भोगने में अन्तराय क्यों करते हो ? | जब तुम्हारे साधु-साध्वी बीमार पडते हैं, तब डॉक्टर या वैद्यके लिये दौड़-धूप क्यों करते हो ? । उनको अपने कर्मों को अच्छी तरह भोगने दीजिये । तब कहना ही होगा कि- साधु मुनिराज इस बातको न चाहें कि-' मेरी फांसी कोई खोले ' । परन्तु गृहस्थोंका यह धर्म है कि फांसीको खोल करके साधुकोशाता पहुँचावे । जैसे, उत्तराध्ययनसूत्रके, ३५ अध्ययन, पृ० १०१२ में कहा है कि - " -- " अचणं सेवणं चैव वंदणं पूयणं तहा । इडीसक्कारसम्प्राणं मणसावि न पत्थए " ॥ १८ ॥ - अर्थात् – साधु, अपना, अर्चन, सेवन, वंदन, पूजन तथा ऋद्धि, सत्कार-सम्मान, इनकी मनसे भी अभिलाषा ने करे । फिर वचन - काय की तो बातही क्या ? ) न चाहे, तिसपर भी अब बतलाईये, साधु, वंदन - पूजनको उसको गृहस्थ लोग बंदन-पूजन करते हैं, उस समय निषेध नहीं
SR No.007294
Book TitleTerapanthi Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherAbhaychand Bhagwan Gandhi
Publication Year1915
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy