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चाहिये | तब कहना ही होगा कि प्रत्येक कार्यमें लाभालाभ देखा जाता है । जैसे किसी मनुष्यने एक लाख रुपयोंका व्यापार किया। उसमें उसको पांचसौ रुपये महसूलके भी लग जाते हैं, परन्तु व्यापारी इन पांचसौ रुपयों के खर्चको नहीं देखता है, किन्तु इस व्यापार में, इसको जो दश-पांच पचीस हजारका फायदा होनेवाला होता है, उसीको देखता है। बस इसी तरहसे, धर्मके कार्यों में भी कथंचित् हिंसाका दोष लग भी जाय, तो भी विशेष लाभ की दृष्टिसे इसकी गिनती नहीं की जा सकती है । और वह हिंसा भी, स्वरूप हिंसा है, अनुबंध हिंसा नहीं । और जो स्वरूप हिंसा होती है, उसमें पाप बन्ध नहीं होता है ।
जो मनुष्य जिस विषयको अच्छी तरह समझा ही नहीं है, वह यदि उस विषयकी चर्चा करने लग जाय, अथवा यों ही कहिये कि - विना समझे ही अनधिकार चर्चा में प्रवेश करे, तो उसको बातबा में ठोकरें खानी पडती हैं। तेरापंथ-मतके उत्पादक भीखमजी, दया- अनुकंपाका स्वरूप नहीं समझ करके ही अनुकंपाकारास लिखने बैठे मालूम होते हैं । अगर ऐसा न होता. तो वे नववीं ढालमें दयाका अनुकंपाका स्वरूप ऐसा दिखलाते ही क्यों कि :
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"जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंसा मनि जाण । मारण वालाने हिंसा कही नही मारे हो तेतो दयागुणषाण " ॥ ११ ॥
हमने मान लिया कि मारनेवालेको हिंसा कही । परन्तु जो न मारे, उसको दया नहीं कही है। हम तेरापंथियों से पूछले हैं कि
एक मनुष्य जंगल में शिकार खेलनेको गया है। उसके रोमरोममें किसी पशुके मारनेका परिणाम हो रहा है, लेकिन बह