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कहाँ तक लिखें, सूयगडांगसूत्र में ऐसे ऐसे अनेकों स्थानमें असंयमजीवितव्यके नहीं चाहनेके लिये पाठ मिलते हैं। परन्तु इससे दयाका निषेध कैसे हो सकता है ?। क्योंकि-उपर्युक्त प्रसंगोंमें और अन्य प्रसंगोंमें असंयमजीवितव्यके नहीं चाहनेकी बात आई है, किन्तु यह बात नहीं आई है कि-'असंयती दुःखी जीवोंको न बचाना।'
सूत्रोंका रहस्य तो यह है, और तेरापंथी इसको ले बैठे कि' असंयतजीवाका जीना ही नहीं चाहना ।' अर्थात् ' कोई असंयत जीव, कष्टोंसे मर रहा तो उसको नहीं बचाना ।' कैसा उत्तम (!) तत्त्वनिकाला ?। बुद्धिमत्ताका है कुछ ठिकाना ?। यह सूत्रोंमें कहा ही कब कि-कोई असंयती जीव मरता हो तो उसको न बचावो ? । परन्तु ठीक है, जिनके हृदय दयासे करुणासे-अनुकंपासे शून्य हो गये हो, वे मजेसे दुःखी जीवोंके दुःख देखते रहे इसमें आश्चर्य ही क्या है । ___ शायद यहाँपर कोई यह शंका करे कि-जब साधु, अपने ही असंयतजीवनको नहीं चाहता है, तो फिर अन्य जीवोंका असंयतजीवन क्यों चाहे ? ।' ___ ठीक है, इस बातको तो हम भी स्वीकार करते हैं। साधु ऐसा चाहे हो क्योंकि दुनियाके प्राणी असंयत रहें ? साधुओंकी तो हमेशाक लिये यह भावना रहती है कि-'दुनियाके समस्त प्राणी, संयती-संयमी-व्रती-साधु-मुमुक्षु हो जाँय और उनका मोक्ष हो।' परन्तु ऐसा मानकरके, दुःखी प्राणीको बचानेकी कोशिश क्यों न करे ? । क्या नेमनाथप्रभु, पार्श्वनाथ प्रभु तथा श्रीमहावीरस्वामि, कि जिन्होंने जीवोंको बचाए हैं, वे जीवोंका असंयतजीवन चाहते थे?। जब नहीं चाहते थे, तो फिर भी उन्होंने क्यों