________________
. ११७ "धन देराने परमाणने, क्रोधादिक हो अठारेइ सेवाय, एहजि कामां पोते करी, परजीवांने हो मरतां राषेताह" ॥२२॥ " जीव मारी जीव राषणा, सूतरमें हो नहीं भगवंत वेण, ऊंधो पंथ कुगुरांचलावियो, शुद्ध न मुझे हो फूटा अंतर नेण"॥२५॥ __ ये दोनों बातें मतिभ्रमसे लिखी हुई मालूम होती हैं । द्रव्य दे करके जीवोंको बचानेमें नुकशान कौनसा है ? यह पहिले सोचना चाहिये । हमारी दृष्टिसेतो इसमें दो प्रकारके लाभ देखे जाते हैं। एकतो उतने, द्रव्यपरसे मूर्छा कम होनेका और जीवके बचानेका । फिर द्रव्य देकरके क्यों न बचाना ? । और ऐसे तुच्छ बिचार तो अज्ञानी लोग ही कर सकते हैं कि-'रुपये दे करके जीवोंको छुडाये जायेंगे, तो उन रुपयोंके और जीव ला करके मारेगा।' जिसके हृदयमें दया देवीने निवास किया है, वह मनुष्य, अपने सामने मरते हुए जीवको कभी नहीं देख सकेगा । बचानेवालेका अभिप्राय तो उस मरते हुए जीवको बचानेका ही होता है । नकि रुपये दे करके और जीवोंके मरानेका । यदि द्रव्य व्ययसे जीवोंके बचानेका निषेध ही करते हो तो हम उन तेरापंथियोंसे पूछते हैं कि, आपके साधु-साध्धियाँ, जीवोंको बचानेके लिये जिन उपकरणोंको रखते हैं, वे क्या द्रव्यव्ययके सिवाय आते हैं । तुम्हारे साधु-साध्वी जब बीमार पड़ते हैं, तब उनकी डॉक्टर-वैद्योंसे दवाई करवातेमें क्या द्रव्यव्यय नहीं होता है ? । फिर क्यों कर कह सकते हैं कि-जी. वोंके बचानेमें द्रव्यव्यय नहीं करना चाहिये । ___ अब रही जीव मारकर जीव बचानेकी बात । सो यह भी ठीक नहीं है । जीवोंके मारनेकी बुद्धिसे जीव बचाये नहीं जाते हैं। किन्तु उस समय जीवोंके बचानेके ही परिणाम होते हैं।