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११५ दिकोमें द्रव्यव्यय भक्तिसे नहीं किया जाता है। भक्तिपूर्वक तो सातक्षेत्रोंमें ही यथोचित दान कहा है। और अतिदीनादिमें तो पात्र-कुपात्र, कल्पनीय-अकल्पनीय वगैरह विचारों को छोड केवल दया-करुणा-अनुकंपासे ही स्वधनका व्यय करना योग्य है ।
और इसी तरह भगवान् भी दीक्षा लेनेके समय पात्रापात्रका विभाग नहीं करके करुणासे सांवत्सरिक दान देते हैं । कहनेका सार यह है कि-भक्तिसे सातक्षेत्रोंमें, दयासे दीनोंमें जो धनव्यय करे उसीका नाम महाश्रावक है। . अब बतलाईये, तेरापंथियोंका सिद्धान्त कैसे शास्त्रोक्त कहा जा सकता है ? । स्वबुद्धिसे भी कोई यह कहनेका साहस नहीं कर सकेगा कि-' श्रावकोंको पाप लगता ही नहीं' और 'किसीको खिलाना-पिलाना चाहिये ही नहीं । ' शास्त्रकार तो यह कहते हैं कि यदि दयासे गरीब मनुष्योंकी रक्षा न करे, तो उसको श्रावक ही नहीं कहा । और तेरापंथीयोंने तो श्रावकोंको यहाँतक छूट दे दी कि उनको कोई पाप ही न लगे । तब तो तेरापंथी साधुओंसे, तेरापंथी श्रावकोंकी मुक्ति पहिले हो जायगी। जब ऐसा ही है, तो फिर साधु क्यों हो जाते हैं ? । अस्तु, . इस चतुर्थ ढालमें भीषमजीने, यह भी बडे महत्त्वकी बात कहि है कि " किसीके वहाँ लाय लगी हो, तो उसको बुझानेके लिये नहीं जाना चाहिये । अगर लायके बुझानेमें फायदा होता हो, तो कसाईको मारदेने में भी फायदा ही होना चाहिये ।" : जैसे कहा है:"जो लाय बुझायां जीव वचे तो, कसाईने मायाँ बचे घणा माणो। लाय बुझायो कसाईने मायाँ दोयां रो लेखो सरीषो जाणो"॥५९॥