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११३ महीं, गृहस्थावस्थामें ही । तब फिर यह कैसे कहा-आय कि-गृहस्थ, कोई जीव मरता हो तो दिखावे ही नहीं ? | क्या भगवानने दया करना साधुओंके लिये ही कहा, गृहस्थोंके लिये नहीं ? । नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता है ? । भगवान्ने, जीवोंको बचाना-बचवाना यह मनुष्य मात्रके लिये कहा। फिर वह साधु होवे चाहे गृहस्थ । ___ प्यारे पाठक ! तेरापंथियोंका तो यहाँ तक सिद्धान्त है कि' श्रावक श्रावकको जीमावे, तो भी पाप लगे ।' अर्थात् एक दूसरेको खिलाना-पिलाना भी नहीं । खूब कही। क्या तेरापंथी इस बातको नहीं जानते हैं कि-श्रावक यदि शक्ति होनेपर साधर्मिकवात्सल्य न करे अर्थात् स्वधर्मीबन्धुओंको न जिमावे, तो दर्शनाचारका पालन नहीं हो सकता है । ( दर्शनातिचार लगता है ) देखिये पन्नवणा सूत्रका पाठः
" निसंकिय निकंखिय णिवित्तिगिच्छा अमूढदिट्टी य । उववूहथिरीकहणे वच्छल्लपभावणे अह" ॥ १४ ॥
(१० ६५) अर्थात्.-- १ समस्तप्रकारकी शंकाओंसे राहत पना, २ समस्त प्रकारकी कांक्षासे रहितपना, ३ फलप्राप्तिकी शंकासे राहित्य ( साधु विषयक दुर्गच्छा करके रहित, ऐसा भी अर्थ होता है) ४ अमूढद्दष्टि, अर्थात् अन्यदर्शनीय आडंबरसे चलायमान न होना, ५ उपवृंहण अर्थात् स्वधर्मीबन्धुकी प्रशंसा करनी, ६ स्थिरीकरण, यानि धर्मसे खेदित होते हुए को स्थिर करना, ७ वात्सल्य अर्थात् स्वधर्मियोंकी भक्ति करना, और ८ प्रभावना यानि धर्मोत्सवादि ।