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वास्तवमें, इससिद्धान्त के माननेमें जो मूलखाई है, उसका स्पष्ट खुलासाकर पाठकोंको सच्चा ज्ञान कराना, हम अपना कर्तव्य समझते हैं।
सूत्रोंमें बहुत जगह ऐसे पाठ आते हैं, कि - जिसका मतलब ऐसा होता है कि-' साधु, अंसयतजीवनको न चाहे । ' बस, इसी मतलबको ले करके तेरापंथी, अपने साधुओं को छोड करके, संसार में अन्य किसी जीवोंका जीना नहीं चाहते । परन्तु ऐसा माननेमें, तेरापंथियोंने कैसी भूल की है, इस बातको देखिये |
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पहिले सूयगडांगसूत्र को ही देखिये । सूयगडांगसूत्रके, प्रथम श्रुतस्कंधके तेरहवें अध्ययनमें इस प्रकारका पाठ है:" आहत्तहीयं सम्हमाणे सव्वेहिं पाणेहिं निहाय दंडे । णोजीवियं णो मरणाहिकखी परिव्वज्जा वलयाविधमुक्के "|२३| (पृष्ठ - ५०६ ) अर्थात् - यथातथ्यमार्गको जानता हुआ, समस्त प्रकार के जीवोंकी हिंसा से रहित, एवं जीवितव्य तथा मरणकी वांछा नहीं करता हुआ (साधु), संयम की पालना करे, और मिध्यात्व मोहसे विप्रमुक्त होवे |
अब, इस पाठ में जीना मरना नहीं चाहना कहा । लेकिन किसका ? साधु, अपना जीना मरना न चाहे । औरोंका नहीं । 1 क्योंकि - ' णो जीवियं णो मरणाहिकंखी ' यह साधुका ही विशेपण है ।
इसी प्रकार सूयगडांगसूत्रके, और पाठोंको भी देखिये | " निक्खम्म गेहाओ निरावकरंखी, कार्यं विउसेज्ज नियाण छिन्ने । णोजीवियं णो मरणावकखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुके ॥ २४ ॥
( प्र० श्रु०, अ० १०, पृ० ४१७ )