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कोई प्रसंग आ गया हो। हां, ऐसे प्रसंगमें, हम तुम्हारे जैसी निर्दयता नहीं रख सकते हैं।
आगे चलकर भीखमजी कहते हैं:"अवरती जीवांरो जीवणो चावे,तिण धरमरो परमारथ नहि पायो। सरधा अगिनानीरी पगपग अटके, ते न्याय सुणज्यो भवियण
चित्तल्यायो" ॥ १७॥ भीखमजीके कहनेका सार यह है कि-अव्रतीजीवांका जीनामरना नहीं चाहना चाहिये । लेकिन यह भीखमजीकी समझकी ही भूल है । यदि अवती-असंयती जीवांका जीना भी नहीं चाहना यह सिद्धान्त सही सही होता, तो आज संसारमें दयाका नाम तक रहने नहीं पाता । पार्श्वनाथ प्रभुने जलते हुए काष्ठमेंसे जिस सांपको निकलवाया था, वह क्या व्रती था ? । नेमनाथ भगवान्ने जिन पशुओंको बचाए थे, वे क्या व्रती थे ? । मेघरथ राजाने जिस कबूतरको बचाया था, वह क्या संयमी था ? । उतनी दूर क्यों जाना चाहिये ? । आप लोग ही, जिन वाउकायके जीवोंको बचानेके लिये मूंहपर पट्टी बांधते हो, वे क्या व्रती है ? । जिस जीवोंको बचानेके लिये आप लोग लंबासा ओघा ( रजोहरण ) रखते हैं, वे क्या व्रती हैं ? । तुम्हारे भोजनमें, जो मक्खी वगैरह जीव गिर जाते हैं, और उनको झटसे बाहर निकाल बचाते हो, वे क्या व्रती हैं ? । बल्कि यों ही क्यों न कह दिया जाय कि जिन जीवोंकी रक्षा करनेके लिये आप लोंगोंने घर छोडा है, वे क्या व्रती हैं?। कभी नहीं ? जब वे व्रती नहीं थे-संयमी नहीं थे, तो फिर, उन पूर्व पुरुषोंने ऐसी प्रवृत्ति क्योंकी ? और आपलोग क्यों करते हो ! । तब कहना पडेगा कि यह सिद्धान्त बिलकुल मनःकल्पित झूठा ही है।