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अब कहनेका मतलब यह है कि यहाँपर पुलणीपिताने भनुकंपाकी ही नहीं है । यहाँ तो मातापर इसको मोह उत्पन्न हुआ है।
और यह मोह, इस समय अर्थात् पौषधमें करनेका नहीं होनेसे तथा कोलाहलके करनेसे, इसका व्रतभंग दिखलाया है । नकि, अनुकंपाके करनेसे । क्योंक अनुकंपा तो यहाँ थी ही नहीं ।
चेडा और कोणिकके संग्राममें एक क्रोड, अस्सी लाख मनुष्य मरे, इनको बचानेके लिये, भगवान्ने अनुकंपा लाकर, साधुओंको न भेजे, अथवा स्वयं न पधारे, ऐसा जो कहा जाता है, यह भी अज्ञानताका ही कारण है। क्योंकि-पहिले तो तेरापंथी, ' अनुकंपा' को ही समझे नहीं हैं। अनुकंपा 'दुःखितेषु अपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छा' अर्थात्-अपक्षपातसे, दुःखोके दुःखके नाश करनेकी इच्छाको अनुकंपा कहते हैं । अब बतलाईये, यहाँपर अनुकंपाका कारण ही क्या है ? । एक राजा, दूसरेके राज्यलेनेकी इच्छासे अथवा ऐसे ही अन्य कारणोंसे जान-बूझ करके लडाई करता है। फिर इसमें अनुकंपाका क्या कारण रहा ? । और ऐसे तो क्या भरतराजाने साठ दजार वर्ष पर्यन्त युद्ध नहीं किया था ?। लेकिन ये प्रसंग अनुकंपाके नहीं गिने जा सकते हैं। दूसरी बात यह भी है कि-भगवान् तो स्वयं भावीपदार्थोंको जानते हैं, फिर इस प्रकार प्रवृत्तिं क्यों करें ?।
अब अन्तमें समुद्रपालका दृष्टान्त आगे किया है । समुद्रपाल, एक दिन गोखमें बैठा था, उससमय राजपुरुष, एक चोरको बांध करके वध करनेको ले जाते थे। इसको देखकर, समुद्रपालको परमवैराग्य हुआ, और पश्चात् वह साधु हो गया। तेरापंथी कहते हैं कि-समुद्रपालने दया लाकर उसको छुडाया क्यों नहीं ?