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लेकिन इस प्रसंगको समझना चाहिये। अनुकंपा दो प्रकारसे होती है। द्रव्यसे और भावसे । द्रव्यसे अनुकंपा वह कही जाती है कि जो शक्तिके रहते हुए दुःखका प्रतीकार किया जाय । भावसे दया वह है, कि जो दुःखीको देख करके आई हृदय हो जाय । हम कहते हैं कि-' समुद्रपालने, यहाँ अनुकंपा नहीं की ' ऐसे कहनेवाले झूठे हैं । इसने यहाँपर भावअनुकंपा की है। अगर इसने भावअनुकंपा नहीं की होती, तो इसको वैराग्य उत्पन्न होता ही नहीं, और न वह साधु ही होता । उस दुःखी मनुष्यको, जिसका कि वध होनेवाला था, देखकर इसका " हृदय जरूर आर्द्र हुआ । और इसीसे इसको वैराग्य भी हुआ । "हां, द्रव्यअनुकंपा, अपनी शक्ति नहीं होनेके कारणसे नहीं की। एक मनुष्य, कि जिसको किसी अपराधके कारण राज्यकी तर्फसे ही वध करनेका हुकम हुआ हो, उसको छुडाना साधारण मनु"ज्यका कार्य नहीं है । यह कार्य तो राजा ही कर सकता है ।
अन्य नहीं । ___ अब तीसरी ढालको देखिये । तीसरी ढालमें अनुकंपाके अनेक दृष्टान्तोंको दे करके बहुतसे दृष्टान्त जिनआज्ञामें कहे हैं, बहुत जिनआज्ञा बाहर । लेकिन इन प्रसंगोंको जब हम सूत्रोंमें देखते हैं, तब हमें कहीं यह प्राप्त नहीं होता कि-यह अनुकंपा जिनाज्ञा बाहर है । और वास्तवमें देखा जाय तो अनुकंपाका कार्य जिनाज्ञा वाहर हो ही नहीं सकता । कयोंकि-अनुकंपा तो स्वयं भगवान्ने ही की है, और दूसरोंको करनेके लिये फरमाया भी है । तो फिर यह जिनाज्ञा बाहर कैसे हो सकती है ?। तब, यही कहना पडेगा कि-तेरापंथियों ने अनुकंपाको मूलसे उठानेके लिये ही ऐसी स्वकल्पित घटना की है। देखिये,