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बस, जैसा हरिकशीमुनिका प्रसंग है, वैसा ही, हरिणैगमेषीदेवने, सुलसाकी अनुकंपासे, देवकीके छहों पुत्रोंको ला ला करके सुलसाके पास रक्खे हैं। यह भी प्रसंग है । यहाँपर भी हरिणैगमेषी देव, सुलसाका भक्त हुआ है। और इस भक्तिके कारण हीसे इसने, देवकीके छहों पुत्रोंको लाकर रक्खे हैं । इस लिये यह भी आज्ञा बाहर नहीं कहा जा सकता । यदि यह अनुकंपा-भक्ति आज्ञा बाहर होती, तो जिस समय देवकीने भगवानसे अपने पुत्रोंका वृत्तान्त पूछा है, उस समय भगवान्ने यह तो कहा ही नहीं है कि- हरिणैगमेषादेवने तेरे पुत्रोंको वहाँ रक्खे हैं. यह अनुचित किया है।' फिर इसको भाज्ञा बाहर कैसे कह सकते हैं ? ।
अच्छा, अब आईये धारिणीकी बातपर । तेरापंथी कहते हैं कि मेघकुमार जिस समय धारिणीकी कुक्षिमें आया, उस समय धारिणीने गर्भको अनुकंपासे इच्छित अशनादिकका आहार किया है । तेरापंथी इस अनुकंपाको आज्ञा बाहर कहते हैं।
हम तेरापंथियोंसे पूछते हैं कि-गर्भकी रक्षा करनेमें धारिणीका ही क्यों दृष्टान्त लिया गया ? । संसारमें ऐसी कौन स्त्री है किजो अपने गर्भकी रक्षा करनेके लिये प्रयत्न नहीं करती है ? फिर धारिणीने ही क्या गुन्हा किया कि-जो उसका दृष्टान्त आगे किया गया । औरोंकी बाततो जाने दीजिये । जिस समय तीर्थकर, माताकी कुक्षिमें आते हैं, उस समय तीर्थंकरकी माता भी, जिस प्रकार गर्भ को नुकसान न पहुँचे, तदनुकूल ही अशनादि आहार करती है, तो बतलाईये, यह किस आशयसे ? कहना होगा की गर्भकी अनुकंपाके आशयसे ही । तब तो फिर तीर्थकरोंकी माताकी अनुकंपाको भी आज्ञा बाहर कहना चाहिये ।