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लेकिन, यह कहो कि - भगवान् की उससमय यह दृष्टि नहीं थी कि - गोशालको बचाऊंगा तो पीछेसे ऐसा अनर्थ होगा ? भगवान् की दृष्टि सिर्फ किसी न किसी प्रकार से जीवको बचाने की ही थी । और इससे बचाया था । तभी तो हम कहते हैं किचाहे कैसा ही संसारमें पापोंको करनेवाला मनुष्य क्यों न हो, परन्तु वह भी अगर दुःखी अवस्था में हो, तो उसे बचानेके प्रयत्न अवश्य ही करने चाहियें ।
कदाचित् कोई यह कहे कि - ' भगवान्ने गोशालेको स्वीकार ही क्यों किया और बहुश्रुत ही क्यों किया, जो पीछेसे ऐसे अनथको करनेवाला हुआ ।' लेकिन यह कहना भी ठीक नहीं है । क्यों कि, भगवान् परम कृपालु थे । इसी लिये गोशालेको स्वीकृत और बहुश्रुत किया था । और साधु पुरुषों का कर्तव्य भी यही है कि-दूसरेकै हितकरनेमें तत्पर रहना । जैसे कहा है:
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" कस्याऽऽदेशात् क्षपयति तमः सप्तसप्तिः प्रजानां ! छायां कर्तुं पथि विटपिनामन्ञ्जलिः केन बद्धः ? | अभ्यर्थ्यन्ते नवजलमुचः केन वाः सृष्टिदेतो -
जस्यैवैते परतिविधौ साधवो बद्धकक्षाः
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परन्तु पछिसे गोशाला अपने दौर्भाग्य से उलटे रस्तेपर चला गया, तो उसमें भगवान् क्या करें ? । और एक यह भी बात हैं कि - होनहारके आगे किसीका कुछ नहीं चलता । इसी लिये तो हम पहिले कह आए हैं कि केवली भगवान्की प्रवृत्ति भी होनहारके अनुकूल हो होती है । यदि ऐसा न होता तो भगवान् ने, केवलज्ञान होनेके बाद भी जमालीको शिष्य ही क्यों किया, जो पीछे से भगवान्के शासन में निह्नव हुआ ? | क्या भगवान् यह नहीं जानते थे कि - ' यह निह्नव होगा ? । जानते थे, परन्तु होनहारका प्रतीकार नहीं हो सकता ।