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किसी प्रकारकी हानि नहीं। किन्तु लोग ही हैं। क्योंकि यहाँ बचानेवालेके ऐसे तुच्छ अभिप्राय नहीं होते हैं कि पक्षी पशु और बच्चा, ये जीएंगे तो खायगें- पीएंगे जंगल जाएंगे विषय सेवन करेंगे, वगैरह पापकर्म करेंगे इसका पाप हमें लगेगा ? । बचानेवालेका परिणाम जीव बचानेका ही होता है । और जैसा परिणाम होता है, वैसाही लाभ होता है, यह तो पहिले हा कहा जा चुका है ।
तेरापंथियोंने, दयाको (!) यहाँतक बढा कर कहा है कि:-. " गिरसतरे लागी लायो, घरबारे नीकलीयो न जायो । बलता जीब विलविल बोलै साधु जाय किंवार न पोलै" ॥५॥ ( अनुकंपारास, ढाल - ६ )
छी-छीं छीं, निर्दयता की हद आ चुकी । घरमें रहे हुए अनेकों मनुष्य अग्निसे जलनेके कारण चिल्लाहट कर रहे हों, लेकिन साधु मजेसे देखता रहे | कितनी निर्दयता ? कितनी कठोरता ? | ऐसे भी धर्मको, लोग संसारसे पार उतारनेवाला समझते हैं ? । क्याही लोगों की मूर्खता ? । भगवान् महावीरदेव, प्रभु पार्श्वनाथ वगैरह तीर्थकर, कि जिनको यह निश्चय है कि हमारी इसी भवमें मुक्ति होनेवाली है, वे तो अनुकंपासे जीवोंको बचावें, और इस तेरापंथीके साधु ( ! ) आनंदसे जीवोंको जलते हुए देखें | धन्य है इस पंथको ।
तेरापंथियोंने, इस अनुकंपाके विषय में, ऐसी तो ऊटपटांग बातें, विना समझे लिख मारी हैं, जिनको पढकर बुद्धिमान लोग - सिवाय उनपर तिरस्कार करनेके और कुछ नहीं कर सकते ।
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