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कहीं तो कह दिया 'यह अनुकंपा आज्ञामें है। कहीं कह दिया ' यह अनुकंपा आज्ञा बाहर है।' कहींपर मोहके प्रसंगोंको अनुकंपामें ला घुसाये, और कहीं भगवानपर ही चूकनेका कलंक लगा दिया । यही तो अनुकंपाके रासमें पचरंगी पडदे हैं । पहिले अनुकंपा रासकी दूसरी ढालको देखिये । इस ढालमें पहिले तो यही दिखलाया है कि" वंछे मरणो जीवणो, तो धर्मतणो नहि अंस ।
ए अणकंपा कीधां थकां, वधे कर्मनो वंस" ॥ १ ॥ मंगलाचरण क्याही अच्छा किया ? । जीवका मरना न चाहना यह तो ठीक, परन्तु जीना भी नहीं चाहना ? । अच्छा, तेरापंथी क्या यह भी कुछ कह सकते हैं, कि जीना मरना अपना नहीं चाहना, या दूसरे जीवोंका ? । अगर · अपना' कहेंगे, तो हमें बतादें कि-रोज खाते-पीते क्यों है ? । बीमार पड़ते हैं तब दवाई क्यों कराते हैं ? और टट्टी भी क्यों जाते हैं ! । क्या यह 'जीना नहीं चाहा ? । अच्छा अगर यह कहा जाय कि-दूसरे जीवोंका जीना मरना नही चाहना' तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि-यदि दूसरे जीवोंका जीना नहीं चाहते हैं तो, 'खुले मुंहसे बोलेंगे तो वायुकायके जीव मरेंगे ' ऐसा समझ कर मूंहपर पट्टी क्यों बांधते हैं ? । दालमें मक्खी गिर जाती है. तो उसको निकालते क्यों हैं ? । कपडोंमे जूएं पडती हैं तो उनको धीरेसे निकालकर अलग क्यों रखते हैं ?। कहिये इन कार्यों में जीवोंका जीना चाहा कि नहीं ? । यदि जीवोंका जीना नहीं ही चाहते हैं, तो फिर जो कुछ होवे सो होने ही देना चाहिये । और प्रयत्नोंके करनेकी आवश्यकताही क्या है ? । बल्कि हम तो यहांतक कह सकते हैं कि-उन लोगोंको चाहिये कि-दयाका नाम तक भी न