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अर्थात् तत्वको जानकर के, महावरिदेवन, स्वयं पाप किया नहीं, कराया नहीं और करनेवालेको अच्छा समझा नहीं हैं ।
इससे स्पष्ट मालूम होता है किया । अच्छा और देखिये । इसी के चतुर्थ उद्देशेमें पृ० १५२ में कहा है:
कि भगवान्ने कोई पाप नहीं आचारांग सूत्रके नववें अध्ययन
" अकसाती विगयगेही य, सदरुत्रेसु अपुच्छिए झाति । छउमत्थोकि विपरकममाणो ण पमायं सईपि कुव्विस्था ॥ १५ ॥
अर्थात्-कषायरहित, गृद्धि रहित और शब्दादिक विषयोंमें मूर्च्छा रहित भगवान्, हमेशा ध्यान मग्न रहते थे, और छडमस्थावस्थामें भी प्रबल पराक्रम करते हुए किसी समय प्रमाद नहीं करते थे ।
"
अब बतावें तेरापंथी, भगवान्के नहीं चूकनेके विषयमें अब भी कोई संशयकी बात रही ? । खास आचारांगसूत्रमें ही भगवान्की निर्दोषता - अप्रमादता खुलंखुल्ला लिखी है, तो फिर अन्य प्रमाणोंकी आवश्यकता ही क्या है ? |
यहाँपर तेरापंथी, एक इस कुतर्कको आगे करते हैं कि- "उपयुक्त पाठोंमें तो भगवान्के गुण कथन किये हैं। गुणकथनमें, अवगुणका वर्णन नहीं हो सकता । ऐसा कह कर कोणिकका दृष्टान्त देते हैं ।
"
लेकिन इनका यह कुतर्क और दृष्टान्त दोनों ही निरर्थक हैं । क्योंकि, श्रीसुधर्मास्वामीने, अपने आपसे भगवान् के गुण वर्णन नहीं किये हैं। जिस प्रकार भगवान्वे केवलज्ञान होने के पश्चात् फरमाया है, * राजकोट छपा ।